श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1057 आपु पछाणै सो सभि गुण जाणै ॥ गुर कै सबदि हरि नामु वखाणै ॥ अनदिनु नामि रता दिनु राती माइआ मोहु चुकाहा हे ॥८॥ पद्अर्थ: आपु = अपने आप को, अपने आत्मिक जीवन को। सभि = सारे। जाणै = सांझ डालता है। सबदि = शब्द से। वखाणै = उचारता है (एकवचन)। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। नामि = नाम में। रता = मस्त। चुकाहा = दूर कर लेता है।8। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य अपने आत्मिक जीवन को पड़तालता रहता है, वह सारे (रूहानी) गुणों से सांझ डालता है। गुरु के शब्द में जुड़ के वह मनुष्य परमात्मा का नाम उचारता है। वह दिन-रात हर वक्त परमात्मा के नाम में मस्त रहता है, (और, इस तरह अपने अंदर से) माया का मोह दूर कर लेता है।8। गुर सेवा ते सभु किछु पाए ॥ हउमै मेरा आपु गवाए ॥ आपे क्रिपा करे सुखदाता गुर कै सबदे सोहा हे ॥९॥ पद्अर्थ: ते = से। सभु किछु = हरेक चीज। मेरा = ममता, कब्जे की लालसा। आपु = स्वै भाव। आपे = स्वयं ही। गुर कै सबदे = गुरु के शब्द से। सोहा = सुंदर जीवन वाला बन जाता है।9। अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य हरेक चीज हासिल कर लेते हैं, वह मनुष्य अहंकार-ममता स्वै भाव दूर कर लेता है। हे भाई! जिस मनुष्य पर सुखों का दाता प्रभु कृपा करता है, वह मनुष्य गुरु के शब्द की इनायत से अपना आत्मिक जीवन सुंदर बना लेता है।9। गुर का सबदु अम्रित है बाणी ॥ अनदिनु हरि का नामु वखाणी ॥ हरि हरि सचा वसै घट अंतरि सो घटु निरमलु ताहा हे ॥१०॥ पद्अर्थ: अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाली। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। वखाणी = उच्चारण कर। सचा = सच्चा, सदा स्थिर रहने वाला। घट अंतरि = हृदय में। ताहा = उस (मनुष्य) का।10। अर्थ: हे भाई! गुरु का शब्द आत्मिक जीवन देने वाली वाणी है, (इसमें जुड़ के) हर वक्त परमात्मा का नाम स्मरण किया कर। हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में सदा कायम रहने वाला परमात्मा आ बसता है, उस मनुष्य का वह हृदय पवित्र हो जाता है।10। सेवक सेवहि सबदि सलाहहि ॥ सदा रंगि राते हरि गुण गावहि ॥ आपे बखसे सबदि मिलाए परमल वासु मनि ताहा हे ॥११॥ पद्अर्थ: सेवहि = सेवा भक्ति करते हैं। सबदि = शब्द से। सलाहहि = महिमा करते हें। रंगि = प्रेम रंग में। राते = मस्त। गावहि = गाते हैं (बहुवचन)। सबदि = शब्द में। परमल वासु = चंदन की सुगंधि। मनि ताहा = उसके मन में।11। अर्थ: हे भाई! (प्रभु के) सेवक (गुरु के) शब्द से (प्रभु की) सेवा-भक्ति करते हैं, महिमा करते हैं, प्रभु के प्रेम-रंग में मस्त हो के सदा प्रभु के गुण गाते रहते हैं। हे भाई! जिस मनुष्य को प्रभु स्वयं ही मेहर करके (गुरु के) शब्द में जोड़ता है, उस मनुष्य के मन में (मानो) चंदन की सुगंधी पैदा हो जाती है।11। सबदे अकथु कथे सालाहे ॥ मेरे प्रभ साचे वेपरवाहे ॥ आपे गुणदाता सबदि मिलाए सबदै का रसु ताहा हे ॥१२॥ पद्अर्थ: अकथु = जिसका सही रूप बयान ना किया जा सके। कथे = गुण बयान करता है।12। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के शब्द से अकथ प्रभु के गुण बयान करता रहता है, सदा-स्थिर बेपरवाह प्रभु की महिमा करता रहता है, गुणों की दाति करने वाला प्रभु स्वयं ही उसको गुरु के शब्द में जोड़ के रखता है, उसको शब्द का आनंद आने लग जाता है।12। मनमुखु भूला ठउर न पाए ॥ जो धुरि लिखिआ सु करम कमाए ॥ बिखिआ राते बिखिआ खोजै मरि जनमै दुखु ताहा हे ॥१३॥ पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। भूला = (सही जीवन-राह से) टूटा हुआ। धुरि = धुर से, परमात्मा के हुक्म में। बिखिआ = माया। राते = मस्त।13। अर्थ: हे भाई! मन का मुरीद मनुष्य जीवन के सही रास्ते से टूट जाता है (भटकता फिरता है, उसको कोई) ठिकाना नहीं मिलता। (पर उसके भी क्या वश? उसके पिछले किए कर्मों के अनुसार) जो कुछ धुर से उसके माथे पर लिखा गया है वह कर्म वह अब कर रहा है। माया (के रंग में) मस्त होने के कारण वह (अब भी) माया की तलाश ही करता फिरता है, कभी मरता है कभी पैदा होता है (कभी हर्ष और कभी शोक), ये दुख उसे लगे रहते हैं।13। आपे आपि आपि सालाहे ॥ तेरे गुण प्रभ तुझ ही माहे ॥ तू आपि सचा तेरी बाणी सची आपे अलखु अथाहा हे ॥१४॥ पद्अर्थ: आपे = आप ही। माहे = में। सचा = सदा कायम रहने वाला। अलखु = जिसका सही स्वरूप बयान ना किया जा सके।14। अर्थ: हे भाई! (अगर कोई भाग्यशाली महिमा कर रहा है, तो उसमें बैठा भी प्रभु) स्वयं ही स्वयं महिमा कर रहा है। हे प्रभु! तेरे गुण तेरे में ही हैं (तेरे जैसा और कोई नहीं); हे प्रभु! तू स्वयं अटल है, तेरी महिमा की वाणी अटल है, तू स्वयं ही अलख और अपार है।14। बिनु गुर दाते कोइ न पाए ॥ लख कोटी जे करम कमाए ॥ गुर किरपा ते घट अंतरि वसिआ सबदे सचु सालाहा हे ॥१५॥ पद्अर्थ: बिनु गुर = गुरु की शरण पड़े बिना। कोटी = करोड़ों। ते = से, के कारण। सबदे = शब्द से। सचु = सदा स्थिर प्रभु।15। अर्थ: हे भाई! अगर (कोई मनमुख नाम के बिना और-और धार्मिक निहित किए) कर्म करता फिरे, महिमा की दाति देने वाले गुरु के बिना वह नाम की दाति हासिल नहीं कर सकता। हे भाई! गुरु की कृपा से जिस मनुष्य के हृदय में हरि-नाम आ बसता है, वह मनुष्य गुरु के शब्द से सदा-स्थिर प्रभु की महिमा करता रहता है।15। से जन मिले धुरि आपि मिलाए ॥ साची बाणी सबदि सुहाए ॥ नानक जनु गुण गावै नित साचे गुण गावह गुणी समाहा हे ॥१६॥४॥१३॥ पद्अर्थ: से = वह (बहुवचन) सुहाए = सुंदर जीवन वाले बन गए। नानक = हे नानक! गावह = हम गाएं। गुणी = गुणों के मालिक प्रभु में।16। नोट: ‘गावह’ है उत्तम पुरुष, बहुवचन। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों को धुर से अपने हुक्म से प्रभु अपने चरणों में मिलाता है वही मिलते हैं। महिमा की वाणी के द्वारा गुरु के शब्द से उनके जीवन सुंदर हो जाते हैं। हे नानक! प्रभु का सेवक सदा-स्थिर प्रभु के गुण गाता है। आओ, हम भी गुण गाएं। (जो मनुष्य गुण गाता है, वह) गुणों के मालिक प्रभु में लीन हो जाता है।16।4।13। मारू महला ३ ॥ निहचलु एकु सदा सचु सोई ॥ पूरे गुर ते सोझी होई ॥ हरि रसि भीने सदा धिआइनि गुरमति सीलु संनाहा हे ॥१॥ पद्अर्थ: निहचलु = अचल, अटल। ते = से। रसि = रस में। धिआइनि = ध्याते हैं (बहुवचन)। सीलु = अच्छा स्वभाव। संनाहा = ज़िरा बक्तर, संजोअ, लोहे की जाली की वर्दी।1। अर्थ: हे भाई! सदा कायम रहने वाला अटल सिर्फ वह परमात्मा ही है। पूरे गुरु से जिस मनुष्यों को ये समझ आ जाती है, वे परमात्मा के नाम-रस में भीगे रहते हैं, सदा परमात्मा का स्मरण करते हैं, गुरु की मति पर चल कर वह मनुष्य अच्छे आचरण का संजोअ (पहने रखते हैं, जिसके कारण कोई विकार उन पर हमला नहीं कर सकते)।1। अंदरि रंगु सदा सचिआरा ॥ गुर कै सबदि हरि नामि पिआरा ॥ नउ निधि नामु वसिआ घट अंतरि छोडिआ माइआ का लाहा हे ॥२॥ पद्अर्थ: रंगु = प्यार। सचिआरा = (सच+आलय) सही रास्ते पर चलने वाला। कै सबदि = के शब्द से। नामि = नाम में। नउ निधि = (धरती के सारे ही) नौ खजाने। घट अंतरि = हृदय में। लाहा = लाभ।2। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का प्यार है, वह सदा संतुलित है। गुरु के शब्द की इनायत से वह प्रभु के नाम में प्रेम बनाए रखता है। उसके हृदय में सारे सुखों और पदार्थों का खजाना हरि-नाम बसता है, वह माया को असल कमाई मानना छोड़ देता है।2। रईअति राजे दुरमति दोई ॥ बिनु सतिगुर सेवे एकु न होई ॥ एकु धिआइनि सदा सुखु पाइनि निहचलु राजु तिनाहा हे ॥३॥ पद्अर्थ: दुरमति = खोटी मति। दोई = द्वैत में, मेर तेर में, दुविधा में। पाइनि = पाते हैं। तिनाहा = उनका।3। अर्थ: हे भाई! खोटी मति के कारण हाकिम और प्रजा सब दुबिधा में फंसे रहते हैं। गुरु की शरण पड़े बिना किसी के अंदर एक परमात्मा का प्रकाश नहीं होता। जो मनुष्य सिर्फ परमात्मा को स्मरण करते हैं, वह आत्मिक आनंद पाते हैं। उनको अटल (आत्मिक) राज मिला रहता है।3। आवणु जाणा रखै न कोई ॥ जमणु मरणु तिसै ते होई ॥ गुरमुखि साचा सदा धिआवहु गति मुकति तिसै ते पाहा हे ॥४॥ पद्अर्थ: आवणु जाणा = पैदा होने मरने का चक्कर। रखै = रोक सकता। तिसै ते = उस (परमात्मा) से ही। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। सचा = सदा कायम रहने वाला प्रभु। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। मुकति = खलासी। पाहा = मिलती है।4। अर्थ: हे भाई! (परमात्मा के बिना और) कोई जनम-मरण के चक्कर से बच नहीं सकता। ये जनम-मरण (का चक्कर) उस परमात्मा की रज़ा के अनुसार ही होता है। हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर सदा-स्थिर प्रभु का नित्य स्मरण करते रहो। ऊँची आत्मिक अवस्था और विकारों से खलासी उस परमात्मा से ही मिलती है।4। सचु संजमु सतिगुरू दुआरै ॥ हउमै क्रोधु सबदि निवारै ॥ सतिगुरु सेवि सदा सुखु पाईऐ सीलु संतोखु सभु ताहा हे ॥५॥ पद्अर्थ: संजमु = परहेज़, विकारों से बचे रहने का उद्यम। सचु = पक्का, सदा स्थिर। दुआरै = दर पर। सबदि = गुरु के शब्द से। निवारै = दूर कर लेता है। सेवि = सेवा करके, शरण पड़ के। पाईऐ = प्राप्त कर लेते हैं। सीलु = अच्छा आचरण। ताहा = वहाँ।5। अर्थ: हे भाई! विकारों से बचने का पक्का प्रबंध गुरु के दर से (प्राप्त होता है), (जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहता है वह) गुरु के शब्द से (अपने अंदर से) अहंकार दूर कर लेता है, क्रोध दूर कर लेता है। हे भाई! गुरु की शरण पड़ने से ही सदा आत्मिक आनंद मिलता है। अच्छा आचरण, संतोख -ये सब कुछ गुरु के दर से ही हैं।5। हउमै मोहु उपजै संसारा ॥ सभु जगु बिनसै नामु विसारा ॥ बिनु सतिगुर सेवे नामु न पाईऐ नामु सचा जगि लाहा हे ॥६॥ पद्अर्थ: उपजै = पैदा हो जाता है। संसारा = संसार में खचित रहने से। बिनसै = आत्मिक मौत सहेड़ता है। विसारा = विसार के, भुला के। जगि = जगत में।6। अर्थ: हे भाई! संसार में खचित रहने से (मनुष्य के अंदर) अहंकार पैदा हो जाता है, (इनके कारण) परमात्मा का नाम भुला के सारा जगत आत्मिक मौत सहेड़ लेता है। हे भाई! गुरु की शरण पड़े बिना परमात्मा का नाम नहीं मिलता। हरि-नाम ही जगत में सदा कायम रहने वाली कमाई है।6। सचा अमरु सबदि सुहाइआ ॥ पंच सबद मिलि वाजा वाइआ ॥ सदा कारजु सचि नामि सुहेला बिनु सबदै कारजु केहा हे ॥७॥ पद्अर्थ: अमरु = हुक्म। सचा = सच्चा, अटल। सबदि = शब्द में जुड़ने से। सुहाइआ = अच्छा लगता है। पंच शब्द मिलि = पाँच किस्मों के साज मिल के। वाइआ = बजाया। कारजु = जनम उद्देश्य। सचि नामि = सदा स्थिर हरि नाम में। सुहेला = सुखी।7। अर्थ: हे भाई! गुरु के शब्द से (जिस मनुष्य को) परमात्मा का अटल हुक्म मीठा लगने लग जाता है, (उसके अंदर इस तरह आनंद बना रहता है जैसे) पाँचों किस्मों के साजों ने मिल के सुंदर राग पैदा किया हुआ है। हे भाई! परमात्मा के सदा-स्थिर नाम में जुड़ने से जनम-उद्देश्य सफल होता है, गुरु के शब्द के बिना कैसा जनम-उद्देश्य? (जीवन निष्फल हो जाता हैं)।7। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |