श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1042 अद्रिसट अगोचरु नामु अपारा ॥ अति रसु मीठा नामु पिआरा ॥ नानक कउ जुगि जुगि हरि जसु दीजै हरि जपीऐ अंतु न पाइआ ॥५॥ पद्अर्थ: अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान-इंद्रिय। चरु = पहुँच।) जिस तक ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। जुगि जुगि = हरेक युग में, सदा ही। जसु = महिमा।5। अर्थ: अदृश्य और बेअंत प्रभु का नाम मनुष्य की ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे है, पर वह नाम बड़ा ही रसीला बड़ा ही मीठा और बड़ा ही प्यारा है। (मेरी नानक की अरदास है कि, हे प्रभु! मुझे) नानक को सदा ही अपनी महिमा की दाति दे। (ज्यों-ज्यों) प्रभु का नाम जपें (त्यों-त्यों वह बेअंत दिखाई देने लगता है, पर उसकी ताकतों का) अंत नहीं पाया जा सकता।5। अंतरि नामु परापति हीरा ॥ हरि जपते मनु मन ते धीरा ॥ दुघट घट भउ भंजनु पाईऐ बाहुड़ि जनमि न जाइआ ॥६॥ पद्अर्थ: मन ते = मन से। धीरा = धीरज वाला हो गया, टिक गया। दुघट = दुर्घट, मुश्किल। घट = रास्ता। भउ भंजनु = डर नाश करने वाला प्रभु। बाहुड़ि = दाबारा, फिर।6। अर्थ: जिस मनुष्य के अंदर परमात्मा का नाम बस जाता है जिसको नाम-हीरा मिल जाता है, परमात्मा का नाम स्मरण करते-स्मरण करते उसका मन अंदर से ही धैर्य-शांति हासिल कर लेता है। (नाम-जपने की इनायत से) मुश्किल जीवन-पथ का डर नाश करने वाला परमात्मा मिल जाता है (जिसको मिल जाता है) वह दोबारा जनम में नहीं आता वह पुनः जनम-मरण में नहीं पड़ता।6। भगति हेति गुर सबदि तरंगा ॥ हरि जसु नामु पदारथु मंगा ॥ हरि भावै गुर मेलि मिलाए हरि तारे जगतु सबाइआ ॥७॥ पद्अर्थ: भगति हेति = भक्ति की खातिर, भक्ति करने वाले। गुर सबदि = गुरु के शब्द में (जुड़ के)। तरंग = लहरें, वलवले, उत्साह। मंगा = मैं माँगता हूँ। गुर मेलि = गुरु की संगति में।7। अर्थ: हे प्रभु! मैं (तेरे दर से) तेरी महिमा (की दाति) माँगता हूँ, तेरे नाम (की) संपत्ति माँगता हूँ, मैं यह माँगता हूँ कि गुरु के शब्द में जुड़ के तेरी भक्ति करने के लिए मेरे अंदर उत्साह पैदा हो। (जो भाग्यशाली जीव) परमात्मा को अच्छा लगता है उसको वह गुरु की संगति में मिलाता है। परमात्मा (चाहे तो) सारे जगत को (विकारों के समुंदर से) पार लंघा लेता है।7। जिनि जपु जपिओ सतिगुर मति वा के ॥ जमकंकर कालु सेवक पग ता के ॥ ऊतम संगति गति मिति ऊतम जगु भउजलु पारि तराइआ ॥८॥ पद्अर्थ: जिनि = जिस (मनुष्य) ने। वा के = उस के (पास)। कंकर = (किंकर) दास, सेवक। पग ता के = उसके पैरों के। गति = आत्मिक अवस्था। मिति = मर्यादा, रहन सहन।8। अर्थ: जिस मनुष्य ने परमात्मा के नाम का जाप जपा है सतिगुरु की शिक्षा ने (समझो) उसके अंदर घर कर लिया है। काल और जम के सेवक उसके चरणों के दास बन गए हैं। उसकी संगति (और लोगों को भी) श्रेष्ठ बना देती है, उसकी आत्मिक अवस्था ऊँची हो जाती है, उसका रहन-सहन ऊँचा हो जाता है। वह और लोगों को भी संसार-समुंदर से पार लंघा लेता है।8। इहु भवजलु जगतु सबदि गुर तरीऐ ॥ अंतर की दुबिधा अंतरि जरीऐ ॥ पंच बाण ले जम कउ मारै गगनंतरि धणखु चड़ाइआ ॥९॥ पद्अर्थ: दुबिधा = मानसिक खींचतान, अशांति। जरीऐ = जला ली जाती है। पंच बाण = पाँच तीर (सत, संतोख, दया, धर्म व धैर्य)। गगनंतरि = चिक्त आकाश में। चढ़ाइआ = कस लिया, निशाना बाँधा।9। अर्थ: गुरु के शब्द में जुड़ के इस संसार-समुंदर से पार लांघ सकते हैं। (गुरु के शब्द की इनायत से मनुष्य की) अंदरूनी अशांति अंदर ही जल जाती है। वह मनुष्य अपने चिक्त-आकाश में (गुरु के शब्द-रूप) धनुष को ऐसा कसता है कि (सत, संतोख, दया, धर्म व धैर्य के) पाँच तीर ले के जम को (मौत के डर को, आत्मिक मौत को) मार लेता है।9। साकत नरि सबद सुरति किउ पाईऐ ॥ सबद सुरति बिनु आईऐ जाईऐ ॥ नानक गुरमुखि मुकति पराइणु हरि पूरै भागि मिलाइआ ॥१०॥ पद्अर्थ: साकत नरि = साकत मनुष्य, माया ग्रसित मनुष्य के अंदर। सुरति = लगन। पराइणु = आसरा।10। अर्थ: पर माया-ग्रसित मनुष्य के अंदर गुरु के शब्द की लगन ही पैदा नहीं होती, शब्द से लगन के बिना (माया के मोह में फंस के) वह जनम-मरण के चक्कर में पड़ा रहता है। हे नानक! गुरु की शरण पड़ना ही (माया के मोह से) खलासी का उपाय है, और पूरी किस्मत से ही परमात्मा गुरु मिलाता है।10। निरभउ सतिगुरु है रखवाला ॥ भगति परापति गुर गोपाला ॥ धुनि अनंद अनाहदु वाजै गुर सबदि निरंजनु पाइआ ॥११॥ पद्अर्थ: धुनि = ध्वनि, आवाज, तुकांत। अनाहदु = एक रस, सदा लगातार। वाजै = बजती है, अपना प्रभाव डालती है। शबदि = शब्द से।11। अर्थ: निर्भय (परमात्मा का रूप) सतिगुरु (जिस मनुष्य का) रखवाला बनता है उसको गुरु से परमात्मा की भक्ति (की दाति) मिल जाती है। उस मनुष्य के अंदर आत्मिक आनंद की एक-रस ध्वनि (तुकांत) चल पड़ती है, गुरु के शब्द में जुड़ के मनुष्य उस परमात्मा से मिल जाता है जिस पर माया का प्रभाव नहीं पड़ सकता।11। निरभउ सो सिरि नाही लेखा ॥ आपि अलेखु कुदरति है देखा ॥ आपि अतीतु अजोनी स्मभउ नानक गुरमति सो पाइआ ॥१२॥ पद्अर्थ: सिरि = सिर पर। लेखा = किए कर्मों का हिसाब। अलेखु = जिसकी तस्वीर ना बनाई जा सके। संभउ = स्वयंभु, अपने आप से प्रकट होने वाला।12। नोट: ‘अंतर’ इस सोलहे में आए शब्द ‘अंतर, अंतरु और अंतरि’ ध्यान से विचारने योग्य है। अर्थ: परमात्मा को कोई डर व्याप नहीं सकता क्योंकि उसके सिर पर किसी और का हुक्म नहीं है। वह प्रभु स्वयं अलेख है (भाव, कोई और व्यक्ति उससे किए कर्मों का हिसाब नहीं माँग सकता)। अपनी रची हुई सारी कुदरति में वह ही व्यापक दिखाई दे रहा है। (सारी कुदरति में व्यापक होते हुए भी) वह निर्लिप है, जूनियों से रहित है, और अपने आप से ही प्रकट होने की ताकत रखता है। हे नानक! गुरु की मति पर चलने से ही वह परमात्मा मिलता है।12। अंतर की गति सतिगुरु जाणै ॥ सो निरभउ गुर सबदि पछाणै ॥ अंतरु देखि निरंतरि बूझै अनत न मनु डोलाइआ ॥१३॥ पद्अर्थ: अंतरु = अंदरूनी, हृदय। अनत = (अन्यत्र) किसी और तरफ।13। अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरु के साथ गहरी सांझ डाल लेता है वह अपनी अंदरूनी आत्मिक हालत को समझने लग जाता है। गुरु के शब्द में जुड़ के वह निर्भय परमात्मा को (हर जगह बसता) पहचान लेता है। वह मनुष्य अपना अंदरूनी (हृदय) परख के प्रभु को एक-रस सब जगह व्यापक समझता है, (इसलिए) उसका मन किसी और (आसरे की झाक) की तरफ नहीं डोलता।13। निरभउ सो अभ अंतरि वसिआ ॥ अहिनिसि नामि निरंजन रसिआ ॥ नानक हरि जसु संगति पाईऐ हरि सहजे सहजि मिलाइआ ॥१४॥ पद्अर्थ: अभ अंतरि = (अभ्यन्तर = the inside of anything, mind) मन में, हृदय में। सहजि = आत्मिक अडोलता में।14। अर्थ: जिस मनुष्य का हृदय दिन-रात माया-रहित प्रभु के नाम में रसा हुआ रहता है, निरभउ परमात्मा उसके हृदय में प्रकट हो जाता है। हे नानक! उस परमात्मा की महिमा संगति (में बैठने से) मिलती है। (महिमा करने वाले बंदे को) परमात्मा अडोल आत्मिक अवस्था में मिलाए रखता है।14। अंतरि बाहरि सो प्रभु जाणै ॥ रहै अलिपतु चलते घरि आणै ॥ ऊपरि आदि सरब तिहु लोई सचु नानक अम्रित रसु पाइआ ॥१५॥४॥२१॥ पद्अर्थ: अलिपतु = निर्लिप। चलते = चंचल मन को। घरि = घर में। आणै = लाता है। सचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु। तिहु लोई = तीनों लोकों में।15। अर्थ: (महिमा करने वाला व्यक्ति) उस परमात्मा को अपने अंदर व बाहर (सारी सृष्टि में) व्यापक समझता है, वह माया के मोह से निर्लिप रहता है, और (माया की ओर) दौड़ते (मन) को (मोड़ के अपने) अंदर ही ले आता है। हे नानक! उस मनुष्य को सदा-स्थिर परमात्मा सब जीवों का रखवाला व सबका मूल और तीनों भवनों में व्यापक (की हकीकत) दिखाई दे जाती है। वह मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस हासिल कर लेता है।15।4।21। मारू महला १ ॥ कुदरति करनैहार अपारा ॥ कीते का नाही किहु चारा ॥ जीअ उपाइ रिजकु दे आपे सिरि सिरि हुकमु चलाइआ ॥१॥ पद्अर्थ: करनैहार = रचने वाला। अपारा = बेअंत। किहु = कुछ भी। चारा = ज़ेर, उज़र। सिरि सिरि = हरेक के सिर पर।1। अर्थ: इस सारी सृष्टि को रखने वाला परमात्मा बेअंत है (उसकी ताकतों का परला किनारा नहीं मिल सकता। कोई जीव उसकी ताकत के आगे अड़ना चाहे, तो) उसके पैदा किए हुए जीवकी पेश नहीं चलती। वह परमात्मा सारे जीव पैदा करके स्वयं ही (सबको) रिजक देता है और स्वयं ही हरेक पर अपना हुक्म चला रहा है (हरेक को अपने हुक्म में चला रहा है)।1। हुकमु चलाइ रहिआ भरपूरे ॥ किसु नेड़ै किसु आखां दूरे ॥ गुपत प्रगट हरि घटि घटि देखहु वरतै ताकु सबाइआ ॥२॥ पद्अर्थ: भरपूर = पूर्ण तौर पर व्यापक। घटि घटि = हरेक के घट में। वरतै = मौजूद है। ताकु = स्वयं ही स्वयं।2। अर्थ: परमात्मा (सारी सृष्टि में अपना) हुक्म वरता रहा है, और सारी ही सृष्टि में पूरी तौर से व्यापक है। मैं क्या बताऊँ कि किस के वह नजदीक है और किस से दूर? (भाव, परमात्मा हरेक जीव के अंदर भी बस रहा है और निर्लिप भी है)। (हे भाई!) हरेक शरीर में हरि को गुप्त भी और प्रकट भी बसता देखो। वह सारी रचना में एक स्वयं ही स्वयं मौजूद है।2। जिस कउ मेले सुरति समाए ॥ गुर सबदी हरि नामु धिआए ॥ आनद रूप अनूप अगोचर गुर मिलिऐ भरमु जाइआ ॥३॥ पद्अर्थ: सुरति समाए = (उसकी) तवज्जो (प्रभु में) जुड़ती है। अनूप = उपमा रहित, जिस जैसा और कोई नहीं। भरमु = भटकना।3। अर्थ: जिस जीव को परमात्मा अपने साथ मिलाता है उसकी तवज्जो (प्रभु चरणों में) जुड़ती है, वह जीव गुरु के शब्द के द्वारा परमात्मा का नाम स्मरण करता है। उसको हर जगह वह परमात्मा दिखाई देता है जो आनंद-स्वरूप है जो बेमिसाल है और जिस तक मनुष्य की ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती। गुरु की शरण पड़ने के कारण उसकी भटकना दूर हो जाती है।3। मन तन धन ते नामु पिआरा ॥ अंति सखाई चलणवारा ॥ मोह पसार नही संगि बेली बिनु हरि गुर किनि सुखु पाइआ ॥४॥ पद्अर्थ: ते = से। चलणवारा = साथ चलने वाला। मोह पसार = मोह के पसारे। बेली = साथी। किनि = किस ने? किसी ने नहीं।4। अर्थ: जिस मनुष्य को अपने मन से अपने शरीर से अपने धन-पदार्थ से ज्यादा प्यारा परमात्मा का नाम लगता है, परमात्मा उसका आखिर तक साथी बनता है उसके साथ जाता है। जगत के मोह के पसारे किसी मनुष्य के साथ साथी नहीं बन सकते। परमात्मा के नाम के बिना गुरु की शरण के बिना कभी किसी ने सुख प्राप्त नहीं किया।4। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |