श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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विचि हउमै सेवा थाइ न पाए ॥ जनमि मरै फिरि आवै जाए ॥ सो तपु पूरा साई सेवा जो हरि मेरे मनि भाणी हे ॥११॥

पद्अर्थ: थाइ = थाय, जगह में। थाइ न पाए = स्वीकार नहीं होता। जनमि = पैदा हो के। आवै जाइ = आता है जाता है, पैदा होता मरता रहता है। मनि = मन मे। भाणी = अच्छी लगती है।11।

अर्थ: हे भाई! अहंकार में की हुई सेवा-भक्ति स्वीकार नहीं होती, वह मनुष्य (तो बल्कि) जनम-मरण के चक्करों में पड़ा रहता है। हे भाई! वही है पूरा तप, वही है सेवा भक्ति, जो मेरे प्रभु के मन को भाती है (प्रभु की रजा में चलना ही सही रास्ता है)।11।

हउ किआ गुण तेरे आखा सुआमी ॥ तू सरब जीआ का अंतरजामी ॥ हउ मागउ दानु तुझै पहि करते हरि अनदिनु नामु वखाणी हे ॥१२॥

पद्अर्थ: हउ = मैं अहम्। आखा = कहूँ। सुआमी = हे स्वामी! अंतरजामी = दिल की जानने वाला। मागउ = माँगता हूँ। तुझै पहि = तेरे पास से ही। करते = हे कर्तार! अनदिनु = हर रोज हर वक्त। वखाणी = मैं उचारता रहूँ।12।

अर्थ: हे मेरे मालिक! मैं तेरे कौन-कौन से गुण बयान करूँ? तू सब जीवों के दिल की जानने वाला है। हे कर्तार! मैं तुझसे ही यह दान माँगता हूँ कि मैं हर वक्त तेरा नाम उचारता रहूँ।12।

किस ही जोरु अहंकार बोलण का ॥ किस ही जोरु दीबान माइआ का ॥ मै हरि बिनु टेक धर अवर न काई तू करते राखु मै निमाणी हे ॥१३॥

पद्अर्थ: जोरु = ताकत, जोर, मान। दीबान = आसरा। धर = आसरा। करते = हे कर्तार! मैं = मुझे।13।

नोट: ‘किस ही’ में से ‘किसु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

नोट: ‘काई’ स्त्रीलिंग है व ‘कोई’ पुलिंग है।

अर्थ: हे भाई! किसी के अंदर अच्छा बोल सकने के अहंकार की ताकत है। किसी को माया के आसरे का भरोसा है। मुझे परमात्मा के बिना और कोई आसरा नहीं सहारा नहीं। हे कर्तार! मेरी निमाणी की रक्षा तू ही कर।13।

निमाणे माणु करहि तुधु भावै ॥ होर केती झखि झखि आवै जावै ॥ जिन का पखु करहि तू सुआमी तिन की ऊपरि गल तुधु आणी हे ॥१४॥

पद्अर्थ: करहि = तू करता है। तुधु भावै = तुझे अच्छा लगता है। होर केती = और कितनी ही दुनिया। झखि = दुखी हो के। पखु = मदद। ऊपरि = सबके ऊपर। गल = बात। आणी = ले आए।14।

अर्थ: हे स्वामी! तू निमाणे का माण है। जो तुझे अच्छा लगता है, वही तू करता है। (तेरी रज़ा से दूर जाने का प्रयत्न करके) बेअंत दुनिया दुखी हो-हो के जनम-मरण के चक्करों में पड़ती है। हे स्वामी! तू जिनका पक्ष करता है, उनकी बात हर जगह मानी जाती है।14।

हरि हरि नामु जिनी सदा धिआइआ ॥ तिनी गुर परसादि परम पदु पाइआ ॥ जिनि हरि सेविआ तिनि सुखु पाइआ बिनु सेवा पछोताणी हे ॥१५॥

पद्अर्थ: जिनी = जिन्होंने। परसादि = कृपा से। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। जिनि = जिस ने।15।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने सदा परमात्मा का नाम स्मरण किया, उन्हों ने गुरु की कृपा से सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लिया। हे भाई! जिस मनुष्य ने परमात्मा की सेवा-भक्ति की, उसने सुख पाया। प्रभु की सेवा-भक्ति के बिना दुनिया पछताती (ही) है।15।

तू सभ महि वरतहि हरि जगंनाथु ॥ सो हरि जपै जिसु गुर मसतकि हाथु ॥ हरि की सरणि पइआ हरि जापी जनु नानकु दासु दसाणी हे ॥१६॥२॥

पद्अर्थ: वरतहि = व्यापक है। जगंनाथु = जगत का नाथ। गुर हाथु = गुरु का हाथ। जिसु मसतकि = जिसके माथे पर। जापी = मैं जपूँ। दासु दसाणी = दासों का दास।16।

अर्थ: हे हरि! तू जगत का नाथ है। तू सबमें व्यापक है। हे भाई! वही मनुष्य परमात्मा का नाम जपता है जिसके माथे पर गुरु का हाथ होता है।

हे भाई! (मैं भी) हरि की शरण पड़ा हूँ, मैं भी हरि का नाम जपता हूँ। दास नानक हरि के दासों का दास है।16।2।

मारू सोलहे महला ५    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

कला उपाइ धरी जिनि धरणा ॥ गगनु रहाइआ हुकमे चरणा ॥ अगनि उपाइ ईधन महि बाधी सो प्रभु राखै भाई हे ॥१॥

पद्अर्थ: कला = गुप्त ताकत, शक्ति, सत्ता। उपाइ = पैदा कर के। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। धरणा = धरती। गगनु = आकाश। रहाइआ = टिकाया। हुकमे = हुक्म से ही। चरणा = आसरा (दे के)। ईधन = ईधन। बाधी = बाँधी हुई है। राखै = रक्षा करता है।1।

अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा ने (अपने ही अंदर से) शक्ति पैदा करके धरती की सृजना की है, जिसने अपने हुक्म का ही आसरा दे के आकाश को स्तंभ दिया हुआ है, जिसने आग पैदा करके इसको ईधन (लकड़ियों) में बाँध रखा है, वही परमात्मा (सब जीवों की) रक्षा करता है।1।

जीअ जंत कउ रिजकु स्मबाहे ॥ करण कारण समरथ आपाहे ॥ खिन महि थापि उथापनहारा सोई तेरा सहाई हे ॥२॥

पद्अर्थ: कउ = को। संबाहे = पहुँचाता है। करण = सृष्टि। कारण = मूल। आपाहे = माया की पाह से रहित, निर्लिप। थापि = पैदा करके। उथापनहारा = नाश कर सकने वाला। सहाई = मददगार।2।

अर्थ: हे भाई! जो परमात्मा सारे ही जीवों को रिज़क पहुँचाता है, जो सृष्टि का मूल है, जो सब ताकतों का मालिक व निर्लिप है, जो एक छिन में पैदा करके नाश करने की समर्थता रखता है, वही परमात्मा (हर वक्त) तेरा भी मददगार है।2।

मात गरभ महि जिनि प्रतिपालिआ ॥ सासि ग्रासि होइ संगि समालिआ ॥ सदा सदा जपीऐ सो प्रीतमु वडी जिसु वडिआई हे ॥३॥

पद्अर्थ: जिनि = जिस (प्रभु) ने। प्रतिपालिआ = रक्षा की। सासि = (हरेक) सांस के साथ। ग्रासि = (हरेक) ग्रास के साथ। संगि = साथ। समालिआ = संभाल करता है। जपीऐ = जपना चाहिए।3।

अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा ने माँ के पेट में (तेरी) पालना की, तेरे हरेक सांस के साथ तेरी हरेक ग्रास के साथ तेरा संगी बन के तेरी संभाल की, जिस परमात्मा की इतनी बड़ी बड़ाई है, उस प्रीतम प्रभु को सदा ही सदा ही जपना चाहिए।3।

सुलतान खान करे खिन कीरे ॥ गरीब निवाजि करे प्रभु मीरे ॥ गरब निवारण सरब सधारण किछु कीमति कही न जाई हे ॥४॥

पद्अर्थ: सुलतान = बादशाह। खान = सरदार। कीरे = कीड़े। निवाजि = निवाज के, ऊँचे करके। मीरे = अमीर। गरब = अहंकार। सरब सधारण = सबको आसरा देने वाला।4।

अर्थ: हे भाई! वह परमात्मा बादशाहों और खानों को एक छिन में कीड़े (कंगाल) बना देता है, गरीबों को ऊँचे करके अमीर बना देता है। वह परमात्मा (अहंकारियों का) अहंकार दूर करने वाला है, वह परमात्मा सबका आसरा है, हे भाई! उसका मूल्य नहीं डाला सकता।4।

सो पतिवंता सो धनवंता ॥ जिसु मनि वसिआ हरि भगवंता ॥ मात पिता सुत बंधप भाई जिनि इह स्रिसटि उपाई हे ॥५॥

पद्अर्थ: पतिवंता = इज्जत वाला। जिसु मनि = जिस के मन में। सुत = पुत्र। बंधप = रिश्तेदार। जिनि = जिस (कर्तार) ने।5।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के मन में हरि भगवान आ बसता है, वह (असल) इज्जतदार है, वही (असल) धनाढ है। जिस परमात्मा ने यह सृष्टि पैदा की है, वही है माता-पिता, वही है पुत्र-रिश्तेदार और भाई (वही है हमेशा साथ निभने वाला संबंधी)।5।

प्रभ आए सरणा भउ नही करणा ॥ साधसंगति निहचउ है तरणा ॥ मन बच करम अराधे करता तिसु नाही कदे सजाई हे ॥६॥

पद्अर्थ: प्रभ सरणा = प्रभु की शरण में। निहचउ = अवश्य। बच = वचन। अराधे = स्मरण करता है। सजाई = सजा, दण्ड, कष्ट।6।

अर्थ: हे भाई! प्रभु की शरण पड़ने से किसी किस्म के डर की आवश्यक्ता नहीं रहती। हे भाई! गुरु की संगत में रहने से अवश्य (सारे डरों से) पार-उतारा हो जाता है। जो मनुष्य अपने मन से वचनों से कर्मों से कर्तार हरि की आराधना करता रहता है, उसको कभी कोई कष्ट छू नहीं सकता।6।

गुण निधान मन तन महि रविआ ॥ जनम मरण की जोनि न भविआ ॥ दूख बिनास कीआ सुखि डेरा जा त्रिपति रहे आघाई हे ॥७॥

पद्अर्थ: गुण निधान = गुणों का खजाना। रविआ = स्मरण किया। सुखि = सुख में। त्रिपति रहे आघाई = माया की तृष्णा की ओर से पूरी तौर पर तृप्त हो गए।7।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य अपने मन में अपने तन में परमात्मा को याद रखता है, वह जनम-मरण के चक्र में नहीं भटकता। उसके सारे दुखों का नाश हो जाता है, वह सदा के लिए आत्मिक आनंद में ठिकाना बना लेता है, क्योंकि वह (तृष्णा की ओर से) पूरी तौर पर तृप्त होता है।7।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh