श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1061 पाताल पुरीआ लोअ आकारा ॥ तिसु विचि वरतै हुकमु करारा ॥ हुकमे साजे हुकमे ढाहे हुकमे मेलि मिलाइदा ॥५॥ पद्अर्थ: लोअ = अनेक मण्डल। आकारा = ये सारा दिखाई देता जगत। तिसु विचि = इस सारे दिखते जगत में (शब्द ‘तिसु’ एकवचन)। वरतै = काम कर रहा है। करारा = सख्त, करड़ा। हुकमे = हुक्म में ही। मेलि = (गुरु से) मेल के।5। नोट: ‘लोअ’ शब्द है ‘लोकु’ का बहुवचन और प्राक्रित रूप। अर्थ: हे भाई! (अनेक) पाताल, (अनेक) पुरियाँ, (अनेक) मण्डल - ये सारा दिखाई देता जगत (परमात्मा का पैदा किया हुआ है), इस में परमात्मा का कठोर हुक्म जगत की कार चला रहा है। (इस सारे जगत को परमात्मा अपने) हुक्म में पैदा करता है, हुक्म में ही गिराता है। हुक्म अनुसार ही (जीवों को गुरु से) मेल के (अपने चरणों में) जोड़ता है।5। हुकमै बूझै सु हुकमु सलाहे ॥ अगम अगोचर वेपरवाहे ॥ जेही मति देहि सो होवै तू आपे सबदि बुझाइदा ॥६॥ पद्अर्थ: सु = वह (एकवचन)। सलाहे = सराहना करता है, बड़ाई करता है। अगम = हे अगम्य (पहुँच से परे)! अगोचर = हे अगोचर! देहि = तू देता है। सबदि = शब्द से।6। अर्थ: हे अगम्य (पहुँच से परे)! हे अगोचर! हे बेपरवाह! जो मनुष्य तेरे हुक्म को समझ लेता है, वह उस हुक्म की शोभा करता है। हे प्रभु! तू जैसी मति (किसी मनुष्य को) देता है, वह वैसा ही बन जाता है। तू स्वयं ही गुरु शब्द में (मनुष्य को जोड़ के उसको अपने हुक्म की) सूझ बख्शता है।6। अनदिनु आरजा छिजदी जाए ॥ रैणि दिनसु दुइ साखी आए ॥ मनमुखु अंधु न चेतै मूड़ा सिर ऊपरि कालु रूआइदा ॥७॥ पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। आरजा = उम्र। छिजदी = घटती। रैणि = रात। दुइ = दोनों। साखी = गवाह। मनमुखु = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। अंधु = (माया के मोह में) अंधा। मूढ़ा = मूर्ख। रूआइदा = रुलाता, सहम डाल रहा, गरजता है।7। अर्थ: हे भाई! हर रोज हर वक्त मनुष्य की उम्र घटती जाती है, रात और दिन ये दोनों इस बात के गवाह हैं (जो दिन-रात गुजर जाता है, वह वापस उम्र में नहीं आ सकता)। पर मन का मुरीद माया के मोह में अंधा हुआ मूर्ख मनुष्य (इस बात को) याद नहीं करता। (उधर से) मौत (का नगारा) सिर पर गरजता रहता है।7। मनु तनु सीतलु गुर चरणी लागा ॥ अंतरि भरमु गइआ भउ भागा ॥ सदा अनंदु सचे गुण गावहि सचु बाणी बोलाइदा ॥८॥ पद्अर्थ: सीतलु = शांत। चरणी = चरणों से। भरमु = भटकना। सचे गुण = सदा कायम रहने वाले परमात्मा के गुण। गावहि = गाते हैं (बहुवचन)। सचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु।8। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के चरणों में लगता है, उसका मन शांत रहता है उसका तन शांत रहता है। उसके अंदर (टिकी हुई) भटकना दूर हो जाती है, उसका हरेक किस्म का डर समाप्त हो जाता है। हे भाई! जो मनुष्य (गुरु की कृपा से) सदा कायम रहने वाले परमात्मा के गुण गाते रहते हैं, उनको सदा आत्मिक आनंद मिला रहता है। (पर जीव के वश की बात नहीं) ये महिमा की वाणी भी सदा कायम रहने वाला परमात्मा (स्वयं ही) उच्चारण के लिए प्रेरित करता है।8। जिनि तू जाता करम बिधाता ॥ पूरै भागि गुर सबदि पछाता ॥ जति पति सचु सचा सचु सोई हउमै मारि मिलाइदा ॥९॥ पद्अर्थ: तू = तुझे। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। तू जाता = तेरे साथ सांझ डाल ली। करम बिधाता = जीवों के किए कर्मों के अनुसार पैदा करने वाला। पूरै भागि = बड़ी किस्मत से। सबदि = शब्द से। जति पति = जाति पाति। सचु साचा = सदा कायम रहने वाला प्रभु। मारि = मार के।9। अर्थ: हे प्रभु! तू जीवों के किए कर्मों के अनुसार पैदा करने वाला है। जिस (मनुष्य) ने तेरे साथ सांझ डाल ली, सौभाग्य से गुरु-शब्द में जुड़ के उसने तुझे (हर जगह बसता) पहचान लिया। हे भाई! जिस मनुष्य के अहंकार को मार के सदा स्थिर प्रभु उसको अपने साथ मिला लेता है, उसकी जाति वह स्वयं बन जाता है, उसकी कुल वह सदा कायम रहने वाला प्रभु आप बन जाता है।9। मनु कठोरु दूजै भाइ लागा ॥ भरमे भूला फिरै अभागा ॥ करमु होवै ता सतिगुरु सेवे सहजे ही सुखु पाइदा ॥१०॥ पद्अर्थ: कठोरु = सख्त, निर्दयी, अनभिज्ञ। दूजै भाइ = माया के प्यार में। भरमै = भटकना में पड़ कर। भूला = गलत राह पर पड़ा हुआ। करमु = मेहर, बख्शिश। सहजे = आत्मिक अडोलता में। सुखु = आत्मिक आनंद।10। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य माया के मोह में फसा रहता है, उसका मन कठोर टिका रहता है, वह भाग्यहीन मनुष्य भटकना में पड़ कर गलत राह पर पड़ा रहता है। जब उस पर परमात्मा की मेहर होती है, तब वह गुरु की शरण पड़ता है, और आत्मिक अडोलता में टिका रह के आत्मिक आनंद लेता है।10। लख चउरासीह आपि उपाए ॥ मानस जनमि गुर भगति द्रिड़ाए ॥ बिनु भगती बिसटा विचि वासा बिसटा विचि फिरि पाइदा ॥११॥ पद्अर्थ: जनमि = जनम में। द्रिढ़ाए = हृदय में पक्की करता है।11। अर्थ: हे भाई! चौरासी लाख जूनियों के जीव (परमात्मा ने) खुद पैदा किए हैं, (उसकी मेहर से ही) मानव जनम में गुरु जीव के अंदर परमात्मा की भक्ति पक्की करता है। भक्ति के बिना जीव का निवास विकारों के गंद में रहता है, और, बार बार विकारों के गंद में ही पाया जाता है।11। करमु होवै गुरु भगति द्रिड़ाए ॥ विणु करमा किउ पाइआ जाए ॥ आपे करे कराए करता जिउ भावै तिवै चलाइदा ॥१२॥ पद्अर्थ: करमु = मेहर। विणु करमा = मेहर के बिना।12। अर्थ: हे भाई! जब परमात्मा की मेहर होती है, गुरु (मनुष्य के हृदय में) परमात्मा की भक्ति पक्की करता है। प्रभु की बख्शिश के बिना प्रभु के साथ मिलाप नहीं हो सकता। (पर जीवों के भी क्या वश?) परमात्मा खुद ही (सब कुछ) करता है, खुद ही (जीवों से) करवाता है। जैसी उसकी मर्जी होती है, वैसे ही जीवों को चलाता है।12। सिम्रिति सासत अंतु न जाणै ॥ मूरखु अंधा ततु न पछाणै ॥ आपे करे कराए करता आपे भरमि भुलाइदा ॥१३॥ पद्अर्थ: न जाणै = नहीं जानता (एकवचन)। अंतु = (प्रभु को मिलने का) भेद। सिम्रिति सासत = स्मृतियां और शास्त्र (के बताए हुए कर्मकांडों) से। ततु = अस्लियत। भरमि = भटकना में (डाल के)। भुलाइदा = गलत रास्ते पर डालता है।13। अर्थ: हे भाई! स्मृतियों-शास्त्रों (के बताए हुए कर्मकांडों) के द्वारा मनुष्य (प्रभु के मिलाप का) भेद नहीं जान सकता। (कर्मकांड में ही फसा) अंधा मूर्ख मनुष्य अस्लियत को नहीं समझ सकता। (पर इसके भी क्या वश?) कर्तार स्वयं ही सब कुछ करता कराता है, स्वयं ही भटकना में डाल के गलत मार्ग पर डाले रखता है।13। सभु किछु आपे आपि कराए ॥ आपे सिरि सिरि धंधै लाए ॥ आपे थापि उथापे वेखै गुरमुखि आपि बुझाइदा ॥१४॥ पद्अर्थ: आपे आपि = प्रभु आप ही आप। सिरि सिरि = हरेक सिर पर (लिखे लेखों के अनुसार)। थापि = पैदा करके। उथापे = नाश करता है। वेखै = संभाल करता है। गुरमुखि = गुरु से।14। अर्थ: हे भाई! परमात्मा स्वयं ही स्वयं (जीवों से) सब कुछ करवाता है, हरेक जीव के सिर पर लिखे लेख के अनुसार प्रभु स्वयं ही हरेक को मायावी दौड़-भाग में लगाए रखता है। प्रभु स्वयं ही (जीवों को) पैदा करके आप ही नाश करता है, स्वयं ही (सब की) संभाल करता है, गुरु की शरण में डाल के स्वयं ही (सही जीवन-मार्ग की) समझ देता है।14। सचा साहिबु गहिर ग्मभीरा ॥ सदा सलाही ता मनु धीरा ॥ अगम अगोचरु कीमति नही पाई गुरमुखि मंनि वसाइदा ॥१५॥ पद्अर्थ: सचा = सदा स्थिर रहने वाला। गहिर = अथाह। गंभीरा = बड़े जिगरे वाला। सालाही = महिमा करूँ। धीरा = धैर्य वाला। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = (अ+गो+चरु) जिस तक इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। मंनि = मन में।15। अर्थ: हे भाई! मालिक-प्रभु सदा कायम रहने वाला है, अथाह है बड़े जिगरे वाला है। जग मैं सदा उस की महिमा करता हूँ, तो मेरे मन में धीरज बना रहता है। हे भाई1 उस अगम्य (पहुँच से परे) और अगोचर परमात्मा का मूल्य नहीं पाया जा सकता (किसी दुनियावी पदार्थ के बदले वह नहीं मिल सकता)। गुरु की शरण डाल कर (अपना नाम मनुष्य के) मन में बसाता है।15। आपि निरालमु होर धंधै लोई ॥ गुर परसादी बूझै कोई ॥ नानक नामु वसै घट अंतरि गुरमती मेलि मिलाइदा ॥१६॥३॥१७॥ पद्अर्थ: निरालमु = निर्लिप। धंधै = माया के धंधों में (व्यस्त)। लोई = दुनिया। परसादी = कृपा से। घट अंतरि = हृदय में। नानक = हे नानक! मेलि = मेल के।16। अर्थ: हे भाई! परमात्मा स्वयं निर्लिप है, और सारी दुनिया माया की दौड़-भाग में खचित रहती है। कोई विरला मनुष्य गुरु की कृपा से (उसके साथ) सांझ डालता है। हे नानक! (जिस पर गुरु की कृपा होती है) उस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम आ बसता है। गुरु की मति में जोड़ के (प्रभु मनुष्य को अपने चरणों में) मिलाता है।16।3।17। मारू महला ३ ॥ जुग छतीह कीओ गुबारा ॥ तू आपे जाणहि सिरजणहारा ॥ होर किआ को कहै कि आखि वखाणै तू आपे कीमति पाइदा ॥१॥ पद्अर्थ: जुग छतीह = छक्तिस युग, अनेक युग, बेअंत समय। गुबारा = घोर अंधेरा, एसी हालत जो मनुष्य की समझ से परे है। सिरजणहारा = हे विधाता! को = कोई जीव। और क्या कहै = कुछ भी नहीं कहा जा सकता। आखि = कह के। कि वखाणै = क्या बयान करे? कुछ भी बयान नहीं किया जा सकता।1। अर्थ: हे विधाता! (जगत रचना से पहले) बेअंत समय तूने ऐसी हालत बनाए रखी जो जीवों की समझ से परे है। तू खुद ही जानता है (कि वह हालत क्या थी)। (उस गुबार की बाबत) कोई जीव कुछ भी नहीं कह सकता, कोई जीव कह के कुछ भी बयान नहीं कर सकता। तू खुद ही उसकी अस्लियत जानता है।1। ओअंकारि सभ स्रिसटि उपाई ॥ सभु खेलु तमासा तेरी वडिआई ॥ आपे वेक करे सभि साचा आपे भंनि घड़ाइदा ॥२॥ पद्अर्थ: ओअंकारि = ओअंकार ने, परमात्मा ने। वेक = अलग अलग। सभि = सारे। साचा = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। भंनि = तोड़ के, नाश करके।2। अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने स्वयं सारी सृष्टि पैदा की। हे प्रभु! (तेरा रचा हुआ ये जगत) सारा तेरा खेल-तमाशा है, तेरी ही बड़ाई है। हे भाई! परमात्मा स्वयं ही सारे जीवों को अलग-अलग किस्म के बनाता है, स्वयं ही नाश करके स्वयं ही पैदा करता है।2। बाजीगरि इक बाजी पाई ॥ पूरे गुर ते नदरी आई ॥ सदा अलिपतु रहै गुर सबदी साचे सिउ चितु लाइदा ॥३॥ पद्अर्थ: बाजीगरि = बाजीगर ने। बाजी पाई = तमाशा रचा है। ते = से। नदरी आई = दिखाई दी। अलिपतु = निर्लिप। सबदी = शब्द से। सिउ = साथ।3। अर्थ: हे भाई! (प्रभु) बाजीगर ने (यह जगत) एक तमाश रचा हुआ है। जिस मनुष्य को पूरे गुरु से यह समझ आ गई, वह मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ के (इस जगत-तमाशे में) निर्लिप रहता है, वह मनुष्य सदा-स्थिर परमात्मा के साथ अपना मन जोड़े रखता है।3। बाजहि बाजे धुनि आकारा ॥ आपि वजाए वजावणहारा ॥ घटि घटि पउणु वहै इक रंगी मिलि पवणै सभ वजाइदा ॥४॥ पद्अर्थ: आकारा = सारे (दिखाई दे रहे) शरीर। बाजहि = बज रहे हैं। धुनि = सुर (से)। घटि घटि = हरेक शरीर में। पउणु = हवा, साँस। वहै = चल रहा है। इक रंगी = एक रस रहने वाले परमात्मा की। मिलि = मिल के। पवणै = पवन में, साँसों में।4। अर्थ: हे भाई! ये सारे दिखाई दे रहे शरीर (मीठी सुर) से (मानो) बाजे बज रहे हैं। बजाने की समर्थता वाला प्रभु स्वयं ही यह (शरीर-) बाजे बजा रहा है। हरेक शरीर में उस सदा एक-रंग रहने वाले परमात्मा का बनाया हुआ श्वास चल रहा है, (उस अपने पैदा किए) पवन में मिल के परमात्मा ये सारे बाजे बजा रहा है।4। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |