श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1053 मनु तनु मैला विचि जोति अपारा ॥ गुरमति बूझै करि वीचारा ॥ हउमै मारि सदा मनु निरमलु रसना सेवि सुखदाता हे ॥१२॥ पद्अर्थ: जोति अपारा = बेअंत प्रभु की ज्योति। बूझै = समझता है। करि = कर के। मारि = मार के। रसना = जीभ से। सेवि = जप के।12। अर्थ: हे भाई! (विकारों के कारण मनुष्य का) मन और तन गंदा हुआ रहता है, (फिर भी उसके) अंदर बेअंत परमात्मा की ज्योति मौजूद है। जब गुरु की मति से वह विचार करके (आत्मिक जीवन के भेद को) समझता है, तब अहंकार को दूर करके, और जीभ से सुखों के दाते प्रभु का नाम जप के, उसका मन सदा के लिए पवित्र हो जाता है।12। गड़ काइआ अंदरि बहु हट बाजारा ॥ तिसु विचि नामु है अति अपारा ॥ गुर कै सबदि सदा दरि सोहै हउमै मारि पछाता हे ॥१३॥ पद्अर्थ: गढ़ = किला। काइआ = शरीर। हट = हाट (बहुवचन। मन ज्ञान-इंद्रिय आदि)। तिसु विचि = इस (शरीर किले) में। अति अपारा = बहुत कीमती। कै = सबदि = के शब्द से (खरीद फरोख़्त की)। दरि = (प्रभु के) दर से। सोहै = शोभा देता है, आदर पाता है। मारि = मार के।13। अर्थ: हे भाई! इस शरीर किले में (मन, ज्ञान-इंद्रिय आदि) कई हाट हैं कई बाजार हैं (जहाँ परमात्मा के नाम-सौदे का सौदा किया जा सकता है)। इस (शरीर-किले) के बीच (ही) परमात्मा का बहुत कीमती नाम-पदार्थ है। जो मनुष्य गुरु के शब्द द्वारा (इस नाम-रतन को परख के खरीदता है, वह मनुष्य) परमात्मा के दर पर सदा आदर पाता है, (अपने अंदर से) अहंकार दूर कर के (वह मनुष्य इस नाम-रतन की) कद्र समझता है।13। रतनु अमोलकु अगम अपारा ॥ कीमति कवणु करे वेचारा ॥ गुर कै सबदे तोलि तोलाए अंतरि सबदि पछाता हे ॥१४॥ पद्अर्थ: रतनु = नाम रतन। अमोलकु = अ+मोलकु, कोई दुनियावी पदार्थ जिसके बराबर की कीमत का ना हो। सबदे = शब्द से। तोलि = तोल के, परख के। तोलाए = (जो मनुष्य) व्यापार करता है, खरीदता है। अंतरि = अपने अंदर ही। सबदि = शब्द से।14। अर्थ: हे भाई! कोई भी दुनियावी पदार्थ अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत परमात्मा के नाम-रतन के बराबर की कीमत का नहीं है। जीव बेचारा इस नाम-रत्न का मूल्य पा ही नहीं सकता। जो मनुष्य गुरु के शब्द के द्वारा इस नाम-रतन को परख के खरीदता है, वह शब्द की इनायत से अपने अंदर ही इसको पा लेता है।14। सिम्रिति सासत्र बहुतु बिसथारा ॥ माइआ मोहु पसरिआ पासारा ॥ मूरख पड़हि सबदु न बूझहि गुरमुखि विरलै जाता हे ॥१५॥ पद्अर्थ: बिसथारा = (कर्मकांड आदि का) पसारा। पढ़हि = पढ़ते हैं (बहुवचन)।15। अर्थ: हे भाई! स्मृतियां-शास्त्र (आदि धर्म-पुस्तक हरि-नाम के बिना और) बहुत सारे विचारों का खिलारा खिलारते हैं, (पर उनमें) माया का मोह ही है (कर्मकांड का ही) पसारा पसरा हुआ है। (नाम की ओर से टूटे हुए) मूर्ख (उन पुस्तकों को) पढ़ते हैं, पर महिमा की वाणी की कद्र नहीं समझते। गुरु के सन्मुख रहने वाले विरले मनुष्य ने (शब्द की कद्र) समझ ली है।15। आपे करता करे कराए ॥ सची बाणी सचु द्रिड़ाए ॥ नानक नामु मिलै वडिआई जुगि जुगि एको जाता हे ॥१६॥९॥ पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। सची बाणी = महिमा की वाणी से। सचु = सदा स्थिर हरि नाम। द्रिढ़ाए = (हृदय में) पक्का करता है। जुगि जुगि = हरेक युग में।16। अर्थ: (पर हे भाई! जीवों के भी क्या वश?) कर्तार स्वयं ही (जीवों में व्यापक हो के सब कुछ) कर रहा है और (जीवों से) करवा रहा है। (जिस पर मेहर करता है) महिमा की वाणी से (उसके हृदय में) सदा-स्थिर हरि-नाम पक्का कर देता है। हे नानक! जिस मनुष्य को प्रभु का नाम मिल जाता है उसको (लोक-परलोक की) इज्जत मिल जाती है। वह मनुष्य हरेक युग में एक परमात्मा को ही व्यापक समझता है।16।9। मारू महला ३ ॥ सो सचु सेविहु सिरजणहारा ॥ सबदे दूख निवारणहारा ॥ अगमु अगोचरु कीमति नही पाई आपे अगम अथाहा हे ॥१॥ पद्अर्थ: सचु = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। सेविहु = स्मरण किया करो। सबदे = शब्द में (जोड़ के)। निवारणहारा = दूर कर सकने वाला। अगमु = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = (अ+गो+चरु) जिस तक ज्ञान-इंद्रिय ना पहुँच सकें। अथाहा = जिसकी गहराई नहीं नापी जा सकती।1। अर्थ: हे भाई! उस सदा कायम रहने वाले कर्तार का स्मरण किया करो, वह गुरु के शब्द में जोड़ के (जीवों के सारे) दुख दूर करने की सामर्थ्य वाला है। हे भाई! वह अगम्य (पहुँच से परे) अगोचर और अथाह प्रभु (अपने जैसा) स्वयं ही है, उसका मूल्य नहीं पाया जा सकता।1। आपे सचा सचु वरताए ॥ इकि जन साचै आपे लाए ॥ साचो सेवहि साचु कमावहि नामे सचि समाहा हे ॥२॥ पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। सचु = अटल हुक्म। इकि = कई। साचै = सदा स्थिर रहने वाले प्रभु को। साचो = साचु ही, सदा स्थिर प्रभु को ही। नामे = नाम से ही। सचि = सदा स्थिर प्रभु में।2। नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन। अर्थ: हे भाई! वह सदा कायम रहने वाला परमात्मा स्वयं ही अपना अटल हुक्म चला रहा है। कई भक्तजन ऐसे हैं जिनको उस सदा-स्थिर कर्तार ने स्वयं ही अपने चरणों से जोड़ रखा है। वह भक्त जन सदा-स्थिर का ही स्मरण करते रहते हैं, सदा-स्थिर नाम (स्मरण) की कमाई करते हैं, नाम (नाम-जपने की इनायत) से वह उस सदा-स्थिर परमात्मा में लीन रहते हैं।2। धुरि भगता मेले आपि मिलाए ॥ सची भगती आपे लाए ॥ साची बाणी सदा गुण गावै इसु जनमै का लाहा हे ॥३॥ पद्अर्थ: धुरि = धुर से ही, अपने हुक्म अनुसार। साची बाणी = सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी से। गावै = गाता है (एकवचन)। लाहा = लाभ।3। अर्थ: हे भाई! धुर दरगाह से भक्तों को प्रभु स्वयं ही अपने साथ मिलाता है, स्वयं ही उनको अपनी सच्ची भक्ति में जोड़ता है। (उसकी अपनी मेहर से ही मनुष्य) महिमा की वाणी से सदा उसके गुण गाता है: हे भाई! ये महिमा ही इस मानव जन्म की कमाई है।3। गुरमुखि वणजु करहि परु आपु पछाणहि ॥ एकस बिनु को अवरु न जाणहि ॥ सचा साहु सचे वणजारे पूंजी नामु विसाहा हे ॥४॥ पद्अर्थ: क्रहि = करते हैं। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले बंदे। परु = पराए को। आपु = अपने को। को अवरु = कोई और। साहु = जीव वणजारों को पूंजी देने वाला शाह प्रभु। विसाहा = वणज करते हैं।4। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ते हैं वह (नाम जपने का) व्यापार करते हैं, (इस तरह किसी) पराए को और किसी अपने को (ऐसे) पहचानते हैं (कि इनमें) एक परमात्मा के बिना कोई और दूसरा बसता वे नहीं जानते। (वे समझते हैं कि सबको आत्मिक जीवन की पूंजी देने वाला) शाह-परमात्मा सदा कायम रहने वाला है, जीव उसके सदा-स्थिर नाम का व्यापार करने वाले हैं, (परमात्मा से) पूंजी (ले के उसका) नाम-सौदा खरीदते हैं।4। आपे साजे स्रिसटि उपाए ॥ विरले कउ गुर सबदु बुझाए ॥ सतिगुरु सेवहि से जन साचे काटे जम का फाहा हे ॥५॥ पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। साजे = पैदा करता है। स्रिसटि = जगत। कउ = को। गुर सबदु = गुरु का शब्द। बुझाए = समझाता है। सेवहि = शरण पड़ते हैं। से = वह (बहुवचन)। साचे = अडोल जीवन वाले।5। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा स्वयं ही (जीवों को) पैदा करता है, स्वयं ही सृष्टि रचता है। (किसी) विरले (भाग्यशाली) को गुरु के शब्द की सूझ भी स्वयं ही बख्शता है। (उसकी मेहर से जो मनुष्य) गुरु की शरण पड़ते हैं, वे अडोल जीवन वाले हो जाते हैं, परमात्मा स्वयं ही उनकी जम (आत्मिक मौत) के बंधन काटता है।5। भंनै घड़े सवारे साजे ॥ माइआ मोहि दूजै जंत पाजे ॥ मनमुख फिरहि सदा अंधु कमावहि जम का जेवड़ा गलि फाहा हे ॥६॥ पद्अर्थ: घड़े = घड़ के। सवारे = सुंदर बनाता है। मोहि = मोह में। दूजै = मेर तेर में। पाजे = डाले हुए हैं। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। अंधु = अंधों वाला काम। गलि = गले में।6। अर्थ: हे भाई! (जीवों के शरीर-बर्तन) घड़ के (खुद ही) सँवारता है। माया के मोह में, मेर तेर में भी जीव (उसने स्वयं ही) डाले हुए हैं। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (मोह में) भटकते फिरते हैं, सदा अंधों वाले काम करते रहते हैं, उनके गले में आत्मिक मौत की रस्सी का बंधन बँधा रहता है।6। आपे बखसे गुर सेवा लाए ॥ गुरमती नामु मंनि वसाए ॥ अनदिनु नामु धिआए साचा इसु जग महि नामो लाहा हे ॥७॥ पद्अर्थ: मंनि = मन में। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। साचा = सदा स्थिर। नामो = नाम ही। लाहा = लाभ।7। अर्थ: हे भाई! प्रभु स्वयं (जिस पर) बख्शिश करता है (उनको) गुरु की सेवा में जोड़ता है, गुरु की मति दे के (अपना) नाम (उनके) मन में बसाता है। जो मनुष्य हर वक्त हरि-नाम स्मरण करता है, वह अडोल जीवन वाला हो जाता है। हे भाई! परमात्मा का नाम ही इस जगत में (असल) कमाई है।7। आपे सचा सची नाई ॥ गुरमुखि देवै मंनि वसाई ॥ जिन मनि वसिआ से जन सोहहि तिन सिरि चूका काहा हे ॥८॥ पद्अर्थ: नाई = बड़ाई। सची = सदा कायम रहने वाली। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले को। मंनि = मन में। जिन मनि = जिस के मन में। सोहहि = सुंदर लगते हैं। सिरि = सिर पर (पड़ा हुआ)। काहा = भारा, कज़िया। चूका = समाप्त हो जाता है।8। अर्थ: हे भाई! प्रभु स्वयं ही सदा कायम रहने वाला है, उसकी बड़ाई भी सदा कायम रहने वाली है। गुरु के सन्मुख रख के (जीव को अपनी बड़ाई) देता है (जीव के) मन में बसाता है। हे भाई! जिनके मन में (परमात्मा का नाम) आ बसता है, वह मनुष्य (लोक-परलोक में) शोभते हैं, उनके सिर (पड़ा हुआ) भार समाप्त हो जाता है।8। अगम अगोचरु कीमति नही पाई ॥ गुर परसादी मंनि वसाई ॥ सदा सबदि सालाही गुणदाता लेखा कोइ न मंगै ताहा हे ॥९॥ पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = (अ+गो+चरु) ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच से परे। परसादी = कृपा से। मंनि = मन में। सालाही = मैं सालाहता हूँ। ताहा = उसका। सबदि = शब्द से।9। अर्थ: हे भाई! परमात्मा अगम्य (पहुँच से परे) है, ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे है, उसका मूल्य नहीं पाया जा सकता (किसी दुनियावी पदार्थ के बदले नहीं मिल सकता)। मैं तो उसको गुरु की कृपा से (अपने) मन में बसाता हूँ। गुरु के शब्द से मैं सदा उस गुणों के दाते की महिमा करता हूँ। (जो उस गुण-दाते की महिमा करता है) उस (के कर्मों का) लेखा कोई नहीं माँगता।9। ब्रहमा बिसनु रुद्रु तिस की सेवा ॥ अंतु न पावहि अलख अभेवा ॥ जिन कउ नदरि करहि तू अपणी गुरमुखि अलखु लखाहा हे ॥१०॥ पद्अर्थ: रुद्रु = शिव। तिसु की = उस परमात्मा की। पावहि = पा सकते, पाते (बहुवचन)। अलख = जिसका सही रूप बयान ना किया जा सके। अभेवा = जिसका भेद नहीं पाया जा सके। करहि = तू करता है। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर।10। नोट: ‘तिसु की’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे भाई! ब्रहमा, विष्णु, शिव (ये सारे) उस (परमात्मा) की ही शरण में रहते हैं। (ये बड़े-बड़े देवते भी उस) अलख और अभेव परमात्मा (के गुणों) का अंत नहीं पा सकते। हे प्रभु! जिस पर तू अपनी मेहर की निगाह करता है उनको गुरु की शरण में ला के तू अपना अलख स्वरूप समझा देता है।10। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |