श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1060 इसु मन मंदर महि मनूआ धावै ॥ सुखु पलरि तिआगि महा दुखु पावै ॥ बिनु सतिगुर भेटे ठउर न पावै आपे खेलु कराइदा ॥७॥ पद्अर्थ: मन मंदर महि = मन के मंदिर में, शरीर में। घावै = भटकता फिरता है। सुखु = आत्मिक आनंद। पलरि = पराली के बदले। तिआगि = त्याग के। बिनु भेटे = मिले बिना। ठउर = ठिकाना, शांति।7। अर्थ: हे भाई! (मनुष्य के) इस शरीर में (रहने वाला) चंचल मन (हर वक्त) भटकता फिरता है, (विकारों की) पराली (तुच्छ वस्तु) की खातिर आत्मिक आनंद को त्याग के बड़ा दुख पाता है। गुरु को मिले बिना इसे शांति वाली जगह नहीं मिलती; (पर, जीवों के भी क्या वश? उनसे ये) खेल परमात्मा स्वयं ही करवाता है।7। आपि अपर्मपरु आपि वीचारी ॥ आपे मेले करणी सारी ॥ किआ को कार करे वेचारा आपे बखसि मिलाइदा ॥८॥ पद्अर्थ: अपरंपरु = परे से परे परमात्मा, बेअंत प्रभु। वीचारी = आत्मिक जीवन की विचार बख्शने वाला। सारी = श्रेष्ठ। करणी = करने योग्य काम। को = कोई जीव। किआ कार करे = कौन सी कार कर सकता है? बखसि = मेहर करके।8। अर्थ: हे भाई! बेअंत परमात्मा स्वयं ही आत्मिक जीवन की विचार बख्शने वाला है, (नाम जपने की) श्रेष्ठ करणी दे के खुद ही (जीव को अपने साथ) मिलाता है। जीव बेचारा अपने आप कोई (अच्छा बुरा) काम नहीं कर सकता। परमात्मा स्वयं ही बख्शिश करके (अपने चरणों में जीव को) जोड़ता है।8। आपे सतिगुरु मेले पूरा ॥ सचै सबदि महाबल सूरा ॥ आपे मेले दे वडिआई सचे सिउ चितु लाइदा ॥९॥ पद्अर्थ: सचै सबदि = महिमा की वाणी से। महा बल = बड़े (आत्मिक) बल वाला। सूरा = सूरमा।, विकारों का मुकाबला करने में समर्थ। दे = देता है। साचे सिउ = सदा स्थिर परमातमा के साथ।9। अर्थ: हे भाई! (परमात्मा) स्वयं ही (मनुष्य को) पूरा गुरु मिलाता है, और, महिमा वाले शब्द में जोड़ के (विकारों के मुकाबले के लिए) आत्मिक बल वाला सूरमा बना देता है। प्रभु स्वयं ही (जीव को अपने साथ) मिलाता है, (उसको लोक-परलोक में) इज्जत देता है। हे भाई! (जिसको अपने साथ मिलाता है, वह मनुष्य) उस सदा कायम रहने वाले परमात्मा के साथ (अपना) चिक्त जोड़े रखता है।9। घर ही अंदरि साचा सोई ॥ गुरमुखि विरला बूझै कोई ॥ नामु निधानु वसिआ घट अंतरि रसना नामु धिआइदा ॥१०॥ पद्अर्थ: साचा = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला। निधानु = (सब सुखों का) खजाना। रसना = जीभ से।10। अर्थ: हे भाई! सदा कायम रहने वाला परमात्मा (हरेक मनुष्य के) हृदय में घर में ही बसता है, पर गुरु के सन्मुख रहने वाला कोई विरला मनुष्य (यह भेद) समझता है। (जो यह भेद समझ लेता है) उसके दिल में (सारे सुखों का) खजाना हरि-नाम टिका रहता है, वह मनुष्य अपनी जीभ से हरि-नाम जपता रहता है।10। दिसंतरु भवै अंतरु नही भाले ॥ माइआ मोहि बधा जमकाले ॥ जम की फासी कबहू न तूटै दूजै भाइ भरमाइदा ॥११॥ पद्अर्थ: दिसंतरु = (देश+अंतरु) और-और देश। भवै = भटकता फिरता है। अंतरु = हृदय, अंदर का। मोहि = मोह में। बधा = बँधा हुआ। जमकाले = आत्मिक मौत में। जम = मौत, जमदूत। जम की फासी = जम दूतों का फंदा, जनम मरण का चक्कर। दूजै भाइ = माया के मोह में (पड़ कर)।11। अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य त्याग आदि वाला भेस धार के तीर्थ आदिक) और-और जगह भटकता फिरता है, पर अपने हृदय को नहीं खोजता, वह मनुष्य माया के मोह में बँधा रहता है, वह मनुष्य आत्मिक मौत के काबू में आया रहता है। उसका जनम-मरण का चक्र कभी समाप्त नहीं होता, वह मनुष्य और-और के प्यार में फंस के भटकता फिरता है।11। जपु तपु संजमु होरु कोई नाही ॥ जब लगु गुर का सबदु न कमाही ॥ गुर कै सबदि मिलिआ सचु पाइआ सचे सचि समाइदा ॥१२॥ पद्अर्थ: जब लगु = जब तक। न कमाही = नहीं कमाते। सबदु न कमाही = शब्द अनुसार अपना जीवन नहीं बनाते। सबदि = शब्द में। सचु = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। सचि = सदा कायम रहने वाले परमात्मा में।12। अर्थ: हे भाई! जब तक मनुष्य गुरु के शब्द के (हृदय में बसाने की) कमाई नहीं करते, कोई जप कोई तप कोई संजम (इस जीवन-यात्रा में) और कोई उद्यम उनकी सहायता नहीं करता। जो मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ता है, वह मनुष्य सदा कायम रहने वाले हरि-नाम में लीन रहता है।12। काम करोधु सबल संसारा ॥ बहु करम कमावहि सभु दुख का पसारा ॥ सतिगुर सेवहि से सुखु पावहि सचै सबदि मिलाइदा ॥१३॥ पद्अर्थ: सबल = स+बल, बल वाले। संसारा = संसार में। करम = (निहित किए हुए धार्मिक) कर्म। सभु = सारा (उद्यम)। पसारा = खिलारा। सेवहि = शरण पड़ते हैं (बहुवचन)। सुखु = आत्मिक आनंद। सचै सबदि = सदा स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द में।13। अर्थ: हे भाई! काम और क्रोध जगत में बड़े बली हैं, (जीव इनके प्रभाव में फसे रहते हैं, पर दुनिया को पतियाने की खातिर तीर्थ-यात्रा आदि धार्मिक निहित हुए) अनेक कर्म (भी) करते हें। ये सारा दुखों का ही पसारा (बना रहता) है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ते हैं, वे आत्मिक आनंद पाते हैं, (गुरु उनको) सदा-स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द में जोड़ता है।13। पउणु पाणी है बैसंतरु ॥ माइआ मोहु वरतै सभ अंतरि ॥ जिनि कीते जा तिसै पछाणहि माइआ मोहु चुकाइदा ॥१४॥ पद्अर्थ: बैसंतरु = आग। पउणु = हवा। वरतै = प्रभाव डाल रहा है। जिनि = जिस परमात्मा ने। जा = जब। चुकाइदा = दूर करता है।14। अर्थ: हे भाई! (वैसे तो इस शरीर के) हवा, पानी, आग (आदि सादे से ही तत्व हैं, पर) सब जीवों अंदर माया का मोह (अपना) जोर बनाए रखता है। जब (कोई भाग्यशाली) उस परमात्मा के साथ सांझ डालते हैं जिस ने (उनको) पैदा किया है, तो (वह परमात्मा उनके अंदर से) माया का मोह दूर कर देता है।14। इकि माइआ मोहि गरबि विआपे ॥ हउमै होइ रहे है आपे ॥ जमकालै की खबरि न पाई अंति गइआ पछुताइदा ॥१५॥ पद्अर्थ: इकि = कई। मोहि = मोह में। गरबि = अहंकार में। विआपे = फसे हुए। है = हैं। हउमै....है = अहंकार का स्वरूप बने हुए हैं। जम काल = मौत, आत्मिक मौत। अंति = आखिरी वक्त।15। नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन। अर्थ: हे भाई! कई (जीव ऐसे हैं जो हर वक्त) माया के मोह में अहंकार में ग्रसे रहते हैं, अहंकार का पुतला ही बने रहते हैं। (पर जिस भी ऐसे मनुष्य को इस) आत्मिक मौत की समझ नहीं पड़ती, वह अंत में यहाँ से हाथ मलता ही जाता है।15। जिनि उपाए सो बिधि जाणै ॥ गुरमुखि देवै सबदु पछाणै ॥ नानक दासु कहै बेनंती सचि नामि चितु लाइदा ॥१६॥२॥१६॥ पद्अर्थ: जिनि = जिस (परमातमा) ने। बिधि = (आत्मिक मौत से बचाने का) ढंग। गुरमुखि = गुरु से, गुरु की शरण में डाल के। देवै = (‘बिधि’) देता है। सबदु पछाणै = (वह मनुष्य) गुरु शब्द को पहचानता है। सचि नामि = सदा स्थिर हरि नाम में।16। अर्थ: पर, हे भाई! (जीवों के भी क्या वश?) जिस परमात्मा ने (जीव) पैदा किए हैं वह ही (इस आत्मिक मौत से बचाने का) ढंग जानता है। (वह इस सूझ में जिस जीव को) गुरु की शरण डाल के देता है, वह गुरु के शब्द के साथ सांझ डाल लेता है। नानक दास विनती करता है: हे भाई! वह मनुष्य अपना चिक्त सदा कायम रहने वाले हरि-नाम में जोड़े रखता है।16।2।16। मारू महला ३ ॥ आदि जुगादि दइआपति दाता ॥ पूरे गुर कै सबदि पछाता ॥ तुधुनो सेवहि से तुझहि समावहि तू आपे मेलि मिलाइदा ॥१॥ पद्अर्थ: आदि = (जगत के) आरम्भ से। जुगादि = जुगों के आरम्भ से। गुर कै सबदि = गुरु के शब्द से। सेवहि = सेवा भक्ति करते हैं। से = वह (बहुवचन)। तुझहि = तेरे में। आपे = स्वयं ही। मेलि = मिल के।1। अर्थ: हे प्रभु! तू (जगत के) शुरू से, जुगों के आरम्भ से दया का मालिक है (सारे सुख पदार्थ) देने वाला है। पूरे गुरु के शब्द से तेरे साथ जान-पहचान बन सकती है। जो मनुष्य सेवा-भक्ति करते हैं, वे तेरे (चरणों) में लीन रहते हैं। तू स्वयं ही (उनको गुरु से) मिला के (अपने साथ) मिलाता है।1। अगम अगोचरु कीमति नही पाई ॥ जीअ जंत तेरी सरणाई ॥ जिउ तुधु भावै तिवै चलावहि तू आपे मारगि पाइदा ॥२॥ पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = (अ+गो+चरु) जिस तक ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। जीअ = जीव। भावै = अच्छा लगता है। मारगि = (सही जीवन के) रास्ते पर।2। नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन। अर्थ: हे प्रभु! तू अगम्य (पहुँच से परे) है, ज्ञान-इन्द्रियों के द्वारा तुझे समझा नहीं जा सकता, तेरा मूल्य नहीं पाया जा सकता (किसी दुनियावी पदार्थ के बदले तेरी प्राप्ति नहीं हो सकती)। सारे जीव-जंतु तेरे ही आसरे हैं। जैसे तुझे अच्छा लगता है, तू जीवों को कारे लगाता है, तू स्वयं ही (जीवों को) सही जीवन-राह पर चलाता है।2। है भी साचा होसी सोई ॥ आपे साजे अवरु न कोई ॥ सभना सार करे सुखदाता आपे रिजकु पहुचाइदा ॥३॥ पद्अर्थ: साचा = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। होसी = कायम रहेगा। साजे = पैदा करता है। अवरु = और। सार = संभाल। पहुचाइदा = पहुँचाता है।3। अर्थ: हे भाई! सदा कायम रहने वाला परमात्मा इस वक्त भी मौजूद है, वह सदा कायम रहेगा। वह स्वयं ही (सृष्टि) पैदा करता है, (उसके बिना पैदा करने वाला) और कोई नहीं है। वह सारे सुख देने वाला परमात्मा स्वयं ही सब जीवों की संभाल करता है, वह स्वयं ही सबको रिजक पहुँचाता है।3। अगम अगोचरु अलख अपारा ॥ कोइ न जाणै तेरा परवारा ॥ आपणा आपु पछाणहि आपे गुरमती आपि बुझाइदा ॥४॥ पद्अर्थ: अलख = जिसका सही स्वरूप बयान ना किया जा सके। परवारा = पैदा किए हुए जीव-जंतु। आपु = खुद। बुझाइदा = सूझ देता है।4। नोट: ‘आपु’ है कर्म कारक, एकवचन। अर्थ: हे प्रभु! तू अगम्य (पहुँच से परे) है, तू अगोचर है, तू अलख है, तू बेअंत है। कोई भी जान नहीं सकता कि तेरा कितना बड़ा परिवार है। अपने आप को (अपनी प्रतिभा को) तू स्वयं ही समझता है, गुरु की मति दे के तू स्वयं ही (जीवों को सही जीवन-रास्ता) समझाता है।4। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |