श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 1064

तेरा भाणा मंने सु मिलै तुधु आए ॥ जिसु भाणा भावै सो तुझहि समाए ॥ भाणे विचि वडी वडिआई भाणा किसहि कराइदा ॥३॥

पद्अर्थ: आए = आ के। तुधु = तुझे। जिसु = जिस मनुष्य को। तुझहि = तेरे में। वडिआई = इज्जत। किसहि = किसी विरले से।3।

अर्थ: हे प्रभु! जो मनुष्य तेरी रजा को मानता है, वह तुझे आ मिलता है। जिस मनुष्य को तेरा भाणा भा जाता है, वह तेरे (चरणों) में लीन हो जाता है।

हे भाई! परमात्मा की रजा में रहने से बड़ी इज्जत मिलती है। पर किसी विरले को रजा में चलाता है।3।

जा तिसु भावै ता गुरू मिलाए ॥ गुरमुखि नामु पदारथु पाए ॥ तुधु आपणै भाणै सभ स्रिसटि उपाई जिस नो भाणा देहि तिसु भाइदा ॥४॥

पद्अर्थ: तिसु भावै = उसको अच्छा लगता है। जा = या, जब। ता = तो, तब। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। तुधु = तू। देहि = तू देता है। तिसु भाइदा = उसको (तेरा भाणा) मीठा लगता है।4।

नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे भाई! जब उस परमात्मा को अच्छा लगता है, तब वह (किसी भाग्यशाली को) गुरु से मिलाता है। और, गुरु के सन्मुख होने से मनुष्य परमात्मा का श्रेष्ठ नाम प्राप्त कर लेता है।

हे भाई! ये सारी सृष्टि तूने अपनी रजा में पैदा की है। जिस मनुष्य को तू अपनी रज़ा मानने की ताकत देता है, उसको तेरी रजा प्यारी लगती है।4।

मनमुखु अंधु करे चतुराई ॥ भाणा न मंने बहुतु दुखु पाई ॥ भरमे भूला आवै जाए घरु महलु न कबहू पाइदा ॥५॥

पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला। अंधु = अंधा, माया के मोह में अंधा। भरमे = भटकना के कारण। भूला = कुमार्ग पर पड़ा हुआ। आवै जाए = पैदा होता मरता है। घरु महलु = परमात्मा के चरणों में जगह।5।

अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाला और माया के मोह में अंधा हो चुका मनुष्य (अपनी ओर से बहुत सारी) समझदारियाँ करता है, (पर जब तक वह परमात्मा के) किए को मीठा करके नहीं मानता (तब तक वह) बहुत दुख पाता है। मन का मुरीद मनुष्य भटकना के कारण गलत रास्ते पर पड़ा हुआ जनम-मरण के चक्कर में पड़ जाता है, वह कभी भी (इस तरह) परमात्मा के चरणों में जगह नहीं पा सकता।5।

सतिगुरु मेले दे वडिआई ॥ सतिगुर की सेवा धुरि फुरमाई ॥ सतिगुर सेवे ता नामु पाए नामे ही सुखु पाइदा ॥६॥

पद्अर्थ: मेले = मिलाता है। दे = देता है। धुरि = धुर से, परमात्मा की अपनी हजूरी में से। नामे ही = नाम से ही।6।

अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य को परमात्मा) गुरु मिलवाता है, (उसको लोक-परलोक की) इज्जत बख्शता है। गुरु की बताई हुई कार करने का हुक्म धुर से ही प्रभु ने दिया हुआ है। जब मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है तब वह परमात्मा का नाम प्राप्त कर लेता है, और, नाम में जुड़ के ही आत्मिक आनंद पाता है।6।

सभ नावहु उपजै नावहु छीजै ॥ गुर किरपा ते मनु तनु भीजै ॥ रसना नामु धिआए रसि भीजै रस ही ते रसु पाइदा ॥७॥

पद्अर्थ: सभ = हरेक (गुण)। नावहु = नाम (जपने) से। छीजै = (हरेक अवगुण) नाश होता है। ते = से। भीजै = भीग जाता है। रसना = जीभ से। रसि = रस में, स्वाद में, आत्मिक आनंद में। रस ही ते = (उस) आत्मिक आनंद से ही।7।

अर्थ: हे भाई! नाम (स्मरण) से हरेक (गुण मनुष्य के अंदर) पैदा हो जाता है, नाम (स्मरण) से (हरेक अवगुण मनुष्य के अंदर से) नाश हो जाता है। हे भाई! गुरु की कृपा से (ही मनुष्य का) मन (मनुष्य का) तन (नाम-रस में) भीगता है। (जब मनुष्य अपनी) जीभ से हरि-नाम स्मरण करता है, वह आनंद में भीग जाता है, उस आनंद से ही मनुष्य और आत्मिक आनंद प्राप्त करता है।7।

महलै अंदरि महलु को पाए ॥ गुर कै सबदि सचि चितु लाए ॥ जिस नो सचु देइ सोई सचु पाए सचे सचि मिलाइदा ॥८॥

पद्अर्थ: महलै अंदरि = शरीर में। को = जो कोई मनुष्य। महलु = परमात्मा का ठिकाना। कै सबदि = के शब्द से। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। सचु = सदा स्थिर प्रभु। सचु = सदा स्थिर हरि नाम। सचे सचि = हर वक्त सदा स्थिर प्रभु में।8।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के शब्द द्वारा (अपने) शरीर में परमात्मा का ठिकाना पा लेता है, वह सदा-स्थिर हरि-नाम में चिक्त जोड़े रखता है। पर, हे भाई! जिस मनुष्य को सदा-स्थिर प्रभु अपना सदा-स्थिर हरि-नाम देता है, वही यह हरि-नाम हासिल करता है, और वह हर वक्त इस सदा-स्थिर हरि-नाम में एक-मेक हुआ रहता है।8।

नामु विसारि मनि तनि दुखु पाइआ ॥ माइआ मोहु सभु रोगु कमाइआ ॥ बिनु नावै मनु तनु है कुसटी नरके वासा पाइदा ॥९॥

पद्अर्थ: विसारि = बिसार के, भुला के। मनि = मन मे। तनि = तन में। सभु रोगु = निरा रोग। कमाइआ = कमाया। कुसटी = कोढ़ी, रोगी। नरके = नर्क में ही।9।

अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य के मन में हर वक्त) माया का मोह (प्रबल है; उस ने) निरा (आत्मिक) रोग कमाया है। परमात्मा का नाम भुला के उसने अपने मन में तन में दुख ही पाया है। प्रभु के नाम के बिना (मनुष्य का) मन भी रोगी, तन (भाव, ज्ञान-इंद्रिय) भी रोगी (विकारी), वह नर्क में ही पड़ा रहता है।9।

नामि रते तिन निरमल देहा ॥ निरमल हंसा सदा सुखु नेहा ॥ नामु सलाहि सदा सुखु पाइआ निज घरि वासा पाइदा ॥१०॥

पद्अर्थ: नामि = नाम में। रते = रंगे हुए। देहा = शरीर। निरमल = पवित्र, विकारों से बचा हुआ। हंसा = आत्मा। नेहा = प्यार, परमात्मा से प्यार। सलाहि = सलाह के। निज घरि = अपने असल घर में, प्रभु चरणों में।10।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के नाम-रंग में रंगे जाते हैं, उनके शरीर विकारों से बचे रहते हैं, उनकी आत्मा पवित्र रहती है, वे (प्रभु चरणों से) प्यार (जोड़ के) सदा आत्मिक आनंद भोगते हैं। हे भाई! परमात्मा के नाम की महिमा करके मनुष्य सदा सुख पाता है, प्रभु-चरणों में उसका निवास बना रहता है।10।

सभु को वणजु करे वापारा ॥ विणु नावै सभु तोटा संसारा ॥ नागो आइआ नागो जासी विणु नावै दुखु पाइदा ॥११॥

पद्अर्थ: सभु को = हरेक जीव। सभु तोटा = निरा घाटा। संसार = जगत में। नागो = नंगा ही। जासी = जाएगा।11।

नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे भाई! (जगत में आ के) हरेक जीव वाणज्य-व्यापार (आदि कोई ना कोई कार-व्यवहार) करता है, पर प्रभु के नाम से वंचित रह के जगत में निरा घाटा (ही घाटा) है, (क्योंकि जगत में जीव) नंगा ही आता है (और यहाँ से) नंगा ही चला जाएगा (दुनिया वाली कमाई यहीं रह जाएगी)। प्रभु के नाम से टूटा हुआ दुख ही सहता है।11।

जिस नो नामु देइ सो पाए ॥ गुर कै सबदि हरि मंनि वसाए ॥ गुर किरपा ते नामु वसिआ घट अंतरि नामो नामु धिआइदा ॥१२॥

पद्अर्थ: देइ = देता है। मंनि = मन में। ते = से। घट अंतरि = हृदय में। नामो नामु = हर वक्त नाम।12।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को परमात्मा अपना नाम देता है वह (ही यह दाति) हासिल करता है। वह मनुष्य गुरु के शब्द से हरि-नाम को अपने मन में बसा लेता है। गुरु की किरपा से उसके हृदय में परमात्मा का नाम बसता है वह हर वक्त हरि-नाम ही स्मरण करता रहता है।12।

नावै नो लोचै जेती सभ आई ॥ नाउ तिना मिलै धुरि पुरबि कमाई ॥ जिनी नाउ पाइआ से वडभागी गुर कै सबदि मिलाइदा ॥१३॥

पद्अर्थ: लोचै = प्राप्त करने की चाहत करती है। नावै नो = परमात्मा के नाम को। जेती = जितनी भी। सभ आई = सारी पैदा हुई दुनिया। धुरि = धुर से। पुरबि = पहले जनम में। सो = वह (बहुवचन)। कै सबदि = के शब्द से।13।

अर्थ: हे भाई! जितनी भी लुकाई (जगत में) पैदा होती है (वह सारी) परमात्मा का नाम प्राप्त करने की तमन्ना रखती है, पर परमात्मा का नाम उनको ही मिलता है जिन्होंने प्रभु की रजा के अनुसार पिछले जनम में (नाम जपने की) कमाई की हुई होती है।

हे भाई! जिनको परमात्मा का नाम मिल जाता है, वे बड़े भाग्यों वाले बन जाते हैं। (ऐसे भाग्यशालियों को परमात्मा) गुरु के शब्द से (अपने साथ) मिला लेता है।13।

काइआ कोटु अति अपारा ॥ तिसु विचि बहि प्रभु करे वीचारा ॥ सचा निआउ सचो वापारा निहचलु वासा पाइदा ॥१४॥

पद्अर्थ: काइआ = शरीर। कोटु = किला। अति अपारा = बहुत बेअंत (प्रभु) का। तिसु विचि = इस (काया किले) में। बहि = बैठ के। सदा = सदा कायम रहने वाला। निहचलु = कभी ना हिलने वाला, अटल।14।

अर्थ: हे भाई! (मनुष्य का यह) शरीर उस बहुत बेअंत परमात्मा (के रहने) के लिए किला है। इस किले में बैठ के परमात्मा (कई किस्मों के) विचार करता रहता है। उस परमात्मा का न्याय सदा कायम रहने वाला है। जो मनुष्य सदा-स्थिर हरि-नाम स्मरण का व्यापार करता है, वह (इस किले में) भटकना से रहित निवास प्राप्त किए रहता है।14।

अंतर घर बंके थानु सुहाइआ ॥ गुरमुखि विरलै किनै थानु पाइआ ॥ इतु साथि निबहै सालाहे सचे हरि सचा मंनि वसाइदा ॥१५॥

पद्अर्थ: अंतर घर = अंदरूनी घर (मन, बुद्धि, ज्ञानंन्द्रियां आदिक) (बहुवचन)। बंके = बांके, सुंदर। थानु = स्थान, हृदय स्थल। सुहाइआ = सुहाया, सुंदर लगा। इतु = इस में। साथि = साथ में (अंदरूनी सुंदर घरों के स्थान में, मन बुद्धि, ज्ञान-इंद्रिय आदि के साथ में)। निबहै = निभती है, पूरी उतरती है। सालाहे सचे = सदा स्थिर प्रभु की महिमा करता रहे। मंनि = मन में।15।

नोट: ‘इतु’ शब्द ‘इसु’ का अधिकरण कारक एकवचन।

अर्थ: हे भाई! (नाम-जपने की इनायत से शरीर के मन बुद्धि आदि) अंदर के घर सुंदर बने रहते हैं, हृदय-स्थल भी खूबसूरत बना रहता है। किसी उस विरले मनुष्य को ये स्थान प्राप्त होता है जो गुरु के सन्मुख रहता है। जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु की महिमा करता रहता है और सदा-स्थिर हरि-नाम को अपने मन में बसाए रखता है, उस मनुष्य की प्रभु के साथ प्रीति इस (मन बुद्धि आदिक वाले) साथ में पूरी तरह से खरी उतरती है।15।

मेरै करतै इक बणत बणाई ॥ इसु देही विचि सभ वथु पाई ॥ नानक नामु वणजहि रंगि राते गुरमुखि को नामु पाइदा ॥१६॥६॥२०॥

पद्अर्थ: मेरै करतै = मेरे करितार ने। देही = शरीर। सभ वथु = सारी वस्तु, आत्मिक जीवन की सारी पूंजी। वणजहि = वणज करते हैं, विहाजते हैं। रंगि = प्रेम रंग में। राते = रंगे हुए। गुरमुखि को = कोई मनुष्य जो गुरु की शरण पड़ता है।16।

अर्थ: हे भाई! मेरे कर्तार ने यह एक (अजीब) बिउंत बना दी है कि उसने मनुष्य के शरीर में (ही उसके आत्मिक जीवन की) सारी राशि-पूंजी डाल रखी है। हे नानक! जो मनुष्य (गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा के नाम का वाणज्य करते रहते हैं, वे उसके प्रेम-रंग में रंगे रहते हैं। हे भाई! कोई वह मनुष्य ही परमात्मा का नाम प्राप्त करता है जो गुरु के सन्मुख रहता है।16।6।20।

मारू महला ३ ॥ काइआ कंचनु सबदु वीचारा ॥ तिथै हरि वसै जिस दा अंतु न पारावारा ॥ अनदिनु हरि सेविहु सची बाणी हरि जीउ सबदि मिलाइदा ॥१॥

पद्अर्थ: काइआ = शरीर। कंचनु = सोना, सोने जैसी पवित्र। तिथै = उस (शरीर) में। जिस दा = जिस परमात्मा का। पारावारा = पार+अवार, इस पार उस पार का किनारा। अनदिनु = हर रोज। सेविहु = सेवा भक्ति करते रहा करो। सची बाणी = सदा स्थिर हरि की महिमा की वाणी के द्वारा। सबदि = शब्द से।1।

नोट: ‘जिस दा’ में से संबंधक ‘दा’ के कारण ‘जिसु’ की ‘ु’ हटा दी गई है।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के शब्द को अपने हृदय में बसाता है, (शब्द की इनायत से विकारों से बच सकने से उसका) शरीर सोने जैसा शुद्ध हो जाता है। जिस परमात्मा के गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, जिस परमात्मा की हस्ती का इस पार उस पार के छोर का अंत नहीं पाया जा सकता, वह परमात्मा उस (मनुष्य के) हृदय में आ बसता है। हे भाई! सदा-स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी के द्वारा परमात्मा की सेवा-भक्ति करते रहा करो। परमात्मा गुरु के शब्द में जोड़ के अपने साथ मिला लेता है।1।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh