श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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धन अंधी पिरु चपलु सिआना ॥ पंच ततु का रचनु रचाना ॥ जिसु वखर कउ तुम आए हहु सो पाइओ सतिगुर पासा हे ॥६॥

पद्अर्थ: धन = काया (स्त्री)। अंधी = माया ग्रसित, माया के मोह में अंधी। पिरु = जीवात्मा पति। चपलु = चंचल। सिआना = चतुर। पंच ततु का रचनु = दुनिया वाली खेल। रचाना = खेल रहा है। वखरु कउ = नाम पदार्थ के लिए।6।

अर्थ: हे भाई! माया-ग्रसित काया की संगति में जीवात्मा चंचल चतुर हो के दुनिया की खेल ही, खेल रहा है। हे भाई! जिस (नाम-) पदार्थ की खातिर तुम जगत में आए हो, वह पदार्थ गुरु से ही मिलता है।6।

धन कहै तू वसु मै नाले ॥ प्रिअ सुखवासी बाल गुपाले ॥ तुझै बिना हउ कित ही न लेखै वचनु देहि छोडि न जासा हे ॥७॥

पद्अर्थ: मै नाले = मेरे साथ। प्रिअ सुखवासी = हे सुखी रहते प्यारे! बाल गुपाले = हे लाडले सज्जन! हउ = मैं। कित ही लेखै = किस लायक? वचनु देहि = इकरार कर। न जासा = नहीं जाऊंगा।7।

नोट: ‘कित ही’ में से ‘कितु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

अर्थ: हे भाई! काया (जीवात्मा को) कहती रहती है: हे प्यारे और सुखी रहने वाले लाडले पति! तू सदा मेरे साथ बसता रह। तेरे बिना मेरा कुछ भी मूल्य नहीं है। (मेरे साथ) इकरार कर कि मैं तुझे छोड़ के नहीं जाऊँगा।7।

पिरि कहिआ हउ हुकमी बंदा ॥ ओहु भारो ठाकुरु जिसु काणि न छंदा ॥ जिचरु राखै तिचरु तुम संगि रहणा जा सदे त ऊठि सिधासा हे ॥८॥

पद्अर्थ: पिरि = पिर ने। हउ = मैं। काणि = डर। छंदा = अधीनता। जिचरु = जितना समय। सदे = बुलाए। जा = जब। सिधासा = मैं चला जाउँगा।8।

अर्थ: हे भाई! काया (जब भी काया-स्त्री ने यह तरला लिया, मिन्नतें की, तब ही) जीवात्मा-पति ने कहा- मैं तो (उस परमात्मा के) हुक्म में चलने वाला गुलाम हूँ। वह बहुत बड़ा मालिक है, उसको किसी का डर नहीं उसको किसी की अधीनता नहीं। जितने समय वह मुझे तेरे साथ रखेगा, मैं उतने ही समय तक तेरे साथ रह सकता हूँ। जब बुलाएगा, तब मैं उठ के चला जाऊँगा।8।

जउ प्रिअ बचन कहे धन साचे ॥ धन कछू न समझै चंचलि काचे ॥ बहुरि बहुरि पिर ही संगु मागै ओहु बात जानै करि हासा हे ॥९॥

पद्अर्थ: जा = जब। कहे = कहता है। प्रिअ = प्यारा (जीवात्मा)। बहुरि बहुरि = बार बार। संगु = साथ। ओहु = (पुलिंग) जीवात्मा। हासा = मजाक।9

अर्थ: हे भाई! जब भी जीवात्मा ये सच्चे वचन काया-स्त्री को कहता है, वह चंचल और अक्ल की कच्ची कुछ भी नहीं समझती। वह बार-बार जीवात्मा पति का साथ ही माँगती है, और, जीवात्मा उसकी बात को मजाक समझ लेता है।9।

आई आगिआ पिरहु बुलाइआ ॥ ना धन पुछी न मता पकाइआ ॥ ऊठि सिधाइओ छूटरि माटी देखु नानक मिथन मोहासा हे ॥१०॥

पद्अर्थ: आगिआ पिरहु = प्रभु पति की ओर से हुक्म। मता = सलाह। ऊठि = उठ के। छूटरि = छोड़ी हुई। मिथन माहासा = मिथ्या मोह पसारा, मोह का झूठा पसारा।10।

अर्थ: हे भाई! जब पति-परमात्मा की ओर से हुक्म आता है, जब वह बुलावा भेजता है, जीवात्मा ना ही काया-स्त्री को पूछता है, ना ही उससे सलाह करता है। वह काया-मिट्टी को छोड़ के उठ के चल पड़ता है। हे नानक! देख, ये है मोह का झूठा पसारा।10।

रे मन लोभी सुणि मन मेरे ॥ सतिगुरु सेवि दिनु राति सदेरे ॥ बिनु सतिगुर पचि मूए साकत निगुरे गलि जम फासा हे ॥११॥

पद्अर्थ: सेवि = शरण पड़ा रह। सदेरे = सदा ही। पचि = (विकारों की आग में) जल के। मूए = आत्मिक मौत सहेड़ बैठे। साकत गलि = साकत के गले में, परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य के गले में। जम फासा = जम की फंदा।11।

अर्थ: हे मेरे लोभी मन! (मेरी बात) सुन; दिन-रात सदा ही गुरु की शरण पड़ा रह। गुरु की शरण के बिना साकत निगुरे मनुष्य (विकारों की आग में) जल के आत्मिक मौत सहेड़ी रखते हैं। उनके गले में जमराज का (ये) फंदा पड़ा रहता है।11।

मनमुखि आवै मनमुखि जावै ॥ मनमुखि फिरि फिरि चोटा खावै ॥ जितने नरक से मनमुखि भोगै गुरमुखि लेपु न मासा हे ॥१२॥

पद्अर्थ: मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। आवै = पैदा होता है। जावै = मरता है। खावै = खाता रहता है। से = वह (बहुवचन)। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। लेपु = लबेड़, असर। मासा = रक्ती भी।12।

अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य पैदा होता है मरता है, बार-बार जनम-मरण के इस चक्कर में चोटें खाता रहता है। मन का मुरीद सारे ही नर्कों के दुख भोगता है। पर गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य पर इनका रक्ती भर भी असर नहीं पड़ता।12।

गुरमुखि सोइ जि हरि जीउ भाइआ ॥ तिसु कउणु मिटावै जि प्रभि पहिराइआ ॥ सदा अनंदु करे आनंदी जिसु सिरपाउ पइआ गलि खासा हे ॥१३॥

पद्अर्थ: सोइ = वही मनुष्य। जि = जो। भाइआ = अच्छा लगा। प्रभि = प्रभु ने। पहिराइआ = पहनाया, सिरोपाव दिया, सत्कार दिया। आनंदी = आनंद दाते को (मिल के)। जिसु गलि = जिसके गले में। सिरपाउ खासा = बढ़िया सिरोपाव।13।

अर्थ: हे भाई! उसी मनुष्य को गुरु के सन्मुख जानो जो परमात्मा को अच्छा लग गया। जिस (ऐसे) मनुष्य को परमात्मा ने स्वयं आदर-सत्कार दिया, उसकी इस शोभा को कोई मिटा नहीं सकता। जिस मनुष्य के गले में कर्तार की ओर से सुंदर (आदर-सम्मान) सिरोपाव पड़ गया, वह आनंद-स्वरूप परमात्मा के चरणों में जुड़ के सदा आत्मिक आनंद पाता है।13।

हउ बलिहारी सतिगुर पूरे ॥ सरणि के दाते बचन के सूरे ॥ ऐसा प्रभु मिलिआ सुखदाता विछुड़ि न कत ही जासा हे ॥१४॥

अर्थ: हे भाई! मैं पूरे गुरु से सदके जाता हूँ। गुरु शरण पड़े की सहायता करने योग्य है, गुरु शूरवीरों की तरह वचन पालने वाला है। (पूरे गुरु की मेहर से मुझे) ऐसा सुखों का दाता परमात्मा मिल गया है, कि उसके चरणों से विछुड़ के मैं और कहीं नहीं जाऊँगा।14।

गुण निधान किछु कीम न पाई ॥ घटि घटि पूरि रहिओ सभ ठाई ॥ नानक सरणि दीन दुख भंजन हउ रेण तेरे जो दासा हे ॥१५॥१॥२॥

पद्अर्थ: हउ = मैं सूरे = शूरवीर, सूरमे। कीम = कीमत, कद्र। घटि घटि = हरेक शरीर में। सभ ठाई = सब जगहों में। दीन दुख भंजन = हे दीनों के दुख नाश करने वाले! हउ = मैं। रेण = चरण धूल।15।

अर्थ: हे गुणों के खजाने प्रभु! तेरी कीमत नहीं डाली जा सकती। तू सब जगह हरेक शरीर में व्यापक है। हे नानक! (कह:) हे दीनों के दुख नाश करने वाले! मेहर कर, मैं उन (के चरणों) की धूल बना रहूँ जो तेरे दास हैं।15।1।2।

मारू सोलहे महला ५    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

करै अनंदु अनंदी मेरा ॥ घटि घटि पूरनु सिर सिरहि निबेरा ॥ सिरि साहा कै सचा साहिबु अवरु नाही को दूजा हे ॥१॥

पद्अर्थ: करै अनंदु = खुश हो रहा है। अनंदी = आनंद का मालिक परमात्मा। घटि घटि = हरेक घट में। पूरनु = व्यापक। सिर सिरहि = हरेक के सिर पर, हरेक के किए कर्मों के अनुसार। निबेरा = फैसला। सिरि साहा कै = शाहों के सिर पर। सचा = सदा कायम रहने वाला साहिबु = मालिक।1।

अर्थ: हे भाई! खुशियों का मालिक मेरा प्रभु (स्वयं ही हर जगह) खुशी मना रहा है। हरेक शरीर में वह व्यापक है। हरेक जीव के किए कर्मों के अनुसार फैसला करता है। (दुनिया के) बादशाहों के भी सिर पर वह सदा-स्थिर परमात्मा है। कोई और (उसके बराबर का) नहीं है।1।

हरखवंत आनंत दइआला ॥ प्रगटि रहिओ प्रभु सरब उजाला ॥ रूप करे करि वेखै विगसै आपे ही आपि पूजा हे ॥२॥

पद्अर्थ: हरख = हर्ष, खुशी। हरखवंत = खुशी का मालिक। आनंत = अनंत, जिसका अंत नहीं पाया जा सकता। उजाला = रौशनी। प्रगटि रहिओ = प्रकट हो रहा है। करे करि = कर कर के। विगसै = खिल रहा है, खुश हो रहा है।2।

अर्थ: हे भाई! बेअंत परमात्मा खुशियों का मालिक है, दया का घर है। हर जगह प्रकट हो रहा है, सबमें वह ही (अपनी ज्योति का) प्रकाश कर रहा है। अनेक ही रूप बना-बना के (सबकी) संभाल कर रहा है, और प्रसन्न हो रहा है, (सबमें व्यापक है) स्वयं ही (अपनी) पूजा कर रहा है।2।

आपे कुदरति करे वीचारा ॥ आपे ही सचु करे पसारा ॥ आपे खेल खिलावै दिनु राती आपे सुणि सुणि भीजा हे ॥३॥

अर्थ: हे भाई! परमात्मा स्व्यं ही यह कुदरति रचता है स्वयं ही इसकी संभाल करता है। वह सदा-स्थिर प्रभु स्वयं ही जगत-खिलारा बना रहा है। दिन-रात हर वक्त वह स्वयं ही (जीवों को) खेलें खिला रहा है। स्वयं ही (जीवों की प्रार्थनाएं, अरजोईयां) सुन-सुन के खुश होता है।3।

साचा तखतु सची पातिसाही ॥ सचु खजीना साचा साही ॥ आपे सचु धारिओ सभु साचा सचे सचि वरतीजा हे ॥४॥

पद्अर्थ: करे = कर के, रच के। वीचारा = ख्याल, संभाल। सचु = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। पसारा = जगत खिलारा। सुणि = सुन के। भीजा = प्रसन्न होता है, पतीज गया।3। सची = सदा कायम रहने वाली। खजीना = खजाना। साही = शाह। आपे सचु = सदा स्थिर है स्वयं ही। सभु = सारा जगत। सचे सचि = सदा स्थिर (हुक्म) से। वरतीजा = वरतण व्यवहार कर रहा है।4।

अर्थ: हे भाई! वह परमात्मा सदा कायम रहने वाला शहनशाह है, उसका खजाना सदा कायम रहने वाला है, उसकी बादशाहियत सदा कायम रहने वाली है, उसका तख्त हमेशा कायम रहने वाला है। वह खुद ही सदा कायम रहने वाला है। सारे जगत को वह खुद ही सहारा देने वाला है। अपने सदा-स्थिर (नियमों के) द्वारा वह स्वयं ही जगत में वरतारा बरता रहा है।4।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh