श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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राम नामु साधू सरणाई ॥ सतिगुर बचनी गति मिति पाई ॥ नानक हरि जपि हरि मन मेरे हरि मेले मेलणहारा हे ॥१७॥३॥९॥

पद्अर्थ: सधू = गुरु। गति = हालत। मिति = मर्यादा। मन = हे मन!।17।

अर्थ: गुरु की शरण पड़ने से परमात्मा का नाम मिलता है। गुरु के वचनों पर चलने से ये समझ आ जाती है कि परमात्मा कैसा (दयालु) है और कितना बड़ा (बेअंत) है। हे नानक! (अपने मन को समझा और कह:) हे मेरे मन! परमात्मा का नाम जप (नाम जपने वाले भाग्यशाली को) मेलनहार प्रभु अपने चरणों में मिला देता है।17।3।9।

मारू महला १ ॥ घरि रहु रे मन मुगध इआने ॥ रामु जपहु अंतरगति धिआने ॥ लालच छोडि रचहु अपर्मपरि इउ पावहु मुकति दुआरा हे ॥१॥

पद्अर्थ: घरि = घर में, अपने आप में, अडोलता में। मुगध = हे मूर्ख! अंतरगति = अंदर ही टिके रह के। धिआने = ध्यान से, तवज्जो/ध्यान जोड़ के। रचहु = लीन रहो। अपरंपरि = अपरंपर (प्रभु) में, उस प्रभु में जो परे से परे है।1।

अर्थ: हे अंजान मूर्ख मन! अडोलता में टिका रह। अपने अंदर ही टिका रह के और तवज्जो जोड़ के प्रभु का नाम जप। (हे मन! माया का) लालच छोड़ के उस प्रभु में लीन रह जो परे से परे है (जिससे आगे कोई और हस्ती नहीं है)। इसी तरह तू (माया की लालच से) मुक्ति पाने का रास्ता तलाश लेगा।1।

जिसु बिसरिऐ जमु जोहणि लागै ॥ सभि सुख जाहि दुखा फुनि आगै ॥ राम नामु जपि गुरमुखि जीअड़े एहु परम ततु वीचारा हे ॥२॥

पद्अर्थ: जमु = मौत, आत्मिक मौत। जोहणि लागै = देखने लग पड़ता है। सभि = सारे। फुनि = दोबारा, उनकी जगह। आगै = जीवन-राह में। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। जीअड़े = हे जिंदे! परम ततु = सबसे बड़ा मूल्य, परमात्मा।2।

अर्थ: जिस प्रभु के भूल जाने से मौत घूरने लग जाती है सारे सुख दूर हो जाते हैं और उनकी जगह जीवन-पथ में दुख ही दुख पैदा हो जाते हैं, हे जिंदे! गुरु की शरण पड़ कर उस प्रभु का नाम जप, और जगत के मूल प्रभु को अपनी सोच-मण्डल में टिका के रख।2।

हरि हरि नामु जपहु रसु मीठा ॥ गुरमुखि हरि रसु अंतरि डीठा ॥ अहिनिसि राम रहहु रंगि राते एहु जपु तपु संजमु सारा हे ॥३॥

पद्अर्थ: अंतरि = (अपने) अंदर। अहि = दिन। निसि = रात। राम रंगि = परमात्मा के रंग में। सारा = श्रेष्ठ।3।

अर्थ: हे जिंदे! सदा परमात्मा का नाम जप (जपने से ही समझ पड़ेगी कि नाम जपने का) मीठा स्वाद है। गुरु की शरण पड़ कर ये नाम-रस अपने ही अंदर अनुभव किया जा सकता है। (हे भाई!) दिन-रात परमात्मा के नाम-रंग में रंगे रहो, ये नाम-रंग ही श्रेष्ठ जप है, श्रेष्ठ तप है, श्रेष्ठ संयम है।3।

राम नामु गुर बचनी बोलहु ॥ संत सभा महि इहु रसु टोलहु ॥ गुरमति खोजि लहहु घरु अपना बहुड़ि न गरभ मझारा हे ॥४॥

पद्अर्थ: टोलहु = ढूँढो। घरु = वह जगह जहाँ हमेशा टिके रह सकें। बहुड़ि = बार बार।4।

अर्थ: (हे भाई!) गुरु की वाणी के द्वारा परमात्मा का नाम स्मरण करो (आत्मिक आनंद मिलेगा, पर ये आनंद साधु-संगत में प्राप्त होता है) साधु-संगत में जा के इस आनंद की तलाश करो। गुरु की मति पर चल कर अपना वह आत्मिक ठिकाना ढूँढो जहाँ पहुँच के दोबारा जनम-मरण के चक्कर में ना पड़ना पड़े।4।

सचु तीरथि नावहु हरि गुण गावहु ॥ ततु वीचारहु हरि लिव लावहु ॥ अंत कालि जमु जोहि न साकै हरि बोलहु रामु पिआरा हे ॥५॥

पद्अर्थ: स्चु = सदा स्थिर रहने वाला। तीरथि = तीर्थ पर। ततु = मूल प्रभु। अंत कालि = आखिरी समय में। जमु = मौत (का डर)।5।

अर्थ: सदा-स्थिर प्रभु का नाम (स्मरण करो), परमात्मा के गुण गाओ (यही है तीर्थ-स्नान, इस) तीरथ में स्नान करो। परमात्मा के चरणों में तवज्जो जोड़ो, परमात्मा के गुणों को विचारो। प्यारे प्रभु का नाम स्मरण करो, आखिरी समय मौत का डर छू नहीं सकेगा।5।

सतिगुरु पुरखु दाता वड दाणा ॥ जिसु अंतरि साचु सु सबदि समाणा ॥ जिस कउ सतिगुरु मेलि मिलाए तिसु चूका जम भै भारा हे ॥६॥

पद्अर्थ: दाणा = समझदार। जिसु अंतरि = जिस (गुरु) के अंदर। सबदि = प्रभु की महिमा में। मेलि = संगति में। भै भारा = डर सहम का भार।6।

अर्थ: गुरु अकाल-पुरख (का रूप) है, सब दातें देने के समर्थ है, बहुत समझदार है, उसके हृदय में सदा-स्थिर प्रभु हमेशा बसता है, वह परमात्मा की महिमा में हमेशा लीन रहता है। वह गुरु जिस मनुष्य को अपनी संगति में मिलाता है उस (के सिर) पर से जमों का डर दूर हो जाता है।6।

पंच ततु मिलि काइआ कीनी ॥ तिस महि राम रतनु लै चीनी ॥ आतम रामु रामु है आतम हरि पाईऐ सबदि वीचारा हे ॥७॥

पद्अर्थ: मिलि = मिल के। काइआ = शरीर। तिसु महि = उस (शरीर) में। लै चीनी = चीन्ह ले, पहचान ले। सबदि = गुरु के शब्द से।7।

अर्थ: (हे भाई! अपने) इस शरीर में, जो परमात्मा ने पाँच (विरोधी) तत्वों को मिला के बनाया है, परमात्मा का नाम-रतन खोज के तलाश ले। (ज्यों-ज्यों) गुरु के शब्द द्वारा विचार करें, (त्यों-त्यों ये समझ आ जाती है कि) आत्मा और परमात्मा एक-रूप हैं।7।

सत संतोखि रहहु जन भाई ॥ खिमा गहहु सतिगुर सरणाई ॥ आतमु चीनि परातमु चीनहु गुर संगति इहु निसतारा हे ॥८॥

पद्अर्थ: जन भाई = हे भाई जनो! संतोखि = संतोख में। गहहु = ग्रहण करो। चीनि = पहचान के। परातमु = पर आतमु, परम आत्मा, परमात्मा।8।

अर्थ: हे भाई! जनो! सेवा और संतोष में जीवन बिताओ। गुरु की शरण पड़ कर दूसरों की ज्यादती सहने का गुण ग्रहण करो। अपनी आत्मा को पहचान के दूसरों की आत्मा को भी पहचानो। गुरु की संगति में रहने से ये निर्णय आता है।8।

साकत कूड़ कपट महि टेका ॥ अहिनिसि निंदा करहि अनेका ॥ बिनु सिमरन आवहि फुनि जावहि ग्रभ जोनी नरक मझारा हे ॥९॥

पद्अर्थ: कूड़ = माया का मोह। टेक = आसरा। ग्रभ = गर्भ।9।

अर्थ: माया-ग्रसित लोग माया के मोह में और छल में (अपने जीवन का) आसरा (तलाशते हैं), वह दिन-रात अनेक किस्मों की पराई निंदा करते रहते हैं। स्मरण से वंचित रह कर वे (इस निंदा आदि कर कर के गलत रास्ते पड़ कर) जनम-मरण के चक्कर में पड़ जाते हैं, गरभ-जून के नर्कों में पड़ते हैं।9।

साकत जम की काणि न चूकै ॥ जम का डंडु न कबहू मूकै ॥ बाकी धरम राइ की लीजै सिरि अफरिओ भारु अफारा हे ॥१०॥

पद्अर्थ: काणि = डर। चूकै = खत्म होती। बीजै = ली जाती है, वसूल की जाती है। अफरिओ = अहंकारी के (सिर पर)। अफारा = असहि।10।

अर्थ: माया-ग्रसित जीवों के अंदर से जम का डर दूर नहीं होता, जम की सजा उनके सिर से नहीं टलती। अहंकारियों के सिर पर (विकारों का) असहि भार टिका रहता है (यह, मानो, उनके सिर पर कर्जा है) धर्मराज के इस कर्जे का लेखा उनके पास से लिया ही जाता है।10।

बिनु गुर साकतु कहहु को तरिआ ॥ हउमै करता भवजलि परिआ ॥ बिनु गुर पारु न पावै कोई हरि जपीऐ पारि उतारा हे ॥११॥

पद्अर्थ: को साकतु = कौन सा साकत? भवजलि = भवजल में। पारु = परला किनारा। पारि = परले किनारे का।11।

अर्थ: गुरु की शरण के बिना कोई भी माया-ग्रसित जीव (माया-मोह के समुंदर से) पार नहीं लांघ सकता (माया की मस्ती के कारण वह) ‘हउ हउ मैं मैं’ करता संसार-समुंदर में डूबा रहता है। गुरु के बिना कोई मनुष्य (इस समुंदर का) परला किनारा नहीं ढूँढ सकता। परमात्मा का नाम जपना चाहिए, (नाम जपने से ही) उस पार के किनारे पर पहुँचा जा सकता है।11।

गुर की दाति न मेटै कोई ॥ जिसु बखसे तिसु तारे सोई ॥ जनम मरण दुखु नेड़ि न आवै मनि सो प्रभु अपर अपारा हे ॥१२॥

पद्अर्थ: सोई = वह (प्रभु) ही। मनि = मन में। अपर = जिससे परे और कोई नहीं।12।

अर्थ: जिस मनुष्य पर गुरु बख्शिश करता है उसको (संसार-समुंदर से) पार लंघा लेता है, कोई आदमी गुरु की इस बख्शिश के राह में रुकावट नहीं डाल सकता। (गुरु की मेहर से) जिस मनुष्य के मन में वह अपर-अपार प्रभु आ बसता है जनम-मरण का दुख उसके नजदीक नहीं फटकता।12।

गुर ते भूले आवहु जावहु ॥ जनमि मरहु फुनि पाप कमावहु ॥ साकत मूड़ अचेत न चेतहि दुखु लागै ता रामु पुकारा हे ॥१३॥

पद्अर्थ: ते = से। भूले = टूटे हुए, भटके हुए। अचेत = गाफिल, बेपरवाह। ता = से।13।

अर्थ: हे भाई! अगर गुरु के दर से टूटे रहोगे तो (संसार में बार-बार) पैदा होते मरते रहोगे, जनम-मरण के चक्करों में पड़े रहोगे और पाप-कर्म करते रहोगे। माया-ग्रसित मूर्ख गाफिल मनुष्य परमात्मा को याद नहीं करते, जब कोई दुख व्यापता है तो उस वक्त ‘हाय राम! हाय राम! ’ पुकारते हैं।13।

सुखु दुखु पुरब जनम के कीए ॥ सो जाणै जिनि दातै दीए ॥ किस कउ दोसु देहि तू प्राणी सहु अपणा कीआ करारा हे ॥१४॥

पद्अर्थ: जिनि दाते = जिस दाते ने। कउ = को। प्राणी = हे प्राणी! सहु = सहार। करारा = सख्त।14।

अर्थ: हे प्राणी! पूर्बले जन्मों के किए कर्मों के अनुसार दुख-सुख भोगे जाते हैं, इस भेद को वही परमात्मा जानता है जिसने (जिसने ये दुख-सुख भोगने के लिए) दिए हैं। हे प्राणी! (होने वाले दुखों के कारण) तू किसी और को दोष नहीं दे सकता, ये अपने ही किए कर्मों का कठोर फल सह।14।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh