श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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तू अंतरजामी जीअ सभि तेरे ॥ तू दाता हम सेवक तेरे ॥ अम्रित नामु क्रिपा करि दीजै गुरि गिआन रतनु दीपाइआ ॥६॥

पद्अर्थ: सभि = सारे। गुरि = गुरु ने। दीपाइआ = रौशन किया।6।

अर्थ: हे प्रभु! सारे जीव तेरे (ही पैदा किए हुए) हैं, तू सबके दिल की जानने वाला है। हे प्रभु! हम जीव तेरे दर के सेवक हैं, तू हम सबको दातें देने वाला है। कृपा करके हमें आत्मिक जीवन देने वाला अपना नाम दे। (जिसके ऊपर तू कृपा करता है) गुरु ने उसके ऊपर तेरे ज्ञान का रत्न रौशन कर दिया है।6।

पंच ततु मिलि इहु तनु कीआ ॥ आतम राम पाए सुखु थीआ ॥ करम करतूति अम्रित फलु लागा हरि नाम रतनु मनि पाइआ ॥७॥

पद्अर्थ: तनु = शरीर। आतम राम = सर्व व्यापक ज्योति। अंम्रित फलु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम फल।7।

अर्थ: (सर्व-व्यापक परमात्मा की रजा में) पाँच तत्वों ने मिल के यह (मनुष्य का) शरीर बनाया, जिस मनुष्य ने उस सर्व-व्यापक प्रभु को पा लिया उसके अंदर आत्मिक आनंद बन गया। (परमात्मा के साथ संबंध बनाने वाले उसके) कामों को उसके उद्यम को वह नाम-फल लगा जिस ने उसको आत्मिक जीवन बख्शा, उसने अपने मन में ही परमात्मा का नाम-रतन पा लिया।7।

ना तिसु भूख पिआस मनु मानिआ ॥ सरब निरंजनु घटि घटि जानिआ ॥ अम्रित रसि राता केवल बैरागी गुरमति भाइ सुभाइआ ॥८॥

पद्अर्थ: भूख पिआस = माया की भूख प्यास। रसि = स्वाद में। बैरागी = विरक्त। भाइ = प्रेम में। सुभाइआ = सुंदर लगा जाता है।8।

अर्थ: जिस मनुष्य का मन (परमात्मा की याद में) पतीज जाता है उसको माया की भूख-प्यास नहीं रहती, वह निरंजन को सब जगह हरेक घट में पहचान लेता है। वह आत्मिक जीवन देने वाले सिर्फ नाम-रस में ही मस्त रहता है, दुनिया के रसों से उपराम रहता है। गुरु की मति से परमात्मा के प्रेम में जुड़ के उसका आत्मिक जीवन सुंदर लगने लग जाता है।8।

अधिआतम करम करे दिनु राती ॥ निरमल जोति निरंतरि जाती ॥ सबदु रसालु रसन रसि रसना बेणु रसालु वजाइआ ॥९॥

पद्अर्थ: अधिआतम = (अध्यातम = the Supreme Spirit or the relation between the Supreme and the individual soul) जीवात्मा और परमात्मा का परस्पर गहरा संबंध बनाने वाले। निरंतरि = (निर+अंतर = having no intervening space) एक रस। रसालु = (रस+आलस) रस का घर, आत्मिक आनंद देने वाला। रसन रसि = रसों के रस में, महा श्रेष्ठ रस में। रसना = जीभ। बेणु = बँसरी।9।

अर्थ: वह मनुष्य दिन-रात वही कर्म करता है जो उसकी जिंद को परमात्मा के साथ जोड़े रखते हैं, वह परमात्मा की पवित्र ज्योति को हर जगह एक-रस पहचान लेता है। सब रसों के श्रोत गुरु-शब्द को (वह अपने हृदय में बसाता है)। उसकी जीभ महान श्रेष्ठ रस नाम में (रसी) रहती है। वह (अपने अंदर आत्मिक आनंद की, मानो) एक रसीली बाँसुरी बजाता है।9।

बेणु रसाल वजावै सोई ॥ जा की त्रिभवण सोझी होई ॥ नानक बूझहु इह बिधि गुरमति हरि राम नामि लिव लाइआ ॥१०॥

पद्अर्थ: त्रिभवण सोझी = तीनों भवनों में व्यापक प्रभु की सूझ। गुरमति = गुरु की मति से।10।

अर्थ: पर यह रसीली बाँसुरी वही मनुष्य बजा सकता है जिसको तीन भवनों में व्यापक परमात्मा की सूझ पड़ जाती है। हे नानक! तू भी गुरु की मति ले के यह सलीका सीख ले। जिस किसी ने भी गुरु की मति ली है उसकी तवज्जो परमात्मा के नाम में जुड़ी रहती है।10।

ऐसे जन विरले संसारे ॥ गुर सबदु वीचारहि रहहि निरारे ॥ आपि तरहि संगति कुल तारहि तिन सफल जनमु जगि आइआ ॥११॥

पद्अर्थ: निरारे = निर्लिप। जगि = जगत में।11।

अर्थ: जगत में ऐसे लोग बहुत कम हैं जो गुरु के शब्द को अपनी तवज्जो में टिकाते हैं और (दुनियां में विचरते हुए भी माया के मोह से) निर्लिप रहते हैं। वह संसार-समुंदर से खुद पार लांघ जाते हैं, अपनी कुलों को और उनको भी पार लंघा लेते हैं जो उनकी संगति करते हैं। जगत में ऐसे लोगों का आना लाभदायक है।11।

घरु दरु मंदरु जाणै सोई ॥ जिसु पूरे गुर ते सोझी होई ॥ काइआ गड़ महल महली प्रभु साचा सचु साचा तखतु रचाइआ ॥१२॥

पद्अर्थ: गुर ते = गुरु से। महल महली = महल का मालिक। सचु = सदा स्थिर रहने वाला।12।

अर्थ: वही व्यक्ति परमात्मा का घर परमात्मा का दर परमात्मा का महल पहचान लेता है जिसको पूरे गुरु से (ऊँची) समझ मिलती है। उसको समझ आ जाती है कि ये शरीर परमात्मा के किले हैं महल हैं। वह महलों का मालिक प्रभु सदा-स्थिर रहने वाला है (मनुष्य का शरीर) उसने अपने बैठने के लिए तख़्त बनाया हुआ है।12।

चतुर दस हाट दीवे दुइ साखी ॥ सेवक पंच नाही बिखु चाखी ॥ अंतरि वसतु अनूप निरमोलक गुरि मिलिऐ हरि धनु पाइआ ॥१३॥

पद्अर्थ: चतुर दस हट = चौदह भवन रूप हाट। दीवे दुइ = दो दीए, सूरज और चँद्रमा। साखी = गवाह। बिखु = जहर, आत्मिक मौत लाने वाली माया। वसतु अनूप = वह चीज जिस जैसी और कोई नहीं। गुरि मिलिऐ = अगर गुरु मिल जाए।13।

अर्थ: यह बेमिसाल और अमूल्य नाम-धन हरेक शरीर महल के अंदर मौजूद है। अगर गुरु मिल जाए तो अंदर से ही यह धन प्राप्त हो जाता है। (जिनको यह नाम-धन मिल जाता है वह प्रभु के जाने-माने सेवक कहलवाते हैं) वह जाने-पहचाने सेवक (फिर) उस माया-जहर को नहीं चखते जो आत्मिक मौत लाती है (वे अटल आत्मिक जीवन के मालिक बन जाते हैं) चौदह लोक और चाँद व सूरज इस बात के गवाह हैं।13।

तखति बहै तखतै की लाइक ॥ पंच समाए गुरमति पाइक ॥ आदि जुगादी है भी होसी सहसा भरमु चुकाइआ ॥१४॥

पद्अर्थ: तखति = तख्त पर, सिंहासन पर, हृदय तख्त पर। लाइक = यौग्य, हकदार। पंच = पाँचों कामादिक। पाइक = सेवक। सहसा = सहम। भरमु = भटकना।14।

अर्थ: जो मनुष्य गुरु की मति पर चलता है उसकी पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ उसकी सेवक बन के उसके वश में रहती हैं, वह हृदय-तख़्त पर बैठने-योग्य हो जाता है और हृदय-तख़्त पर बैठा रहता है (भाव, ना उसकी ज्ञान-इंद्रिय माया की तरफ डोलती हैं ना ही उसका मन विकारों की ओर जाता है)। जो परमात्मा सृष्टि के आदि से भी पहले का है जुगों से भी आदि से है, अब भी मौजूद है और सदा के लिए कायम रहेगा वह परमात्मा गुरु की मति पर चलने वाले मनुष्य के अंदर प्रकट होकर उसका सहम और उसकी भटकना दूर कर देता है।14।

तखति सलामु होवै दिनु राती ॥ इहु साचु वडाई गुरमति लिव जाती ॥ नानक रामु जपहु तरु तारी हरि अंति सखाई पाइआ ॥१५॥१॥१८॥

पद्अर्थ: लिव जाती = लगन से सांझ डाल ली। तरु तारी = तैराकी करो, ऐसा तैरो, संसार समुंदर से पार लांघने के प्रयत्न करो। सखाई = मददगार।15।

अर्थ: हृदय-तख़्त पर बैठे मनुष्य को दिन-रात आदर मिलता है। जिस मनुष्य ने गुरु की मति पर चल कर परमात्मा के चरणों के साथ लगन की सांझ डाल ली उसको ये आदर सदा के लिए मिला रहता है ये इज्जत सयदा के लिए मिली रहती है।

हे नानक! (कह: हे भाई!) परमात्मा का नाम जपो। (संसार समुंदर से पार लांघने के लिए स्मरण की) तैराकी तैरो। जो मनुष्य स्मरण करता है वह उस हरि को मिल जाता है जो आखिर तक साथी बना रहता है।15।1।18।

मारू महला १ ॥ हरि धनु संचहु रे जन भाई ॥ सतिगुर सेवि रहहु सरणाई ॥ तसकरु चोरु न लागै ता कउ धुनि उपजै सबदि जगाइआ ॥१॥

पद्अर्थ: संचहु = इकट्ठा करो। तसकरु = चोर। धुनि = तुकांत।1।

अर्थ: हे भाई जनो! परमात्मा का नाम-धन इकट्ठा करो (पर ये धन गुरु के बताए राह पर चलने से मिलता है, इस वास्ते) गुरु की बताई हुई सेवा करके गुरु की शरण में टिके रहो। (जो मनुष्य ये आत्मिक रास्ता पकड़ता है) उसको कोई (कामादिक) चोर नहीं लगता (कोई चोर उस पर अपना दाव नहीं लगा सकता क्योंकि) गुरु ने अपने शब्द के द्वारा उसको जगा दिया है और उसके अंदर (नाम-जपने की) ध्वनि पैदा हुई रहती है।1।

तू एकंकारु निरालमु राजा ॥ तू आपि सवारहि जन के काजा ॥ अमरु अडोलु अपारु अमोलकु हरि असथिर थानि सुहाइआ ॥२॥

पद्अर्थ: असथिर = स्थिर, सदा कायम रहने वाला। थानि = जगह में।2।

अर्थ: हे प्रभु! तू एक स्वयं ही स्वयं है, तुझे किसी सहारे की आवश्यक्ता नहीं, तू सारी सृष्टि का राजा है, अपने सेवकों के काम तू खुद सवारता है। हे हरि! तुझे मौत नहीं छू सकती, तुझे माया डुला नहीं सकती, तू बेअंत है, तेरा मूल्य नहीं डाला जा सकता। तू ऐसी जगह शोभायमान है जो हमेशा कायम रहने वाला है।2।

देही नगरी ऊतम थाना ॥ पंच लोक वसहि परधाना ॥ ऊपरि एकंकारु निरालमु सुंन समाधि लगाइआ ॥३॥

पद्अर्थ: देही = शरीर। पंच लोक = संत जन।3।

अर्थ: मनुष्य का शरीर, मानो, एक शहर है। जिस-जिस शरीर-शहर में जाने-माने संत-जन रहते हैं, वह-वह शरीर-शहर (परमात्मा के बसने के लिए) श्रेष्ठ जगह है। जो परमात्मा सब जीवों के सिर पर रखवाला है, जो एक स्वयं ही स्वयं (अपने जैसा) है, जिसको और किसी आसरे-सहारे की आवश्यक्ता नहीं, वह परमात्मा (उस शरीर-शहर में, मानो) ऐसी समाधि लगाए बैठा है जिसमें कोई मायावी फुरने नहीं उठते।3।

देही नगरी नउ दरवाजे ॥ सिरि सिरि करणैहारै साजे ॥ दसवै पुरखु अतीतु निराला आपे अलखु लखाइआ ॥४॥

पद्अर्थ: नउ दरवाजे = नौ गोलकें (कान, नाक आदि)। सिरि सिरि = हरेक के सिर पर, हरेक के। अलखु = अदृष्ट।4।

अर्थ: विधाता प्रभु ने हरेक शरीर-शहर को नौ-नौ दरवाजे लगा दिए हैं (इन दरवाजों के द्वारा शरीर-शहर में बसने वाली जीवात्मा बाहरी दुनियां से अपना संबंध बनाए रखती है। एक दसवाँ दरवाजा भी है जिसके द्वारा परमात्मा और जीवात्मा का मेल होता है, उस) में वह परमात्मा खुद टिकता है जो सर्व-व्यापक है जो माया के प्रभाव से परे है, जो निर्लिप है जो अदृष्ट है। (पर जीव को अपना आप) वह स्वयं ही दिखाता है।4।

पुरखु अलेखु सचे दीवाना ॥ हुकमि चलाए सचु नीसाना ॥ नानक खोजि लहहु घरु अपना हरि आतम राम नामु पाइआ ॥५॥

पद्अर्थ: अलेखु = जिसकी कोई तस्वीर ना बनाई जा सके। सचे = सदा स्थिर रहने वाले का। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। नीसाना = परवाना। लहहु = ढूँढ लो।5।

अर्थ: हरेक शरीर-शहर में रहने वाला परमात्मा ऐसा है कि उसका कोई चित्र नहीं बना सकता (वह सदा-स्थिररहने वाला है और) उस सदा-स्थिर प्रभु का दरबार भी सदा-स्थिर है। (जगत की सारी कार वह) अपने हुक्म में चला रहा है (उसके हुक्म का) परवाना अटल है। हे नानक! (सर्व-व्यापक प्रभु हरेक शरीर-घर में मौजूद है) अपना हृदय-घर खोज के उसको ढूँढ लो। (जिस-जिस मनुष्य ने ये खोज-बीन की है) उसने उस सर्व-व्यापक प्रभु का नाम-धन हासिल कर लिया है।5।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh