श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 1034

अनहदु वाजै भ्रमु भउ भाजै ॥ सगल बिआपि रहिआ प्रभु छाजै ॥ सभ तेरी तू गुरमुखि जाता दरि सोहै गुण गाइदा ॥१०॥

पद्अर्थ: अनहदु = एक रस, लगातार। छाजै = छा रहा है, पसर रहा है, व्यापक है।10।

अर्थ: (उस गुरमुख के हृदय में) एक-रस (महिमा का बाजा बजता रहता है, उसके अंदर से) भटकनें और डर-सहम दूर हो जाते हैं (उसको प्रत्यक्ष दिखाई दे जाता है कि) परमात्मा सारे संसार में मौजूद है और सब पर (अपनी रक्षा की) छाया कर रहा है।

हे प्रभु! यह सारी रचना तेरी है (और तू ही इसकी रक्षा करने वाला है) - (‘सफल बिरख’ गुरु से नाम-फल प्राप्त करने वाला) गुरमुख ये बात समझ लेता है, वह गुरमुख तेरे गुण गाता है और तेरे दर पर शोभा पाता है।10।

आदि निरंजनु निरमलु सोई ॥ अवरु न जाणा दूजा कोई ॥ एकंकारु वसै मनि भावै हउमै गरबु गवाइदा ॥११॥

पद्अर्थ: निरंजनु = (निर+अंजन) माया के प्रभाव से रहित। एकंकारु = एक अकाल पुरख।11।

अर्थ: उस गुरमुख ने जान लिया है कि वह पवित्र स्वरूप परमात्मा ही सारी सृष्टि का आदि है और माया के प्रभाव से ऊपर है, उस जैसा दूसरा और कोई नहीं है। उस गुरमुख के मन में वही एक अकाल-पुरख बसता है और मन को प्यारा लगता है (इसकी इनायत से वह अपने अंदर से) हउमै-अहंकार दूर कर लेता है।11।

अम्रितु पीआ सतिगुरि दीआ ॥ अवरु न जाणा दूआ तीआ ॥ एको एकु सु अपर पर्मपरु परखि खजानै पाइदा ॥१२॥

पद्अर्थ: सतिगुरि = गुरु ने। अपर = जिससे परे कोई नही। परंपर = परे से परे।12।

अर्थ: जिस गुरमुख को सतिगुरु नें नाम-अमृत दिया उसने लेकर पीया उसको जगत में कहीं भी परमात्मा के बिना और कोई दूसरा नहीं दिखता, (उसके अंदर कोई मेर-तेर नहीं रह जाती)। (उस गुरमुख को निष्चय हो जाता है कि हर जगह) एक ही एक अपर-अपार परमात्मा स्वयं ही है, वह खुद ही (जीवों के कर्मों को) परख के (और पसंद करके उनको) अपने खजाने में मिला लेता है।12।

गिआनु धिआनु सचु गहिर ग्मभीरा ॥ कोइ न जाणै तेरा चीरा ॥ जेती है तेती तुधु जाचै करमि मिलै सो पाइदा ॥१३॥

पद्अर्थ: गहिर = गहरा। गंभीरा = बड़े जिगरे वाला। चीरा = पल्लार, पाट, खिलारा। जाचै = माँगती है। करमि = कृपा से।13।

अर्थ: हे गहरे और बड़े जिगरे वाले! तेरे साथ जान-पहचान डालनी और तेरे चरणों में जुड़ना ही सदा-स्थिर रहने वाला (उद्यम) है। (तू एक ऐसा बेअंत समुंदर है कि) तेरे पसारे को कोई समझ नहीं सकता। जितनी भी सृष्टि है ये सारी की सारी तुझसे ही (हरेक पदार्थ) माँगती है। वह ही जीव कुछ प्राप्त करता है जिसको तेरी बख्शिश से कुछ मिलता है।13।

करमु धरमु सचु हाथि तुमारै ॥ वेपरवाह अखुट भंडारै ॥ तू दइआलु किरपालु सदा प्रभु आपे मेलि मिलाइदा ॥१४॥

पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर रहने वाला। हाथि = हाथ में। भंडारै = खजाने में।14।

अर्थ: हे बेपरवाह प्रभु! (लोग अपनी-अपनी समझ के अनुसार धार्मिक निहित कर्म करते हैं, पर) तेरे सदा-स्थिर-नाम का जपना ही असल धर्म है, और यह नाम तेरे कभी ना समाप्त होने वाले खजाने में मौजूद है। हे प्रभु! तू सदा दया का कृपा का घर है, सब का मालिक (प्रभु) है, तू खुद ही (अपने खजाने में से यह दाति दे के) अपनी संगति में मिला लेता है।14।

आपे देखि दिखावै आपे ॥ आपे थापि उथापे आपे ॥ आपे जोड़ि विछोड़े करता आपे मारि जीवाइदा ॥१५॥

पद्अर्थ: उथापे = नाश करता है, उखेड़ता है।15।

अर्थ: प्रभु स्वयं ही (जीवों की) संभाल करके स्वयं ही (जीवों को) अपने दर्शन कराता है। खुद ही पैदा करता है खुद नाश करता है। कर्तार स्वयं ही (अपने चरणों में) जोड़ता है, स्वयं ही (चरणों से) विछोड़ता है, स्वयं ही (किसी को) आत्मिक मौत मारता है, स्वयं ही आत्मिक जीवन देता है।15।

जेती है तेती तुधु अंदरि ॥ देखहि आपि बैसि बिज मंदरि ॥ नानकु साचु कहै बेनंती हरि दरसनि सुखु पाइदा ॥१६॥१॥१३॥

नोट: मारू दखणी = दखणी किस्म की मारू रागिनी।

पद्अर्थ: तेती = वह सारी (दुनिया)। बैसि = बैठ के। बिज मंदरि = पक्के मन्दिर में।16।

अर्थ: ये जितनी भी सृष्टि है सारी की सारी तेरे हुक्म के अंदर चल रही है। तू अपने सदा-स्थिर महल में बैठ के खुद ही सबकी संभाल कर रहा है। हे हरि! तेरा दास नानक तेरा चिर-स्थाई नाम स्मरण करता है (तेरे दीदार के लिए तेरे दर पर) विनती करता है (जिसको तेरा दीदार नसीब होता है, वह उस) दीदार की इनायत से आत्मिक आनंद प्राप्त करता है।16।1।13।

मारू महला १ ॥ दरसनु पावा जे तुधु भावा ॥ भाइ भगति साचे गुण गावा ॥ तुधु भाणे तू भावहि करते आपे रसन रसाइदा ॥१॥

पद्अर्थ: पावा = पाऊँ, मैं पा सकूँ। भावा = मैं अच्छा लगूँ। भाइ = भाय, प्रेम से। भाणे = (जो) अच्छे लगे। भावहि = (उनको) अच्छा लगता है। करते = हे कर्तार! रसन = जीभ। रसाइदा = रसीली बनाता है।1।

अर्थ: हे सदा-स्थिर (चिर-स्थाई) प्रभु! अगर मैं तुझे अच्छा लगूँ, तो ही तेरे दर्शन कर सकता हूँ, और तेरे प्रेम में (जुड़ के) तेरी भक्ति (कर सकता हूँ, तथा) तेरे गुण गा सकता हूँ। हे कर्तार! जो लोग तुझे प्यारे लगते हैं उन्हें तू प्यारा लगता है। तू स्वयं ही उनकी जीभ में (अपने नाम का) रस पैदा करता है।1।

सोहनि भगत प्रभू दरबारे ॥ मुकतु भए हरि दास तुमारे ॥ आपु गवाइ तेरै रंगि राते अनदिनु नामु धिआइदा ॥२॥

पद्अर्थ: मुकतु = विकारों से स्वतंत्र। हरि = हे हरि! आप = स्वै भाव। गवाइ = गवाय, गवा के। अनदिनु = हर रोज।2।

अर्थ: हे प्रभु! तेरे भक्त तेरे दरबार में सुंदर लगते हैं। हे हरि! तेरे दास (माया के बंधनो से) स्वतंत्र हो जाते हैं। वे स्वै भाव मिटा के तेरे नाम-रंग में रंगे रहते हैं, और हर रोज (हर समय) तेरा नाम स्मरण करते हैं।2।

ईसरु ब्रहमा देवी देवा ॥ इंद्र तपे मुनि तेरी सेवा ॥ जती सती केते बनवासी अंतु न कोई पाइदा ॥३॥

पद्अर्थ: ईसरु = शिव। तपे = तप करने वाले।3।

अर्थ: शिव, ब्रहमा अनेक देवी-देवते, इन्द्र देवता, तपी लोग, ऋषि-मुनि -ये सब तेरी ही सेवा-भक्ति करते हैं (भाव, चाहे ये कितने ही बड़े गिने जाएं, पर तेरे सामने ये तेरे साधारण से सेवक हैं)। अनेक जतधारी, और अनेक ही बनों में बसने वाले त्यागी (तेरे गुण गाते हैं, पर तेरे गुणों का) कोई भी अंत नहीं पा सकता।3।

विणु जाणाए कोइ न जाणै ॥ जो किछु करे सु आपण भाणै ॥ लख चउरासीह जीअ उपाए भाणै साह लवाइदा ॥४॥

पद्अर्थ: भाणै = मर्जी से, रजा में। साह = श्वास। लवाइदा = लेने देता है।4।

अर्थ: जब तक परमात्मा स्वयं समझ ना बख्शे कोई जीव (परमात्मा की भक्ति करने की) सूझ प्राप्त नहीं कर सकता। परमात्मा जो कुछ करता है अपनी रजा में (अपनी मर्जी से) करता है। परमात्मा ने चौरासी लाख जूनियों में जीव पैदा किए हैं, वह अपनी मर्जी से ही इन जीवों को साँस लेने देता है (इनको जीवित रखता है)।4।

जो तिसु भावै सो निहचउ होवै ॥ मनमुखु आपु गणाए रोवै ॥ नावहु भुला ठउर न पाए आइ जाइ दुखु पाइदा ॥५॥

पद्अर्थ: निहचउ = जरूर। आपु = अपने आप को। गणाए = बड़ा जताता है। नावहु = नाम से।5।

अर्थ: (जगत में) वही कुछ अवश्य होता है जो उस कर्तार को अच्छा लगता है, अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (इस अस्लियत को नहीं समझता, वह) अपने आप को बड़ा जताता है (और अहंकार में ही) दुखी होता है। परमात्मा के नाम से टूटा हुआ (मनमुख) कहीं आत्मिक शांति का ठिकाना नहीं पा सकता, पैदा होता है मरता है, पैदा होता है मरता है, और (इस चक्कर में ही) दुख पाता है।5।

निरमल काइआ ऊजल हंसा ॥ तिसु विचि नामु निरंजन अंसा ॥ सगले दूख अम्रितु करि पीवै बाहुड़ि दूखु न पाइदा ॥६॥

पद्अर्थ: हंसा = जीव। तिसु विचि = उस (काया) में। अंम्रितु करि = नाम अमृत की इनायत से। पीवै = पी लेता है, खत्म कर लेता है। बाहुड़ि = फिर, दोबारा।6

अर्थ: वह शरीर पवित्र है जिस में पवित्र (जीवन वाली) जीवात्मा बसती है (क्योंकि) उस (शरीर) में परमात्मा का नाम बसता है, (वह जीवात्मा सही अर्थों में) माया-रहित प्रभु का अंश है। प्रभु के नाम-अमृत की इनायत से वह मनुष्य अपने सारे दुख मिटा लेता है, और दोबारा वह कभी दुख नहीं पाता।6।

बहु सादहु दूखु परापति होवै ॥ भोगहु रोग सु अंति विगोवै ॥ हरखहु सोगु न मिटई कबहू विणु भाणे भरमाइदा ॥७॥

पद्अर्थ: सादहु = स्वाद से। भोगहु = माया के भोगों से। विगोवै = दुखी होता है। हरखहु = खुशी से।7।

अर्थ: बहुत ज्यादा (भोगों के) स्वादों से दुख ही मिलता है (क्योंकि) भोगों से (आखिर) रोग पैदा होते हैं और आखिर में मनुष्य दुखी होता है। (माया की) खुशियों से भी चिन्ता ही पैदा होती है जो कभी नहीं मिटती। परमात्मा की रज़ा में चले बिना मनुष्य भटकना में पड़ा रहता है।7।

गिआन विहूणी भवै सबाई ॥ साचा रवि रहिआ लिव लाई ॥ निरभउ सबदु गुरू सचु जाता जोती जोति मिलाइदा ॥८॥

पद्अर्थ: विहूणी = बगैर। सबाई = सारी दुनिया। साचा = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु। जाता = पहचान लिया।8।

अर्थ: चिर-स्थाई रहने वाला परमात्मा सारी सृष्टि में गुप्त व्यापक है, पर इस बात से वंचित रह के सारी दुनिया भटक रही है। जिस मनुष्य ने गुरु का शब्द, जो निर्भयता देने वाला है, अपने हृदय में बसाया है उसने सदा-स्थिर प्रभु को सदार सृष्टि में बसता पहचान लिया है। गुरु का शब्द उसकी तवज्जो को परमात्मा की ज्योति में मिला देता है।8।

अटलु अडोलु अतोलु मुरारे ॥ खिन महि ढाहे फेरि उसारे ॥ रूपु न रेखिआ मिति नही कीमति सबदि भेदि पतीआइदा ॥९॥

पद्अर्थ: फेरि = दोबारा, फिर। मिति = मर्यादा, माप, मिनती। भेदि = भेद के।9।

अर्थ: मुर (आदि दैत्यों) का वैरी परमात्मा (मुरारी) चिर-स्थाई रहने वाला है, माया के मोह में कभी डोलने वाला नहीं, उसका स्वरूप कभी तोला-नापा नहीं जा सकता। वह (अपने रचे हुए जगत को) एक छिन में गिरा सकता है और दोबारा पैदा कर सकता है। उसका कोई खास स्वरूप नहीं बताया जा सकता, उसके कोई खास चक्र-चिन्ह नहीं कहे जा सकते, वह कितना बड़ा है और कैसा है; ये भी बयान से परे है। जो मनुष्य (अपने मन को गुरु के) शब्द में भेद लेता है वह उस परमात्मा (की याद) में पतीज जाता है।9।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh