श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1062 करता करे सु निहचउ होवै ॥ गुर कै सबदे हउमै खोवै ॥ गुर परसादी किसै दे वडिआई नामो नामु धिआइदा ॥५॥ पद्अर्थ: निहचउ = निष्चित तौर पर, अवश्य। कै सबदे = के शब्द से। परसादी = कृपा से। किसै = (जिस) विरले को। दे = देता है। नामो नामु = नाम ही नाम, हर वक्त नाम।5। अर्थ: हे भाई! गुरु की कृपा से (जिस) किसी (विरले मनुष्य) को परमात्मा बड़ाई देता है, वह मनुष्य हर वक्त हरि-नाम ही स्मरण करता है, (उस मनुष्य को यह निश्चय हो जाता है कि) जो कुछ परमात्मा करता है वह अवश्य होता है, वह मनुष्य गुरु के शब्द की इनायत से (अपने अंदर से) अहंकार दूर कर लेता है।5। गुर सेवे जेवडु होरु लाहा नाही ॥ नामु मंनि वसै नामो सालाही ॥ नामो नामु सदा सुखदाता नामो लाहा पाइदा ॥६॥ पद्अर्थ: जेवडु = जितना, बराबर का। लाहा = लाभ। मंनि = मन में। सालाही = सलाहते हैं।6। अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़ने के बराबर (जगत में) और कोई लाभवंत (कार्य) नहीं है। (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ते हैं, उनके) मन में (परमात्मा का) नाम आ बसता है, वे हर वक्त हरि-नाम की कीर्ति करते हैं। हे भाई! परमात्मा का नाम ही सदा सुख देने वाला है। हरि-नाम ही (असल) लाभ (है जो) मनुष्य कमाता है।6। बिनु नावै सभ दुखु संसारा ॥ बहु करम कमावहि वधहि विकारा ॥ नामु न सेवहि किउ सुखु पाईऐ बिनु नावै दुखु पाइदा ॥७॥ पद्अर्थ: संसार = संसार में। न सेवहि = नहीं स्मरण करते। किउ पाईऐ = कैसे प्राप्त हो सकता है।?।7। अर्थ: हे भाई! हरि-नाम से टूटने पर जगत में हर तरफ दुख ही दुख है। (जो मनुष्य नाम भुला के धार्मिक निहित हुए अन्य) अनेक कर्म करते हैं (उनके अंदर बल्कि) विकार बढ़ते हैं। हे भाई! अगर मनुष्य नाम नहीं स्मरण करते तो आत्मिक आनंद कैसे मिल सकता है? नाम से टूट के मनुष्य दुख ही सहता है।7। आपि करे तै आपि कराए ॥ गुर परसादी किसै बुझाए ॥ गुरमुखि होवहि से बंधन तोड़हि मुकती कै घरि पाइदा ॥८॥ पद्अर्थ: तै = और। किसै = किसी विरले को। बुझाए = समझ बख्शता है। से = वह (बहुवचन)। मुकती के घरि = मुक्ति के घर में, उस घर में जहाँ विकारों से मुक्ति हुई रहती है।8। अर्थ: हे भाई! गुरु की कृपा से किसी (विरले) को परमात्मा ये समझ देता है कि परमात्मा स्वयं ही सब कुछ कर रहा है और (जीवों से) करवा रहा है। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहते हैं, वह (अपने अंदर से माया के मोह के) बंधन तोड़ लेते हैं। गुरु उनको उस आत्मिक ठिकाने में रखता है जहाँ उन्हें विकारों से मुक्ति मिली रहती है।8। गणत गणै सो जलै संसारा ॥ सहसा मूलि न चुकै विकारा ॥ गुरमुखि होवै सु गणत चुकाए सचे सचि समाइदा ॥९॥ पद्अर्थ: गणत = माया के बारे चिन्ता फिक्र, गिनतियां। गणै = गिनता है। जलै = (तृष्णा की आग में) जलता रहता है। संसारा = जगत में। सहसा = (माया के बारे में) सहम। मूलि = बिल्कुल। चुकै = खत्म होता। विकारा = बेकार, व्यर्थ। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख। चुकाए = समाप्त कर देता है। सचे सचि = हर वक्त सदा स्थिर प्रभु में।9। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य हर वक्त माया की गिनतियाँ गिनता रहता है, वह जगत में सदा (तृष्णा की आग में) जलता रहता है, उसका यह व्यर्थ सहम कभी भी समाप्त नहीं होता। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह दुनियावी चिन्ता-फिक्र खत्म किए रहता है, वह हर वक्त सदा कायम रहने वाले परमात्मा की याद में लीन रहता है।9। जे सचु देइ त पाए कोई ॥ गुर परसादी परगटु होई ॥ सचु नामु सालाहे रंगि राता गुर किरपा ते सुखु पाइदा ॥१०॥ पद्अर्थ: सचु = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। देइ = दे। परसादी = कृपा से। रंगि = प्रेम रंग में। राता = रंगा हुआ। ते = से।10। अर्थ: पर, हे भाई! अगर सदा कायम रहने वाला परमात्मा (खुद ही ये बेफिकरी) बख्शे, तब ही कोई मनुष्य इसको प्राप्त करता है। गुरु की कृपा से (प्रभु उसके अंदर) प्रकट हो जाता है। वह मनुष्य गुरु की कृपा से प्रेम-रंग में मस्त रह के सदा-स्थिर हरि-नाम स्मरण करता है, और आत्मिक आनंद माणता रहता है।10। जपु तपु संजमु नामु पिआरा ॥ किलविख काटे काटणहारा ॥ हरि कै नामि तनु मनु सीतलु होआ सहजे सहजि समाइदा ॥११॥ पद्अर्थ: जपु = (देवताओं को प्रसन्न करने के लिए) मंत्रों का जाप। तपु = धूणियां तपा के उल्टे ल्टक के एसे तरीकों से शरीर को कष्ट देने। संजमु = पाप। काटणहारा = काटने की समर्थता वाला प्रभु। कै नामि = के नाम से। सहजे सहजि = हर वक्त सहज (आत्मिक अडोलता) में।11। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का मीठा नाम (जपना ही) जप है तप है संजम है। (जो मनुष्य नाम जपता है उसके सारे) पाप (पाप) काटने की समर्थता रखने वाला परमात्मा काट देता है। परमात्मा के नाम में जुड़ने की इनायत से उसका तन उसका मन शांत रहता है, वह सदा ही आत्मिक अडोलता में टिका रहता है।11। अंतरि लोभु मनि मैलै मलु लाए ॥ मैले करम करे दुखु पाए ॥ कूड़ो कूड़ु करे वापारा कूड़ु बोलि दुखु पाइदा ॥१२॥ पद्अर्थ: अंतरि = अंदर। मनि मैलै = मन मैला रहने के कारण। कूड़ो कूड़ु वपारा = हर वक्त नाशवान पदार्थों के कमाने का धंधा। बोलि = बोल के। कूड़ु = झूठ।12। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के अंदर (माया का) लालच टिका रहता है (उसका मन हर वक्त मैला रहता है), मैले मन के कारण वह मनुष्य लालच की और मैल (अपने मन को) लगाता रहता है। (ज्यों-ज्यों लालच के अधीन वह) मैले कर्म करता है, वह (आत्मिक) दुख पाता है। वह सदा नाशवान पदार्थों के कमाने का धंधा ही करता है, और झूठ बोल-बोल के दुख सहता है।12। निरमल बाणी को मंनि वसाए ॥ गुर परसादी सहसा जाए ॥ गुर कै भाणै चलै दिनु राती नामु चेति सुखु पाइदा ॥१३॥ पद्अर्थ: निरमल = (जीवन को) पवित्र करने वाली। को = कौन सा मनुष्य। मंनि = मन में। परसादी = कृपा से। सहसा = सहम। कै भाणै = की रजा में, के हुक्म में। चेति = याद करके, स्मरण करके।13। अर्थ: हे भाई! जो कोई मनुष्य (जीवन को) पवित्र करने वाली (गुर-) वाणी (अपने) मन में बसाता है, गुरु की कृपा से (उसका) सहम दूर हो जाता है। वह मनुष्य दिन-रात गुरु के हुक्म में चलता है, हरि-नाम को स्मरण करके वह आत्मिक आनंद लेता है।13। आपि सिरंदा सचा सोई ॥ आपि उपाइ खपाए सोई ॥ गुरमुखि होवै सु सदा सलाहे मिलि साचे सुखु पाइदा ॥१४॥ पद्अर्थ: सिरंदा = पैदा करने वाला। सचा = सदा स्थिर प्रभु। उपाइ = पैदा करके। खपाए = नाश करता है। सोई = वह (स्वयं) ही। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख। सलाहे = महिमा करता है। मिलि = मिल के।14। अर्थ: हे भाई! सदा कायम रहने वाला परमात्मा स्वयं ही (जीवों को) पैदा करने वाला है, खुद पैदा करके वह खुद नाश करता है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है वह सदा परमात्मा की महिमा करता है, सदा-स्थिर प्रभु के चरणों में मिल के वह आत्मिक आनंद भोगता है।14। अनेक जतन करे इंद्री वसि न होई ॥ कामि करोधि जलै सभु कोई ॥ सतिगुर सेवे मनु वसि आवै मन मारे मनहि समाइदा ॥१५॥ पद्अर्थ: इंद्री = काम-वासना। कामि = काम में करोधि = क्रोध में। सभु कोई = हरेक जीव। सतिगुर सेवे = गुरु की शरण पड़ने से। वसि = काबू में। मन मारे = अगर मन को मार ले, यदि मन को वश में कर ले। मनहि = मन ही, मन में ही।15। नोट: ‘मनहि’ में से क्रिया विशेषण ‘ही’ के कारण ‘मनि’ की ‘ि’ मात्रा हट गई है। अर्थ: हे भाई! (गुरु की शरण पड़े बिना) और अनेक प्रयत्न भी मनुष्य करे तो भी काम-वासना काबू में नहीं आ सकती। (ध्यान से देखें) हरेक जीव काम में क्रोध में जल रहा है। गुरु की शरण पड़ने से ही मन काबू में आता है। अगर मन (विकारों से) रोक लिया जाए तो मनुष्य की अंतरात्मा टिकी रहती है (विकारों की ओर नहीं भटकता)।15। मेरा तेरा तुधु आपे कीआ ॥ सभि तेरे जंत तेरे सभि जीआ ॥ नानक नामु समालि सदा तू गुरमती मंनि वसाइदा ॥१६॥४॥१८॥ पद्अर्थ: मेरा तेरा = भेद भाव। आपै = स्वयं ही। सभि = सारे। समालि = याद करता रह।16। अर्थ: हे प्रभु! (जीवों के मन में) मेर-तेर तूने खुद ही पैदा की है। सारे जीव-जंतु तेरे ही पैदा किए हुए हैं। हे नानक! परमात्मा का नाम सदा याद करता रह। हे भाई! गुरु की मति पर चलने से (प्रभु अपना नाम मनुष्य के) मन में बसाता है।16।4।18। मारू महला ३ ॥ हरि जीउ दाता अगम अथाहा ॥ ओसु तिलु न तमाइ वेपरवाहा ॥ तिस नो अपड़ि न सकै कोई आपे मेलि मिलाइदा ॥१॥ पद्अर्थ: दाता = सब पदार्थ देने वाला। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अथाहा = बहुत ही गहरा (समुंदर), बेअंत खजानों वाला। तिलु = रक्ती भर भी। तमाइ = तमा, लालच। आपे = आप ही। मेलि = मिला के।1। नोट: ‘तिस नो’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे भाई! परमात्मा सब पदार्थ देने वाला है, अगम्य (पहुँच से परे) है, बहुत ही गहरा (मानो बेअंत खजानों वाला समुंदर) है। (वह सबको दातें दिए जाता है, पर) उस बेपरवाह को रक्ती भर भी कोई लालच नहीं है। कोई जीव (अपने उद्यम से) उस परमात्मा तक पहुँच नहीं सकता। वह स्वयं ही (जीव को गुरु से) मिला के अपने साथ मिलाता है।1। जो किछु करै सु निहचउ होई ॥ तिसु बिनु दाता अवरु न कोई ॥ जिस नो नाम दानु करे सो पाए गुर सबदी मेलाइदा ॥२॥ पद्अर्थ: निहचउ = जरूर। अवरु = कोई और। सबदी = शब्द से।2। नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ के ‘ु’ मात्रा हटा दी गई है। अर्थ: हे भाई! (वह परमात्मा) जो कुछ करता है, वह जरूर होता है। उसके बिना कोई और कुछ देने योग्य नहीं है। हे भाई! जिस मनुष्य को परमात्मा नाम की दाति देता है, वह हरि-नाम प्राप्त कर लेता है। (उसको) गुरु के शब्द में जोड़ के (अपने साथ) मिला लेता है।2। चउदह भवण तेरे हटनाले ॥ सतिगुरि दिखाए अंतरि नाले ॥ नावै का वापारी होवै गुर सबदी को पाइदा ॥३॥ पद्अर्थ: चउदह भवन = चौदह लोक (सात आकाश, सात पाताल), सारा जगत। हटनाले = (हटों की कतारें), बाजार। सतिगुरि = गुरु ने। नाले = साथ ही। को = जो कोई।3। अर्थ: हे प्रभु! ये चौदह लोक तेरे बाजार हैं (जहाँ तेरे पैदा किए हुए बेअंत जीव तेरी बताई हुई कार कर रहे हैं। यह सारा जगत तेरा ही स्वरूप है)। जिस मनुष्य को गुरु ने तेरा यह सर्व-व्यापक स्वरूप उसके अंदर बसता ही दिखा दिया है, वह मनुष्य तेरे नाम का वणजारा बन जाता है। (ये दाति) जो कोई प्राप्त करता है, गुरु के शब्द से ही (प्राप्त करता है)।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |