श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आपे सचा सबदि मिलाए ॥ सबदे विचहु भरमु चुकाए ॥ नानक नामि मिलै वडिआई नामे ही सुखु पाइदा ॥१६॥८॥२२॥

पद्अर्थ: सबदि = शब्द में। सबदे = शब्द से। विचहु = मनुष्य के हृदय में से। भरमु = भटकना। चुकाए = दूर करता है। नामि = नाम में (जुड़ने से)। नामे ही = नाम से ही।16।

अर्थ: हे भाई! सदा-स्थिर प्रभु स्वयं ही (मनुष्य को गुरु के) शब्द में जोड़ता है, शब्द से ही (उसके) अंदर से भटकना दूर करता है। हे नानक! हरि-नाम में जुड़े हुओं को लोक-परलोक में इज्जत मिलती है, नाम से ही (मनुष्य) आत्मिक आनंद पाता है।16।8।22।

मारू महला ३ ॥ अगम अगोचर वेपरवाहे ॥ आपे मिहरवान अगम अथाहे ॥ अपड़ि कोइ न सकै तिस नो गुर सबदी मेलाइआ ॥१॥

पद्अर्थ: अगम = हे अगम्य (पहुँच से परे)! अगोचर = हे अगोचर! हे इन्द्रियों की पहुँच से परे रहने वाले प्रभु! (अ+गो+चर। गो = ज्ञान-इंद्रिय)। आपे = खुद ही। अथाहे = हे अथाह! हे गहरे जिगरे वाले! तिस नो = उस (मनुष्य) को। गुर सबदी = गुरु के शब्द से।1।

नोट: ‘तिस नो’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु! हे ज्ञान-इन्द्रियों की पहुँच से परे रहने वाले प्रभु! हे बेमुथाज प्रभु! हे (अपने जैसे) खुद ही खुद! हे मेहरवान! हे अगम्य (पहुँच से परे)! हे गहरे जिगरे वाले! जिस मनुष्य को तू गुरु के शब्द के माध्यम से अपने साथ मिला लेता है, उसकी कोई बराबरी नहीं कर सकता।1।

तुधुनो सेवहि जो तुधु भावहि ॥ गुर कै सबदे सचि समावहि ॥ अनदिनु गुण रवहि दिनु राती रसना हरि रसु भाइआ ॥२॥

पद्अर्थ: सेवहि = स्मरण करते हैं (बहुवचन)। तुधु भावहि = तुझको अच्छे लगते हैं। सचि = सदा स्थिर हरि नाम में। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। रवहि = स्मरण करते हैं, याद करते हैं। रसना = जीभ। रसु = स्वाद। भाइआ = अच्छा लगा।2।

अर्थ: हे प्रभु! तेरी सेवा-भक्ति वह मनुष्य करते हैं जो तुझे प्यारे लगते हैं। वह मनुष्य गुरु के शब्द से (तेरे) सदा-स्थिर नाम में लीन रहते हैं, हर वक्त दिन रात वे तेरे गुण गाते हैं। हे हरि! उनकी जीभ को तेरे नाम-अमृत का स्वाद अच्छा लगता है।2।

सबदि मरहि से मरणु सवारहि ॥ हरि के गुण हिरदै उर धारहि ॥ जनमु सफलु हरि चरणी लागे दूजा भाउ चुकाइआ ॥३॥

पद्अर्थ: सबदि = शब्द से। मरहि = (स्वै भाव से, विकारों से) मरते हैं। से = वह (बहुवचन)। मरणु = (विकारों से यह) मौत। सवारहि = सुंदर बना लेते हैं, औरों के लिए आकर्षित बना लेते हैं। हिरदै = हृदय में। उर = हृदय। धारहि = बसा लेते हैं। दूजा भाउ = (प्रभु के बिना) और का प्यार। चुकाइआ = खत्म कर लिया।3।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के शब्द से (विकारों से, स्वै भाव से) मर जाते हैं, वह अपनी ये मौत और के लिए सुंदर बना लेते हैं (भाव, लोगों को उनका ये आत्मिक जीवन अच्छा लगता है)। वह मनुष्य अपने हृदय में परमात्मा के गुण टिकाए रखते हैं। परमात्मा के चरणों में लग के वे अपना मानव जन्म कामयाब बना लेते हैं, वे (अपने अंदर से) माया का प्यार समाप्त कर लेते हैं।3।

हरि जीउ मेले आपि मिलाए ॥ गुर कै सबदे आपु गवाए ॥ अनदिनु सदा हरि भगती राते इसु जग महि लाहा पाइआ ॥४॥

पद्अर्थ: कै सबदि = के शब्द से। आपु = स्वै भाव, अहंकार। राते = रंगे हुए। लाहा = लाभ।4।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के शब्द से (अपने अंदर से) स्वै भाव दूर कर लेते हैं, परमात्मा उनको स्वयं अपने चरणों में मिला लेता है। वे हर वक्त परमात्मा की भक्ति में मस्त रहते हैं, इस जगत में वे (भक्ति का) लाभ कमाते हैं।4।

तेरे गुण कहा मै कहणु न जाई ॥ अंतु न पारा कीमति नही पाई ॥ आपे दइआ करे सुखदाता गुण महि गुणी समाइआ ॥५॥

पद्अर्थ: कहा = कहूँ, मैं कहता हूँ। पारा = उस पार का किनारा, अंत। आपे = स्वयं ही। गुणी = गुण गाने वाला। समाइआ = लीन कर लेता है।5।

अर्थ: हे प्रभु! (मेरा जी करता है कि) मैं तेरे गुण कथन करूँ, पर मुझसे बयान नहीं किए जा सकते। तेरे गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, उस पार का किनारा नहीं तलाशा जा सकता, मूल्य नहीं पड़ सकता।

हे भाई! सारे सुख देने वाला (प्रभु जब) स्वयं ही दया करता है, तो गुण गाने वाले को अपने गुणों में लीन कर लेता है।5।

इसु जग महि मोहु है पासारा ॥ मनमुखु अगिआनी अंधु अंधारा ॥ धंधै धावतु जनमु गवाइआ बिनु नावै दुखु पाइआ ॥६॥

पद्अर्थ: पासारा = पसारा हुआ, बिखरा हुआ। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। अगिआनी = आत्मिक जीवन से बेसमझ। अंधु = अंधा। अंधु अंधारा = बिल्कुल अंधा। धंधै = धंधे में। धावतु = दौड़ भाग करता है।6।

अर्थ: हे भाई! इस जगत में (हर तरफ) मोह पसरा हुआ है। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (इस मोह के कारण) आत्मिक जीवन से बेसमझ रहता है, (मोह में) बिल्कुल अंधा हुआ रहता है, (मोह के) घंधे में भटकता-भटकता (मानव-) जनम बेकार कर लेता है, परमात्मा के नाम के बिना दुख पाता है।6।

करमु होवै ता सतिगुरु पाए ॥ हउमै मैलु सबदि जलाए ॥ मनु निरमलु गिआनु रतनु चानणु अगिआनु अंधेरु गवाइआ ॥७॥

पद्अर्थ: करम = बख्शिश। सबदि = शब्द से। जलाए = जला लेता है। निरमलु = पवित्र। गिआनु = परमात्मा के साथ गहरी सांझ। अगिआनु = आत्मिक जीवन से बेसमझी। अंधेरु = अंधेरा।7।

अर्थ: हे भाई! (जब किसी मनुष्य पर) परमात्मा की मेहर होती है, तब उसको गुरु मिलता है। गुरु के शब्द से (वह अपने अंदर से) अहंकार की मैल जलाता है। उसका मन पवित्र हो जाता है, (उसको अपने अंदर से) ज्ञान रतन (मिल जाता है, जो उसके अंदर आत्मिक जीवन का) प्रकाश कर देता है, इस तरह वह (अपने अंदर से) अज्ञान-अंधेरा दूर कर लेता है।7।

तेरे नाम अनेक कीमति नही पाई ॥ सचु नामु हरि हिरदै वसाई ॥ कीमति कउणु करे प्रभ तेरी तू आपे सहजि समाइआ ॥८॥

पद्अर्थ: सचु नामु = सदा स्थिसर रहनें वाला नाम। हिरदै = दिल में। वसाई = बसाऊँ। प्रभ = हे प्रभु! सहजि = आत्मिक अडोलता में।8।

अर्थ: हे प्रभु! (तेरे गुणों के आधार पर) तेरे अनेक ही नाम हैं, मूल्य नहीं पाया जा सकता (किसी दुनियावी पदार्थ के बदले में तेरा नाम प्राप्त नहीं हो सकता)। (अगर तू मेहर करे तो) मैं तेरा सदा कायम रहने वाला नाम अपने दिल में बसाए रखूँ। हे प्रभु! कौन तेरा मूल्य डाल सकता है? (जिस पर तू दयावान होता है, उसको) तू खुद ही आत्मिक अडोलता में लीन रखता है।8।

नामु अमोलकु अगम अपारा ॥ ना को होआ तोलणहारा ॥ आपे तोले तोलि तोलाए गुर सबदी मेलि तोलाइआ ॥९॥

पद्अर्थ: अगम अपार नामु = अगम्य (पहुँच से परे) बेअंत परमात्मा का नाम। को = कोई भी मनुष्य। तोलणहारा = मूल्य करने योग्य। आपे = स्वयं ही। तोले = कद्र जानता है। तोलाए = (जीवों को नाम की) कद्र करनी सिखाता है। सबदी = शब्द से। मेलि = मेल के। तोलाइआ = कद्र सिखाता है।9।

अर्थ: हे भाई! अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत परमात्मा के नाम का मूल्य नहीं डाला जा सकता (किसी दुनियावी पदार्थ के बदले नहीं मिल सकता)। कोई भी जीव (हरि-नाम का) मूल्य डालने के योग्य नहीं हो सका। वह प्रभु स्वयं ही अपने नाम की कद्र (कीमत) जानता है। खुद कद्र जान के जीवों को कद्र करनी सिखाता है। गुरु के शब्द से (अपने साथ) मिला के कद्र सिखाता है।9।

सेवक सेवहि करहि अरदासि ॥ तू आपे मेलि बहालहि पासि ॥ सभना जीआ का सुखदाता पूरै करमि धिआइआ ॥१०॥

पद्अर्थ: सेवहि = सेवा भक्ति करते हैं। करहि = करते हैं (बहुवचन)। बहालहि = तू बैठाता है। पूरै करमि = (तेरी) पूरी बख्शिश से।10।

अर्थ: हे प्रभु! तेरे भक्त तेरी सेवा-भक्ति करते हैं, (तेरे दर पर) अरादास करते हैं। तू स्वयं ही उनको (अपने नाम में) जोड़ के अपने पास बैठाता है। हे प्रभु! तू सारे जीवों को सुख देने वाला है। तेरी पूरी मेहर से (ही तेरे सेवक) तेरा नाम स्मरण करते हैं।10।

जतु सतु संजमु जि सचु कमावै ॥ इहु मनु निरमलु जि हरि गुण गावै ॥ इसु बिखु महि अम्रितु परापति होवै हरि जीउ मेरे भाइआ ॥११॥

पद्अर्थ: जतु = काम-वासना को रोकना। सतु = विकार रहित जीवन। संजमु = इन्द्रियों को विकारों से रोकने का प्रयत्न। जि = जो मनुष्य। सचु कमावै = सदा स्थिर हरि नाम जपने की कमाई करता है। गावै = गाता है। बिखु = जहर, आत्मिक मौत लाने वाली माया। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। भाइआ = अच्छा लगा।11।

नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य सदा-स्थिर हरि-नाम जपने की कमाई करता है, जो मनुष्य परमात्मा के गुण गाता रहता है, उसका यह मन पवित्र हो जाता है। आत्मिक मौत लाने वाली इस माया-जहर के बीच में रहते हुए ही उसको आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल मिल जाता है। मेरे प्रभु को यही मर्यादा भाती है।11।

जिस नो बुझाए सोई बूझै ॥ हरि गुण गावै अंदरु सूझै ॥ हउमै मेरा ठाकि रहाए सहजे ही सचु पाइआ ॥१२॥

पद्अर्थ: बुझाए = आत्मिक जीवन की सूझ देता है। अंदरु = हृदय। सूझै = सूझ वाला हो जाता है। ठाकि = रोक के। सहजे = आत्मिक अडोलता में। सचु = सदा कायम रहने वाला परमात्मा।12।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को परमात्मा खुद आत्मिक जीवन की समझ देता है, वही मनुष्य समझता है। (ज्यों ज्यों) वह परमात्मा के गुण गाता है, उसका हृदय सूझ वाला होता जाता है। वह मनुष्य अहंकार और ममता को (प्रभाव डालने से) रोके रखता हैआत्मिक अडोलता में टिक केवह सदा-स्थिर हरि मिलाप प्राप्त कर लेता है।12।

बिनु करमा होर फिरै घनेरी ॥ मरि मरि जमै चुकै न फेरी ॥ बिखु का राता बिखु कमावै सुखु न कबहू पाइआ ॥१३॥

पद्अर्थ: करमु = मेहर। बिन करमा = (परमात्मा की) कृपा के बिना। होर = (नाम से टूटी हुई) और दुनिया। घनेरी = बहुत सारी। फिरै = भटकती फिरती है। मरि मरि = मर मर के। जंमै = पैदा होती है। मरि मरि जंमै = जनम मरण के चक्करों में पड़ी रहती है। चुकै न = समाप्त नहीं होती। फेरी = जनम मरन के चक्कर। बिखु = जहर, आत्मिक मौत लाने वाली माया जहर।13।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा की मेहर के बिना (नाम से टूटी हुई) और बहुत सारी दुनिया भटकती फिरती है। वह जनम-मरण के चक्करों में पड़ी रहती है, उसका जनम-मरन का चक्कर खत्म नहीं होता। जो मनुष्य आत्मिक मौत लाने वाली माया-जहर का लट्टू हुआ रहता है, वह यह जहर ही विहाजता फिरता है, वह कभी भी आत्मिक आनंद नहीं पा सकता।13।

बहुते भेख करे भेखधारी ॥ बिनु सबदै हउमै किनै न मारी ॥ जीवतु मरै ता मुकति पाए सचै नाइ समाइआ ॥१४॥

पद्अर्थ: भेखधारी = (जब वैराग सन्यास आदि का) भेख धारण करने वाला। किनै = किसी ने भी। जीवत मरै = दुनिया की मेहनत-कमाई करता हुआ ही स्वै भाव छोड़े। ता = तब। मुकति = अहंकार से मुक्ति। सचै नाइ = सदा स्थिर हरि नाम में सचै = सदा स्थिर में नाइ = नाम में।14।

अर्थ: हे भाई! (त्योगियों वाला पहरावा डाले फिरते हुओं को देख के भी ना भूल जाना कि ये इस जहर से बचे हुए हैं। जोग-अभ्यास वाला) धार्मिक पहरावा पहनने वाला मनुष्य बहुत सारे (ऐसे) भेस करता है, पर गुरु के शब्द के बिना कोई भी मनुष्य (अपने अंदर से) अहंकार दूर नहीं कर सका। जब मनुष्य दुनिया के कार्य-व्यवहार करता हुआ ही स्वै भाव छोड़ता है, तब वह (अहंकार से) मुक्ति पा लेता है, वह सदा कायम रहने वाले परमात्मा के नाम में जुड़ा रहता है।14।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh