श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1040 सरब निरंजन पुरखु सुजाना ॥ अदलु करे गुर गिआन समाना ॥ कामु क्रोधु लै गरदनि मारे हउमै लोभु चुकाइआ ॥६॥ पद्अर्थ: निरंजन = (निर+अंजन) जिस पर माया की कालिख का असर ना पड़ सके। अदलु = न्याय। गरदनि = गर्दन।6। अर्थ: वह सुजान प्रभु सब शरीरों में व्यापक होता हुआ भी माया के प्रभाव से परे है, और (हरेक बात में) न्याय करता है। जो मनुष्य गुरु के बख्शे इस ज्ञान में अपने आप को लीन करता है वह अपने अंदर से काम और क्रोध का बिल्कुल ही नाश कर देता है, उसने अहंकार और लोभ को भी समाप्त कर लिया है।6। सचै थानि वसै निरंकारा ॥ आपि पछाणै सबदु वीचारा ॥ सचै महलि निवासु निरंतरि आवण जाणु चुकाइआ ॥७॥ पद्अर्थ: सचै थानि = सदा स्थिर रहने वाली जगह पर। निरंतरि = दूरी के बिना, एक रस। महलि = महल में।7। अर्थ: वह परमात्मा जिसका कोई विशेष रूप नहीं बताया जा सकता एक ऐसी जगह पर बिराजमान है जो हमेशा कायम रहने वाली है। वह आप ही अपने आप को विचारता है और स्वयं ही समझता है। जिस जीव ने उस सदा-स्थिर प्रभु के चरणों (महल) में अपना ठिकाना सदा के लिए बना लिया (भाव, जो मनुष्य सदा उसकी याद में जुड़ा रहता है) परमात्मा उसके पैदा होने मरने के चक्करों को समाप्त कर देता है।7। ना मनु चलै न पउणु उडावै ॥ जोगी सबदु अनाहदु वावै ॥ पंच सबद झुणकारु निरालमु प्रभि आपे वाइ सुणाइआ ॥८॥ पद्अर्थ: चलै = भटकता है, डोलता है। पउण = हवा, वाशना। अनाहदु = एक रस। वावै = बजाता है। झुणकारु = एक रस मीठी आवाज। पंच सबद झुणकारु = पाँच किस्म के साजों से मिल के पैदा होने वाली एक रस मीठी सुर। निरालमु = (निर+आलम्ब) (किसी साज़ आकद के) आसरे के बिना। प्रभि = प्रभु ने। वाइ = बजा के।8। अर्थ: उस मनुष्य का मन (माया की खातिर) नहीं भटकता, माया की तृष्णा उसको जगह-जगह नहीं भटकाए फिरती। प्रभु-चरणों में जुड़ा हुआ वह मनुष्य (अपने अंदर) एक-रस महिमा (का बाजा) बजाता रहता है, जिसकी इनायत से उसके अंदर, मानो, एक मीठा-मीठा एक-रस राग होता रहता है जैसे पाँच-किस्मों के साजों के एक साथ बजाने से पैदा होता है, उस राग को बाहर से किसी साज़ के आसरे की जरूरत नहीं पड़ती। यह राग (अंदर बसते) प्रभु ने स्वयं ही बजा के उसको सुनाया है।8। भउ बैरागा सहजि समाता ॥ हउमै तिआगी अनहदि राता ॥ अंजनु सारि निरंजनु जाणै सरब निरंजनु राइआ ॥९॥ पद्अर्थ: बैरागा = वैराग, विछोड़े का अहसास। सहजि = आत्मिक अडोलता में। अनहदि = एक रस टिके रहने वाले प्रभु में। अंजनु = सुरमा। सारि = डाल के।9। अर्थ: उस मनुष्य के अंदर परमात्मा का डर-अदब पैदा होता है, परमात्मा का प्यार उपजता है, (जिसके कारण) वह आत्मिक अडोलता में टिका रहता है। वह मनुष्य अहंकार दूर करके अविनाशी प्रभु (के नाम-रंग) में रंगा रहता है। (प्रभु के नाम का) सुरमा डाल के वह पहचान लेता है कि वह राजन-प्रभु स्वयं माया के प्रभाव से परे है और (शरण पड़े) सब जीवों को भी माया के प्रभाव से बचा लेता है।9। दुख भै भंजनु प्रभु अबिनासी ॥ रोग कटे काटी जम फासी ॥ नानक हरि प्रभु सो भउ भंजनु गुरि मिलिऐ हरि प्रभु पाइआ ॥१०॥ पद्अर्थ: गुरि मिलिऐ = अगर गुरु मिल जाए।10। अर्थ: प्रभु जीवों के डर और दुख नाश करने वाला है और स्वयं कभी नाश होने वाला नहीं। वह जीवों के रोग काटता है, जम के फंदे तोड़ता है। हे नानक! वह हरि, वह भय-भंजन प्रभु तभी मिलता है जब गुरु मिल जाए।10। कालै कवलु निरंजनु जाणै ॥ बूझै करमु सु सबदु पछाणै ॥ आपे जाणै आपि पछाणै सभु तिस का चोजु सबाइआ ॥११॥ पद्अर्थ: कवलु = ग्रास (a mouthful)। कालै कवलु = काल का ग्रास (बना लेता है), मौत का डर खत्म कर लेता है। करमु = बख्शिश। चोज = तमाशा।11। अर्थ: जो मनुष्य माया-रहित परमात्मा के साथ सांझ डाल लेता है वह मौत को ग्रास लेता है (निवाला बना लेता है वह मौत का डर समाप्त कर लेता है), वह परमात्मा की बख्शिश को समझ लेता है, वह प्रभु की महिमा की वाणी के साथ जान-पहचान डालता है। (उसको ये निश्चय बन जाता है कि) परमात्मा स्वयं सब जीवों के दिल की जानता है और पहचानता है, यह सारा जगत-तमाशा उसी का रचा हुआ है।11। आपे साहु आपे वणजारा ॥ आपे परखे परखणहारा ॥ आपे कसि कसवटी लाए आपे कीमति पाइआ ॥१२॥ पद्अर्थ: कसि = घिसा के।12। अर्थ: (यह जगत, मानो, एक शहर है जहाँ जीव प्रभु के नाम का व्यापार करने आते हैं) परमात्मा स्वयं ही (राशि-पूंजी देने वाला) शाहूकार है स्वयं ही (जीवों में व्यापक हो के) व्यापारी है, वह स्वयं ही इस सौदे को परखता है क्योंकि वह खुद ही इसे परखने की योग्यता रखता है। (हरेक जीव-वणजारे के किए हुए वणज को व्यापार को) प्रभु स्वयं ही परखता है जैसे सोनियारा सोने को कसौटी पर घिसा के परखता है, और फिर प्रभु स्वयं ही (उस वस्तु का) मूल्य डालता है।12। आपि दइआलि दइआ प्रभि धारी ॥ घटि घटि रवि रहिआ बनवारी ॥ पुरखु अतीतु वसै निहकेवलु गुर पुरखै पुरखु मिलाइआ ॥१३॥ पद्अर्थ: दइआलि प्रभि = दयालु प्रभु ने। बनवारी = जगत का मालिक। अतीतु = निर्लिप। निहकेवलु = (निश्केवल्य) पवित्र, शुद्ध स्वरूप। गुरपुरखै = गुरु पुरख ने। पुरखु = सर्व व्यापक प्रभु।13। अर्थ: जिस मनुष्य पर दया-के-घर प्रभु ने मेहर की उसे पक्का यकीन हो गया कि जगत का मालिक प्रभु हरेक शरीर में व्यापक है। हरेक शरीर में बसते हुए भी वह माया के प्रभाव से परे है और पवित्र स्वरूप है। (जिस पर प्रभु की मेहर हुई) उसको सतिगुरु पुरख ने वह सर्व-व्यापक प्रभु मिला दिया।13। प्रभु दाना बीना गरबु गवाए ॥ दूजा मेटै एकु दिखाए ॥ आसा माहि निरालमु जोनी अकुल निरंजनु गाइआ ॥१४॥ पद्अर्थ: गरबु = अहंकार। दूजा = प्रभु के बिना किसी और आसरे की झाक। माहि = में। जोनी = मानव जूनि वाला, मनुष्य। अकुल = जिसका कोई खास कुल नहीं।14। अर्थ: प्रभु सब जीवों के दिलों की जानता है सब के किए काम देखता है (जिस पर मेहर करे उसका) अहंकार मिटाता है, उसके अंदर से और सभी आसरों की झाक दूर कर देता है, और उसको एक अपना आप दिखा देता है। वह मनुष्य दुनियां की आशाओं में (विचरता हुआ भी) आशाओं के आसरे से बेमुथाज हो जाता है क्योंकि वह उस प्रभु की महिमा करता रहता है जो माया के प्रभाव से परे है और जिसकी कोई खास कुल नहीं।14। हउमै मेटि सबदि सुखु होई ॥ आपु वीचारे गिआनी सोई ॥ नानक हरि जसु हरि गुण लाहा सतसंगति सचु फलु पाइआ ॥१५॥२॥१९॥ पद्अर्थ: मेटि = मिटा के। सबदि = शब्द द्वारा। आपु = अपने आप को, अपने आत्मिक जीवन को। लाहा = लाभ। सचु = सदा स्थिर रहने वाला।15। अर्थ: जो मनुष्य अपने आत्मिक जीवन को पड़तालता रहता है वही असल ज्ञानवान है, वह मनुष्य अहंकार को दूर करके गुरु के शब्द में जुड़ता है और इस तरह उसको आत्मिक आनंद प्राप्त होता है। हे नानक! परमात्मा की महिमा करनी परमात्मा के गुण गाने- (जगत में यही असल) कमाई है। जो मनुष्य साधु-संगत में आता है वह यह सदा-कायम रहने वाला फल पा लेता है।15।2।19। मारू महला १ ॥ सचु कहहु सचै घरि रहणा ॥ जीवत मरहु भवजलु जगु तरणा ॥ गुरु बोहिथु गुरु बेड़ी तुलहा मन हरि जपि पारि लंघाइआ ॥१॥ पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर प्रभु नाम। कहहु = स्मरण करो। सचै घरि = सच्चे के घर में, सदा स्थिर प्रभु के घर में। मरहु = विकारों से बचे रहोगे। भवजलु = संसार समुंदर। बोहिथु = जहाज। तुलहा = नदी पार करने के लिए लकड़ी आदि का बनाया हुआ जुगाड़, बेड़ी। मन = हे मन!।1। अर्थ: (हे भाई!) सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा का नाम स्मरण करो, (नाम-जपने की इनायत से उस) सदा-स्थिर प्रभु की हजूरी में जगह मिली रहेगी, जीवन-यात्रा में विकारों के हमलों से बचे रहोगे, और संसार-समुंदर से पार लांघ जाओगे। हे मन! (संसार-समुंदर से पार लांघने के लिए) गुरु जहाज है, गुरु बेड़ी है, (गुरु की शरण पड़ कर) हरि-नाम जप, (जिस जिस ने नाम जपा है गुरु ने उसको) पार लंघा दिया है।1। हउमै ममता लोभ बिनासनु ॥ नउ दर मुकते दसवै आसनु ॥ ऊपरि परै परै अपर्मपरु जिनि आपे आपु उपाइआ ॥२॥ पद्अर्थ: ममता = अपनत्व। नउ दर = नौ गोलकें (नाक कान आदि)। मुकते = विकारों के असर से स्वतंत्र। दसवै = दसवें द्वार में। अपरंपरु = परे से परे प्रभु। आपु = अपने आप को।2। अर्थ: परमात्मा का नाम अहंकार ममता और लोभ का नाश करने वाला है, (नाम जपने की इनायत से) शरीर के नौ दरवाजों (गोलकों) के विषयों से निजात मिली रहती है, तवज्जो दसवें द्वार में टिकी रहती है (भाव, दसवें द्वार के द्वारा परमात्मा के साथ संबंध बना रहता है)। जिस परमात्मा ने अपने आप को (सृष्टि के रूप में) प्रकट किया है जो परे से परे है और बेअंत है वह उस दसवाँ द्वार में प्रत्यक्ष हो जाता है।2। गुरमति लेवहु हरि लिव तरीऐ ॥ अकलु गाइ जम ते किआ डरीऐ ॥ जत जत देखउ तत तत तुम ही अवरु न दुतीआ गाइआ ॥३॥ पद्अर्थ: लिव = लगन, तवज्जो। अकलु = अखंड (कला = हिस्सा)। ते = से। देखउ = मैं देखता हूँ। दुतीआ = दूसरा, कोई अन्य।3। अर्थ: (हे भाई!) गुरु की मति ग्रहण करो (गुरु की मति के द्वारा) परमात्मा में तवज्जो जोड़ने से संसार-समुंदर से पार लांघा जाता है। (एक-रस व्यापक) अखण्ड प्रभु की महिमा करने से जम से डरने की आवश्यक्ता नहीं रह जाती। (हे प्रभु! यह तेरे स्मरण के सदके ही है कि) मैं जिधर-जिधर देखता हूँ उधर-उधर तू ही तू दिखता है। मुझे तेरे जैसा और कोई नहीं दिखाई देता, मैं तेरी स्तुति करता हूँ।3। सचु हरि नामु सचु है सरणा ॥ सचु गुर सबदु जितै लगि तरणा ॥ अकथु कथै देखै अपर्मपरु फुनि गरभि न जोनी जाइआ ॥४॥ पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर रहने वाला। जितै लगि = जिस में लग के। अकथु = वह प्रभु जिसका स्वरूप बयान ना किया जा सके। फुनि = दोबारा, फिर।4। अर्थ: परमात्मा का नाम सदा-स्थिर रहने वाला है, उसका ओट-आसरा भी सदा-स्थिर रहने वाला है। गुरु का शब्द (भी) सदा-स्थिर रहने वाला (साधन) है, शब्द में जुड़ के ही संसार-समुंदर में से पार लांघा जा सकता है। परमात्मा का स्वरूप् बयान से परे है, जो मनुष्य उस परे से परे परमात्मा की महिमा करता है वह उसके दर्शन कर लेता है, वह मनुष्य फिर गर्भ जोनि में नहीं आता।4। सच बिनु सतु संतोखु न पावै ॥ बिनु गुर मुकति न आवै जावै ॥ मूल मंत्रु हरि नामु रसाइणु कहु नानक पूरा पाइआ ॥५॥ पद्अर्थ: सच बिनु = सदा स्थिर प्रभु के नाम के बिना। रसाइणु = सब रसों का घर (रस+आयन)।5। अर्थ: सदा-स्थिर प्रभु का नाम स्मरण के बिना (कोई मनुष्य दूसरों की) सेवा व संतोख (का आत्मिक गुण) प्राप्त नहीं कर सकता। गुरु की शरण के बिना विकारों से खलासी नहीं मिलती, मनुष्य जनम-मरण के चक्करों में पड़ा रहता है। हे नानक! हरि का नाम स्मरण कर जो सब मंत्रों का मूल है और सब रसों को श्रोत है। (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर नाम स्मरण करता है) उसको पूर्ण प्रभु मिल जाता है।5। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |