श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1038 साम वेदु रिगु जुजरु अथरबणु ॥ ब्रहमे मुखि माइआ है त्रै गुण ॥ ता की कीमति कहि न सकै को तिउ बोले जिउ बोलाइदा ॥९॥ पद्अर्थ: रिगु = ऋग वेद। जुजरु = यजुर्वेद। ब्रहमे मुखि = ब्रहमा के मुँह से। ता की = उस (परमात्मा) की।9। अर्थ: ब्रहमा के द्वारा साम, ऋग, यजुर व अर्थव- ये चारों वेद प्रभु ने अपने आप से ही प्रकट किए, माया के तीन गुण भी उसके अपने आप से ही पैदा हुए। कोई जीव उस परमात्मा का मूल्य नहीं आँक सकता। जीव उसी तरह ही बोल सकता है जैसे जीव प्रभु स्वयं प्रेरणा करता है।9। सुंनहु सपत पाताल उपाए ॥ सुंनहु भवण रखे लिव लाए ॥ आपे कारणु कीआ अपर्मपरि सभु तेरो कीआ कमाइदा ॥१०॥ पद्अर्थ: सपत = ’सात। लिव लाए = लगन लगा के, ध्यान से। अपरंपरि = अपरंपर ने। सभु = हरेक जीव।10। अर्थ: प्रभु ने केवल अपने आप से ही सात पाताल (और सात आकाश) पैदा किए, केवल अपने आप से ही तीनों भवन बना के पूरे ध्यान से उनकी संभाल करता है। उस परमात्मा ने जिससे परे और कुछ भी नहीं है खुद ही जगत रचना का आरम्भ किया। हे प्रभु! हरेक जीव तेरा ही प्रेरित हुआ कर्म करता है।10। रज तम सत कल तेरी छाइआ ॥ जनम मरण हउमै दुखु पाइआ ॥ जिस नो क्रिपा करे हरि गुरमुखि गुणि चउथै मुकति कराइदा ॥११॥ पद्अर्थ: रज तम सत = माया के तीनों गुण। कल = कला। छाया = आसरा, साया। गुणि चउथै = चौथे गुण में।11। अर्थ: (माया के तीन गुण) रजो तमो और सतो (हे प्रभु!) तेरी ही ताकत के आसरे बने। जीवों के वास्ते पैदा होना और मरना तूने स्वयं ही बनाए, अहंकार का दुख भी तूने स्वयं ही (जीवों के अंदर) डाल दिया है। परमात्मा जिस जीव पर मेहर करता है उसको गुरु की शरण डाल के (तीनों गुणों से ऊपर) चौथी अवस्था में पहुँचाता है और (माया के मोह से) मुक्ति देता है।11। सुंनहु उपजे दस अवतारा ॥ स्रिसटि उपाइ कीआ पासारा ॥ देव दानव गण गंधरब साजे सभि लिखिआ करम कमाइदा ॥१२॥ पद्अर्थ: दानव = दैत्य। गण = शिव जी के खास उपासक। गंधरब = गंधर्व, देवताओं के रागी। सभि = सारे।12। अर्थ: प्रभु के केवल अपने आप से ही (विष्णू के) दस अवतार पैदा हुए। (केवल अपने आप से ही परमात्मा ने) सृष्टि पैदा करके यह जगत-पसारा फैलाया। देवते, दैत्य, शिव के गण, (देवताओं के रागी) गंधर्व- ये सारे ही केवल अपने आप से पैदा किए। सब जीव धुर से ही प्रभु के हुक्म में ही अपने किए कर्मों के लिखे संस्कारों के अनुसार कर्म कमा रहे हैं।12। गुरमुखि समझै रोगु न होई ॥ इह गुर की पउड़ी जाणै जनु कोई ॥ जुगह जुगंतरि मुकति पराइण सो मुकति भइआ पति पाइदा ॥१३॥ पद्अर्थ: गुर की पउड़ी = गुरु के बताए हुए राह पर चलना। कोई = कोई विरला। पराइण = आसरा। जुगह जुगंतरि = अनेक जुगों से। पति = इज्जत।13। अर्थ: जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर (परमात्मा की इस बेअंत कला को) समझता है (वह उसकी याद से नहीं टूटता, और) उसको कोई रोग (विकार) पोह नहीं सकता। पर कोई विरला व्यक्ति गुरु की बताई हुई इस (स्मरण की) सीढ़ी (का भेद) समझता है। जुगों जुगों से ही (गुरु की यह सीढ़ी जीवों की) मुक्ति का साधन बनी आ रही है। (जो मनुष्य नाम-जपने की इस सीढ़ी का आसरा लेता है) वह विकारों से निजात हासिल कर लेता है और प्रभु की दरगाह में इज्जत पाता है।13। पंच ततु सुंनहु परगासा ॥ देह संजोगी करम अभिआसा ॥ बुरा भला दुइ मसतकि लीखे पापु पुंनु बीजाइदा ॥१४॥ पद्अर्थ: पंच ततु = पाँच तत्वों से बना शरीर। देह = शरीर। संजोगी = संजोग से, संबंध बनने से। दुइ = दोनों। मसतकि = माथे पर।14। अर्थ: पाँच तत्वों से बना हुआ ये मनुष्य का शरीर केवल प्रभु के अपने आप से ही प्रकट हुआ। इस शरीर के संयोग के कारण जीव कर्मों में व्यस्त हो जाता है। प्रभु के हुक्म अनुसार ही जीव के किए अच्छे और बुरे कर्मों के संस्कार उसके माथे पर लिखे जाते हैं, इस तरह जीव पाप और पुण्य (के बीज) बीजता है (और उनका फल भोगता है)।14। ऊतम सतिगुर पुरख निराले ॥ सबदि रते हरि रसि मतवाले ॥ रिधि बुधि सिधि गिआनु गुरू ते पाईऐ पूरै भागि मिलाइदा ॥१५॥ पद्अर्थ: निराले = निर्लिप। सतिगुर पुरख सबदि रते = जो बंदे सतिगुर पुरख के शब्द में रंगे रहते हैं। हरि रसि = हरि के रस में। रिधि सिधि = आत्मिक ताकतें। गुरू ते = गुरु से।15। अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरु पुरख के शब्द में रति रहते हैं जो प्रभु के नाम-रस में मस्त रहते हैं, वह मनुष्य ऊँचे जीवन वाले बन जाते हैं, वे माया के प्रभाव से निर्लिप रहते हैं। आत्मिक शक्तियाँ ऊँची बुद्धि और परमात्मा के साथ गहरी सांझ (की दाति) गुरु से ही मिलती है। अच्छे भाग्यों से गुरु (शरण आए जीव को प्रभु-चरणों में) जोड़ देता है।15। इसु मन माइआ कउ नेहु घनेरा ॥ कोई बूझहु गिआनी करहु निबेरा ॥ आसा मनसा हउमै सहसा नरु लोभी कूड़ु कमाइदा ॥१६॥ पद्अर्थ: कउ = को। घनेरा = बहुत। निबेरा = फैसला। निबेरा करहु = (माया का नेह) खत्म कर दो। मनसा = (मनीषा, desire, wish) कामना। सहसा = सहम।16। अर्थ: हे ज्ञानवान पुरुषो! इस मन को माया का बहुत मोह चिपका रहता है; (इसके राज़ को) समझो और इस मोह को खत्म करो। जो मनुष्य लोभ के प्रभाव तहत नित्य माया के मोह का धंधा ही करता रहता है उसको (दुनियां की) आशाएं-कामनाएं-अहंकार-सहम (आदि) चिपके रहते हैं।16। सतिगुर ते पाए वीचारा ॥ सुंन समाधि सचे घर बारा ॥ नानक निरमल नादु सबद धुनि सचु रामै नामि समाइदा ॥१७॥५॥१७॥ पद्अर्थ: ते = से। वीचार = प्रभु के गुणों की विचार। सचे घर बारा = सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा की हजूरी। नादु = राग। धुनि = तुकांत। रामै नामि = परमात्मा के नाम में।17। अर्थ: जो मनुष्य गुरु से परमात्मा के गुणों की विचार (की दाति) प्राप्त कर लेता है, वह उस सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु की हजूरी में टिका रहता है, उसके चरणों में तवज्जो जोड़ के रखता है। हे नानक! उस मनुष्य के अंदर सदा-स्थिर प्रभु बसा रहता है महिमा की लहर बनी रहती है जीवन को पवित्र करने वाला राग (जैसा) होता रहता है। वह मनुष्य सदा परमात्मा के नाम में लीन रहता है।17।5।17। मारू महला १ ॥ जह देखा तह दीन दइआला ॥ आइ न जाई प्रभु किरपाला ॥ जीआ अंदरि जुगति समाई रहिओ निरालमु राइआ ॥१॥ पद्अर्थ: आइ न जाई = आय न जाई, ना पैदा होता है ना मरता है। देखा = मैं देखता हूँ। जुगति = जीवन की विधि। समाई = एक हुई है। निरालमु = (निरालम्ब) जिसको किसी आसरे की आवश्क्ता नहीं। राइआ = राजा, परमात्मा।1। अर्थ: मैं जिधर देखता हूँ उधर ही मुझे दीनों पर दया करने वाला परमात्मा दिखाई देता है। वह कृपा का श्रोत प्रभु ना पैदा होता है, ना मरता है। सब जीवों के अंदर (उसी की सिखलाई हुई) जीवन-विधि गुप्त रूप में बरत रही है (भाव, हरेक जीव उसी परमात्मा के आसरे जी रहा है, पर) वह पातशाह स्वयं और आसरों से बेमुथाज रहता है।1। जगु तिस की छाइआ जिसु बापु न माइआ ॥ ना तिसु भैण न भराउ कमाइआ ॥ ना तिसु ओपति खपति कुल जाती ओहु अजरावरु मनि भाइआ ॥२॥ पद्अर्थ: छाइआ = छाया, परछाई, अक्स, प्रतिबिंब। भराउ = भाई। कमाइआ = कामा, नौकर। ओपति = जनम। खपति = नाश। अजरावरु = (अजर+अवरु)। अजर = जरा रहित, जिसको बुढ़ापा ना आ सके। अवरु = श्रेष्ठ। मनि = (जगत के जीवों के) मन में।2। अर्थ: (दरअसल सदा टिकी रहने वाली हस्ती तो परमात्मा स्वयं है) जगत उस परमात्मा की छाया है (जब चाहे अपनी इस परछाई को अपने आप में ही गायब कर लेता है। वह परमात्मा का ना कोई पिता ना माँ, ना कोई बहिन ना भाई ना ही कोई सेवक। ना उसको जनम ना मौत, ना उसकी कोई कुल ना कोई जाति। उसको बुढ़ापा नहीं व्याप सकता, वह महान श्रेष्ठ हस्ती है (जगत के सब जीवों के) मन में वही प्यारा लगता है।2। तू अकाल पुरखु नाही सिरि काला ॥ तू पुरखु अलेख अगम निराला ॥ सत संतोखि सबदि अति सीतलु सहज भाइ लिव लाइआ ॥३॥ पद्अर्थ: सिरि = सिर पर। अलेख = जिसकी तस्वीर ना बनाई जा सके। अगंम = अगम्य (पहुँच से परे)। पुरखु = सब जीवों में व्यापक। सत = दान, सेवा। सत संतोखि = सेवा और संतोख में (रह के)। सबदि = गुरु के शब्द में (जुड़ के)। सीतलु = ठंडा, शांत। सहज = आत्मिक अडोलता। भाइ = भाव से। सहज भाइ = आत्मिक अडोलता के भाव से, पूर्ण आत्मिक अडोलता में (टिक के)।3। अर्थ: हे प्रभु! तू सब जीवों में व्यापक हो के भी मौत-रहित है, तेरे सिर पर मौत सवार नहीं हो सकती। तू सर्व-व्यापक है। जिस मनुष्य ने सेवा-संतोख (वाले जीवन) में (रह के) गुरु के शब्द (में जुड़ के) पूरन अडोल आत्मिक अवस्था में (टिक के) तेरे चरणों में तवज्जो जोड़ी है उस का हृदय ठंडा-ठार हो जाता है।3। त्रै वरताइ चउथै घरि वासा ॥ काल बिकाल कीए इक ग्रासा ॥ निरमल जोति सरब जगजीवनु गुरि अनहद सबदि दिखाइआ ॥४॥ पद्अर्थ: वरताइ = वरता के, बाँट के, पसारा पसार के। घरि = घर में। बिकाल = (काल के विपरीत) जन्म। ग्रासा = ग्रास, भोजन मुँह में डालने की एक मात्रा। जग जीवनु = जगत का जीवन प्रभु। गुरि = गुरु ने। अनहद = एक रस। सबदि = शब्द से।4। अर्थ: माया के तीन गुणों का पसारा पसार के प्रभु स्वयं (इसके ऊपर) चौथे घर में टिका रहता है (जहाँ तीन गुणों की पहुँच नहीं हो सकती)। जनम और मरन उसने एक ग्रास कर लिए हुए हैं (उसको ना जनम है ना मौत)। सारे जीवों में परमात्मा की पवित्र ज्योति (प्रकाश कर रही है), वह जगत की जिंदगी का सहारा है। जिस मनुष्य को गुरु ने एक-रस अपने शब्द में जोड़ा है उसको उस (जगजीवन) का दीदार करवा दिया है।4। ऊतम जन संत भले हरि पिआरे ॥ हरि रस माते पारि उतारे ॥ नानक रेण संत जन संगति हरि गुर परसादी पाइआ ॥५॥ पद्अर्थ: माते = मस्त। रेण = चरणों की धूल।5। अर्थ: जो लोग परमात्मा के प्यारे हैं वे श्रेष्ठ जीवन वाले हैं वह संत हैं वह भले हैं, वह परमात्मा के नाम-रस में मस्त रहते हैं, परमात्मा उन्हें संसार-समुंदर से पार लंघा लेता है। हे नानक! उन संत-जनों की संगति कर उनके चरणों की धूल ले, उन्होंने गुरु की किरपा से परमात्मा को पा लिया है।5। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |