श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सचु तपावसु सचे केरा ॥ साचा थानु सदा प्रभ तेरा ॥ सची कुदरति सची बाणी सचु साहिब सुखु कीजा हे ॥५॥

पद्अर्थ: तपावसु = न्याय। केरा = का। थानु = ठिकाना। प्रभ = हे प्रभु! बाणी = बनावट, नियम। सची = अटल नियमों वाली। साहिब = हे साहिब! कीजा = किया है।5।

अर्थ: हे भाई! सदा स्थिर परमात्मा का न्याय भी अटल (अभूल) है। हे प्रभु! तेरा ठिकाना सदा कायम रहने वाला है। हे साहिब! तेरी रची हुई कदरति और (उसकी) संरचना (बणतर) अटल नियमों वाली है। तूने स्वयं ही (इस कुदरति में) अटल सुख पैदा किया हुआ है।5।

एको आपि तूहै वड राजा ॥ हुकमि सचे कै पूरे काजा ॥ अंतरि बाहरि सभु किछु जाणै आपे ही आपि पतीजा हे ॥६॥

पद्अर्थ: वड = बड़ा। सचे कै हुकमि = सदा स्थिर प्रभु के हुक्म में। काजा = कार्य, जीवों के काम। पूरे = सिरे चढ़ते हैं। पतीजा = पतीजता है, संतुष्ट होता है।6।

अर्थ: हे प्रभु! सिर्फ तू स्वयं ही सबसे बड़ा राजा है। हे भाई! सदा स्थिर प्रभु के हुक्म अनुसार सब जीवों के काम सफल होते हैं। जो कुछ जीवों के अंदर घटित होता है जो कुछ बाहर सारे जगत में हो रहा है ये सब कुछ वह स्वयं ही जानता है, और संतुष्ट होता है।6।

तू वड रसीआ तू वड भोगी ॥ तू निरबाणु तूहै ही जोगी ॥ सरब सूख सहज घरि तेरै अमिउ तेरी द्रिसटीजा हे ॥७॥

पद्अर्थ: रसीआ = रस आनंद भोगने वाला। भोगी = पदार्थों को भोगने वाला। निरबाणु = वासना रहित, निर्लिप। जोगी = विरक्त। सहज = आत्मिक अडोलता। घरि तेरै = तेरे घर में। अमिउ = अमृत। द्रिसटीजा = दृष्टि में।7।

अर्थ: हे प्रभु! (सबमें व्यापक हो के) तू सबसे बड़ा रस लेने वाला व भोग भोगने वाला है। (निराकार होते हुए) तू स्वयं ही वासना रहित जोगी है। हे प्रभु! आत्मिक अडोलता के सारे आनंद तेरे घर में मौजूद हैं, तेरी मेहर की निगाह में अमृत बस रहा है।7।

तेरी दाति तुझै ते होवै ॥ देहि दानु सभसै जंत लोऐ ॥ तोटि न आवै पूर भंडारै त्रिपति रहे आघीजा हे ॥८॥

पद्अर्थ: तुझै ते = तेरे से ही। देहि = तू देता है। लोऐ = लोगों को। तोटि = कमी। भंडारै = खजाने में। त्रिपति रहे आखीजा = पूरी तौर पर तृप्त रहते हैं (सारे जीव)।8।

अर्थ: हे प्रभु! जितनी दाति तू दे रहा है यह तू ही दे सकता है। तू तो सारे लोकों में सब जीवों को दान दे रहा है। तेरे भरे हुए खजाने में कभी घाटा नहीं पड़ सकता। सारे ही जीव (तेरी दातों की इनायत से) पूरी तौर पर तृप्त रहते हैं।8।

जाचहि सिध साधिक बनवासी ॥ जाचहि जती सती सुखवासी ॥ इकु दातारु सगल है जाचिक देहि दानु स्रिसटीजा हे ॥९॥

पद्अर्थ: जाचहि = याचना करते हैं, माँगते हैं (बहुवचन)। सिध = सिद्ध, योग साधना में निपुर्ण जोगी। साधिक = जोग साधना करने वाले। जती = काम-वासना से बचे रहने का प्रयत्न करने वाले। सती = विकारों से बचने का उद्यम करने वाले। सगल = सारी लुकाई। जाचिक = मांगने वाली। देहि = तू देता है।9।

अर्थ: हे प्रभु! जंगलों के वासी सिद्ध और साधिक (तेरे दर से ही) माँगते हैं। सुखी-रहने वाले जती और सती (भी तेरे दर से) माँगते हैं। तू एक दाता है, और सारी दुनिया (तेरे दर से) माँगने वाली है। तू सारी सृष्टि को दान देता है।9।

करहि भगति अरु रंग अपारा ॥ खिन महि थापि उथापनहारा ॥ भारो तोलु बेअंत सुआमी हुकमु मंनि भगतीजा हे ॥१०॥

पद्अर्थ: करहि = करते हैं। अरु = और। थापि = पैदा करके। उथापनहारा = नाश कर सकने वाला। मंनि = मान के। भगतीजा = भक्त बनते हैं।10।

अर्थ: हे भाई! (अनेक भक्त) बेअंत प्रभु की भक्ति करते हैं और आत्मिक आनंद पाते हैं। परमात्मा पैदा करके एक छिन में नाश करने की सामर्थ्य रखता है। वह मालिक बेअंत ताकत वाला है बेअंत है। (जीव) उसका हुक्म मान के उसके भक्त बनते हैं।10।

जिसु देहि दरसु सोई तुधु जाणै ॥ ओहु गुर कै सबदि सदा रंग माणै ॥ चतुरु सरूपु सिआणा सोई जो मनि तेरै भावीजा हे ॥११॥

पद्अर्थ: देहि = तू देता है। सोई = वही मनुष्य। तुधु जाणै = तेरे साथ सांझ डालता है। कै सबदि = के शब्द से। तेरै मनि = तेरे मन में।11।

अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्य को तू दर्शन देता है, वही तेरे साथ सांझ डालता है। गुरु के शब्द की इनायत से वह सदा आत्मिक आनंद पाता है। वही मनुष्य (दरअसल) समझदार है सुंदर है बुद्धिवान है, जो तेरे मन को अच्छा लगता है।11।

जिसु चीति आवहि सो वेपरवाहा ॥ जिसु चीति आवहि सो साचा साहा ॥ जिसु चीति आवहि तिसु भउ केहा अवरु कहा किछु कीजा हे ॥१२॥

पद्अर्थ: जिसु चीति = जिस (मनुष्य) के चिक्त में। आवहि = तेरे साथ सांझ डालता है। वेपरवाहा = बेमुथाज। साचा साहा = सच्चा शाह, सदा कायम रहने वाले (नाम-) धन का मालिक। भउ केहा = कैसा डर? कोई डर नहीं (रह जाता)।12।

अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्य के चिक्त में तू आ बसता है उसको किसी की अधीनता नहीं रहती, वह सदा कायम रहने वाले (नाम-) धन का मालिक बन जाता है, उसको किसी तरह का कोई डर नहीं रह जाता, कोई भी उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकता।12।

त्रिसना बूझी अंतरु ठंढा ॥ गुरि पूरै लै तूटा गंढा ॥ सुरति सबदु रिद अंतरि जागी अमिउ झोलि झोलि पीजा हे ॥१३॥

पद्अर्थ: अंतरु = हृदय (शब्द ‘अंतरु’ और अंतरि’ में फर्क है)। गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। तूटा लै = (प्रभु से) टूटे हुए को पकड़ के। गंढा = (प्रभु के साथ फिर) जोड़ दिया। रिद अंतरि = हृदय में। जागी = जाग उठी, पैदा हो गई। ‘सुरति....जागी’ = गुरु के शब्द को तवज्जो में (टिकाने की सूझ उस मनुष्य के) दिल में जाग उठी। अमिउ = अमृत। झोलि = हिला के, स्वाद से।13।

अर्थ: हे भाई! (प्रभु से) टूटे हुए जिस मनुष्य को पकड़ के पूरे गुरु ने (दोबारा प्रभु के संग) जोड़ दिया, उसकी तृष्णा (की आग) बुझ गई उसका हृदय शांत हो गया। गुरु के शब्द को तवज्जो में (टिकाने की सूझ उस मनुष्य के) हृदय में जाग उठी। वह मनुष्य बड़े स्वाद से आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस पीता है।13।

मरै नाही सद सद ही जीवै ॥ अमरु भइआ अबिनासी थीवै ॥ ना को आवै ना को जावै गुरि दूरि कीआ भरमीजा हे ॥१४॥

पद्अर्थ: मरै = आत्मिक मौत सहेड़ता है। सद सद ही = सदा ही सदा ही। जीवै = आत्मिक जीवन जीता है। अमरु = अटल आत्मिक जीवन वाला। थीवै = हो जाता है। गुरि = गुरु ने।14।

अर्थ: हे भाई! गुरु ने जिस मनुष्य की भटकना दूर कर दी, वह आत्मिक मौत नहीं सहेड़ता, वह सदा ही आत्मिक जीवन जीता है। वह अटल आत्मिक जीवन वाला हो जाता है, उसको मौत का सहम नहीं व्यापता। ऐसा मनुष्य जनम-मरण के चक्र से बच जाता है।14।

पूरे गुर की पूरी बाणी ॥ पूरै लागा पूरे माहि समाणी ॥ चड़ै सवाइआ नित नित रंगा घटै नाही तोलीजा हे ॥१५॥

पद्अर्थ: पूरै = पूरे प्रभु में। लागा = लगा, जुड़ा हुआ। महि = में। चढ़ै = चढ़ता है। सवारिआ रंगा = ज्यादा प्रेम रंग। घटै = घटता। तोलीजा = तौलने से, पड़ताल करने से।15।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य पूरे गुरु की पूरी वाणी से पूर्ण परमात्मा की याद में जुड़ता है, वह उसमें समाया रहता है। परमात्मा के प्रेम का रंग (उसके दिल में) सदा ही बढ़ता रहता है, पड़ताल करने से वह कभी भी कम नहीं होता।15।

बारहा कंचनु सुधु कराइआ ॥ नदरि सराफ वंनी सचड़ाइआ ॥ परखि खजानै पाइआ सराफी फिरि नाही ताईजा हे ॥१६॥

पद्अर्थ: बारहा = बारह तरह का, पूरे बारह मासे तोल में बिकने वाला। कंचनु = सोना। सुधु = शुद्ध, खरा। वंनीस = सुंदर रंग वाला, वंन सवन्ना। नदरि सराफ चढ़ाइआ = सर्राफ की नजर में चढ़ जाता है, सर्राफ की नजर में स्वीकार हो जाता है। परखि = परख के।16।

अर्थ: हे भाई! वह मनुष्य बारह वंनी के (शुद्ध) सोने जैसा खरा हो जाता है, वह सुंदर रंग वाला (सुंदर आत्मिक जीवन वाला) गुरु-सर्राफ की नज़रों में स्वीकार हो जाता है। (जैसे शुद्ध सोने को) सर्राफ परख के खजाने में डाल लेते हैं, और उसको फिर परखने के लिए भट्ठी में डाला नहीं जाता (इस तरह वह मनुष्य परमात्मा की हजूरी में स्वीकार हो जाता है)।16।

अम्रित नामु तुमारा सुआमी ॥ नानक दास सदा कुरबानी ॥ संतसंगि महा सुखु पाइआ देखि दरसनु इहु मनु भीजा हे ॥१७॥१॥३॥

पद्अर्थ: अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। सुआमी = हे स्वामी! संत संगि = संत (गुरु) की संगति में। देखि = देख के।17।

अर्थ: हे नानक! (कह:) हे मेरे मालिक प्रभु! तेरा नाम आत्मिक जीवन देने वाला है। तेरे दास तुझसे सदा सदके जाते हैं। गुरु की संगति में रह के वह बहुत आत्मिक आनंद पाते हैं, (तेरा) दर्शन करके उनका ये मन (तेरे नाम-रस में) भीगा रहता है।17।1।3।

मारू महला ५ सोलहे    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

गुरु गोपालु गुरु गोविंदा ॥ गुरु दइआलु सदा बखसिंदा ॥ गुरु सासत सिम्रिति खटु करमा गुरु पवित्रु असथाना हे ॥१॥

पद्अर्थ: गोपालु = (गो = सृष्टि) सृष्टि का पालनहार। गोविंदा = सृष्टि के जीवों की दिल की जानने वाला। दइआलु = दया का घर। खटु करमा = ब्राहमणों के लिए शास्त्रों में बताए हुए छह उत्तम धार्मिक कर्म: दान देना, दान लेना, यज्ञ करना, यज्ञ करवाना, विद्या पढ़नी और विद्या पढ़ानी। असथाना = जगह, तीर्थ।1।

अर्थ: हे भाई! (गुरु के सेवक के लिए) गुरु गोपाल (का रूप) है, गुरु गोविंद (का रूप) है। गुरु दया का श्रोत है, गुरु सदा बख्शिश करने वाला है। (सेवक के लिए) गुरु (ही) शास्त्र है, स्मृति है, छह धार्मिक कर्म है; गुरु ही पवित्र तीर्थ है।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh