श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1072 मीतु हमारा सोई सुआमी ॥ थान थनंतरि अंतरजामी ॥ सिमरि सिमरि पूरन परमेसुर चिंता गणत मिटाई हे ॥८॥ पद्अर्थ: थान थनंतरि = स्थान स्थान अंतरि, हरेक जगह में (अंतरि = में)। सिमरि = स्मरण कर कै। गणत = चिन्ता फिक्र।8। अर्थ: हे भाई! वही मालिक प्रभु हम जीवों का (असल) मित्र है। उस पूरन दिल की जानने वाला वह प्रभु हरेक जगह में बस रहा है। सबके परमेश्वर का नाम सदा स्मरण करके मनुष्य अपनी सारी चिन्ता-फिक्र मिटा लेता है।8। हरि का नामु कोटि लख बाहा ॥ हरि जसु कीरतनु संगि धनु ताहा ॥ गिआन खड़गु करि किरपा दीना दूत मारे करि धाई हे ॥९॥ पद्अर्थ: कोटि = करोड़। बाहा = बाँहें, साथी, मददगार। जसु कीरतनु = महिमा। संगि ताहा = उस (मनुष्य) के पास। खड़गु = तलवार। करि = कर के। दूत = (कामादिक) वैरी। धाई = हल्ला।9। अर्थ: हे भाई! (जैसे वैरियों का मुकाबला करने के लिए बहुत सारी बाँहें और बहुत सारे साथी मनुष्य के लिए सहारा होते हैं, वैसे ही कामादिक वैरियों से मुकाबले में मनुष्य के लिए) परमात्मा का नाम (मानो) लाखों-करोड़ों बाहें हैं, परमात्मा का यश-कीर्तन उसके पास धन है। जिस मनुष्य को परमात्मा आत्मिक जीवन की सूझ की तलवार कृपा करके देता है, वह मनुष्य हमला करके कामादिक वैरियों को मार लेता है।9। हरि का जापु जपहु जपु जपने ॥ जीति आवहु वसहु घरि अपने ॥ लख चउरासीह नरक न देखहु रसकि रसकि गुण गाई हे ॥१०॥ पद्अर्थ: जपु जपने = जपने योग्य जप। जीति = जीत के। घरि अपने = अपने घर में, स्वै स्वरूप में, प्रभु चरणों में। रसकि = रस से, प्रेम से। गाई = गाता है।10। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम का जाप जपा करो, यही जपने-योग्य जप है। (इस जप की इनायत से कामादिक वैरियों को) जीत के अपने असल घर में टिके रहोगे। चौरासी लाख जूनियों के नर्क देखने नहीं पड़ेंगे। (जो मनुष्य) प्रेम से प्रभु के गुण गाता है (उसको यह फल प्राप्त होता है)।10। खंड ब्रहमंड उधारणहारा ॥ ऊच अथाह अगम अपारा ॥ जिस नो क्रिपा करे प्रभु अपनी सो जनु तिसहि धिआई हे ॥११॥ पद्अर्थ: उधारणहारा = विकारों से बचा सकने वाला। अथाह = बहुत ही गहरा। अगंम = अगम्य (पहुँच से परे)। तिसहि = तिसु ही, उस (परमात्मा) को ही।11। नोट: ‘तिसहि’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है। अर्थ: हे भाई! परमात्मा खंडो-ब्रहमंडों के जीवों को विकारों से बचाने के योग्य है। वह प्रभु ऊँचा है अथाह है अगम्य (पहुँच से परे) है बेअंत है। जिस मनुष्य पर वह अपनी कृपा करता है वह मनुष्य उसी प्रभु को ही स्मरण करता रहता है।11। बंधन तोड़ि लीए प्रभि मोले ॥ करि किरपा कीने घर गोले ॥ अनहद रुण झुणकारु सहज धुनि साची कार कमाई हे ॥१२॥ पद्अर्थ: तोड़ि = तोड़ के। प्रभि = प्रभु ने। घर गोले = घर के सेवक। अनहद = एक रस, लगातार, बिना बजाए बज रहा। रुण झुण = मीठा सुरीला राग। रुणझुणकारु = लगातार हो रहा मीठा सुरीला राग। सहज = आत्मिक अडोलता। धुनि = सुर। साची = सदा कायम रहने वाली।12। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के (माया के मोह के) बंधन तोड़ के प्रभु ने उसको अपना बना लिया, मेहर करके जिसको उसने अपने घर का दास बना लिया, वह मनुष्य सदा-स्थिर हरि-नाम जपने की कार करता है, उसके अंदर आत्मिक अडोलता की तार बँधी रहती है, और उसके अंदर महिमा का (मानो) लगातार मीठा सुरीला राग होता रहता है।12। मनि परतीति बनी प्रभ तेरी ॥ बिनसि गई हउमै मति मेरी ॥ अंगीकारु कीआ प्रभि अपनै जग महि सोभ सुहाई हे ॥१३॥ पद्अर्थ: मनि = (जिस मनुष्य के) मन में। परतीति = श्रद्धा। प्रभ = हे प्रभु! मति मेरी = ‘मेरी मेरी’ करने वाली मति, ममता की मति। अंगीकारु = पक्ष। प्रभि = प्रभु ने। सोभ = शोभा। सुहाई = सुंदर बनी।13। अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्य के मन में तेरे प्रति श्रद्धा बन जाती है, उसके अंदर से अहंकार दूर हो जाता है, उसकी ममता वाली बुद्धि नाश हो जाती है। हे भाई! अपने प्रभु ने जिस मनुष्य की सहायता की उसके सारे जगत में शोभा चमक पड़ी।13। जै जै कारु जपहु जगदीसै ॥ बलि बलि जाई प्रभ अपुने ईसै ॥ तिसु बिनु दूजा अवरु न दीसै एका जगति सबाई हे ॥१४॥ पद्अर्थ: जै जैकारु = महिमा। जगदीसै = जगदीश की, जगत के मालिक की (जगत+ईश)। जाई = मैं जाता हूँ। ईस = ईश्वर। जगति सबाई = सारे जगत में।14। अर्थ: हे भाई! जगत के मालिक प्रभु की महिमा करते रहो। मैं तो अपने ईश्वर प्रभु से सदा सदके जाता हूँ। उस प्रभु के बिना (उस जैसा) और कोई नहीं दिखता। सारे जगत में वह एक स्वयं ही स्वयं है।14। सति सति सति प्रभु जाता ॥ गुर परसादि सदा मनु राता ॥ सिमरि सिमरि जीवहि जन तेरे एकंकारि समाई हे ॥१५॥ पद्अर्थ: सति = सदा कायम रहने वाला। परसादि = कृपा से। राता = रंगा हुआ। सिमरि = स्मरण करके। एकंकारि = इक ओअंकार में, सर्व व्यापक में।15। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने परमात्मा को सदा-स्थिर जान लिया है उसका मन गुरु की कृपा से उसमें रंगा रहता है। हे प्रभु! तेरे सेवक तेरा नाम स्मरण कर-कर के आत्मिक जीवन हासिल करते हैं, वे सदा तेरे सर्व-व्यापक स्वरूप में लीन रहते हैं।15। भगत जना का प्रीतमु पिआरा ॥ सभै उधारणु खसमु हमारा ॥ सिमरि नामु पुंनी सभ इछा जन नानक पैज रखाई हे ॥१६॥१॥ पद्अर्थ: उधारणु = पार लंघाने वाला। पुंनी = पूरी हो गई। पैज = सत्कार, इज्जत।16। अर्थ: हे भाई! हमारा मालिक-प्रभु अपने भक्तों का प्यारा है, सब जीवों का पार-उतारा करने वाला है। उसका नाम स्मरण कर-कर के उसके भक्तों की हरेक आस पूरी हो जाती है। हे नानक! परमात्मा अपने सेवकों की सदा इज्जत रखता है।16।1। मारू सोलहे महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ संगी जोगी नारि लपटाणी ॥ उरझि रही रंग रस माणी ॥ किरत संजोगी भए इकत्रा करते भोग बिलासा हे ॥१॥ पद्अर्थ: संगी = साथी, ‘नारि’ का साथी, काया का साथी। जोगी = (असल में) निर्लिप, विरक्त (जीवात्मा)। नारि = स्त्री, काया। लपटाणी = लिपटी हुई है, चिपकी हुई है। उरझि रही = (काया स्त्री जीवात्मा जोगी के साथ) उलझी हुई है, उसको अपने मोह में फसा रही है। किरत = पिछले किए कर्म। किरत संजोगी = किए कर्मों के संजोगों से। इकत्रा = इकट्ठे। करते = करते हैं।1। अर्थ: हे भाई! (यह जीवात्मा असल में विरक्त) जोगी (है, यह काया-) स्त्री का साथी (जब बन जाता है, तो काया-) स्त्री (इसके साथ) लिपटी रहती है, इसको अपने मोह में फसाती रहती है, (और इसके साथ माया के) रंग रस भोगती है। किए कर्मों के संजोगों से (यह जीवात्मा और काया) इकट्ठे होते हैं, और, (दुनिया के) भोग विलास करते रहते हैं।1। जो पिरु करै सु धन ततु मानै ॥ पिरु धनहि सीगारि रखै संगानै ॥ मिलि एकत्र वसहि दिनु राती प्रिउ दे धनहि दिलासा हे ॥२॥ पद्अर्थ: पिरु = (काया स्त्री का) पति, जीवात्मा। धन = स्त्री, काया। ततु = तुरत। माने = मानती है। धनहि = काया स्त्री को। सीगारि = श्रृंगार के। संगानै = (अपने) साथ। मिलि = मिल के। प्रिउ = जीवात्मा पति।2। अर्थ: हे भाई! जो कुछ जीवात्मा-पति काया-स्त्री को कहता है वह तुरन्त मानती है जीवात्मा पति काया-स्त्री को सजा-सँवार के अपने साथ रखता है। मिल के दिन-रात ये इकट्ठे बसते हैं। जीवात्मा-पति काया-स्त्री को (कई तरह के) हौसले देता रहता है।2। धन मागै प्रिउ बहु बिधि धावै ॥ जो पावै सो आणि दिखावै ॥ एक वसतु कउ पहुचि न साकै धन रहती भूख पिआसा हे ॥३॥ पद्अर्थ: मागै = माँगती है। बहु बिधि = कई तरह। धावै = दौड़ा फिरता है। पावै = हासिल करता है। जो = जो कुछ। आनि = ला के। इक वसतु = नाम पदार्थ। कउ = को। रहती = बनी रहती है।3। अर्थ: हे भाई! काया-स्त्री (भी जो कुछ) माँगती है, (वह हासिल करने के लिए) जीवात्मा-पति कई तरह की दौड़-भाग करता फिरता है। जो कुछ उसको मिलता है, वह ला के (अपनी काया-स्त्री को) दिखा देता है। (पर इस दौड़-भाग में इसको) नाम-पदार्थ नहीं मिल सकता, (नाम-पदार्थ के बिना) काया-स्त्री की (माया वाली) भूख-प्यास टिकी रहती है।3। धन करै बिनउ दोऊ कर जोरै ॥ प्रिअ परदेसि न जाहु वसहु घरि मोरै ॥ ऐसा बणजु करहु ग्रिह भीतरि जितु उतरै भूख पिआसा हे ॥४॥ पद्अर्थ: बिनउ = विनती। दोऊ कर = दोनों हाथ। जोरै = जोड़ती है। प्रिअ = हे प्यारे! परदेसि = पराए देश में। घरि मोरे = मेरे घर में, मेरे में ही। ग्रिह भीतिरि = मेरे ही घर में, इसी काया में। जितु = जिस (वणज) से।4। अर्थ: हे भाई! काया-स्त्री दोनों हाथ जोड़ती है और (जीवात्मा-पति के आगे) विनती करती है - हे प्यारे! (मुझे छोड़ के) किसी और देश में ना चले जाना, मेरे ही इस घर में टिके रहना। इसी घर में कोई ऐसा वव्यापार करता रह, जिससे मेरी भूख-प्यास मिटती रहे (मेरी जरूरतें पूरी होती रहें)।4। सगले करम धरम जुग साधा ॥ बिनु हरि रस सुखु तिलु नही लाधा ॥ भई क्रिपा नानक सतसंगे तउ धन पिर अनंद उलासा हे ॥५॥ पद्अर्थ: सगले = सारे। सगले जुग = सारे युगों में, सदा से ही। करम धरम साधा = निहित धार्मिक कर्म किए गए हैं। तिलु = रक्ती भर भी। लाधा = मिला। सतसंगे = साधु-संगत में। अनंद उलासा = आत्मिक आनंद।5। अर्थ: पर, हे भाई! सदा से ही लोग निहित हुए धार्मिक कर्म करते आए हैं। हरि-नाम के स्वाद के बिना किसी को भी रक्ती भर सुख नहीं मिला। हे नानक! जब साधु-संगत में परमात्मा की कृपा होती है तब यह जीवात्मा और काया मिल के (नाम की इनायत से) आत्मिक आनंद लेते हैं।5। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |