श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सच बिनु भवजलु जाइ न तरिआ ॥ एहु समुंदु अथाहु महा बिखु भरिआ ॥ रहै अतीतु गुरमति ले ऊपरि हरि निरभउ कै घरि पाइआ ॥६॥

पद्अर्थ: अथाहु = जिसकी थाह ना मिल सके। बिखु = जहर। अतीतु = निर्लिप। ऊपरि = ‘महा बिखु’ से ऊपर।6।

अर्थ: यह संसार-समुंदर बहुत ही गहरा है और (विकारों के) जहर से भरा हुआ है। सदा-स्थिर परमात्मा के नाम स्मरण के बिना इसमें से पार नहीं लांघा जा सकता। जो मनुष्य गुरु की मति लेता है वह विकारों से निर्लिप रहता है वह जहर भरे समुंदर से ऊपर-ऊपर रहता है, उसको परमात्मा मिल जाता है और वह ऐसे (आत्मिक) ठिकाने में पहुँच जाता है जहाँ वह विकारों के डर-सहम से परे हो जाता है।6।

झूठी जग हित की चतुराई ॥ बिलम न लागै आवै जाई ॥ नामु विसारि चलहि अभिमानी उपजै बिनसि खपाइआ ॥७॥

पद्अर्थ: हित = मोह। बिलम = विलम्ब, ढील। विसारि = बिसार के। चलहि = जाते हैं।7।

अर्थ: जगत के (पदार्थोंके) मोह की समझदारी व्यर्थ ही जाती है क्योंकि (जगत की माया का साथ समाप्त होने में) ज्यादा समय नहीं लगता और मनुष्य इस मोह के कारण जनम-मरण में पड़ जाता है। माया का गुमान करने वाले व्यक्ति परमात्मा का नाम भुला के (यहाँ से खाली हाथ) चल पड़ते हैं। (जो भी प्रभु का नाम बिसारता है वह) पैदा होता है मरता है पैदा होता है मरता है और दुखी होता है।7।

उपजहि बिनसहि बंधन बंधे ॥ हउमै माइआ के गलि फंधे ॥ जिसु राम नामु नाही मति गुरमति सो जम पुरि बंधि चलाइआ ॥८॥

पद्अर्थ: गलि = गले में। बंधि = बाँध के।8।

अर्थ: जिस लोगों के गले में अहंकार और माया के फंदेपड़े रहते हैं, वे इन बंधनो में बँधे हुए जनम-मरण के चक्करों में पड़े रहते हैं। जिस मनुष्य को सतिगुरु की मति के द्वारा परमात्मा का नाम प्राप्त नहीं हुआ, वह मोह के बंधनो में बाँध के जम के शहर में धकेला जाता है।8।

गुर बिनु मोख मुकति किउ पाईऐ ॥ बिनु गुर राम नामु किउ धिआईऐ ॥ गुरमति लेहु तरहु भव दुतरु मुकति भए सुखु पाइआ ॥९॥

पद्अर्थ: भव = संसार समुंदर। दुतरु = जिससे पार लांघना बहुत मुश्किल है।9।

अर्थ: गुरु की शरण के बिना (अहंकार माया के बंधनो से) खलासी किसी भी हालत में नहीं मिल सकती, क्योंकि, गुरु की शरण में आए बिना परमात्मा का नाम नहीं स्मरण किया जा सकता। (हे भाई!) गुरु की मति पर चल कर (नाम स्मरण करो, इस तरह) उस संसार-समुंदर में से पार लांघ जाओगे जिसमें से पार लांघना बहुत मुश्किल है। जो लोग (नाम स्मरण करके) विकारों से बच निकले उनको आत्मिक आनंद प्राप्त हो गया।9।

गुरमति क्रिसनि गोवरधन धारे ॥ गुरमति साइरि पाहण तारे ॥ गुरमति लेहु परम पदु पाईऐ नानक गुरि भरमु चुकाइआ ॥१०॥

पद्अर्थ: क्रिसनि = कृष्ण ने। गोवरधन = विंद्रावन के नजदीक एक पहाड़। इसको कृष्ण जी ने अपनी उंगली पर उठा लिया था। धारे = उठा लिया। साइरि = समुंदर में। पाहण = पत्थर। श्री राम चंद्र जी ने समुंदर में पत्थर तैराए थे। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। गुरि = गुरु ने।10।

अर्थ: गुरु की मति पर चल कर नाम स्मरण करने से बड़ी ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल हो जाती है (बड़ा आत्मिक बल प्राप्त हो जाता है) इसी गुरमति की इनायत से कृष्ण (जी) ने गौवर्धन पर्वत को (उंगलियों पर) उठा लिया था और (श्री राम चंद्र जी ने) पत्थर समुंदर में तैरा दिए थे। हे नानक! (जो भी मनुष्य गुरु की शरण आया) गुरु ने उसकी भटकना समाप्त कर दी।10।

गुरमति लेहु तरहु सचु तारी ॥ आतम चीनहु रिदै मुरारी ॥ जम के फाहे काटहि हरि जपि अकुल निरंजनु पाइआ ॥११॥

पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु का नाम। चीनहु = परखो। रिदै = हृदय में। जपि = जप के। अकुल = जिसका कोई विशेष कुल नहीं। निरंजनु = (निर+अंजन) माया के प्रभाव से ऊपर।11।

अर्थ: (हे भाई!) गुरु की मति ग्रहण करो और सदा-स्थिर प्रभु का नाम स्मरण करो, इस तरह संसार-समुंदर से पार लांघने के लिए तैरो। अपने आत्मिक जीवन को ध्यान से देखो और परमात्मा को अपने हृदय में बसाओ। परमात्मा का नाम जप के जप के देश ले जाने वाले बंधन काटे जाते हैं। जो भी मनुष्य नाम जपता है उसको वह परमात्मा मिल जाता है जिसका कोई विशेष कुल नहीं है और जो माया के प्रभाव से ऊपर है।11।

गुरमति पंच सखे गुर भाई ॥ गुरमति अगनि निवारि समाई ॥ मनि मुखि नामु जपहु जगजीवन रिद अंतरि अलखु लखाइआ ॥१२॥

पद्अर्थ: पंच = सत्य, संतोष, दया, धर्म व धैर्य। सखे = मित्र। अगनि = तृष्णा की आग। मनि = मन में। मुखि = मुँह से। नामु जगजीवन = जगजीवन का नाम। अलखु = अदृष्य।12।

अर्थ: गुरु की मति पर चलने से सत-संतोख आदि पाँचों मनुष्य के आत्मिक साथी बन जाते हैं गुर-भाई बन जाते हैं। गुरु की मति तृष्णा की आग को दूर कर के नाम में जोड़ देती है। (हे भाई!) जगत के जीवन प्रभु का नाम अपने मन में अपने मुँह से जपते रहो। (जो मनुष्य जपता है वह) अपने दिल में अदृष्ट प्रभु के दर्शन कर लेता है।12।

गुरमुखि बूझै सबदि पतीजै ॥ उसतति निंदा किस की कीजै ॥ चीनहु आपु जपहु जगदीसरु हरि जगंनाथु मनि भाइआ ॥१३॥

पद्अर्थ: सबदि = गुरु के शब्द में। उसतति = स्तुति, खुशामद। आपु = अपने आप को। जगदीसरु = जगत का ईश्वर, प्रभु। मनि = मन में।13।

अर्थ: जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर (ये जीवन-जुगति) समझ लेता है वह गुरु के शब्द में जुड़ कर आत्मिक शांति हासिल कर लेता है। यह फिर ना किसी की खुशामद स्तुति करता है ना किसी की निंदा करता है। (हे भाई!) अपने आत्मिक जीवन को (हमेशा) पड़तालते रहो, और जगत के मालिक (का नाम) जपते रहो। (जो मनुष्य नाम जपता है) उसको जगत का नाथ हरि अपने मन में प्यारा लगने लग जाता है।13।

जो ब्रहमंडि खंडि सो जाणहु ॥ गुरमुखि बूझहु सबदि पछाणहु ॥ घटि घटि भोगे भोगणहारा रहै अतीतु सबाइआ ॥१४॥

पद्अर्थ: ब्रहमंडि = जगत में। खंडि = शरीर में।14।

अर्थ: जो परमात्मा सारी सृष्टि में बसता है उसको अपने शरीर में बसता पहचानो। गुरु की शरण पड़ कर यह भेद समझो, गुरु के शब्द में जुड़ कर इस अस्लियत को पहचानो। दुनिया के सारे पदार्थों को भोग सकने वाला परमात्मा हरेक शरीर में व्यापक हो के सारे भोग भोग रहा है, फिर भी सारी सृष्टि से निर्लिप रहता है।14।

गुरमति बोलहु हरि जसु सूचा ॥ गुरमति आखी देखहु ऊचा ॥ स्रवणी नामु सुणै हरि बाणी नानक हरि रंगि रंगाइआ ॥१५॥३॥२०॥

पद्अर्थ: सूचा = स्वच्छ, पवित्र करने वाला। आखी = आँखों से। स्रवणी = कानों से।15।

अर्थ: (हे भाई!) गुरु की मति के द्वारा परमात्मा की महिमा करो जो जीवन को पवित्र बना देती है। गुरु की शिक्षा पर चल कर उस सबसे ऊँचे परमात्मा को अपनी आँखों से (अंदर-बाहर हर जगह) देखो। हे नानक! जो मनुष्य अपने कानों से परमात्मा का नाम सुनता है प्रभु की महिमा सुनता है वह परमात्मा के प्रेम-रंग में रंगा जाता है।125।3।20।

मारू महला १ ॥ कामु क्रोधु परहरु पर निंदा ॥ लबु लोभु तजि होहु निचिंदा ॥ भ्रम का संगलु तोड़ि निराला हरि अंतरि हरि रसु पाइआ ॥१॥

पद्अर्थ: परहरु = त्याग दे। पर = पराई। तजि = तज के, त्याग के। निचिंदा = निष्चिंत, बेफिकर।1।

अर्थ: (हे भाई! अपने अंदर से) काम क्रोध और पराई निंदा दूर कर, लब और लोभ त्याग के निष्चिंत हो जा (भाव, अगर तू काम, क्रोध, पराई निंदा, लब और लोभ दूर कर लेगा, तो तेरा मन हर वक्त शांत रहेगा)। जो मनुष्य (इन विकारों की कई किस्मों की) भटकनों की जंजीरों को तोड़ के निर्लिप हो जाता है वह परमात्मा को अपने अंदर ही पा लेता है, वह परमात्मा का नाम-रस प्राप्त करता है।1।

निसि दामनि जिउ चमकि चंदाइणु देखै ॥ अहिनिसि जोति निरंतरि पेखै ॥ आनंद रूपु अनूपु सरूपा गुरि पूरै देखाइआ ॥२॥

पद्अर्थ: निसि = रात के वक्त। दामनि = बिजली। चंदाइणु = रौशनी। अहि = दिन। निरंतरि = एक रस, व्यापक, हर जगह। गुरि = गुरु ने।2।

अर्थ: जैसे रात के वक्त बिजली की चमक से मनुष्य (अंधेरे में) रौशनी देख लेता है, इसी तरह (गुरु की शरण पड़ कर नाम-जपने की इनायत से) दिन-रात (हर वक्त) परमात्मा की ज्योति को हर जगह व्यापक देख सकता है। वह आनंद-रूप और आनंद-स्वरूप प्रभु (जिस किसी ने देखा है) पूरे गुरु ने ही दिखाया है।2।

सतिगुर मिलहु आपे प्रभु तारे ॥ ससि घरि सूरु दीपकु गैणारे ॥ देखि अदिसटु रहहु लिव लागी सभु त्रिभवणि ब्रहमु सबाइआ ॥३॥

पद्अर्थ: ससि = चँद्रमा। ससि घरि = चँद्रमा के घर में, हृदय में। सूरु = सूरज, प्रकाश। गैणारे = हृदय आकाश में। दीपकु = दीया। देखि = देख के। सभु = हर जगह। त्रिभवणि = तीन भवनों वाले जगत में। सबाइआ = सब जगह, सारे।3।

अर्थ: (हे भाई!) सतिगुरु की शरण पड़ो (जो मनुष्य गुरु को मिलता है उसको) परमात्मा स्वयं ही (संसार-समुंदर से) पार लंघा लेता है, उसके शांत हृदय में ज्ञान का प्रकाश हो जाता है, उसके हृदय-क्षितिज (हृदय-आकाश) में (मानो) दीया जग उठता है। (हे भाई! अपने अंदर) अदृष्ट प्रभु को देख के उसमें तवज्जो जोड़े रखो। (जो मनुष्य ये उद्यम करता है उसको) हर जगह सारे त्रिभवणी जगत में परमात्मा ही परमात्मा दिखता है।3।

अम्रित रसु पाए त्रिसना भउ जाए ॥ अनभउ पदु पावै आपु गवाए ॥ ऊची पदवी ऊचो ऊचा निरमल सबदु कमाइआ ॥४॥

पद्अर्थ: अनभउ पदु = वह आत्मिक अवस्था जहाँ मनुष्य के अंदर ऊँची सूझ पैदा होती है। आपु = स्वै भाव। पदवी = दर्जा।4।

अर्थ: जो मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस प्राप्त करता है उसकी तृष्णा समाप्त हो जाती है उसका सहम दूर हो जाता है, उसको वह आत्मिक अवस्था मिल जाती है जहाँ ज्ञान का प्रकाश होता है, वह स्वै भाव दूर कर लेता है। वह बड़ी ऊँची आत्मिक अवस्था पा लेता है, ऊँचे से ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल करता है, जीवन को पवित्र करने वाला गुरु-शब्द वह मनुष्य अपने अंदर कमाता है (भाव, गुरु-शब्द के अनुसार जीवन-घाड़त घड़ता है)।4।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh