श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1037 हुकमे आइआ हुकमि समाइआ ॥ हुकमे दीसै जगतु उपाइआ ॥ हुकमे सुरगु मछु पइआला हुकमे कला रहाइदा ॥१०॥ पद्अर्थ: समाइआ = मर गया। मछु = मातृ लोक। पइआला = पाताल। कला = सत्ता।10। अर्थ: (रज़ा को मान लेने वाले बँदे को यह निष्चय हो जाता है कि) जीव परमात्मा के हुक्म अनुसार (जगत में) आता है हुक्म अनुसार समा जाता है (जगत से चला जाता है)। उसे ये दिखता है कि सारा जगत हुक्म में ही पैदा होता है। प्रभु के हुक्म अनुसार ही स्वर्ग-लोक मातृ लोक और पाताल लोक बनता है, प्रभु अपने हुक्म में ही अपनी सत्ता से इस (जगत) को आसरा दिए रखता है।10। हुकमे धरती धउल सिरि भारं ॥ हुकमे पउण पाणी गैणारं ॥ हुकमे सिव सकती घरि वासा हुकमे खेल खेलाइदा ॥११॥ पद्अर्थ: धउल = धौल, बैल। गैणारं = आकाश। सिव सकती घरि = शिव की शक्ति के घर में।11। अर्थ: प्रभु के हुक्म में ही धरती बनी जिसका भार बैल के सिर पर (समझा जाता है)। हुक्म में ही हवा पानी (आदि तत्व बने) और आकाश बना। प्रभु के हुक्म अनुसार ही जीवात्मा का माया के घर में बसेरा हुआ। प्रभु अपने हुक्म में ही (जगत के सारे) करिश्मे कर रहा है।11। हुकमे आडाणे आगासी ॥ हुकमे जल थल त्रिभवण वासी ॥ हुकमे सास गिरास सदा फुनि हुकमे देखि दिखाइदा ॥१२॥ पद्अर्थ: आडाणे = बिखेरे हुए हैं, फैलाए हुए हैं। गिरास = ग्रास। फुनि = दोबारा, फिर, और।12। अर्थ: प्रभु के हुक्म में ही आकाश (की चादर) तन गई, हुक्म में ही पानी धरती व तीनों भवन बने जिनमें वह स्वयं ही व्यापक है। प्रभु अपने हुक्म अनुसार ही जीवों को साँसें देता है और सदा रिज़क देता है। प्रभु अपनी रजा में ही जीवों की संभाल कर के सबको देखने की ताकत देता है।12। हुकमि उपाए दस अउतारा ॥ देव दानव अगणत अपारा ॥ मानै हुकमु सु दरगह पैझै साचि मिलाइ समाइदा ॥१३॥ पद्अर्थ: दानव = दैत्य, राक्षस। पैड़ै = आदर पाता है।13। अर्थ: प्रभु ने अपने हुक्म में ही (विष्णू के) दस अवतार पैदा किए, अनगिनत और बेअंत देवते बनाए और दैत्य बनाए। जो जीव प्रभु के हुक्म को मान लेता है वह उसकी दरगाह में आदर पाता है। प्रभु उसको अपने सदा-स्थिर नाम में जोड़ के अपने (चरणों) में लीन कर लेता है।13। हुकमे जुग छतीह गुदारे ॥ हुकमे सिध साधिक वीचारे ॥ आपि नाथु नथीं सभ जा की बखसे मुकति कराइदा ॥१४॥ पद्अर्थ: गुदारे = गुजारे। (नोट: ‘ज़’ और ‘द’ को आपस में मिल जाना। काज़ी का कादी; काज़ीआ कादीआ; कागज़ कागद; नज़रि, नदरि। ‘वखतु न पाइओ कादीआ’)। वीचारे = विचारवान। जा की = जिस नाथ प्रभु की।14। अर्थ: प्रभु ने अपने हुक्म के अनुसार ही (‘धुंधूकारा’ के) छक्तिस युग गुजार दिए, अपने हुक्म में ही वह सिध-साधक और विचारवान पैदा कर देता है। सारी सृष्टि का वह स्वयं ही पति है, सारी सृष्टि उसी के हुक्म में बँधी हुई है। जिस जीव परवह मेहर करता है उसको माया के बंधनो से मुक्ति दे देता है।14। काइआ कोटु गड़ै महि राजा ॥ नेब खवास भला दरवाजा ॥ मिथिआ लोभु नाही घरि वासा लबि पापि पछुताइदा ॥१५॥ पद्अर्थ: कोटु = किला। नेब = नायब। खवास = दरबारी, मुसाहिब। भला = अच्छा सुंदर। लबि = लालच के कारण। पापि = पाप के कारण।15। अर्थ: (प्रभु के हुक्म में ही) शरीर किला बना है जिसको (मुँह एक) खूबसूरत सा दरवाजा लगा हुआ है, इस किले में वह खुद ही राजा है, कर्म-इन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ उसकी दरबारी हैं। पर झूठा लोभ (चौकीदार होने के कारण) जीव को प्रभु की हजूरी में पहुँचने नहीं देता। लोभ के कारण पाप के कारण जीव पछताता रहता है।15। सतु संतोखु नगर महि कारी ॥ जतु सतु संजमु सरणि मुरारी ॥ नानक सहजि मिलै जगजीवनु गुर सबदी पति पाइदा ॥१६॥४॥१६॥ पद्अर्थ: कारी = करिंदे। संजमु = इन्द्रियों को विकारों से रोकने का उद्यम। सहजि = आत्मिक अडोलता में। जगजीवनु = जगत का जीवन प्रभु।16। अर्थ: जिस शरीर-नगर में सेवा, संतोख, जत, उच्च आचरण और संजम (जैसे उत्तम) कारिंदे हैं (उसमें बसता जीव) परमात्मा की शरण में टिका रहता है। हे नानक! अडोल आत्मिक अवस्था में टिके उस जीव को जगत का जीवन प्रभु मिल जाता है। गुरु के शब्द में जुड़ के वह प्रभु की हजूरी में इज्जत पाता है।16।4।16। मारू महला १ ॥ सुंन कला अपर्मपरि धारी ॥ आपि निरालमु अपर अपारी ॥ आपे कुदरति करि करि देखै सुंनहु सुंनु उपाइदा ॥१॥ पद्अर्थ: अपरंपर = वह प्रभु जो परे से परे है, जिससे परे और कुछ भी नहीं। अपरंपरि = अपरंपर ने, उस प्रभु ने जिससे परे और कुछ भी नहीं। सुंन = (शून्य), वह जिसके बिना और शून्य ही शून्य है, वह प्रभु जिसके बिना कुछ भी नहीं, प्रभु आप ही आप है। संन अपरंपरि = उस परमात्मा ने जिससे परे और कुछ भी नहीं और जो सिर्फ आप ही आप है। कला = सत्ता। धरी = धारण की हुई है। निरालमु = (निरालम्ब) जो अपने सहारे स्वयं ही है, जिसको किसी और सहारे की जरूरत नहीं (आलंब = सहारा)। अपार = जिसका परला किनारा नहीं पाया जा सकता। सुंनहु सुंनु = बिलकुल शून्य हालत, पूरी तरह से वह हालत जब उसके अपने आपे के बिना और कुछ भी नहीं होता।1। अर्थ: उस परमात्मा ने, जिससे परे और कुछ भी नहीं और जो केवल स्वयं ही स्वयं है, अपनी ताकत खुद ही बनाई हुई है। वह अपर और अपार प्रभु अपने सहारे आप ही है (उसे किसी और आसरे की आवश्यक्ता नहीं पड़ती)। वह परमात्मा सिर्फ वह हालत भी खुद ही पैदा करता है जब उसके अपने आपे के बिना और कुछ भी नहीं होता, और आप ही अपनी कुदरति रच के देखता है।1। पउणु पाणी सुंनै ते साजे ॥ स्रिसटि उपाइ काइआ गड़ राजे ॥ अगनि पाणी जीउ जोति तुमारी सुंने कला रहाइदा ॥२॥ पद्अर्थ: सुंनै ते = शून्य से ही, केवल अपने आप से ही। काइआ गढ़ राजे = शरीर किलों के राजे, जीव। जीउ = जीवात्मा। सुंने = शून्य में ही, केवल अपने आप में ही।2। अर्थ: हवा पानी (आदि तत्व) वह केवल अपने आप से पैदा करता है। सृष्टि पैदा करके (अपने आप से ही) शरीर और शरीर-किलों के राजे (जीव) पैदा करता है। हे प्रभु! आग पानी आदि तत्वों के बने शरीर में जीवात्मा तेरी ही ज्योति है। तू केवल अपने आप में अपनी शक्ति टिकाए रखता है।2। सुंनहु ब्रहमा बिसनु महेसु उपाए ॥ सुंने वरते जुग सबाए ॥ इसु पद वीचारे सो जनु पूरा तिसु मिलीऐ भरमु चुकाइदा ॥३॥ पद्अर्थ: महेसु = शिव। वरते = बीत गए। सबाए = सारे। पद = अवस्था, आत्मिक अवस्था। वीचारे = अपने सोच मण्डल में टिकाता है। पूरा = जो गलती बिल्कुल नहीं करता।3। अर्थ: ब्रहमा विष्णू शिव केवल अपने आप से ही परमात्मा ने पैदा किए। सारे अनेक जुग केवल उसके अपने आप में ही बीतते गए। जो मनुष्य इस (हैरान कर देने वाली) हालत को अपने सोच-मण्डल में टिकाता है वह (और-और आसरे ढूँढने की) गलती नहीं करता। ऐसे पूर्ण मनुष्य की संगति करनी चाहिए वह औरों की भटकना भी दूर कर देता है।3। सुंनहु सपत सरोवर थापे ॥ जिनि साजे वीचारे आपे ॥ तितु सत सरि मनूआ गुरमुखि नावै फिरि बाहुड़ि जोनि न पाइदा ॥४॥ पद्अर्थ: सपत सरोवर = सात सरोवर (पांच ज्ञान-इंद्रिय, मन और बुद्धि)। जिनि = जिस परमात्मा ने। वीचारे = अपने सोच मण्डल में रखता है। तितु = उस में। सत सरि = शांति के सर में। तितु सत सरि = उस शांति के सर (प्रभु) में। बाहुड़ि = दोबारा।4। अर्थ: परमात्मा ने (जीवों की पाँच ज्ञान-इंद्रिय, मन और बुद्धि - इन) सात सरोवरों को भी अपने आप से ही बनाया है। जिस परमात्मा ने जीव पैदा किए हैं वह स्वयं ही उनको अपनी सोच मण्डल में रखता है। जिस मनुष्य का मन गुरु की शरण पड़ कर उस शांति के सर (प्रभु) में स्नान करता है, वह दोबारा जूनियों के चक्कर में नहीं पड़ता।4। सुंनहु चंदु सूरजु गैणारे ॥ तिस की जोति त्रिभवण सारे ॥ सुंने अलख अपार निरालमु सुंने ताड़ी लाइदा ॥५॥ पद्अर्थ: गैणारे = आकाश। सुंने = शून्य में ही, केवल अपने आप में ही।5। अर्थ: चाँद सूरज आकाश भी प्रभु के केवल अपने ही आप से बने। उसकी अपनी ही ज्योति सारे तीनों भवनों में पसर रही है। वह अदृष्ट और बेअंत परमात्मा केवल अपने आप में किसी अन्य आसरे से बेमुहताज रहता है, और अपने ही आप में मस्त रहता है।5। सुंनहु धरति अकासु उपाए ॥ बिनु थमा राखे सचु कल पाए ॥ त्रिभवण साजि मेखुली माइआ आपि उपाइ खपाइदा ॥६॥ पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा। कल = कला, सत्ता। मेखुली = तड़ागी। खपाइदा = नाश करता है।6। अर्थ: परमात्मा ने धरती आकाश केवल अपने आप से ही पैदा किए। वह सदा-स्थिर रहने वाला प्रभु अपनी ताकत के सहारे ही बिना किसी और स्तम्भ के टिकाए रखता है। तीनों भवन पैदा करके परमात्मा स्वयं ही इनको माया की तड़ागी (में बाँधे रखता है)। स्वयं ही पैदा करता है स्वयं ही नाश करता है।6। सुंनहु खाणी सुंनहु बाणी ॥ सुंनहु उपजी सुंनि समाणी ॥ उतभुजु चलतु कीआ सिरि करतै बिसमादु सबदि देखाइदा ॥७॥ पद्अर्थ: सुंनहु = शून्य से ही, केवल अपने आप से ही। उपजी = पैदा हुई। सुंनि = केवल उसके अपने आप में। सिरि = सिर से, सबसे पहले। उतभुज चलतु = उत्भुज का तमाशा, जैसे धरती में से बनस्पति अपने आप ही उग पड़ती है इस तरह का जगत रचना का करिश्मा। करतै = कर्तार ने। बिसमादु = हैरान करने वाला चरित्र। सबदि = अपने शब्द (हुक्म) द्वारा।7। अर्थ: प्रभु केवल अपने आप से ही जीव-उत्पक्ति की चार खाणियां बनाता है और जीवों की वाणी रचता है। उसके केवल अपने आप से ही सृष्टि पैदा होती है और उसके आपे में ही समा जाती है। सबसे पहले कर्तार ने जगत-रचना का कुछ ऐसा करिश्मा रचा जैसे धरती में बनस्पति अपने आप उग पड़ती है। अपने हुक्म से यह हैरान करने वाला तमाशा दिखा देता है।7। सुंनहु राति दिनसु दुइ कीए ॥ ओपति खपति सुखा दुख दीए ॥ सुख दुख ही ते अमरु अतीता गुरमुखि निज घरु पाइदा ॥८॥ पद्अर्थ: दुइ = दोनों। ओपति = उत्पक्ति। खपति = नाश, पर्लय। अमरु = जिसको मौत ना आए, जिसको आत्मिक मौत छू ना सके। अतीत = (माया के प्रभाव से) परे लांघा हुआ।8। अर्थ: केवल अपने आप से ही परमात्मा ने दोनों दिन और रात बना दिए। खुद ही जीवों को जनम और मरण, सुख और दुख देता है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर सुखों-दुखों से निर्लिप हो जाता है वह अटल आत्मिक जीवन वाला बन जाता है, वह उस घर को ढूँढ लेता है जो सदा उसका अपना बना रहता है (भाव, वह सदा के लिए प्रभु के चरणों में जुड़ जाता है)।8। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |