श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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खंड पताल दीप सभि लोआ ॥ सभि कालै वसि आपि प्रभि कीआ ॥ निहचलु एकु आपि अबिनासी सो निहचलु जो तिसहि धिआइदा ॥७॥

पद्अर्थ: दीप = टापू। सभि = सारे। लोआ = लोक, मण्डल। कालै वसि = काल के वश में। प्रभि = प्रभु ने। निहचलु = सदा कायम रहने वाला। अबिनासी = नाश रहित। तिसहि = तिसु ही।7।

नोट: ‘तिसहि’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

अर्थ: हे भाई! ये जितने भी खंड-मण्डल-पाताल-द्वीप हैं, ये सारे परमात्मा ने खुद ही काल के अधीन रखे हुए हैं। नाश-रहित प्रभु खुद ही सदा कायम रहने वाला है, जो मनुष्य परमात्मा का स्मरण करता है वह भी अटल जीवन वाला हो जाता है। (जनम-मरण के चक्कर से बच जाता है)।7।

हरि का सेवकु सो हरि जेहा ॥ भेदु न जाणहु माणस देहा ॥ जिउ जल तरंग उठहि बहु भाती फिरि सललै सलल समाइदा ॥८॥

पद्अर्थ: सेवकु = भक्त। भेदु = फर्क, दूरी। माणस देहा = मनुष्य का शरीर। जल तरंग = पानी की लहरें। उठहि = उठती हैं (बहुवचन)। सललै = पानी में। सलल = पानी।8।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा की भक्ति करने वाला मनुष्य परमात्मा जैसा ही हो जाता है। उस का मनुष्य का शरीर (देख के परमात्मा से उसका) फर्क ना समझो। (स्मरण करने वाला मनुष्य इस तरह ही है) जैसे कई किस्मों की पानी की लहरें उठती हैं, दोबारा पानी में ही पानी मिल जाता है।8।

इकु जाचिकु मंगै दानु दुआरै ॥ जा प्रभ भावै ता किरपा धारै ॥ देहु दरसु जितु मनु त्रिपतासै हरि कीरतनि मनु ठहराइदा ॥९॥

पद्अर्थ: जाचिकु = भिखारी (एकवचन)। दुआरै = दर पे (खड़ा)। जा = या, जब। प्रभ भावै = प्रभु को अच्छा लगे। जितु = जिस (दर्शन) से। त्रिपतासै = तृप्त हो जाता है। कीरतनि = कीरतन से।9।

अर्थ: (प्रभु का दास) एक मँगता (बन के उसके) दर पर (खड़ा उसके दर्शनों की) ख़ैर माँगता है। जब प्रभु की रजा होती है तब वह किरपा करता है। (यूँ माँगता जाता है: हे प्रभु!) अपने दर्शन दे, जिसकी इनायत से मन (माया की ओर से) तृप्त हो जाता है और महिमा में टिक जाता है।9।

रूड़ो ठाकुरु कितै वसि न आवै ॥ हरि सो किछु करे जि हरि किआ संता भावै ॥ कीता लोड़नि सोई कराइनि दरि फेरु न कोई पाइदा ॥१०॥

पद्अर्थ: रूढ़ो = सुंदर। कितै = किसी तरीके से। वसि = वश में। जि = जो कुछ। कीता लोड़नि = करना चाहते हैं। कराइनि = करा लेते हैं। दरि = दर से। फेरु = रुकावट।10।

अर्थ: हे भाई! सुंदर प्रभु किसी तरीके से वश में नहीं आता पर जो कुछ उसके संत चाहते हैं वह वही कुछ कर देता है। (प्रभु के संत जन जो कुछ) करना चाहते हैं वही कुछ प्रभु से करवा लेते हैं। प्रभु के दर पे उनके रास्ते में कोई रुकावट नहीं डाल सकता।10।

जिथै अउघटु आइ बनतु है प्राणी ॥ तिथै हरि धिआईऐ सारिंगपाणी ॥ जिथै पुत्रु कलत्रु न बेली कोई तिथै हरि आपि छडाइदा ॥११॥

पद्अर्थ: अउघट = मुश्किल। धिआईऐ = स्मरणा चाहिए। सारिंगपाणी = धर्नुधारी प्रभु (सारिंग = धनुष। पानी = पाणि, हाथ)। कलत्र = स्त्री।11।

अर्थ: हे प्राणी! (जीवन-सफर में) जहाँ भी कोई मुश्किल आ बनती है, वहीं धर्नुधारी प्रभु का नाम स्मरणा चाहिए। जहाँ ना पुत्र ना स्त्री कोई भी साथी नहीं बन सकता, वहाँ प्रभ स्वयं (मुश्किलों से) छुड़ा लेता है।11।

वडा साहिबु अगम अथाहा ॥ किउ मिलीऐ प्रभ वेपरवाहा ॥ काटि सिलक जिसु मारगि पाए सो विचि संगति वासा पाइदा ॥१२॥

पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अथाहा = गहरा। वेपरवाह = बेमुथाज। काटि = काट के। सिलक = फाही। मारगि = (सही) रास्ते पर।12।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा अगम्य (पहुँच से परे) है, अथाह है, बड़ा मालिक है। उस बेमुहताज को जीव अपने उद्यम से नहीं मिल सकता। वह प्रभु स्वयं ही जिस मनुष्य को (माया के मोह की) फाँसी काट के सही जीवन-राह पर डालता है, वह मनुष्य साधु-संगत में आ टिकता है।12।

हुकमु बूझै सो सेवकु कहीऐ ॥ बुरा भला दुइ समसरि सहीऐ ॥ हउमै जाइ त एको बूझै सो गुरमुखि सहजि समाइदा ॥१३॥

पद्अर्थ: बूझै = (जो मनुष्य) समझ लेता है। कहीऐ = कहा जाता है। दुइ = दोनों। समसरि = बराबर, एक समान। सहीऐ = सहना चाहिए। जाइ = जाती है। त = तब। एको बूझै = एक परमात्मा को ही सब कुछ करने कराने वाला समझता है। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला। सहजि = आत्मिक अडोलता में।13।

अर्थ: हे भाई! वह मनुष्य परमात्मा का भक्त कहा जाता है, जो (हरेक हो रही कार को परमात्मा की) समझता है (और, यह निश्चय रखता है कि) दुख (आए चाहे) सुख, दोनों को एक समान सहना चाहिए। पर मनुष्य तब ही सिर्फ परमात्मा को सब कुछ करने-कराने में समर्थ समझता है जब उसके अंदर से अहंकार दूर होता है। वह मनुष्य गुरु के सन्मुख रह के आत्मिक अडोलता में टिका रहता है।13।

हरि के भगत सदा सुखवासी ॥ बाल सुभाइ अतीत उदासी ॥ अनिक रंग करहि बहु भाती जिउ पिता पूतु लाडाइदा ॥१४॥

पद्अर्थ: सुख वासी = आत्मिक आनंद में टिके रहने वाले। बाल सुभाइ = बालक जैसे स्वभाव में, वैर विरोध से परे रह के। अतीत = विरक्त। करहि = करते हैं। लाडाइदा = लाड कराता है।14।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के भक्त सदा आत्मिक आनंद लेते हैं। वे सदा वैर-विरोध से परे रहते हैं, विरक्त और माया के मोह से ऊपर रहते हैं। जैसे पिता अपने पुत्र को कई लाड लडाता है, (वैसे ही भक्त प्रभु-पिता की गोद में रह के) कई तरह के अनेक आत्मिक रंग (का आनंद) लेते हैं।14।

अगम अगोचरु कीमति नही पाई ॥ ता मिलीऐ जा लए मिलाई ॥ गुरमुखि प्रगटु भइआ तिन जन कउ जिन धुरि मसतकि लेखु लिखाइदा ॥१५॥

पद्अर्थ: अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान-इंद्रिय) ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच से परे। जा = या, जब। गुरमुखि = गुरु से। जिन मसतकि = जिस के माथे पर। धुरि = धुर से, प्रभु के हुक्म अनुसार। लेखु = किए कर्मों के अनुसार भाग्यों में लिखे लेख।15।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा अगम्य (पहुँच से परे) है, ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे है। वह किसी भी दुनियावी पदार्थ के बदले में नहीं मिल सकता। उसे तभी मिला जा सकता है, जब वह स्वयं ही मिलाता है। गुरु के माध्यम से उन मनुष्यों के हृदय में प्रकट होता है जिनके माथे पर (पूर्बले संस्कारों के अनुसार) धुर से ही मिलाप का लेख लिखा होता है।15।

तू आपे करता कारण करणा ॥ स्रिसटि उपाइ धरी सभ धरणा ॥ जन नानकु सरणि पइआ हरि दुआरै हरि भावै लाज रखाइदा ॥१६॥१॥५॥

पद्अर्थ: करता = पैदा करने वाला। करणा = करण, जगत। कारण = मूल। धरी = आसरा दिया हुआ है। धरणा = धरती। हरि दुआरै = हरि के दर पे। हरि भावै = जो हरि को अच्छी लगे। लाज = इज्जत।16।

अर्थ: हे प्रभु! तू स्वयं ही पैदा करने वाला है, तू खुद ही जगत का मूल है। तूने स्वयं ही सृष्टि पैदा करके सारी धरती को सहारा दिया हुआ है।

हे भाई! दास नानक उसी प्रभु के दर पर (गिरा हुआ है, उसी की) शरण पड़ा हुआ है। उसकी अपनी रज़ा होती है तो (लोक-परलोक में जीव की) इज्जत रख लेता है।16।1।5।

मारू सोलहे महला ५    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

जो दीसै सो एको तूहै ॥ बाणी तेरी स्रवणि सुणीऐ ॥ दूजी अवर न जापसि काई सगल तुमारी धारणा ॥१॥

पद्अर्थ: दीसै = दिख रहा है। एको तू है = सिर्फ तू ही तू है। बाणी = आवाज। स्रवणि = कानों से। सुणीऐ = सुनी जा रही है। अवर = और। सगल = सारी सृष्टि। धारणा = आसरा दिया हुआ है।1।

नोट: ‘‘कोई’ पुलिंग है, और ‘काई’ स्त्रीलिंग।

अर्थ: हे प्रभु! (जगत में) जो कुछ दिखाई दे रहा है, ये सब कुछ सिर्फ तू ही तू है। (सब जीवों में सिर्फ तू ही बोल रहा है) तेरे ही बोल कानों से सुने जा रहे हैं। सारी सृष्टि तेरी ही रची हुई है, कोई भी चीज तुझसे अलग नहीं दिख रही।1।

आपि चितारे अपणा कीआ ॥ आपे आपि आपि प्रभु थीआ ॥ आपि उपाइ रचिओनु पसारा आपे घटि घटि सारणा ॥२॥

पद्अर्थ: चितारे = संभाल करता है, ख्याल रखता है। कीआ = पैदा किया हुआ (जगत)। आपे = स्वयं ही। थीआ = (हर जगह मौजूद) है। उपाइ = पैदा करके। रचिओनु = उस (प्रभु) ने रचा है। पसारा = जगत खिलारा। घटि घटि = हरेक घट में। सारणा = सार लेता है।2।

अर्थ: हे भाई! अपने पैदा किए जगत की प्रभु स्वयं ही संभाल कर रहा है, हर जगह प्रभु स्वयं ही स्वयं है। प्रभु ने स्वयं ही अपने आप से पैदा करके ये जगत-पसारा रचा है। हरेक शरीर में स्वयं ही (व्यापक होके सबकी) सार लेता है।2।

इकि उपाए वड दरवारी ॥ इकि उदासी इकि घर बारी ॥ इकि भूखे इकि त्रिपति अघाए सभसै तेरा पारणा ॥३॥

पद्अर्थ: इकि = कई। दरवारी = दरबार वाले। उदासी = विरक्त। घरबारी = गृहस्थी। भूखे = तृष्णा के अधीन। त्रिपति अघाए = पूरी तौर पर तृप्त। सभसै = हरेक जीव को। पारणा = परना, आसरा।3।

नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।

अर्थ: हे प्रभु! तूने कई बड़े दरबारों वाले पैदा किए हैं, कई त्यागी और कई गृहस्थी बना दिए हैं। तूने कई तो ऐसे पैदा किए हैं जो सदा तृष्णा के अधीन रहते हैं, और कई पूरी तरह से तृप्त हैं। हरेक जीव को तेरा ही सहारा है।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh