श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मारू महला ३ ॥ निरंकारि आकारु उपाइआ ॥ माइआ मोहु हुकमि बणाइआ ॥ आपे खेल करे सभि करता सुणि साचा मंनि वसाइदा ॥१॥

पद्अर्थ: निरंकारि = निरंकार ने, आकार रहित परमात्मा ने। आकारु = ये दिखाई देता जगत। उपाइआ = पैदा किया। हुकमि = (अपने) हुक्म अनुसार। आपे = (निरंकार) स्वयं ही। खेल = (बहुवचन)। सभि = सारे। साचा = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। मंनि = मन मे।1।

अर्थ: जो मनुष्य सदा कायम रहने वाले परमात्मा का नाम (गुरु से) सुन के (अपने मन में बसाता है (उसको ये निश्चय हो जाता है कि) आकार-रहित परमात्मा ने (अपने आप से पहले) ये दिखाई देता जगत पैदा किया, माया का मोह भी उसने अपने हुक्म में ही बना दिया। कर्तार स्वयं ही यह सारे खेल कर रहा है।1।

माइआ माई त्रै गुण परसूति जमाइआ ॥ चारे बेद ब्रहमे नो फुरमाइआ ॥ वर्हे माह वार थिती करि इसु जग महि सोझी पाइदा ॥२॥

पद्अर्थ: माई = माँ। माइआ माई = माया माँ (द्वारा)। परसूति = (प्रसुति = offspring, progeny, issue) बच्चे। त्रै गुण परसूति = त्रै गुणी जीव। जमाइआ = पैदा किए। थिती = तिथिएं। करि = कर के, बना के। सोझी = (समय आदि की) सूझ।2।

नोट: ‘थिती’ शब्द ‘थिति’ का बहुवचन; जैसे ‘राति’ से ‘राती’, ‘रुति’ से ‘रुती’।

अर्थ: (हे भाई! हरि-नाम को अपने मन में बसाने वाला मनुष्य यह निश्चय रखता है कि) (जगत की) माँ माया से (जगत के पिता परमात्मा ने सारे) त्रैगुणी जीव पैदा किए (ब्रहमा, शिव आदि भी उसी ने पैदा किए), ब्रहमा को उसने चार वेद (रचने के लिए) हुक्म किया। वर्ष, महीने, वार, तिथिएं (आदि) बना के इस जगत में (समय आदि की) सूझ भी वह परमात्मा ही पैदा करने वाला है।2।

गुर सेवा ते करणी सार ॥ राम नामु राखहु उरि धार ॥ गुरबाणी वरती जग अंतरि इसु बाणी ते हरि नामु पाइदा ॥३॥

पद्अर्थ: ते = से। करणी = करने योग्य काम। सार = श्रेष्ठ। सार करणी = श्रेष्ठ करने योग्य काम। उरि = हृदय में। उरिधार = दिल में टिका के। जग अंतरि = जगत में। वरती = (जिसके हृदय में) आ बसी। इसु बाणी ते = इस वाणी से।3।

अर्थ: हे भाई! (परमात्मा की मेहर से जिसको गुरु मिल गया) गुरु की शरण पड़ने से उसको ये श्रेष्ठ करने-योग्य कर्म मिल गया कि परमात्मा का नाम अपने दिल में बसाए रखो। सो, हे भाई! इस जगत में (जिस मनुष्य के हृदय में) गुरु की वाणी आ बसती है, वह इस वाणी की इनायत से परमात्मा का नाम प्राप्त कर लेता है।3।

वेदु पड़ै अनदिनु वाद समाले ॥ नामु न चेतै बधा जमकाले ॥ दूजै भाइ सदा दुखु पाए त्रै गुण भरमि भुलाइदा ॥४॥

पद्अर्थ: पढ़ै = पढ़ता है (एकवचन)। अनदिनु = हर रोज। वाद = (बहुवचन) झगड़े, बहसें। समाले = संभालता है, करता है। चेतै = स्मरण करता। दूजै भाइ = (प्रभु के बिना) अन्य प्यार में। त्रै गुण भरमि = माया के तीन गुणों की भटकना में पड़ कर। भुलाइदा = कुमार्ग पड़ा रहता है।4।

अर्थ: (पर, हे भाई!) जो मनुष्य गुरु की शरण से वंचित रह के वेद (आदि ही) पढ़ता है, और, हर वक्त चर्चा आदि ही करता है, परमात्मा का नाम नहीं स्मरण करता वह आत्मिक मौत के बंधनो में बंधा रहता है। अन्य ही प्यार में फंस के वह सदा दुख पाता है। माया के तीन गुणों की भटकना में पड़ के वह जीवन के गलत रास्ते पर पड़ा रहता है।4।

गुरमुखि एकसु सिउ लिव लाए ॥ त्रिबिधि मनसा मनहि समाए ॥ साचै सबदि सदा है मुकता माइआ मोहु चुकाइदा ॥५॥

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य। एकसु सिउ = सिर्फ एक से। लिव = लगन, प्रीति। त्रिबिधि = तीन किस्म की, माया के तीन (रजा, तमो, सतो) गुणों वाली। मनसा = (मनीषा) मन का फुरना। मनहि = मन ही, मन में ही। साचै सबदि = सदा स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द से। मुकता = (माया के मोह से) स्वतंत्र।5।

नोट: ‘मनहि’ में से ‘मनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य सिर्फ परमात्मा के साथ प्यार डालता है, (इस तरह वह) माया के तीन गुणों के कारण पैदा होने वाले फुरनों को अपने मन में ही खत्म कर देता है। सदा-स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द की इनायत से वह मनुष्य (विकारों से) सदा बचा रहता है, (वह अपने अंदर से) माया का मोह दूर कर लेता है।5।

जो धुरि राते से हुणि राते ॥ गुर परसादी सहजे माते ॥ सतिगुरु सेवि सदा प्रभु पाइआ आपै आपु मिलाइदा ॥६॥

पद्अर्थ: धुरि = (पहले की कमाई के मुताबिक) धुर दरगाह से। राते = (नाम रंग में) रंगे हुए। से = वह (बहुवचन)। हुणि = इस जनम में। परसादी = कृपा से। सहजे = आत्मिक अडोलता में। माते = मस्त। सेवि = सेवा करके, शरण पड़ के। आपै = आपे में। आपु = अपने आप को।6।

अर्थ: पर, हे भाई! इस मानव जन्म में वह मनुष्य ही नाम-रंग में रंगे रहते हैं जो (पूर्व जनम की की कमाई के अनुसार) धुर दरगाह से रंगे हुए होते हैं। वे गुरु की कृपा से आत्मिक अडोलता में मस्त रहते हैं। हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर मनुष्य सदा प्रभु का मिलाप प्राप्त करे रखता है, वह अपने आप को (प्रभु के) आपे में मिला लेता है।6।

माइआ मोहि भरमि न पाए ॥ दूजै भाइ लगा दुखु पाए ॥ सूहा रंगु दिन थोड़े होवै इसु जादे बिलम न लाइदा ॥७॥

पद्अर्थ: मोहि = मोह में। भरमि = भटकना में। दूजै भाइ = और-और प्यार में। लगा = लगा हुआ। सूहा रंगु = (कुसंभे जैसा) शोख रंग। जादे = दूर होते हुए। बिलम = देर, विलम्ब।7।

अर्थ: हे भाई! माया के मोह में, भटकना में फसा हुआ मनुष्य परमात्मा को नहीं मिल सकता। और-और प्यार में लगा हुआ मनुष्य दुख (ही) सहता है। (कुसंभ के रंग की तरह माया का) शोख़-रंग थोड़े दिन ही रहता है, इसके फीका पड़ने में वक्त नहीं लगता।7।

एहु मनु भै भाइ रंगाए ॥ इतु रंगि साचे माहि समाए ॥ पूरै भागि को इहु रंगु पाए गुरमती रंगु चड़ाइदा ॥८॥

पद्अर्थ: भै = भय, अदब में। भाइ = प्यार में। इतु = इस में। इतु रंगि = इस रंग में। को = कोई (विरला)।8।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य (अपने) इस मन को परमात्मा के डर-अदब में प्यार में रहता है, वह इस रंग में रंग के सदा-स्थिर परमात्मा में लीन रहता है। पर कोई विरला मनुष्य बड़ी किस्मत से ये प्रेम-रंग हासिल करता है। वह गुरु की मति पर चल कर यह रंग (अपने मन को) चढ़ाता है।8।

मनमुखु बहुतु करे अभिमानु ॥ दरगह कब ही न पावै मानु ॥ दूजै लागे जनमु गवाइआ बिनु बूझे दुखु पाइदा ॥९॥

पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। मानु = आदर। लागे = लग के।9।

अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य बड़ा अहंकार करता है, पर वह परमात्मा की हजूरी में कभी भी आदर नहीं पाता। और-और (मोह) में लग के वह अपना मानव जन्म गवा लेता है, सही जीवन की समझ के बिना वह सदा दुख पाता है।9।

मेरै प्रभि अंदरि आपु लुकाइआ ॥ गुर परसादी हरि मिलै मिलाइआ ॥ सचा प्रभु सचा वापारा नामु अमोलकु पाइदा ॥१०॥

पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। अंदरि = (हरेक जीव के) अंदर। आपु = अपना आप। सचा = सदा कायम रहने वाला।10।

अर्थ: हे भाई! मेरे प्रभु ने अपने आप को (हरेक जीव के) अंदर गुप्त रखा हुआ है, (फिर भी) गुरु की कृपा से ही मिलाए मिलता है। (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है वह यह समझ लेता है कि) परमात्मा सदा कायम रहने वाला है, उसका नाम जपना ही सही वाणज्य व्यापार है। (गुरु की कृपा से वह) कीमती हरि-नाम प्राप्त करि लेता है।10।

इसु काइआ की कीमति किनै न पाई ॥ मेरै ठाकुरि इह बणत बणाई ॥ गुरमुखि होवै सु काइआ सोधै आपहि आपु मिलाइदा ॥११॥

पद्अर्थ: कीमति = कद्र। किनै न = किसी ने नहीं। ठाकुरि = ठाकुर ने। बणत = मर्यादा, विउंत, बिधि। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख। सोधै = सुधारता है, विकारों से बचाए रखता है। आपहि = अपने आप में ही। आपु = अपने आप को।11।

अर्थ: हे भाई! (अपनी बुद्धि के आसरे) किसी व्यक्ति ने इस (मनुष्य-) शरीर की कद्र नहीं समझी। मेरे मालिक प्रभु ने यही मर्यादा बना रखी है कि जो मनुष्य गुरु के सन्मुख होता है वह (अपने) शरीर को विकारों से बचाए रखता है, और स्वै भाव को अपने में ही लीन कर देता है।11।

काइआ विचि तोटा काइआ विचि लाहा ॥ गुरमुखि खोजे वेपरवाहा ॥ गुरमुखि वणजि सदा सुखु पाए सहजे सहजि मिलाइदा ॥१२॥

पद्अर्थ: तोटा = घाटा। लाहा = लाभ। खोजे = (शरीर में) तलाश करता है। वणजि = (नाम का) वाणज्य कर के। सहजि = अपनी आत्मिक अडोलता में।12।

अर्थ: हे भाई! (हरि-नाम से टूटने से) शरीर के अंदर (आत्मिक जीवन का) घाटा पड़ता जाता है (नाम में जुड़ने से) शरीर के अंदर (आत्मिक जीवन का) लाभ प्राप्त होता है। गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य बेपरवाह प्रभु को (अपने शरीर में) तलाशता है। नाम-व्यापार करके वह सदा सुख पाता है और हर वक्त अपने आप को आत्मिक अडोलता में टिकाए रखता है।12।

सचा महलु सचे भंडारा ॥ आपे देवै देवणहारा ॥ गुरमुखि सालाहे सुखदाते मनि मेले कीमति पाइदा ॥१३॥

पद्अर्थ: महलु = परमात्मा का ठिकाना। सचे = सदा कायम रहने वाले। भंडारा = खजाने। देवणहारा = देने की समर्थता वाला। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। मनि = मन में। मेले = मेल के, टिका के। कीमति = कद्र।13।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का ठिकाना सदा कायम रहने वाला है,उसके खजाने (भी) सदा कायम रहने वाले हैं। सब कुछ देने की समर्थता वाला परमात्मा स्वयं ही (जीवों को यह खजाने) देता है। गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य सारे सुख देने वाला परमात्मा की महिमा करता है, उसको अपने मन में संभाल के रखता है, उस (के नाम) की कद्र समझता है।13।

काइआ विचि वसतु कीमति नही पाई ॥ गुरमुखि आपे दे वडिआई ॥ जिस दा हटु सोई वथु जाणै गुरमुखि देइ न पछोताइदा ॥१४॥

पद्अर्थ: काइआ = शरीर। वसतु = नाम पदार्थ। गुरमुखि = गुरु से। आपे = (प्रभु) स्वयं ही। दे = देता है। वथु = वस्तु, नाम पदार्थ। देइ = देता है।14।

नोट: ‘जिस दा’ में से संबंधक ‘दा’ के कारण ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा हटा दी गई है।

अर्थ: हे भाई! मनुष्य के शरीर में ही नाम-पदार्थ है, पर मनुष्य इस की कद्र नहीं समझता। गुरु के सन्मुख करके (परमात्मा) स्वयं ही (अपने नाम की कद्र करने की) बड़ाई महानता बख्शता है। हे भाई! इस परमात्मा का (बनाया हुआ यह मनुष्य-शरीर-) हाट है, वह (इसमें रखे हुए नाम-) पदार्थ (की कद्र) को जानता है। (वह प्रभु ये दाति) गुरु के माध्यम से देता है, (दे के) पछताता नहीं।14।

हरि जीउ सभ महि रहिआ समाई ॥ गुर परसादी पाइआ जाई ॥ आपे मेलि मिलाए आपे सबदे सहजि समाइदा ॥१५॥

पद्अर्थ: रहिआ समाई = समा रहा, व्यापक है। परसादी = किरपा से। मेलि = मिला के (गुरु के साथ)। सबदे = गुरु के शब्द से। सहजि = आत्मिक अडोलता में। समाइदा = लीन रखता है।15।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा सब जीवों में व्यापक है, (पर फिर भी वह) गुरु की कृपा से उसे मिलता है। वह स्वयं ही (गुरु के साथ) मिला के (अपने साथ) मिलाता है। गुरु के शब्द से (प्रभु जीव को) आत्मिक अडोलता में टिकाए रखता है।15।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh