श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1058 खिन महि हसै खिन महि रोवै ॥ दूजी दुरमति कारजु न होवै ॥ संजोगु विजोगु करतै लिखि पाए किरतु न चलै चलाहा हे ॥८॥ पद्अर्थ: दूजी दुरमति = प्रभु के बिना अन्य के साथ प्यार करने वाली खोटी मति। संजोगु = संयोग, मिलाप, प्रभु के साथ मेल। विजोगु = वियोग, प्रभु चरणों से विछोड़ा। करतै = कर्तार ने। किरतु = पिछले जन्मों के किए कर्मों की कमाई। न चलै = मिटती नही। चलाहा = मिटाने से।8। अर्थ: हे भाई! (परमात्मा के नाम से टूटा हुआ मनुष्य) घड़ी में हस पड़ता है और घड़ी में ही रो पड़ता है (हर्ष और सोग के चक्कर में ही पड़ा रहता है, सो) माया के मोह में फसा के रखने वाली खोटी मति से जीवन का लक्ष्य सफल नहीं होता। (पर, जीवों के भी क्या वश?) (हरि-नाम में) जुड़ना और (हरि नाम से) विछुड़ जाना - (पिछले किए कर्मों के अनुसार) कर्तार ने स्वयं (जीवों के माथे के ऊपर) लिख रखे हैं, ये पूर्बली कर्म-कमाई (जीव से) मिटाए नहीं मिटती।8। जीवन मुकति गुर सबदु कमाए ॥ हरि सिउ सद ही रहै समाए ॥ गुर किरपा ते मिलै वडिआई हउमै रोगु न ताहा हे ॥९॥ पद्अर्थ: मुकति = (माया के मोह से) खलासी। जीवन मुकति = वह मनुष्य जिसको इस जीवन में मुक्ति मिल गई है, गृहस्थ में रहता हुआ ही निर्लिप। सबदु कमाए = शब्द को हृदय में बसाता है, शब्द अनुसार जीवन जीता है। सिउ = साथ। सद = सदा। ते = से। ताहा = उसको।9। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के शब्द अनुसार जीवन जीता है, वह गृहस्थ में रहता हुआ ही निर्लिप है, वह सदा ही परमात्मा की याद में लीन रहता है। गुरु की कृपा से उसको (इस लोक में और परलोक में) आदर मिलता है, उसके अंदर अहंकार का रोग नहीं होता।9। रस कस खाए पिंडु वधाए ॥ भेख करै गुर सबदु न कमाए ॥ अंतरि रोगु महा दुखु भारी बिसटा माहि समाहा हे ॥१०॥ पद्अर्थ: रस कस = कसैला आदि सारे रस। कस = कसैला। पिंडु = शरीर। भेख = धार्मिक पहरावा। बिसटा = विष्ठा, विकारों का गंद। माहि = में। समाहा = समाया रहता है।10। अर्थ: हे भाई! (दूसरी तरफ देखें त्यागियों का हाल। जो मनुष्य अपनी ओर से ‘त्याग’ करके खट्टे मीठे कसैले आदि) सारे रसों के खाने खाता रहता है, और अपने शरीर को मोटा किए जाता है, (त्यागियों वाला) धार्मिक पहरावा पहनता है, गुरु के शब्द अनुसार जीवन नहीं बिताता, उसके अंदर (चस्कों का) रोग है, ये उसे बहुत बड़ा दुख लगा हुआ है, वह हर वक्त विकारों की गंदगी में लीन रहता है।10। बेद पड़हि पड़ि बादु वखाणहि ॥ घट महि ब्रहमु तिसु सबदि न पछाणहि ॥ गुरमुखि होवै सु ततु बिलोवै रसना हरि रसु ताहा हे ॥११॥ पद्अर्थ: पढ़हि = पढ़ते हें (बहुवचन)। पढ़ि = पढ़ के। बादु = वाद, चर्चा। वखाणहि = बखानते हैं, व्याख्या करते हैं। घट = शरीर, हृदय। सबदि = गुरु के शब्द से। न पछाणहि = सांझ नहीं डालते। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख। ततु = सार, मक्खन। बिलोवै = मथता है, विचारता है। रसना = जीभ। रसु = स्वाद। ताहा = उसकी।11। अर्थ: हे भाई! (पंडित लोग भी) वेद (आदि धर्म पुस्तकें) पढ़ते हैं, (इनको) पढ़ के निरी चर्चा का सिलसिला छेड़े रखते हैं, जो परमात्मा हृदय में ही बस रहा है, उससे गुरु के शब्द से सांझ नहीं डालते। पर, हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह तत्व को विचारता है, उसकी जीभ में हरि-नाम का स्वाद टिका रहता है।11। घरि वथु छोडहि बाहरि धावहि ॥ मनमुख अंधे सादु न पावहि ॥ अन रस राती रसना फीकी बोले हरि रसु मूलि न ताहा हे ॥१२॥ पद्अर्थ: घरि = घर में, शरीर में, हृदय में। वथ = वस्तु, नाम पदार्थ। छोडहि = छोड़ देते हें (बहुवचन)। धावहि = दौड़ते हैं (बहुवचन)। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। अंधे = माया के मोह में अंधे। अन रस = और-और रसों में। राती = रति हुई, मस्त। रसना = जीभ। मूलि = बिल्कुल ही।12। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य हृदय घर में बस रहे नाम पदार्थ को छोड़ देते हैं, और बाहर भटकते हैं, वे मन के मुरीद और माया के मोह में अंधे हुए मनुष्य हरि-नाम का स्वाद नहीं ले सकते। अन्य स्वादों में मस्त उनकी जीभ फीके बोल ही बोलती रहती है, परमात्मा के नाम का स्वाद उनको बिल्कुल हासिल नहीं होता।12। मनमुख देही भरमु भतारो ॥ दुरमति मरै नित होइ खुआरो ॥ कामि क्रोधि मनु दूजै लाइआ सुपनै सुखु न ताहा हे ॥१३॥ पद्अर्थ: मनमुख देही = मन के मुरीद मनुष्यों की काया। भरमु = भटकना। भतारो = पति, अगुवाई करने वाला। दुरमति = खोटी मति। मरै = आत्मिक मौत सहेड़ लेता है। कामि = काम में। क्रोधि = क्रोध में। दूजै = माया के मोह में। सुपनै = सपने में, कभी भी। सुखु = आत्मिक आनंद।13। अर्थ: हे भाई! माया की भटकना मन के मुरीद मनुष्य के शरीर की अगुवाई करती है, (इस) खोटी मति के कारण मनमुख आत्मिक मौत सहेड़ लेता है, और सदा ख्वार होता है। मनमुख अपने मन को काम में, क्रोध में, माया के मोह में जोड़े रखता है, (इस वास्ते) उसको कभी भी आत्मिक आनंद नहीं मिलता।13। कंचन देही सबदु भतारो ॥ अनदिनु भोग भोगे हरि सिउ पिआरो ॥ महला अंदरि गैर महलु पाए भाणा बुझि समाहा हे ॥१४॥ पद्अर्थ: कंचन = सोना। कंचन देही = सोने जैसी पवित्र काया। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। भोग भोगे = आत्मिक आनंद लेती है। सिउ = साथ। महला अंदरि = शरीरों में। गैर महलु = बगैर मकान के परमात्मा को। भाणा बुझि = रजा को मीठा मान के।14। अर्थ: हे भाई! गुरु का शब्द जिस मनुष्य के सोने जैसे पवित्र शरीर का रहनुमा बना रहता है, वह मनुष्य परमात्मा के साथ प्यार बनाए रखता है और हर वक्त परमातमा के मिलाप का आनंद पाता है। वह मनुष्य उस बग़ैर-मकान परमात्मा को हरेक शरीर में (बसता) देख लेता है, उसकी रजा को मीठा मान के उसमें लीन रहता है।14। आपे देवै देवणहारा ॥ तिसु आगै नही किसै का चारा ॥ आपे बखसे सबदि मिलाए तिस दा सबदु अथाहा हे ॥१५॥ पद्अर्थ: आपे = आप ही। देवणहारा = दे सकने वाला हरि। चारा = जोर। सबदि = शब्द में। सबदु = हुक्म। अथाहा = बहुत गहरा।15। नोट: ‘तिस दा’ में से संबंधक ‘दा’ के कारण ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा हटा दी गई है। अर्थ: पर, हे भाई! (ये शब्द की दाति) दे सकने वाला परमात्मा आप ही देता है, उसके सामने किसी का जोर नहीं चलता। वह स्वयं ही बख्शिश करता है और गुरु के शब्द में जोड़ता है। हे भाई! उस मालिक प्रभु का हुक्म बहुत गंभीर है।15। जीउ पिंडु सभु है तिसु केरा ॥ सचा साहिबु ठाकुरु मेरा ॥ नानक गुरबाणी हरि पाइआ हरि जपु जापि समाहा हे ॥१६॥५॥१४॥ पद्अर्थ: जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। केरा = का। सचा = सदा कायम रहने वाला। ठाकुरु = मालिक। जापि = जप के। समाहा = लीन हो जाता है।16। अर्थ: हे भाई! ये जिंद और ये शरीर सब कुछ उस परमात्मा का ही दिया हुआ है। हे भाई! मेरा वह मालिक-प्रभु सदा कायम रहने वाला है। हे नानक! (कोई भाग्यशाली मनुष्य) गुरु की वाणी के द्वारा उस परमात्मा को पा लेता है, उस हरि के नाम का जाप जप के उस में समाया रहता है।16।5।14। मारू महला ३ ॥ गुरमुखि नाद बेद बीचारु ॥ गुरमुखि गिआनु धिआनु आपारु ॥ गुरमुखि कार करे प्रभ भावै गुरमुखि पूरा पाइदा ॥१॥ पद्अर्थ: बीचारु = वाणी की विचार, हरि नाम को मन में बसाना। नाद = जोगियों का सिंज्ञी आदि बजाना। प्रभ भावै = प्रभु को अच्छी लगती है।1। अर्थ: (जोगी नाद बजाते हैं, पण्डित वेद पढ़ते हैं, पर) हरि-नाम को मन में बसाना ही गुरमुख (गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य) के लिए नाद (का बजाना और) वेद (का पाठ) है। बेअंत प्रभु का नाम-जपना ही गुरमुख के लिए ज्ञान (-चर्चा) और समाधि है। हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य (वह) कार करता है जो प्रभु को अच्छी लगती है (गुरमुख परमात्मा की रजा में चलता है)। (इस तरह) गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य पूरन प्रभु का मिलाप हासिल कर लेता है।1। गुरमुखि मनूआ उलटि परावै ॥ गुरमुखि बाणी नादु वजावै ॥ गुरमुखि सचि रते बैरागी निज घरि वासा पाइदा ॥२॥ पद्अर्थ: उलटि = (माया से) मोड़ के। परावै = रोकता है। बाणी = गुरु की वाणी। वजावै = बजाता है। सचि = सदा स्थिर हरि नाम में। रते = मस्त। बैरागी = निर्लिप। निज घरि = अपने घर में, प्रभु चरणों में, स्वै स्वरूप में।2। अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण रहने वाला मनुष्य (अपने) मन को (माया के मोह से) रोक के रखता है। वह गुरबाणी को हृदय में बसाता है (मानो, जोगी की तरह) नाद बजा रहा है। गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य सदा-स्थिर हरि-नाम में रंगे रहते हैं, (इस तरह) माया की ओर से निर्लिप रह के प्रभु चरणों में टिके रहते हैं।2। गुर की साखी अम्रित भाखी ॥ सचै सबदे सचु सुभाखी ॥ सदा सचि रंगि राता मनु मेरा सचे सचि समाइदा ॥३॥ पद्अर्थ: साखी = शिक्षा। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाली। भाखी = उचारता है। सचै सबदे = सदा स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द से। सचु = सदा स्थिर हरि नाम। सुभाखी = प्रेम से उचारता है। सचि रंगि = सदा स्थिर प्रेम रंग में। मनु मेरा = ‘मेरा मेरा’ करने वाला मन, ममता में फसा मन। सचे सचि = सदा स्थिर प्रभु में ही।3। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाली गुरबाणी उचारता रहता है, सदा स्थिर प्रभु की महिमा वाली वाणी के द्वारा सदा स्थिर हरि-नाम स्मरण करता रहता है, उसका ममता में फसने वाला मन सदा हरि-नाम के प्रेम-रंग में रंगा रहता है, वह सदा कायम रहने वाले परमात्मा में ही लीन रहता है।3। गुरमुखि मनु निरमलु सत सरि नावै ॥ मैलु न लागै सचि समावै ॥ सचो सचु कमावै सद ही सची भगति द्रिड़ाइदा ॥४॥ पद्अर्थ: सत सरि = संतोख सरोवर में। नावै = स्नान करता है। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। सचो सचु कमावै = सदा स्थिर हरि नाम जपने की कमाई करता है। सद = सदा। द्रिढ़ाइआ = हृदय में पक्की कर लेता है।4। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, उसका मन पवित्र हो जाता है, वह संतोख के सरोवर (हरि-नाम) में स्नान करता है; उसको (विकारों की) मैल नहीं चिपकती, वह सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा में समाया रहता है। वह मनुष्य हर वक्त सदा स्थिर हरि-नाम जपने की कमाई करता है, वह मनुष्य सदा साथ निभने वाली भक्ति (अपने हृदय में) पक्के तौर पर टिकाए रखता है।5। गुरमुखि सचु बैणी गुरमुखि सचु नैणी ॥ गुरमुखि सचु कमावै करणी ॥ सद ही सचु कहै दिनु राती अवरा सचु कहाइदा ॥५॥ पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर हरि नाम। बैणी = वचनों में। सचु = सदा स्थिर प्रभु। नैणी = आँखों में। करणी = करणीय, करने योग्य काम। सचु कमावै = सदा स्थिर हरि नाम जपने की कमाई करता है। सद = सदा। कहै = उचारता है।5। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, उसके वचनों में प्रभु बसता है, उसकी आँखों में प्रभु बसता है (वह हर वक्त नाम स्मरण करता है, हर तरफ परमात्मा को ही देखता है), वह सदा स्थिर प्रभु के नाम जपने की कमाई करता है, यही उसके लिए करने योग्य काम है। गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य दिन-रात सदा ही स्मरण करता है, और, और लोगों को भी स्मरण करने के लिए प्रेरित करता है।5। गुरमुखि सची ऊतम बाणी ॥ गुरमुखि सचो सचु वखाणी ॥ गुरमुखि सद सेवहि सचो सचा गुरमुखि सबदु सुणाइदा ॥६॥ पद्अर्थ: सची बाणी = सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी। सचो सचु = सदा सिथर हरि का नाम ही नाम। सद = सदा। सेवहि = स्मरण करते हैं। सबदु = महिमा की वाणी।6। अर्थ: हे भाई! सदा स्थिर प्रभु की महिमा वाली उत्तम वाणी ही गुरमुख (सदा उचारता है), वह हर वक्त सदा स्थिर प्रभु का नाम ही उच्चारता है। हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले बंदे सदा ही सदा-स्थिर परमात्मा की सेवा-भक्ति करते हैं। हे भाई! जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहता है, वह (और लोगों को भी) वाणी ही सुनाता है।6। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |