श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1035 हम दासन के दास पिआरे ॥ साधिक साच भले वीचारे ॥ मंने नाउ सोई जिणि जासी आपे साचु द्रिड़ाइदा ॥१०॥ पद्अर्थ: साधिक = साधना करने वाले। जिणि = जीत के। साचु = सदा स्थिर नाम। द्रिढ़ाइदा = मन में पक्का करता है।10। अर्थ: मैं प्यारे प्रभु के उन दासों का दास हूँ जो उसके मिलने के प्रयत्न करते रहते हैं जो उस सदा-स्थिर परमात्मा के गुणों की विचार करते हैं। जो मनुष्य परमात्मा का नाम जपना मान लेता है (भाव, नाम-जपने को जीवन का उद्देश्य निश्चत कर लेता है) वह (जगत में से जीवन की बाज़ी) जीत के जाता है। (पर ये खेलें जीव के अपने वश की नहीं) परमात्मा स्वयं ही अपना सदा-स्थिर नाम जीवों के दिल में दृढ़ कराता है।10। पलै साचु सचे सचिआरा ॥ साचे भावै सबदु पिआरा ॥ त्रिभवणि साचु कला धरि थापी साचे ही पतीआइदा ॥११॥ पद्अर्थ: सचिआरा = सच के वणजारे। साचे = सदा स्थिर प्रभु को। त्रिभवणि = तीन भवनों वाले जगत में।11। अर्थ: जिस मनुष्यों के पास चिर-स्थाई रहने वाला नाम है, वह उस सदा स्थ्रि प्रभु का रूप हो जाते हैं, वे चिर-स्थाई नाम के वनजारे हैं। जिस मनुष्य को प्रभु की महिमा का शब्द प्यारा लगता है वह सदा-स्थिर प्रभु को अच्छा लगता है। वह सदा-स्थिर प्रभु सारी सृष्टि में (व्यापक है), उसने अपनी सत्ता दे के सृष्टि रची है। (सदा-स्थिर नाम का वाणज्य कराने वाले मनुष्य) उस सदा-स्थिर प्रभु की याद में ही खुश रहता है।11। वडा वडा आखै सभु कोई ॥ गुर बिनु सोझी किनै न होई ॥ साचि मिलै सो साचे भाए ना वीछुड़ि दुखु पाइदा ॥१२॥ पद्अर्थ: किनै = किसी को भी। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। वीछुड़ि = विछुड़ के।12। अर्थ: (वैसे तो) हरेक जीव कहता है कि परमात्मा सबसे बड़ा है पर सतिगुरु की शरण पड़े बिनाकिसी को सही समझ नहीं पड़ती। जो मनुष्य (गुरु से) सदा-स्थिर-प्रभु में जुड़ता है वह सदा-स्थिर-प्रभु को प्यारा लगता है। वह (उसके चरणों से विछुड़ता नहीं) विछुड़ के दुख नहीं पाता है।12। धुरहु विछुंने धाही रुंने ॥ मरि मरि जनमहि मुहलति पुंने ॥ जिसु बखसे तिसु दे वडिआई मेलि न पछोताइदा ॥१३॥ पद्अर्थ: धुराहु = धुर से ही। धाही = धाड़ें मार के (जोर से चिल्ला चिल्ला के)। मुहलति = जिंदगी का समय। पुंनै = पुग जाने पर।13। अर्थ: पर जो लोग आदि से ही प्रभु से विछुड़े चले आ रहे हैं वे ढाहें मार-मार के रोते आ रहे हैं। जब-जब जिंदगी का समय समाप्त हो जाता है वे मरते हैं पैदा होते हैं, पैदा होते हैं मरते हैं (इस चक्कर में पड़े रहते हैं)। जिस मनुष्य पर प्रभु मेहर करता है उसको (अपना नाम बख्श के) बड़ाई देता है, उसको अपने चरणों में मिला लेता है, वह मनुष्य (दोबारा कभी नहीं विछुड़ता है) ना पछताता है।13। आपे करता आपे भुगता ॥ आपे त्रिपता आपे मुकता ॥ आपे मुकति दानु मुकतीसरु ममता मोहु चुकाइदा ॥१४॥ पद्अर्थ: भुगता = भोगने वाला। त्रिपता = तृप्त हुआ। मुकता = भोगों से स्वतंत्र। मुकतीसरु = मुकती ईसर, मुक्ति का मालिक। चुकाइदा = समाप्त कर देता है।14। अर्थ: प्रभु स्वयं ही सारे जगत को पैदा करने वाला है, (सब जीवों में व्यापक हो के) स्वयं ही सारे पदार्थों को भोगने वाला है, फिर खुद ही इन भोगों से तृप्त हो जानें वाला है और खुद ही पदार्थों के मोह से स्वतंत्र हो जाने वाला है। प्रभु स्वयं ही मुक्ति का मालिक है, स्वयें ही विकारों से मुक्ति की दाति देता है, स्वयं ही जीवों के अंदर से माया की ममता और माया के मोह को दूर करता है।14। दाना कै सिरि दानु वीचारा ॥ करण कारण समरथु अपारा ॥ करि करि वेखै कीता अपणा करणी कार कराइदा ॥१५॥ पद्अर्थ: दाना कै सिरि = सब दानों के सिर पर, सब बख्शिशों से उत्तम। करण कारण = जगत को रचने वाला। वेखै = संभाल करता है। करणी = करने योग्य।15। अर्थ: परमात्मा इस जगत को रचने वाला है, सारी ताकतों का मालिक है और बेअंत है, वह जीवों को अपने गुणों की विचार बख्शता है और उसकी यह दाति उसकी और सब दातों से श्रेष्ठ है। सारी सृष्टि पैदा करके वह स्वयं ही इसकी संभाल करता है, और जीवों से वह कार करवाता है, जो कराने योग्य हो।15। से गुण गावहि साचे भावहि ॥ तुझ ते उपजहि तुझ माहि समावहि ॥ नानकु साचु कहै बेनंती मिलि साचे सुखु पाइदा ॥१६॥२॥१४॥ पद्अर्थ: से = वह लोग। ते = से। मिलि = मिल के।16। अर्थ: जो जीव सदा-स्थिर प्रभु को प्यारे लगते हैं वे उसके गुण गाते हैं। हे प्रभु! सारे जीव-जंतु तुझसे पैदा होते हैं और तेरे में ही लीन हो जाते हैं। हे नानक! जो मनुष्य चिर-स्थाई-प्रभु को स्मरण करता है (उसके दर पर) विनतियाँ करता है, वह उस सदा-स्थिर परमात्मा को मिल के आत्मिक आनंद पाता है।16।2।14। मारू महला १ ॥ अरबद नरबद धुंधूकारा ॥ धरणि न गगना हुकमु अपारा ॥ ना दिनु रैनि न चंदु न सूरजु सुंन समाधि लगाइदा ॥१॥ पद्अर्थ: अरबद = (अर्बुद) दस करोड़ (साल)। नरबद = न+अरबद, जिसके लिए शब्द ‘अरबद’ भी ना प्रयोग किया जा सके, गिनती से परे। धुंधूकारा = घोर अंधेरा। (नोट: घोर अंधकार में पता नहीं चल सकता कि यहाँ क्या कुछ पड़ा है) उस हालत की बाबत कोई भी मनुष्य कुछ नहीं बता सकता। धरणि = धरती। गगना = आकाश। रैनि = रात। सुंन = शून्य। सुंन समाधि = वह समाधि जिसमें प्रभु के अपने आप के बिना और कुछ भी नहीं था।1। अर्थ: (जगत की रचना से पहले बेअंत समय जिसकी गिनती के वास्ते) अरबद नरबद (शब्द भी नहीं बरते जा सकते, ऐसे) घोर अंधेरे की हालत थी (भाव, ऐसे हालात थे) जिसके बारे में कुछ भी कहा नहीं जा सकता। तब ना धरती थी, ना आकाश था, ना ही कहीं बेअंत प्रभु का हुक्म चल रहा था। तब ना दिन था, ना रात थी, ना चाँद था, ना सूरज था। तब परमात्मा अपने आप में ही (माना ऐसी) समाधि लगाए बैठा था जिसमें कोई किसी किस्म का फुरना नहीं था।1। खाणी न बाणी पउण न पाणी ॥ ओपति खपति न आवण जाणी ॥ खंड पताल सपत नही सागर नदी न नीरु वहाइदा ॥२॥ पद्अर्थ: खाणी = जगत उत्पक्ति के चार श्रोत: अण्डज, उत्भुज, जेरज और सेतज। बाणी = जीवों की चार बाणियाँ। ओपति = उत्पक्ति। खपति = नाश, प्रलय। सपत = सप्त, सात। सागर = समुंदर।2। अर्थ: जब ना जगत-रचना की चार-खाणियाँ थीं ना जीवों की चार बाणियाँ थीं। तब ना हवा थी, ना पानी था, ना उत्पक्ति थी ना पर्लय था, ना जन्म था ना मरना था। तब ना धरती के नौ-खण्ड थे ना पाताल था, ना सात-समुंदर थे ना ही नदियों में पानी बह रहा था।2। ना तदि सुरगु मछु पइआला ॥ दोजकु भिसतु नही खै काला ॥ नरकु सुरगु नही जमणु मरणा ना को आइ न जाइदा ॥३॥ पद्अर्थ: तदि = तब। मछु = मातृ लोक। पइआला = पाताल। खै = क्ष्य, नाश करने वाला। काला = काल।3। अर्थ: तब ना स्वर्ग-लोक था, ना मातृ-लोक था और ना ही पाताल था। तब ना कोई दोज़क था ना बहिश्त था, ना ही मौत लाने वाला काल था। तब ना स्वर्ग था ना नर्क था, ना जनम था ना मरण था, ना कोई पैदा होता था ना कोई मरता था।3। ब्रहमा बिसनु महेसु न कोई ॥ अवरु न दीसै एको सोई ॥ नारि पुरखु नही जाति न जनमा ना को दुखु सुखु पाइदा ॥४॥ पद्अर्थ: महेसु = शिव। को = कोई जीव।4। अर्थ: तब ना कोई ब्रहमा था ना विष्णू था और ना ही शिव था। तब एक परमात्मा ही परमात्मा था, और कोई व्यक्ति नहीं था दिखता। तब ना कोई स्त्री था ना ही कोई मर्द था तब ना कोई जाति थी ना ही किसी जाति में कोई जन्म लेता था। ना कोई दुख भोगने वाला जीव ही था।4। ना तदि जती सती बनवासी ॥ ना तदि सिध साधिक सुखवासी ॥ जोगी जंगम भेखु न कोई ना को नाथु कहाइदा ॥५॥ पद्अर्थ: सती = उच्च आचरण बनाने का प्रयत्न करने वाला। जती = जत धारण करने का प्रयत्न करने वाला। बनवासी = जंगल में रहने वाला त्यागी। सिध = जोग साधना में सिद्धहस्त जोगी। साधिक = साधना करने वाला। सुख वासी = सुखों में रहने वाला, गृहस्थी। जंगम = शिव उपासक जोगियों का एक वेश। नाथु = जोगियों का गुरु।5। अर्थ: तब ना कोई जती था ना कोई सती था ना ही कोई त्यागी था। तब ना कोई सिद्ध था ना साधिक थे और ना ही कोई गृहस्थी था। तब ना कोई जोगियों का ना जंगमों का भेस था, ना ही कोई जोगियों का गुरु कहलवाने वाला था।5। जप तप संजम ना ब्रत पूजा ॥ ना को आखि वखाणै दूजा ॥ आपे आपि उपाइ विगसै आपे कीमति पाइदा ॥६॥ अर्थ: तब ना कहीं जप हो रहे थे ना तप हो रहे थे, ना कहीं संजम साधे जा रहे थे ना व्रत रखे जा रहे थे ना ही पूजा की जा रही थी। तब कोई ऐसा जीव नहीं था जो परमात्मा के बिना किसी और का जिक्र कर सकता। तब परमात्मा खुद ही अपने आप में प्रकट हो के खुश हो रहा था और अपने बड़प्पन का मूल्य खुद ही डालता था।6। ना सुचि संजमु तुलसी माला ॥ गोपी कानु न गऊ गुोआला ॥ तंतु मंतु पाखंडु न कोई ना को वंसु वजाइदा ॥७॥ पद्अर्थ: संजम = इन्द्रियों को वश में रखने के साधन। गोपी = ग्वालनि। कानु = कृष्ण। गुोआला = गायों का रखवाला, गोपाला। वंसु = बाँसुरी।7। (नोट: अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ो’ और ‘ु’ लगी हुई हैं, असल शब्द ‘गोआला’ है, यहाँ पढ़ना है ‘गुआला’)। अर्थ: तब ना कहीं स्वच्छता रखी जा रही थी, ना कहीं कोई संजम किया जा रहा था, ना कहीं तुलसी की माला थी। तब ना कहीं कोई गोपी था ना कोई कान्हा था, ना कोई गऊ थी ना गऊऔं का (रखवाला) ग्वाला था। तब ना कोई तंत्र-मंत्र आदि पाखण्ड था ना ही कोई बाँसुरी बजा रहा था।7। करम धरम नही माइआ माखी ॥ जाति जनमु नही दीसै आखी ॥ ममता जालु कालु नही माथै ना को किसै धिआइदा ॥८॥ पद्अर्थ: माखी = शहद, मीठी। आखी = आँखों से। ममता = अपनत्व, ये ख्याल कि मेरी चीज है।8। अर्थ: तब ना कहीं धार्मिक कर्मकांड ही थे ना कहीं मीठी माया थी। तब ना कहीं कोई (ऊँची-नीची) जाति थी और ना ही किसी जाति में कोई जन्म लेता आँखों से देखा जा सकता था। तब ना कहीं माया थी ना ममता का जाल था, ना कहीं किसी के सिर पर काल (कूकता था)। ना कोई जीव किसी का स्मरण-ध्यान धरता था।8। निंदु बिंदु नही जीउ न जिंदो ॥ ना तदि गोरखु ना माछिंदो ॥ ना तदि गिआनु धिआनु कुल ओपति ना को गणत गणाइदा ॥९॥ पद्अर्थ: बिंदु = स्तुति, बड़ाई, खुशामद। माछिंदे = मछिन्द्र नाथ। कुल ओपति = कुलों की उत्पक्ति। गणत = लेखा।9। अर्थ: तब ना कहीं निंदा थी ना खुशामद थी, ना कोई जीवात्मा थी ना कोई जिंद थी। तब ना गोरख था ना माछिन्द्र नाथ था। तब ना कहीं (धार्मिक पुस्तकों की) ज्ञान-चर्चा थी ना कहीं समाधि-स्थित ध्यान था, तब ना कहीं कुलों की उत्पक्ति थी और ना ही कोई (अच्छी कुल में पैदा होने का) मान करता था।9। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |