श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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अगिआनु त्रिसना इसु तनहि जलाए ॥ तिस दी बूझै जि गुर सबदु कमाए ॥ तनु मनु सीतलु क्रोधु निवारे हउमै मारि समाइआ ॥१५॥

पद्अर्थ: अगिआनु = आत्मिक जीवन से बेसमझी। तनहि = शरीर को। जलाए = जला देती है। जि = जो मनुष्य। निवारे = दूर कर लेता है। मारि = मार के।15।

नोट: ‘तिस दी’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘दी’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे भाई! आत्मिक जीवन की ओर से बेसमझी (इसको) माया की तृष्णा (कह लो, ये माया की तृष्णा मनुष्य के) इस शरीर को (अंदर-अंदर से) जलाती रहती है। ये तृष्णा-अग्नि उस मनुष्य की बुझती है जो गुरु के शब्द को हर वक्त हृदय में बसाए रखता है। उसका तन विकारों की आग से बचा रहता है, वह (अपने अंदर से) क्रोध दूर कर लेता है, अहंकार को मार के वह मनुष्य (गुरु-शब्द में) लीन रहता है।15।

सचा साहिबु सची वडिआई ॥ गुर परसादी विरलै पाई ॥ नानकु एक कहै बेनंती नामे नामि समाइआ ॥१६॥१॥२३॥

अर्थ: हे भाई! नानक ये विनती करता है (कि) मालिक प्रभु सदा कायम रहने वाला है, उसकी महिमा (बड़ाई) भी सदा कायम रहने वाली है। किसी विरले मनुष्य ने गुरु की कृपा से (मालिक प्रभु की बड़ाई करने की दाति) प्राप्त की है (जिसने प्राप्त की है वह) हर वक्त परमात्मा के नाम में लीन रहता है।16।1।23।

मारू महला ३ ॥ नदरी भगता लैहु मिलाए ॥ भगत सलाहनि सदा लिव लाए ॥ तउ सरणाई उबरहि करते आपे मेलि मिलाइआ ॥१॥

पद्अर्थ: नदरी = मेहर की निगाह से। लैहु मिलाए = तू (अपने साथ) मिला लेता है। सलाहनि = महिमा करते हैं। लिव लाए = तवज्जो/ध्यान जोड़ के। तउ = तेरी। उबरहि = (विकारों से) बचते हैं। करते = हे कर्तार!।1।

अर्थ: हे कर्तार! अपने भक्तों को तू मेहर की निगाह से (अपने चरणों में) जोड़ कर रखता है, (इसलिए) भक्त (तेरे चरणों में) तवज्जो जोड़ के सदा तेरी महिमा करते रहते हैं। तेरी शरण में रह के वे विकारों से बचे रहते थे। तू खुद ही उनको (गुरु से) मिला के (अपने साथ) जोड़े रखता है।1।

पूरै सबदि भगति सुहाई ॥ अंतरि सुखु तेरै मनि भाई ॥ मनु तनु सची भगती राता सचे सिउ चितु लाइआ ॥२॥

पद्अर्थ: सबदि = शब्द से। सुहाई = सुंदर बनी। तेरै मनि = तेरे मन में। भाई = (वह भक्ति) भा गई। रता = रंगा गया। सिउ = साथ।2।

अर्थ: हे कर्तार! पूरे (गुरु के) शब्द की इनायत से (जिस मनुष्य के अंदर तेरी) भक्ति निखर आती है, उसके अंदर आत्मिक आनंद बन जाता है, (उस मनुष्य की भक्ति) तेरे मन को प्यारी लगती है। उस मनुष्य का मन उसका तन तेरी सदा-स्थिर महिमा में रंगा रहता है, वह तेरे सदा-स्थिर नाम में अपना चिक्त जोड़ के रखता है।2।

हउमै विचि सद जलै सरीरा ॥ करमु होवै भेटे गुरु पूरा ॥ अंतरि अगिआनु सबदि बुझाए सतिगुर ते सुखु पाइआ ॥३॥

पद्अर्थ: सद = सदा। जलै = जलता है (एकवचन)। करमु = मेहर, बख्शिश। भेटे = मिलता है। अंतरि = अंदर (बसता)। अगिआनु = आत्मिक जीवन की ओर से कोरापन। बुझाए = मिटा देता है। ते = से।3।

अर्थ: हे भाई! अहंकार (की आग) में (मनुष्य का) शरीर (अंदर-अंदर से) सदा जलता रहता है। (जब प्रभु की) मेहर होती है तो इसको पूरा गुरु मिलता है। वह मनुष्य अपने अंदर बसते अज्ञान को गुरु के शब्द से दूर कर लेता है, गुरु से वह आत्मिक आनंद प्राप्त करता है।3।

मनमुखु अंधा अंधु कमाए ॥ बहु संकट जोनी भरमाए ॥ जम का जेवड़ा कदे न काटै अंते बहु दुखु पाइआ ॥४॥

पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन की ओर मुँह कर रखने वाला मनुष्य, मन का मुरीद। अंधा = (माया के मोह में) अंधा। अंधु = अंधों वाला काम। संकट = कष्ट। भरमाए = भटकता है। जेवड़ा = फांसी। न काटै = नहीं काट सकता। अंते = आखिरी वक्त। जम का जेवड़ा = आत्मिक मौत की फाही।4।

अर्थ: पर, हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (माया के मोह में) अंधा हुआ रहता है, वह सदा अंधों वाला काम ही करता है। (जीवन-यात्रा में सही रास्ते से भटक के) वह अनेक कष्ट सहता है, और, अनेक जूनियों में भटकता फिरता है। (वह मनुष्य अपने गले से) आत्मिक मौत के फंदे को कभी नहीं काट सकता। अंत के समय भी वह बहुत दुख पाता है।4।

आवण जाणा सबदि निवारे ॥ सचु नामु रखै उर धारे ॥ गुर कै सबदि मरै मनु मारे हउमै जाइ समाइआ ॥५॥

पद्अर्थ: आवण जाणा = पैदा होना मरना, जनम मरण का चक्कर। सबदि = गुरु के शब्द से। निवारे = दूर कर लेता है। सचु नामु = सदा स्थिर हरि नाम। उर = (उरस) हृदय। धारे = टिका के। मरै = (अपनत्व की ओर से) मारता है, स्वैभाव दूर करता है। मनु मारे = मन को वश में रखता है। जाइ = दूर हो जाती है।5।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य सदा कायम रहने वाले परमात्मा का नाम अपने हृदय में बसाए रखता है, वह गुरु के शब्द की इनायत से जनम-मरण के चक्कर दूर कर लेता है। वह मनुष्य गुरु के शब्द से स्वै भाव दूर कर लेता है, वह अपने मन को वश में कर लेता है, उसका अहंकार दूर हो जाता है, वह सदा परमात्मा की याद में लीन रहता है।5।

आवण जाणै परज विगोई ॥ बिनु सतिगुर थिरु कोइ न होई ॥ अंतरि जोति सबदि सुखु वसिआ जोती जोति मिलाइआ ॥६॥

पद्अर्थ: आवण जाणै = जनम मरण (के चक्कर) में। परज = सृष्टि। विगोई = दुखी होती है। थिरु = स्थिर। अंदरि = अंदर, हृदय में। सबदि = शब्द से। जोती = परमात्मा की ज्योति में।6।

अर्थ: हे भाई! सृष्टि जनम-मरण के चक्करों में दुखी होती रहती है। गुरु की शरण के बिना (इस चक्कर में से) किसी को भी निजात नहीं मिलती। जिस मनुष्य के अंदर गुरु के शब्द से परमात्मा की ज्योति प्रकट हो जाती है, उसके अंदर आत्मिक आनंद आ बसता है, उसकी ज्योति परमात्मा की ज्योति में मिली रहती है।6।

पंच दूत चितवहि विकारा ॥ माइआ मोह का एहु पसारा ॥ सतिगुरु सेवे ता मुकतु होवै पंच दूत वसि आइआ ॥७॥

पद्अर्थ: पंच दूत = (कामादिक) पाँच वैरियों के कारण। चितवदे = (जीव) चितवते रहते हैं। पसारा = खिलारा। मोह का पसारा = हर तरफ मोह का प्रभाव। सेवे = शरण पड़ा रहे। मुकतु = (मोह के प्रभाव से) स्वतंत्र। वसि = वश में।7।

अर्थ: हे भाई! (कामादिक) पाँच वैरियों के (प्रभाव के) कारण (जीव हर वक्त) विकार चितवते रहते हैं। हर तरफ माया के मोह का प्रभाव बना हुआ है। जब मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, तब (इस मोह के दबाव से) स्वतंत्र होता है, (कामादिक) पाँच वैरी उसके वश में आ जाते हैं।7।

बाझु गुरू है मोहु गुबारा ॥ फिरि फिरि डुबै वारो वारा ॥ सतिगुर भेटे सचु द्रिड़ाए सचु नामु मनि भाइआ ॥८॥

पद्अर्थ: गुबारा = घोर अंधेरा। फिरि फिरि = बार बार। वारो वारा = बार बार, अनेक बार। सतिगुर भेटे = गुरु मिल जाए। सचु = सदा स्थिर हरि नाम। द्रिढ़ाए = हृदय में पक्का कर देता है। मनि = मन में। भाइआ = प्यारा लगने लग जाता है।8।

अर्थ: हे भाई! गुरु के बिना (माया का) मोह (इतना प्रबल रहता) है (कि मनुष्य के जीवन-राह में आत्मिक जीवन की ओर से) घोर अंधकार (बना) रहता है। मनुष्य बार-बार अनेक वार (मोह के समुंदर में) डूबता है। जब मनुष्य गुरु को मिल जाता है, तब गुरु सदा-स्थिर हरि-नाम इस के दिल में पक्का कर देता है। (तो फिर) सदा कायम रहने वाले परमात्मा का नाम इसको प्यारा लगने लग जाता है।8।

साचा दरु साचा दरवारा ॥ सचे सेवहि सबदि पिआरा ॥ सची धुनि सचे गुण गावा सचे माहि समाइआ ॥९॥

पद्अर्थ: साचा = सदा कायम रहने वाला। दरु = दरवाजा। दरवारा = दरबार। सेवहि = सेवा भक्ति करते हैं। सचे सेवहि = सदा स्थिर प्रभु की भक्ति करते हैं। सबदि पिआरा = गुरु के शब्द में प्यार डाल के। धुनि = लगन। गावा = मैं भी गाऊँ।9।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का दर सदा कायम रहने वाला है, उसका दरबार भी सदा-स्थिर है। जो मनुष्य गुरु के शब्द से प्यार करते हैं वह ही उस सदा-स्थिर परमात्मा की सेवा-भक्ति करते हैं। (अगर मेरे पर उसकी मेहर हो तो) मैं (भी) स्थिरता के साथ लगन से उस सदा-स्थिर प्रभु के गुण गाता रहूँ। (जो मनुष्य गुण गाते हैं वह) सदा कायम रहने वाले परमात्मा में लीन रहते हैं।9।

घरै अंदरि को घरु पाए ॥ गुर कै सबदे सहजि सुभाए ॥ ओथै सोगु विजोगु न विआपै सहजे सहजि समाइआ ॥१०॥

पद्अर्थ: घरै अंदरि = हृदय घर के अंदर ही। को = कोई विरला। घरु = परमात्मा का ठिकाना। कै सबदि = के शब्द से। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाए = प्यार में। ओथै = उस सहज अवस्था में। सोगु = गम। विजोगु = विछोड़ा। न विआपै = जोर नहीं डाल सकता। सहजे सहजि = हर वक्त सहज में।10।

अर्थ: हे भाई! जो कोई मनुष्य गुरु के शब्द की इनायत से अपने हृदय-घर में परमात्मा का ठिकाना पा लेता है, वह आत्मिक अडोलता में प्रेम में टिका रहता है। उस अडोल अवस्था में टिकने से गम जोर नहीं डाल सकता, (प्रभु चरणों से) विछोड़ा जोर नहीं डाल सकता। वह मनुष्य सदा ही आत्मिक अडोलता में लीन रहता है।10।

दूजै भाइ दुसटा का वासा ॥ भउदे फिरहि बहु मोह पिआसा ॥ कुसंगति बहहि सदा दुखु पावहि दुखो दुखु कमाइआ ॥११॥

पद्अर्थ: दूजै भाइ = और-और ही प्यार में। दुसट = कुकर्मी लोग। पिआसा = प्यासा, तृष्णा। कुसंगति = बुरी सोहबत में। बहहि = बैठते हैं (बहुवचन)। दुखो दुख = हर वक्त दुख।11।

अर्थ: हे भाई! कुकर्मी लोग (प्रभु को भुला के) औरों के प्यार में ही मन को जोड़े रखते हैं, बड़े मोह बड़ी तृष्णा के कारण वह भटकते फिरते हैं। (कुकर्मी लोग) सदा बुरी संगति में बैठते हैं और दुख पाते हैं। वे सदा वही कर्म करते हैं जिनमें से सिर्फ दुख ही दुख निकले।11।

सतिगुर बाझहु संगति न होई ॥ बिनु सबदे पारु न पाए कोई ॥ सहजे गुण रवहि दिनु राती जोती जोति मिलाइआ ॥१२॥

पद्अर्थ: बाझहु = बिना। संगति = भली संगत। पारु = विकारों का परला छोर। सहजे = आत्मिक अडोलता में। रवहि = गाते हैं, स्मरण करते हैं (बहुवचन)। जोती = परमात्मा की ज्योति में।12।

अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण के बिना भली संगति नहीं मिल सकती। गुरु के शब्द के बिना कोई मनुष्य कुकर्मों (की नदी) का उस पार का किनारा नहीं पा सकता। जो मनुष्य दिन-रात आत्मिक अडोलता में टिक के परमात्मा के गुण गाते रहते हैं, उनकी जिंद परमात्मा की ज्योति में लीन रहती है।12।

काइआ बिरखु पंखी विचि वासा ॥ अम्रितु चुगहि गुर सबदि निवासा ॥ उडहि न मूले न आवहि न जाही निज घरि वासा पाइआ ॥१३॥

पद्अर्थ: काइआ = शरीर। बिरख = वृक्ष। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम का चोगा। चुगहि = चुगते हैं। सबदि = शब्द में। उडहि न = बाहर नहीं भटकते। न मूले = बिल्कुल नहीं। न जाही = ना जाते हैं, ना मरते हैं। निज घरि = अपने (असल) घर में, प्रभु के चरणों में।13।

अर्थ: हे भाई! (जैसे रात बसेरे के लिए पक्षी किसी वृक्ष पर आ के टिकते हैं, इसी तरह ये) शरीर (मानो) वृक्ष है, (इस शरीर) में (जीव) पंछी का निवास है। जो जीव-पंछी गुरु के शब्द में टिक के आत्मिक जीवन देने वाली नाम की चोग चुगते हैं, वे बिल्कुल बाहर नहीं भटकते, वे जनम-मरण के चक्करों में नहीं पड़ते, वे सदा प्रभु-चरणों में निवास रखते हैं।13।

काइआ सोधहि सबदु वीचारहि ॥ मोह ठगउरी भरमु निवारहि ॥ आपे क्रिपा करे सुखदाता आपे मेलि मिलाइआ ॥१४॥

पद्अर्थ: सोधहि = सोधते हैं, पड़ताल करते हैं। ठगउरी = ठग बूटी, वह बूटी जिससे ठग यात्रियों को ठगते हैं (धतूरा आदि)। भरमु = भटकना। निवारहि = दूर करते हैं। आपे सुखदाता = सुखों का दाता प्रभु स्वयं।14।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य (अपने) शरीर की पड़ताल करते रहते हैं, गुरु के शब्द को हृदय में बसाए रखते हैं, वे मनुष्य मोह की ठग बूटी नहीं खाते, वह मनुष्य (अपने अंदर से) भटकना दूर कर लेते हैं। पर, हे भाई! (ये) कृपा सुखों को देने वाला परमात्मा स्वयं ही करता है, वह स्वयं ही (उन्हें गुरु से) मिला के (अपने चरणों में) जोड़ता है।14।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh