श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 1036 वरन भेख नही ब्रहमण खत्री ॥ देउ न देहुरा गऊ गाइत्री ॥ होम जग नही तीरथि नावणु ना को पूजा लाइदा ॥१०॥ पद्अर्थ: देउ = देवता।10। अर्थ: तब ना कोई ब्राहमण खत्री आदि वर्ण थे ना कहीं जोगी-जंगम आदि भेख थे। तब ना कोई देवता था ना ही देवताओं के मन्दिर थे। तब ना कोई गऊ थी ना कहीं गायत्री थी। ना कहीं हवन थे ना यज्ञ हो रहे थे, ना कहीं तीर्थों का स्नान था और ना कोई (देव-) पूजा कर रहा था।10। ना को मुला ना को काजी ॥ ना को सेखु मसाइकु हाजी ॥ रईअति राउ न हउमै दुनीआ ना को कहणु कहाइदा ॥११॥ पद्अर्थ: मसाइकु = शेख। राउ = राजा। रईअति = प्रजा।11। अर्थ: तब ना कोई मौलवी था ना काज़ी था, ना कोई शेख था ना हाज़ी था। तब ना कहीं प्रजा थी ना कोई राजा था, ना कहीं दुनियावी अहंकार था, ना ही कोई इस तरह की बातें ही करने वाला था।11। भाउ न भगती ना सिव सकती ॥ साजनु मीतु बिंदु नही रकती ॥ आपे साहु आपे वणजारा साचे एहो भाइदा ॥१२॥ पद्अर्थ: सिव = शिव, चेतंन। सकती = जड़ पदार्थ। बिंदु = वीर्य। रकती = रक्त, लहू।12। अर्थ: तब ना कहीं प्रेम था ना कहीं भक्ति थी, ना कहीं जड़ था ना चेतन्न था। ना कहीं कोई सज्जन था ना मित्र था, ना कहीं पिता का वीर्य था ना माता का रक्त ही था। तब परमात्मा स्वयं ही शाह था स्वयं ही शाहूकार (वणज करने वाला), तब उस सदा-स्थिर प्रभु को यही कुछ अच्छा लगता था।12। बेद कतेब न सिम्रिति सासत ॥ पाठ पुराण उदै नही आसत ॥ कहता बकता आपि अगोचरु आपे अलखु लखाइदा ॥१३॥ पद्अर्थ: कतेब = पश्चिमी मजहबों की किताबें (कुरान, अंजील, तौरेत व जंबूर)। उदै = सूरज का चढ़ना। आसत = सूरज का डूबना, अस्त। अगोचरु = अ+गो+चर। जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच न हो सके (गो = इंद्रिय। चर = पहुँच)।13। अर्थ: तब ना कहीं शास्त्र-स्मृतियाँ और वेद थे, ना कहीं कुरान अंजील आदि पश्चिमी पुस्तकें थीं। तब कहीं पुराणों का पाठ भी नहीं थे। तब ना कहीं सूरज का चढ़ना था ना डूबना था। तब ज्ञान-इन्द्रियों की पहुँच से परे रहने वाला परमात्मा खुद ही बोलने-चालने वाला था, खुद ही अदृश्य था, और खुद ही अपने आप को प्रकट करने वाला था।13। जा तिसु भाणा ता जगतु उपाइआ ॥ बाझु कला आडाणु रहाइआ ॥ ब्रहमा बिसनु महेसु उपाए माइआ मोहु वधाइदा ॥१४॥ पद्अर्थ: तिसु भाणा = उस प्रभु को अच्छा लगा। आडाणु = पसारा। रहाइआ = टिकाया।14। अर्थ: जब उस परमात्मा को अच्छा लगा तब उसने जगत पैदा कर दिया। इस सारे जगत-पसारे को उसने (किसी दिखाई देते) सहारे के बिना ही (अपनी-अपनी जगह) टिका दिया। तब उसने ब्रहमा विष्णू और शिव भी पैदा कर दिए, (जगत में) माया का मोह भी बढ़ा दिया।14। विरले कउ गुरि सबदु सुणाइआ ॥ करि करि देखै हुकमु सबाइआ ॥ खंड ब्रहमंड पाताल अर्मभे गुपतहु परगटी आइदा ॥१५॥ पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। देखै = संभाल करता है। अरंभे = बनाए। गुपतहु = गुप्त हालत से।15। अर्थ: जिस किसी विरले व्यक्ति को गुरु ने उपदेश सुनाया (उसे ये समझ आ गई कि) परमात्मा जगत पैदा करके खुद ही संभाल कर रहा है, हर जगह उसका ही हुक्म चल रहा है। उस परमात्मा ने स्वयं ही खंड-ब्रहमंड पाताल आदिक बनाए हैं और वह स्वयं ही गुप्त अवस्था से प्रकट हुआ है।15। ता का अंतु न जाणै कोई ॥ पूरे गुर ते सोझी होई ॥ नानक साचि रते बिसमादी बिसम भए गुण गाइदा ॥१६॥३॥१५॥ पद्अर्थ: ते = से। साचि = सदा स्थिर प्रभु में। बिसमादी = हैरान। बिसम = हैरान।16। अर्थ: पूरे गुरु के माध्यम से ये समझ आ जाती है कि कोई भी जीव परमात्मा की ताकत का अंत नहीं जान सकता। हे नानक! जो लोग उस सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा (के नाम-रंग) में रंगे जाते हैं वह (उसकी बेअंत ताकत और करिश्मे देख-देख के) हैरान ही हैरान होते हैं और उसके गुण गाते रहते हैं।16।3।15। मारू महला १ ॥ आपे आपु उपाइ निराला ॥ साचा थानु कीओ दइआला ॥ पउण पाणी अगनी का बंधनु काइआ कोटु रचाइदा ॥१॥ पद्अर्थ: आपु = अपने आप को। निराला = अलग, निर्लिप। साचा = सदा स्थिर प्रभु। बंधनु = मेल। कोटु = किला।1। अर्थ: (परमात्मा) आप ही अपने आप को (जगत के रूप में) पैदा करके (माया के मोह से) निर्लिप (भी) रहता है। हवा पानी आग (आदि तत्वों) का मेल करके वह परमात्मा शरीर-किला रचता है और सदा स्थिर दयालु प्रभु इस शरीर को (अपने रहने के लिए) जगह बनाता है।1। नउ घर थापे थापणहारै ॥ दसवै वासा अलख अपारै ॥ साइर सपत भरे जलि निरमलि गुरमुखि मैलु न लाइदा ॥२॥ पद्अर्थ: घर = गोलकें, इंद्रिय। थापणहारै = बनाने की सामर्थ्य रखने वाले ने। दसवै = दसवें घर में, दसवें द्वार में। अपारै = अपार (प्रभु) का। साइर = सायर, समुंदर। सपत = सात। सपत साइर = (काया कोट के) सात समुंदर (पाँच ज्ञान-इंद्रिय और दो मन व बुद्धि)। जलि निरमलि = (नाम के) निर्मल जल से। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला व्यक्ति।2। अर्थ: बनाने की ताकत रखने वाले प्रभु ने इस शरीर के नौ घर (कर्म-इन्द्रिए) बनाए हैं। दसवें घर (दसवाँ द्वार) में उस अदृश्य और बेअंत प्रभु की रिहायश है। (जीव माया के मोह में फंस के अपने आप को मलीन कर लेते हैं, पर) जो मनुष्य गुरु के सन्मुख होता है उसकी पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ उसका मन और उसकी बुद्धि - यह सातों ही सरोवर प्रभु के नाम के पवित्र जल से भरे रहते हैं, इसलिए उसको माया की मैल नहीं लगती।2। रवि ससि दीपक जोति सबाई ॥ आपे करि वेखै वडिआई ॥ जोति सरूप सदा सुखदाता सचे सोभा पाइदा ॥३॥ पद्अर्थ: रवि = सूरज। ससि = चँद्रमा। दीपक = दीए। सबाई = सारी।3। अर्थ: परमात्मा स्वयं ही सूरज चँद्रमा (जगत के) दीए बना के अपनी बड़ाई (महानता) देखता है, इन सूरज, चँद्रमा (आदि) दीयों में सारी सृष्टि में उसकी अपनी ही ज्योति (रौशनी कर रही) है। वह प्रभु सदा प्रकाश ही प्रकाश है, वह सदा (जीवों को) सुख देने वाला है। जो जीव उसका रूप हो जाता है उसको प्रभु स्वयं शोभा देता है।3। गड़ महि हाट पटण वापारा ॥ पूरै तोलि तोलै वणजारा ॥ आपे रतनु विसाहे लेवै आपे कीमति पाइदा ॥४॥ पद्अर्थ: गढ़ = किला। पटण = शहर। तोलि = तोलने से। विसाहे = खरीदता है।4। अर्थ: (प्रभु के रचे हुए इस शरीर-) किले में (ज्ञान-इन्द्रियाँ जैसे) शहर की हाट हैं जहाँ (प्रभु स्वयं ही) व्यापार कर रहा है। (प्रभु का नाम ही एक ऐसा तोल है जिसके द्वारा किए हुए वणज में कोई घाटा नहीं पड़ता, इस) पूरे तोल द्वारा प्रभु-वणजारा (शरीर-किले में बैठ के) स्वयं ही नाम-सौदा (वखर) तौलता है, आप ही नाम-रत्न का व्यापार करता है, आप ही नाम रतन का (ठीक) मूल्य डालता है।4। कीमति पाई पावणहारै ॥ वेपरवाह पूरे भंडारै ॥ सरब कला ले आपे रहिआ गुरमुखि किसै बुझाइदा ॥५॥ पद्अर्थ: भंडारै = खजाने में। कला = सत्ता। गुरमुखि = गुरु के द्वारा।5। अर्थ: प्रभु किसी (विरले भाग्यशाली) को गुरु के माध्यम से ये समझ बख्शता है कि वह स्वयं ही अपनी सारी सत्ता (अपने अंदर) रख के सब जीवों में व्याप रहा है और कद्र समझने वाला प्रभु अपने नाम-रतन की कद्र पा रहा है। (जिसको ये समझ देता है वह) उस बेपरवाह परमात्मा के भरे खजाने में से नाम-रतन प्राप्त करता है।5। नदरि करे पूरा गुरु भेटै ॥ जम जंदारु न मारै फेटै ॥ जिउ जल अंतरि कमलु बिगासी आपे बिगसि धिआइदा ॥६॥ पद्अर्थ: भेटै = मिलता है। जंदारु = अवैड़ा, जालिम। फेटै = फेट, चोट। बिगासी = खिलता है।6। अर्थ: जिस मनुष्य पर प्रभु मेहर की निगाह करता है उसको पूरा सतिगुरु मिल जाता है, ज़ालिम जम उस को कोई चोट नहीं पहुँचाता। जैसे पानी में कमल का फूल खिलता है (निर्लिप रहता है) वैसे प्रभु स्वयं ही उस मनुष्य के अंदर खिल के (अपने आप को) स्मरण करता है।6। आपे वरखै अम्रित धारा ॥ रतन जवेहर लाल अपारा ॥ सतिगुरु मिलै त पूरा पाईऐ प्रेम पदारथु पाइदा ॥७॥ अर्थ: (जिस मनुष्य को गुरु मिलाता है उसके अंदर प्रभु) स्वयं ही नाम-अमृत की धाराओं की बरखा करता है, जिसमें प्रभु के बेअंत गुण-रूप रतन जवाहर और लाल होते हैं। गुरु मिल जाए तो पूरा प्रभु मिल जाता है। (जिस मनुष्य को गुरु के द्वारा पूरा परमात्मा मिलता है वह) प्रभु-प्रेम का अमूल्य सौदा प्राप्त कर लेता है।7। प्रेम पदारथु लहै अमोलो ॥ कब ही न घाटसि पूरा तोलो ॥ सचे का वापारी होवै सचो सउदा पाइदा ॥८॥ पद्अर्थ: लहै = पा लेता है। सचो = सच ही, सदा स्थिर नाम ही।8। अर्थ: (गुरु की शरण पड़ कर) जो मनुष्य प्रभु-प्रेम का कीमती सौदा हासिल कर लेता है, उसका ये सौदा कम नहीं होता, (जब कभी भी तौला जाए उसका) तोल पूरा ही निकलेगा (भाव, माया के भले ही कई कमले हों, उसके अंदर बसा हुआ प्रभु-चरणों के प्रति प्रेम डोलता नहीं)। जो मनुष्य सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के नाम का व्यापार करने लग जाता है, वह इस सदा-स्थिर नाम का सौदा ही लादता है।8। सचा सउदा विरला को पाए ॥ पूरा सतिगुरु मिलै मिलाए ॥ गुरमुखि होइ सु हुकमु पछाणै मानै हुकमु समाइदा ॥९॥ पद्अर्थ: को = कोई बंदा। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख। समाइदा = लीन हो जाता है।9। अर्थ: (पर जगत में) कोई विरला व्यक्ति सदा-स्थिर रहने वाला यह सौदा प्राप्त करता है। जिसको पूरा सतिगुरु मिल जाता है गुरु उसको यह सौदा दिला देता है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है वह परमात्मा की रजा को समझ लेता है और जो रज़ा को (सिर-माथे) मानता है वह (रज़ा के मालिक में ही) लीन हो जाता है।9। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |