श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1033 सभु को बोलै आपण भाणै ॥ मनमुखु दूजै बोलि न जाणै ॥ अंधुले की मति अंधली बोली आइ गइआ दुखु ताहा हे ॥११॥ पद्अर्थ: सभु को = हरेक (मनमुख) मनुष्य। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। दूजै = प्रभु के बिना किसी और आसरे की तलाश में। अंधली = अंधी। ताहा = उसको।11। अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाला हरेक मनुष्य प्रभु के बिना और आसरे की झाक में अपने स्वार्थ के स्वभाव में ही (सब वचन) बोलता है, (परमात्मा की महिमा के बोल) बोलना नहीं जानता। माया के मोह में अंधे हो चुके मनुष्य की बुद्धि अंधी व बहरी हो जाती है (उसको ना कहीं परमात्मा दिखता है, ना ही उसकी महिमा वह सुनता है)। उसको जनम-मरण के चक्करों में दुख मिलता रहता है।11। दुख महि जनमै दुख महि मरणा ॥ दूखु न मिटै बिनु गुर की सरणा ॥ दूखी उपजै दूखी बिनसै किआ लै आइआ किआ लै जाहा हे ॥१२॥ पद्अर्थ: दुखी = दुखों में ही।12। अर्थ: मनमुख मनुष्य दुखों में ग्रसित हुआ पैदा होता है (सारी उम्र दुख सह-सह के) दुखों में ही मरता है। गुरु की शरण पड़े बिना (ये जन्म-जन्मांतरों का लंबा) दुख मिट नहीं सकता। दुखों में पैदा होता और दुखों में ही मरता है, सदाचारी आत्मिक जीवन ना ही ले के यहाँ आता है, ना ही यहाँ से ले के जाता है।12। सची करणी गुर की सिरकारा ॥ आवणु जाणु नही जम धारा ॥ डाल छोडि ततु मूलु पराता मनि साचा ओमाहा हे ॥१३॥ पद्अर्थ: सिरकारा = हकूमत, अगवाई। धारा = रास्ता। पराता = पहचाना। ओमाहा = उत्साह।13। अर्थ: गुरु की अगुवाई में चलना ही सही जीवन-रास्ता है, इस तरह जनम-मरण के चक्कर समाप्त हो जाते हैं, आत्मिक मौत के रास्ते से भी बचा जाता है। जो मनुष्य (गुरु की रहनुमाई में) टहनियों को छोड़ कर मूल को पहचान लेता है (प्रभु की रची हुई माया का मोह छोड़ कर विधाता प्रभु के साथ जान-पहचान बनाता है) उसके मन में सदा-स्थिर रहने वाला उत्साह पैदा हो जाता है।13। हरि के लोग नही जमु मारै ॥ ना दुखु देखहि पंथि करारै ॥ राम नामु घट अंतरि पूजा अवरु न दूजा काहा हे ॥१४॥ पद्अर्थ: पंथि करारै = कठिन रास्ते में (पड़ कर)। काहा = बखेड़ा।14। अर्थ: जो लोग परमात्मा के सेवक बनते हैं उनको जम नहीं मार सकता (आत्मिक मौत नहीं मार सकती), वह (आत्मिक मौत के) कठिन रास्ते पर (नहीं पड़ते और) दुख नहीं देखते। उनके हृदय में परमात्मा का नाम बसता है (वे अंतरात्मे परमात्मा की) भक्ति करते हैं। उनको (माया का) कोई और बखेड़ा नहीं होता।14। ओड़ु न कथनै सिफति सजाई ॥ जिउ तुधु भावहि रहहि रजाई ॥ दरगह पैधे जानि सुहेले हुकमि सचे पातिसाहा हे ॥१५॥ पद्अर्थ: ओड़ु = आखिरी किनारा, खात्मा। सजाई = सुंदर। रजाई = रजा में। पैधे = सिरोपा ले के। जानि = जाते हैं।15। अर्थ: हे प्रभु! तेरे भक्त जैसे तुझे अच्छे लगते हैं तेरी रजा में रहते हैं, वे तेरी सुंदर तारीफ करते रहते हैं उनके इस उद्यम का खात्मा नहीं होता। हे सदा-स्थिर रहने वाले पातशाह! तेरे हुक्म के अनुसार वे तेरी हजूरी में सम्मान-सहित आसानी से पहुँचते हैं।15। किआ कहीऐ गुण कथहि घनेरे ॥ अंतु न पावहि वडे वडेरे ॥ नानक साचु मिलै पति राखहु तू सिरि साहा पातिसाहा हे ॥१६॥६॥१२॥ पद्अर्थ: कथनि = कहते हैं। किआ कहीऐ = कुछ कहा नहीं जा सकता।16। अर्थ: हे प्रभु! अनेक ही जीव तेरे गुण कथन करते हैं, तेरे गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। (दुनिया में) बड़े-बड़े (देवते आदि कहलवाने वाले भी) तेरे गुणों का अंत नहीं पा सकते। हे प्रभु! तू पातशाहों के सिर पर भी पातशाह है (मेरी अरदास है) मुझे नानक को तेरा सदा-स्थिर रहने वाला नाम मिल जाए, मेरी इज्जत रख।16।6।12। मारू महला १ दखणी ॥ काइआ नगरु नगर गड़ अंदरि ॥ साचा वासा पुरि गगनंदरि ॥ असथिरु थानु सदा निरमाइलु आपे आपु उपाइदा ॥१॥ पद्अर्थ: काइआ = शरीर। गढ़ = किला। साचा = सदा स्थिर रहने वाला। पुरि = पुर में, शहर में। गगनंदरि = गगन अंदर, गगन में, आकाश में, दिमाग में। निरमाइलु = निर्मल, पवित्र। आपु = अपने आप को। उपाइदा = प्रकट करता है, टिकाता है।1। अर्थ: (लोग अपने बसने के लिए शहर बसाते हैं और रक्षा के लिए किले बनाते हैं, इन) शहरों और किलों (की गिनती) में (मनुष्य का) शरीर भी एक शहर है (ये शहर परमात्मा ने अपने बसने के लिए बसाया है), इस शरीर में इसके दसवाँ-द्वार में प्रभु का सदा-स्थिर निवास है। वह परमात्मा पवित्र-स्वरूप है, उसका ठिकाना सदा कायम रहने वाला है, वह स्वयं ही अपने आप को (शरीरों के रूप में) प्रकट करता है।1। अंदरि कोट छजे हटनाले ॥ आपे लेवै वसतु समाले ॥ बजर कपाट जड़े जड़ि जाणै गुर सबदी खोलाइदा ॥२॥ पद्अर्थ: हटनाले = बाजार (जहाँ साथ साथ हाट हैं)। छजे = छज्जे। लेवै = लेता है, खरीदता है। बजर कपाट = मजबूत दरवाजे। जड़ि जाणै = बंद करने जानता है।2। अर्थ: इस (शरीर-) किले के अंदर ही, मानो, सजाये हुए और बाजार हैं जिनमें प्रभु खुद ही सौदा खरीदता है और संभालता है। (माया के मोह के) मजबूत किवाड़ भी अंदर जड़े हुए हैं, परमात्मा खुद ही ये किवाड़ बंद करने जानता है और खुद ही गुरु-शब्द में (जीव को जोड़ के किवाड़) खुला देता है।2। भीतरि कोट गुफा घर जाई ॥ नउ घर थापे हुकमि रजाई ॥ दसवै पुरखु अलेखु अपारी आपे अलखु लखाइदा ॥३॥ पद्अर्थ: घर जाई = घर की जगह। नउ घर = नौ इन्द्रियाँ। दसवै = दसवें घर में।3। अर्थ: इस (शरीर) किले गुफा में परमात्मा की रिहायश की जगह है। रज़ा के मालिक प्रभु ने अपने हुक्म में ही (इस किले में) नौ घर बना दिए हैं (जो प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं)। दसवें घर में (जो गुप्त है) सर्व-व्यापक लेखे से रहित और बेअंत प्रभु खुद बसता है। वह अदृश्य प्रभु स्वयं ही अपने आप के दर्शन करवाता है।3। पउण पाणी अगनी इक वासा ॥ आपे कीतो खेलु तमासा ॥ बलदी जलि निवरै किरपा ते आपे जल निधि पाइदा ॥४॥ पद्अर्थ: इक वासा = इकट्ठे बसाए हैं। जलि = पानी के साथ। निवरै = बुझ जाती है। जल निधि = समुंदर (में)।4। अर्थ: (इस शरीर में उसने) हवा, पानी, आग (आदि तत्वों) को एक साथ बसा दिया है। (जगत रचना का) यह खेल और तमाश उसने खुद ही रचा हुआ है। जो जलती हुई आग उसकी कृपा से पानी से बुझ जाती है वही आग (बड़वा अग्नि) उसने समुंदर में टिका रखी है।4। धरति उपाइ धरी धरम साला ॥ उतपति परलउ आपि निराला ॥ पवणै खेलु कीआ सभ थाई कला खिंचि ढाहाइदा ॥५॥ पद्अर्थ: धरमसाला = धर्म कमाने की जगह। उतपति = उत्पक्ति। परलउ = नाश। पवणै = स्वासों का।5। अर्थ: धरती पैदा करके परमात्मा ने इसको धर्म कमाने की स्थली बना दी है। जगत की उत्पक्ति और प्रलय करने वाला परमात्मा स्वयं ही है, पर खुद इस उत्पक्ति और प्रलय से निर्लिप रहता है। हर जगह (भाव, सब जीवों में) उसने श्वासों की खेल रची हुई है (भाव, श्वासों के आसरे जीव जीवित रखे हुए हैं), खुद ही (इन श्वासों की) ताकत खींच के (निकाल के शरीरों की खेल को) गिरा देता है।5। भार अठारह मालणि तेरी ॥ चउरु ढुलै पवणै लै फेरी ॥ चंदु सूरजु दुइ दीपक राखे ससि घरि सूरु समाइदा ॥६॥ पद्अर्थ: भार अठारह = सारी बनस्पति। ढुलै = झूलता है। पवणै = पवन का। ससि = चंद्रमा। सूरु = सूर्य।6। अर्थ: हे प्रभु! सारी सृष्टि की वनस्पति (तेरे आगे फूल भेटा करने वाली) तेरी मालिन है (जो हवा) फेरियाँ लेती है (भाव, हर तरफ चलती है, उस) वायु का (मानो) चवर (तेरे ऊपर) झूल रहा है। (अपने जगत-महल में) तूने खुद ही चाँद और सूरज (मानो) दो दीए (जला) रखे हैं, चँद्रमा के घर में सूरज समाया हुआ है (सूरज की किरणें चँद्रमा में पड़ कर चँद्रमा को रौशनी दे रही हैं)।6। पंखी पंच उडरि नही धावहि ॥ सफलिओ बिरखु अम्रित फलु पावहि ॥ गुरमुखि सहजि रवै गुण गावै हरि रसु चोग चुगाइदा ॥७॥ पद्अर्थ: पंखी पंच = (गुरमुख वृक्ष के) पाँच ज्ञानेन्द्रिय पक्षी। उडरि = उड़ के। रवै = स्मरण करता है।7। अर्थ: गुरु (मानो) फल देने वाला वृक्ष है (इस वृक्ष से जो) गुरमुख आत्मिक जीवन देने वाला नाम-फल प्राप्त करते हैं, उनकी (ज्ञानेन्द्रियाँ) पक्षी उड़ के बाहर (विकारों की ओर) दौड़ते नहीं फिरते। गुरु के सन्मुख रहने वाला जीव-पक्षी आत्मिक अडोलता में रह कर नाम स्मरण करता है और प्रभु के गुण गाता है। प्रभु स्वयं ही उसको अपना नाम-रस (रूपी) चोग चुगाता है।7। झिलमिलि झिलकै चंदु न तारा ॥ सूरज किरणि न बिजुलि गैणारा ॥ अकथी कथउ चिहनु नही कोई पूरि रहिआ मनि भाइदा ॥८॥ पद्अर्थ: झिलमिल = बड़ी चमक के साथ। झिलकै = झिलमिलाता है। गैणारा = आकाश। अकथी = वह अवस्था जिसका बयान ना हो सके। कथउ = मैं बताता हूँ।8। अर्थ: (‘सफल बिरख’ अर्थात सफल वृक्ष गुरु से आत्मिक जीवन देने वाला नाम-फल प्राप्त करने वाले गुरमुख के अंदर आत्म-प्रकाश पैदा होता है जो) ऐसा झिलमिल-झिलमिल करके चमकता है कि उसकी चमक तक ना चाँद, ना कोई तारा, ना सूरज की किरण, और ना ही आकाश की बिजली पहुँच सकती है (बराबरी कर सकती है)। (मैं उस प्रकाश का) बयान तो कर रहा हूँ (पर वह प्रकाश) बयान से बाहर है उसका कोई निशान नहीं दिया जा सकता। (जिस मनुष्य के अंदर वह प्रकाश अपना) ज़हूर करता है उसके मन को वह बहुत भाता है।8। पसरी किरणि जोति उजिआला ॥ करि करि देखै आपि दइआला ॥ अनहद रुण झुणकारु सदा धुनि निरभउ कै घरि वाइदा ॥९॥ पद्अर्थ: रुणझुणकारु = एक रस मीठी आवाज। वाइदा = बजाता है।9। अर्थ: (जिस मनुष्य के अंदर ‘सफल बिरख’ गुरु की मेहर से) ईश्वरीय ज्योति की किरण प्रकाशमान होती है उसके अंदर (आत्मिक) रौशनी होती है। दया का श्रोत प्रभु स्वयं ही यह करिश्मे कर कर के देखता है। (उस गुरमुख के अंदर, मानो) एक-रस मीठी-मीठी सुर वाला गीत चल पड़ता है जिसकी धुनि सदा (उसके अंदर जारी रहती है)। (वह गुरमुख अपने अंदर, मानो, ऐसा साज़) बजाने लग जाता है (जिसकी इनायत से) वह निडरता के आत्मिक ठिकाने में (टिक जाता है)।9। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |