श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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जह देखा तू सभनी थाई ॥ पूरै गुरि सभ सोझी पाई ॥ नामो नामु धिआईऐ सदा सद इहु मनु नामे राता हे ॥१२॥

पद्अर्थ: जह = जहाँ। देखा = मैं देखता हूँ। थाई = जगहों में। गुरि = गुरु से। नामो नामु = नाम ही नाम। धिआईऐ = ध्याना चाहिए। नामे = नाम में ही।12।

अर्थ: हे प्रभु! मैं जिधर देखता हूँ, तू सब जगहों में बसता मुझे दिखाई देता है, मुझे ये सारी समझ पूरे गुरु से मिली है। हे भाई! सदा ही सदा ही परमात्मा का नाम ही नाम स्मरणा चाहिए। (जो मनुष्य स्मरण करता है उसका) यह मन नाम में ही रंगा जाता है।12।

नामे राता पवितु सरीरा ॥ बिनु नावै डूबि मुए बिनु नीरा ॥ आवहि जावहि नामु नही बूझहि इकना गुरमुखि सबदु पछाता हे ॥१३॥

पद्अर्थ: राता = रंगा हुआ। नामे = नाम रंग में। डूबि मुए = डूब के मर गए, विकारों में डूब के आत्मिक मौत मर गए। बिनु नीरा = पानी के बिना ही (विकारों का बिल्कुल ही मुकाबला करने-योग्य नहीं रहते)। आवहि = पैदा होते हैं। जावहि = मर जाते हैं। नही बूझहि = कद्र नहीं समझते। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के।13।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के नाम-रंग में रंगा रहता है, उसका शरीर (विकारों की मैल से) पवित्र रहता है; पर जो मनुष्य नाम से टूटे रहते हैं, वे (विकारों में) डूबके (आत्मिक मौत) मरे रहते हैं, वे विकारों का रक्ती भर भी मुकाबला नहीं कर सकते। जो मनुष्य हरि नाम की कद्र नहीं समझते, वे जगत में आते हैं और (खाली ही) चले जाते हैं। पर कई ऐसे हैं जो गुरु की शरण पड़ कर गुरु-शब्द से सांझ डालते हैं।13।

पूरै सतिगुरि बूझ बुझाई ॥ विणु नावै मुकति किनै न पाई ॥ नामे नामि मिलै वडिआई सहजि रहै रंगि राता हे ॥१४॥

पद्अर्थ: सतिगुरि = गुरु ने। बूझ = समझ। मुकति = विकारों से मुक्ति। सहजि = आत्मिक अडोलता में। रंगि = प्रेम रंग में।14।

अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु ने (हमें ये) समझ बख्शी है कि परमात्मा के नाम के बिना किसी भी मनुष्य ने (विकारों से) मुक्ति हासिल नहीं की। जो मनुष्य हर वक्त नाम में लीन रहता है उसको (लोक-परलोक की) इज्जत मिलती है, वह आत्मिक अडोलता में टिका रहता है, वह प्रेम-रंग में रंगा रहता है।14।

काइआ नगरु ढहै ढहि ढेरी ॥ बिनु सबदै चूकै नही फेरी ॥ साचु सलाहे साचि समावै जिनि गुरमुखि एको जाता हे ॥१५॥

पद्अर्थ: ढहि = ढह के। चूकै = खत्म होती। फेरी = जनम मरण का चक्कर। साचु = सदा स्थिर प्रभु। साचि = सदा स्थिर प्रभु में। जिनि = जिस (मनुष्य) ने।15।

नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे भाई! यह शरीर-नगर (आखिर) गिर जाता है, और ढह-ढेरी हो जाता है। पर गुरु-शब्द (को मन में बसाए) बिना (जीवात्मा का) जनम-मरण का चक्कर समाप्त नहीं होता। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर एक परमात्मा के साथ सांझ डालता है वह सदा-स्थिर परमात्मा की महिमा करता रहता है, वह सदा-स्थिर (की याद) में लीन रहता है।15।

जिस नो नदरि करे सो पाए ॥ साचा सबदु वसै मनि आए ॥ नानक नामि रते निरंकारी दरि साचै साचु पछाता हे ॥१६॥८॥

पद्अर्थ: मनि = मन में। आए = आ के। नामि = नाम में। दरि साचै = सदा स्थिर प्रभु के दर पर। साचु पछाता = सदा स्थिर प्रभु के साथ सांझ डाल ली।16।

अर्थ: हे भाई! वही मनुष्य (महिमा की दाति) हासिल करता है, जिस पर परमात्मा मेहर की निगाह करता है, सदा स्थिर परमात्मा की महिमा का शब्द उसके मन में आ बसता है। हे नानक! जो मनुष्य निरंकार के नाम में रंगे रहते हैं, जो सदा-स्थिर प्रभु के साथ सांझ डालते हैं वे उस सदा स्थिर के दर पर (स्वीकार हो जाते हैं)।16।8।

मारू सोलहे ३ ॥ आपे करता सभु जिसु करणा ॥ जीअ जंत सभि तेरी सरणा ॥ आपे गुपतु वरतै सभ अंतरि गुर कै सबदि पछाता हे ॥१॥

पद्अर्थ: आपे = (तू) खुद ही। सभु जिसु करणा = जिसु सभु करणा, जिसका (ये) सारा जगत है। सभि = सारे। गुपतु = छुपा हुआ, सूक्ष्म रूप में। वरतै = मौजूद है। कै सबदि = के शब्द से।1।

अर्थ: हे प्रभु! तू स्वयं ही वह कर्तार है जिसका (रचा हुआ यह) सारा जगत है। सारे जीव तेरी ही शरण में हैं। हे भाई! प्रभु खुद ही सब जीवों के अंदर गुप्त रूप में मौजूद है। गुरु के शब्द से उसके साथ सांझ पड़ सकती है।1।

हरि के भगति भरे भंडारा ॥ आपे बखसे सबदि वीचारा ॥ जो तुधु भावै सोई करसहि सचे सिउ मनु राता हे ॥२॥

पद्अर्थ: भंडारा = खजाने। सबदि = शब्द से। वीचारा = (ये) समझ। तुधु भावै = तुझे अच्छा लगता है। करसहि = (जीव) करेंगे। सिउ = साथ।2।

अर्थ: हे भाई! हरि के खजाने में भक्ति के भंडारे भरे पड़े हैं। गुरु के शब्द से स्वयं ही प्रभु यह सूझ बख्शता है।

हे प्रभु! जो तुझे अच्छा लगता है, वही कुछ जीव करते हैं। हे भाई! (प्रभु की रजा से ही) जीव का मन उस सदा-स्थिर प्रभु के साथ जुड़ सकता है।2।

आपे हीरा रतनु अमोलो ॥ आपे नदरी तोले तोलो ॥ जीअ जंत सभि सरणि तुमारी करि किरपा आपि पछाता हे ॥३॥

पद्अर्थ: सभि = सारे। करि = कर के।3।

अर्थ: हे भाई! प्रभु स्वयं ही (कीमती) हीरा है खुद ही अमोलक रत्न है। प्रभु स्वयं ही अपनी मेहर की निगाह से (इस हीरे की) परख करता है। हे प्रभु! सारे ही जीव तेरी ही शरण में हैं। तू स्वयं ही कृपा करके (अपने साथ) गहरी सांझ पैदा करता है।3।

जिस नो नदरि होवै धुरि तेरी ॥ मरै न जमै चूकै फेरी ॥ साचे गुण गावै दिनु राती जुगि जुगि एको जाता हे ॥४॥

पद्अर्थ: धुरि = धुर से। फेरी = जनम मरण का चक्कर। सारे गुण = सदा स्थिर रहने वाले गुण। जुगि जुगि = हरेक युग में (बसता)।4।

अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्य पर धुर से तेरी हजूरी से तेरी मेहर की निगाह हो, वह बार-बार पैदा होता-मरता नहीं, उसका जनम-मरण का चक्कर समाप्त हो जाता है।

हे भाई! (जिस पर उसकी निगाह हो, वह) दिन-रात सदा-स्थिर प्रभु के गुण गाता है, हरेक युग में वह उस प्रभु को ही (बसता) समझता है।4।

माइआ मोहि सभु जगतु उपाइआ ॥ ब्रहमा बिसनु देव सबाइआ ॥ जो तुधु भाणे से नामि लागे गिआन मती पछाता हे ॥५॥

पद्अर्थ: मोहि = मोह में, मोह के अधीन। उपाइआ = पैदा किया है। सबाइआ = सारे। तुधु भाणे = तुझे अच्छा लगे। से = वह (बहुवचन)। नामि = नाम में। गिआन मती = आत्मिक जीवन की सूझ वाली मति के द्वारा। पछाता = सांझ डाली है।5।

अर्थ: हे प्रभु! ब्रहमा, विष्णू, सारे ही देवता गण (जो भी जगत में पैदा हुआ है) यह सारा ही जगत तूने माया के मोह में (ही) पैदा किया है (सब पर माया का प्रभाव है)। जो तुझे अच्छे लगते हैं, वह तेरे नाम में जुड़ते हैं। आत्मिक जीवन की सूझ वाली मति के द्वारा ही तेरे साथ जान-पहचान बनती है।5।

पाप पुंन वरतै संसारा ॥ हरखु सोगु सभु दुखु है भारा ॥ गुरमुखि होवै सो सुखु पाए जिनि गुरमुखि नामु पछाता हे ॥६॥

पद्अर्थ: संसारा = जगत में। हरखु = खुशी। सोगु = गमी। सभु = हर जगह। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख। सुखु = आत्मिक आनंद। जिनि = जिस (मनुष्य) ने।6।

अर्थ: हे भाई! सारे जगत में (माया के प्रभाव तहत ही) पाप और पुण्य हो रहा है। (माया के मोह में ही) हर जगह कहीं खुशी और कहीं ग़मी है (माया के मोह का) बहुत सारा दुख (जगत को व्याप रहा है)। जिस मनुष्य ने गुरु की शरण पड़ कर हरि-नाम के साथ सांझ डाली है, जो गुरु के सन्मुख रहता है वही आत्मिक आनंद पाता है।6।

किरतु न कोई मेटणहारा ॥ गुर कै सबदे मोख दुआरा ॥ पूरबि लिखिआ सो फलु पाइआ जिनि आपु मारि पछाता हे ॥७॥

पद्अर्थ: किरतु = पिछले किए कर्मों के संस्कारों का समूह। कै सबद = के शब्द से ही। मोख दुआरा = (‘किरत’ से) मुक्ति का दरवाजा। पूरबि = पूर्बले जनम में। आपु = स्वै भाव। मारि = मार के।7।

अर्थ: हे भाई! कोई मनुष्य पिछले किए कर्मों की कमाई मिटा नहीं सकता। (पिछले किए कर्मों से) मुक्ति का रास्ता गुरु के शब्द द्वारा ही मिलता है। जिस मनुष्य ने स्वै भाव मिटा के (हरि-नाम के साथ) सांझ डाल ली, उसने भी जो कुछ पूर्बले जनम में कमाई की, वही फल अब प्राप्त किया।7।

माइआ मोहि हरि सिउ चितु न लागै ॥ दूजै भाइ घणा दुखु आगै ॥ मनमुख भरमि भुले भेखधारी अंत कालि पछुताता हे ॥८॥

पद्अर्थ: मोहि = मोह के कारण। सिउ = साथ। दूजै भाइ = माया के प्यार के कारण। घणा = बहुत। आगै = परलोक में, जीवन-यात्रा में। मनमुख = मन के मुरीद। भरमि = भटकना के कारण। भुले = गलत राह पर पड़े रहते हैं। भेखधारी = धार्मिक पहरावा रखने वाले। अंत कालि = आखिरी समय।8।

अर्थ: हे भाई! माया के मोह के कारण परमात्मा के साथ मन जुड़ नहीं सकता। माया के मोह में फसे रहने से जीवन-सफर में बहुत दुख होता है। मन के मुरीद मनुष्य धार्मिक पहरावा पहन के भी भटकना के कारण गलत राह पर पड़े रहते हैं। आखिरी वक्त में पछताना पड़ता है।8।

हरि कै भाणै हरि गुण गाए ॥ सभि किलबिख काटे दूख सबाए ॥ हरि निरमलु निरमल है बाणी हरि सेती मनु राता हे ॥९॥

पद्अर्थ: कै भाणै = की रजा में (रह के)। सभि = सारे। किलबिख = पाप। सबाए = सारे। निरमलु = मल रहित, विकारों की मैल से रहित। सेती = साथ।9।

नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा की रजा में रह के परमात्मा के गुण गाता है, वह अपने सारे पाप सारे दुख (अपने अंदर से) काट देता है। उस का मन उस प्रभु के साथ रंगा रहता है, जो विकारों की मैल से रहित है और जिसकी महिमा की वाणी भी पवित्र है।9।

जिस नो नदरि करे सो गुण निधि पाए ॥ हउमै मेरा ठाकि रहाए ॥ गुण अवगण का एको दाता गुरमुखि विरली जाता हे ॥१०॥

पद्अर्थ: गुण निधि = गुणों का खजाना। मेरा = ‘मेरी मेरी’ का भाव, ममता। ठाकि रहाए = रोक के रखता है। दाता = देने वाला। विरली = बहुत कम लोगों ने, विरलों ने।10।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा जिस मनुष्य पर मेहर की निगाह करता है वह उस गुणों के खजाने हरि का मिलाप हासिल कर लेता है, वह मनुष्य अपने अंदर से अहंकार और ममता (के प्रभाव) को रोक देता है। हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले विरलों (कुछ एक ने ही) ये समझ लिया है कि गुण देने वाला और अवगुण पैदा करने वाला सिर्फ परमात्मा ही है।10।

मेरा प्रभु निरमलु अति अपारा ॥ आपे मेलै गुर सबदि वीचारा ॥ आपे बखसे सचु द्रिड़ाए मनु तनु साचै राता हे ॥११॥

पद्अर्थ: अपारा = बेअंत। सबदि = शब्द से। सचु = सदा स्थिर हरि नाम। द्रिढ़ाए = हृदय में पक्का करता है। साचै = सदा स्थिर प्रभु में।11।

अर्थ: हे भाई! मेरा प्रभु बड़ा बेअंत है और विकारों के प्रभाव से परे है। गुरु के शब्द द्वारा (अपने गुणों की) विचार बख्श के वह स्वयं ही (जीव को अपने साथ) मिलाता है। जिस पर वह स्वयं ही बख्शिश करता है, उसके हृदय में अपना सदा-स्थिर नाम पक्का कर देता है; उस मनुष्य का मन उसका तन सदा-स्थिर हरि-नाम में रंगा जाता है।11।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh