श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1029 गुरमुखि साधू सरणि तुमारी ॥ करि किरपा प्रभि पारि उतारी ॥ अगनि पाणी सागरु अति गहरा गुरु सतिगुरु पारि उतारा हे ॥२॥ पद्अर्थ: साधू = वह मनुष्य जिसने अपने मन को सुधार कर लिया है। प्रभि = प्रभु ने। अति = बहुत।2। अर्थ: हे प्रभु! जो मनुष्य गुरु के सन्मुख हो के तेरी शरण पड़ते हैं वे अपने मन को साधु लेते हैं (विकारों से रोक लेते हैं)। (जिस भी मनुष्य ने गुरु की ओर मुँह किया उसको) प्रभु ने मेहर करके संसार-समुंदर से पार लंघा लिया। यह संसार एक बड़ा ही गहरा समुंदर है इसमें पानी (की जगह विकारों की) आग (भड़क रही) है। इसमें से सतिगुरु ही पार लंघा सकता है।2। मनमुख अंधुले सोझी नाही ॥ आवहि जाहि मरहि मरि जाही ॥ पूरबि लिखिआ लेखु न मिटई जम दरि अंधु खुआरा हे ॥३॥ पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले लोग। मरहि = आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं। दरि = दर पे। अंधु = माया के मोह में अंधा हुआ मनुष्य।3। अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले और माया के मोह में अंधे हुए लोगों को (इस तृष्णा-अग्नि के समुंदर की) समझ नहीं आती। वे जनम-मरण के चक्कर में पड़ते हैं और बार-बार आत्मिक मौत मरते हैं। (पर वे बिचारे भी क्या करें?) पिछले जन्मों-जन्मांतरों के किए कर्मों के संस्कारों के लिखे लेख (जो उनके मन में उकरे हुए हैं) मिटते नहीं। माया के मोह में अंधा हुआ जीव जम के दर पर दुखी हेता है।3। इकि आवहि जावहि घरि वासु न पावहि ॥ किरत के बाधे पाप कमावहि ॥ अंधुले सोझी बूझ न काई लोभु बुरा अहंकारा हे ॥४॥ पद्अर्थ: इकि = अनेक जीव। घरि = घर में, हृदय में, अंतरात्मे, आत्मिक अडोलता में। अंधुले = माया के मोह में अंधे हुए जीवों को।4। अर्थ: (इसी तरह माया के मोह में फंस के) अनेक ही जीव पैदा होते हैं मरते हैं, पैदा होते हैं मरते हैं, पर अपने अंतरात्मे अडोलता नहीं प्राप्त कर सकते। वे पिछले किए कर्मों के संस्कारों में बँधे हुए (और-और) पाप किए जाते हैं। माया का लोभ और अहंकार बड़ी बुरी बला है, इसमें अँधे हुए जीव को कोई सूझ-बूझ नहीं आ सकती (कि किस राह पर पड़ा हुआ है)।4। पिर बिनु किआ तिसु धन सीगारा ॥ पर पिर राती खसमु विसारा ॥ जिउ बेसुआ पूत बापु को कहीऐ तिउ फोकट कार विकारा हे ॥५॥ पद्अर्थ: धन = जीव-स्त्री। किआ = क्या लाभ? पिर = पति। को = कौन? फोकट = फोके, व्यर्थ।5। अर्थ: जो स्त्री, पति से विछुड़ी हुई हो उसका हार-श्रृंगार किस अर्थ का? उसने तो अपना पति बिसार रखा है और वह पराए मर्द से रंग-रलियाँ मनाती है। (ये हार-श्रृंगार उसको और भी ज्यादा नर्क में डालता है)। जैसे किसी वैश्या के पुत्र के पिता का नाम नहीं बताया जा सकता (वह जगत में हास्यास्पद ही होता है, इसी तरह पति-प्रभु से विछुड़ी हुई जीव-स्त्री के) और-और किये हुए कर्म फोके और विकार ही हैं (इनमें से उसे मायूसी ही मिलती है)।5। प्रेत पिंजर महि दूख घनेरे ॥ नरकि पचहि अगिआन अंधेरे ॥ धरम राइ की बाकी लीजै जिनि हरि का नामु विसारा हे ॥६॥ पद्अर्थ: पिंजर = शरीर। प्रेत = विकारी जीवात्मा। पचहि = दुखी होते हैं। लीजै = वसूल की जाती है। जिनि = जिस मनुष्य ने।6। अर्थ: (जो जीव प्रभु का नाम नहीं स्मरण करते वे, मानो, प्रेत-जून में हैं। उनके ये मानव शरीर भी प्रेत के रहने का पिंजर ही है) इन प्रेत-पिंजरों में वह बेअंत दुख सहते हैं। अज्ञानता के अंधकार में पड़ कर वह (आत्मिक मौत के) नर्क में दुखी होते हैं। जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम भुला दिया है (उसके सिर पर विकारों का कर्जा चढ़ जाता है, वह मनुष्य धर्मराज का करजाई हो जाता है) उससे धर्मराज के इस कर्जे की वसूली की जाती है (भाव, विकारों के कारण उसको दुख ही सहने पड़ते हैं)।6। सूरजु तपै अगनि बिखु झाला ॥ अपतु पसू मनमुखु बेताला ॥ आसा मनसा कूड़ु कमावहि रोगु बुरा बुरिआरा हे ॥७॥ पद्अर्थ: तपै = तपता है। झाला = आग की लपटें। अपतु = पत+हीन। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला। बेताला = भूतना।7। अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य, मानो, भूत है (मनुष्य-शरीर होते हुए भी अंतरात्मे) पशु है, उसे कहीं आदर नहीं मिलता। (मनमुख के अंदर, मानो, माया के मोह का) सूरज तपता रहता है, उसके अंदर विषौली तृष्णा-अग्नि की लपटें निकलती रहती हैं। जो लोग दुनियां की आशाओं और मन के मायावी फुरनों में फंस के माया के मोह की कमाई ही करते रहते हैं, उनको (मोह का यह) अत्यंत बुरा रोग चिपका रहता है।7। मसतकि भारु कलर सिरि भारा ॥ किउ करि भवजलु लंघसि पारा ॥ सतिगुरु बोहिथु आदि जुगादी राम नामि निसतारा हे ॥८॥ पद्अर्थ: मसतकि = माथे पर। सिरि = सिर पर। बोहिथु = जहाज। नामि = नाम से।8। अर्थ: जिस मनुष्य के माथे पर सिर पर (पापों के) कल्लर का बहुत सारा भार रखा हो, वह संसार-समुंदर में से कैसे पार लांघेगा? दुनिया के आरम्भ से ही जुगों में आदि से ही सतिगुरु जहाज है जो जीवों को परमात्मा के नाम में जोड़ के पार लंघा देता है।8। पुत्र कलत्र जगि हेतु पिआरा ॥ माइआ मोहु पसरिआ पासारा ॥ जम के फाहे सतिगुरि तोड़े गुरमुखि ततु बीचारा हे ॥९॥ पद्अर्थ: कलत्र = स्त्री। जगि = जगत में। हेतु = हित, मोह। पासारा = खिलारा। सतिगुरि = सतिगुरु ने।9। अर्थ: जगत में माया का मोह रूप पसारा पसरा हुआ है, (सब जीवों का) पुत्र से स्त्री से मोह है प्यार है (पर यह मोह आत्मिक मौत का कारण बनता है), इस आत्मिक मौत के फंदे सतिगुरु ने (उस मनुष्य के गले में) तोड़ डाले हैं जो गुरु के सन्मुख रह के मूल-प्रभु को अपने सोच-मण्डल में टिकाता है।9। कूड़ि मुठी चालै बहु राही ॥ मनमुखु दाझै पड़ि पड़ि भाही ॥ अम्रित नामु गुरू वड दाणा नामु जपहु सुख सारा हे ॥१०॥ पद्अर्थ: कूड़ि = माया के मोह में। दाझै = जलता है। पड़ि = पड़ कर। भाही = आग में। दाणा = दानशमंद, समझदार। सारा = श्रेष्ठ।10। अर्थ: जो जीव-स्त्री माया के मोह में (पड़ कर आत्मिक जीवन की पूंजी) लुटा बैठती है, वह (सही जीवन-राह से भटक के) कई और राहों में भटकती फिरती है। जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलता है वह तृष्णा की आग में पड़-पड़ कर जलता है (दुखी होता है)। (इस रोग से बचाने के लिए) गुरु (जो) बहुत समझदार (हकीम) है आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम देता है। (हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर) नाम जपो (इसी में) श्रेष्ठ सुख है।10। सतिगुरु तुठा सचु द्रिड़ाए ॥ सभि दुख मेटे मारगि पाए ॥ कंडा पाइ न गडई मूले जिसु सतिगुरु राखणहारा हे ॥११॥ पद्अर्थ: सभि = सारे। मारगि = रास्ते पर। कंडा = अहंकार का काँटा। पाइ = पाय, पैर में। गडई = चुभता। मूले = बिल्कुल।11। अर्थ: जिस मनुष्य पर गुरु प्रसन्न होता है उसके (हृदय में) सदा-स्थिर हरि-नाम पक्का कर देता है, उसके सारे दुख मिटा देता है, उसको जिंदगी के सही रास्ते पर डाल देता है। सतिगुरु जिस मनुष्य का रखवाला बनता है (जिंदगी के राहों में गुजरते हुए) उसके पैरों में काँटा नहीं चुभता (उसको अहंकार का काँटा दुखी नहीं करता)।11। खेहू खेह रलै तनु छीजै ॥ मनमुखु पाथरु सैलु न भीजै ॥ करण पलाव करे बहुतेरे नरकि सुरगि अवतारा हे ॥१२॥ पद्अर्थ: खेहू = राख में। छीजै = छिजता है, कमजोर होता है। सैलु = शैल, पत्थर, पहाड़। करण पलाव = (करुणाप्रलाप) तरले, दुहाई, तरस भरे विलाप। अवतारा = पैदा होता।12। अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य पत्थर दिल ही रहता है कभी (भक्ति-भाव में) नहीं भीगता, सारी उम्र माया के मोह में ही उसका शरीर आखिर नाश हो जाता है (उसका श्रेष्ठ मनुष्य जीवन) राख में मिल जाता है। (जीवन का समय बीत जाने पर अगर वह) बहुत सारे तरले भी करे (तो किसी अर्थ के नहीं) वह कभी नर्क में और कभी स्वर्ग में पैदा ही होता रहता है (भाव, जनम-मरण के चक्कर में पड़ कर दुख-सुख भोगता रहता है)।12। माइआ बिखु भुइअंगम नाले ॥ इनि दुबिधा घर बहुते गाले ॥ सतिगुर बाझहु प्रीति न उपजै भगति रते पतीआरा हे ॥१३॥ पद्अर्थ: बिखु = जहर। भुइअंगम = साँप। इनि = इस ने। पतीआरा = पतीजता।13। अर्थ: (गुरु की शरण पड़े बिना) माया के मोह-रूपी साँप का जहर जीवों के अंदर टिका रहता है (और जीवों को आत्मिक मौत मारता रहता है)। इसने दुविधा में डाल के अनेक घर गला दिए हैं (मोह ने प्रभु के बिना और ही आसरों की झाक में पड़ कर अनेक जीवन बर्बाद कर दिए हैं)। गुरु के बिना मनुष्य के हृदय में प्रभु-चरणों के प्रति प्रीति पैदा नहीं होती। जो मनुष्य (गुरु के द्वारा) परमात्मा के भक्ति-रंग में रंगे जाते हैं उनका मन प्रभु की याद में प्रसन्न रहता है।13। साकत माइआ कउ बहु धावहि ॥ नामु विसारि कहा सुखु पावहि ॥ त्रिहु गुण अंतरि खपहि खपावहि नाही पारि उतारा हे ॥१४॥ पद्अर्थ: साकत = माया ग्रसित मनुष्य। धावहि = दौड़ते हैं। विसारि = बिसार के।14। अर्थ: माया-ग्रसित जीव माया इकट्ठी करने की खातिर बहुत दौड़-भाग करते हैं (क्योंकि वे इसी में सुख तलाशने की आशा रखते हैं) पर परमात्मा का नाम भुला के आत्मिक आनंद कहाँ से ले सकते हैं? वे माया के तीन गुणों में ही फसे रह के दुखी होते हैं (और लोगों को भी) दुखी करते हैं। दुखों के इस समुंदर में से वे दूसरे छोर पर नहीं पहुँच सकते।14। कूकर सूकर कहीअहि कूड़िआरा ॥ भउकि मरहि भउ भउ भउ हारा ॥ मनि तनि झूठे कूड़ु कमावहि दुरमति दरगह हारा हे ॥१५॥ पद्अर्थ: कूकर = कुत्ते। सूकर = सूअर। भउकि = भौंक के। मरहि = आत्मिक मौत मरते हैं। भउ भउ भउ = भटक भटक के। हारा = थक जाते हैं।15। अर्थ: निरे झूठ के व्यापारी व्यक्ति (देखने में तो मनुष्य हैं, पर दरअसल वे) कुत्ते और सूअर ही (अपने आपको कहलवाते हैं) (क्योंकि कुक्तों और सूअरों की तरह माया की खातिर) भौंक-भौंक के आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं, सारी उम्र भटकते-भटकते थक टूट जाते हैं। उनके मन में माया का मोह, उनके शरीर में माया का मोह, सारी उम्र वह मोह की कमाई ही करते हैं। इस बुरी मति के पीछे लग के परमात्मा की दरगाह में वे जीवन-बाज़ी हार जाते हैं।15। सतिगुरु मिलै त मनूआ टेकै ॥ राम नामु दे सरणि परेकै ॥ हरि धनु नामु अमोलकु देवै हरि जसु दरगह पिआरा हे ॥१६॥ पद्अर्थ: टेकै = आसरा देता है। परेकै = पड़े हुए को।16। अर्थ: अगर सतिगुरु मिल जाए तो मनुष्य को परमात्मा का नाम दे के उसके (डोलते) मन को सहारा देता है। गुरु उसको परमात्मा का नाम-रूप अमूल्य (कीमती) धन देता है, परमात्मा की महिमा (की दाति) देता है (जिसकी इनायत से उसको) प्रभु की दरगाह में आदर-प्यार मिलता है।16। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |