श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 1077 आपे सति सति सति साचा ॥ ओति पोति भगतन संगि राचा ॥ आपे गुपतु आपे है परगटु अपणा आपु पसारणा ॥४॥ पद्अर्थ: सति = सत्य, सदा कायम रहने वाला। साचा = सदा कायम रहने वाला। ओति पोति = ताने पेटे में (ओत = उना हुआ। पोत = परोया हुआ)। संगि = साथ। राचा = रचा मिचा, मिला हुआ। गुपतु = छुपा हुआ। आपु = अपने आप को। पसारणा = खिरा हुआ है।4। अर्थ: हे भाई! परमात्मा सिर्फ स्वयं ही सदा कायम रहने वाला है। ताने-पेटे की तरह अपले भक्तों के साथ रचा-मिला रहता है। (जीवात्मा के रूप में हरेक जीव के अंदर) खुद ही छुपा हुआ है, यह दिखाई देता पसारा भी वह खुद ही है। (जगत-रूप में) उसने अपने आप को खुद ही खिलारा हुआ है।4। सदा सदा सद होवणहारा ॥ ऊचा अगमु अथाहु अपारा ॥ ऊणे भरे भरे भरि ऊणे एहि चलत सुआमी के कारणा ॥५॥ पद्अर्थ: सद = सदा। होवणहारा = कायम रह सकने वाला। अगमु = अगम्य (पहुँच से परे)। अपारा = बेअंत। ऊणे = कम। भरि = भर के। एहि = यह, वे। चलत = (बहुवचन) करिश्में।5। नोट: ‘इहि’ है ‘इह/यह’ का बहुवचन। अर्थ: हे भाई! परमात्मा सदा ही सदा ही जीवित रहने वाला है, (आत्मिक अवस्था में) वह बहुत ऊँचा है, अगम्य (पहुँच से परे) है, अथाह है, बेअंत है। उस मालिक प्रभु के ये करिश्मे-तमाशे हैं कि खाली (बर्तन) भर देता है और भरों को खाली कर देता है।5। मुखि सालाही सचे साहा ॥ नैणी पेखा अगम अथाहा ॥ करनी सुणि सुणि मनु तनु हरिआ मेरे साहिब सगल उधारणा ॥६॥ पद्अर्थ: मुखि = मुँह से। सालाही = मैं महिमा करूँ। सचे साहा = हे सदा स्थिर शाह! नैणी = आँखों से। पेखा = देखूँ। करनी = कानों से। सुणि = सुन के। साहिब = हे साहिब! सगल = सारे जीव।6। अर्थ: हे सदा कायम रहने वाले पातशाह! (मेहर कर) मैं मुँह से तेरी महिमा करता रहूँ। हे अगम्य (पहुँच से परे) और अथाह प्रभु! (कृपा कर, हर जगह) मैं (तुझे) आँखों से देखूँ। कानों से तेरी महिमा सुन-सुन के मेरा मन मेरा तन (आत्मिक जीवन से) हरा-भरा हुआ रहे। हे मेरे मालिक! तू सब जीवों का बेड़ा पार करने वाला है।6। करि करि वेखहि कीता अपणा ॥ जीअ जंत सोई है जपणा ॥ अपणी कुदरति आपे जाणै नदरी नदरि निहालणा ॥७॥ पद्अर्थ: वेखहि = तू देखता है, संभाल करता है। करि = (पैदा) करके। सोई = उस परमात्मा को ही। आपे = आप ही। नदरी = मेहर की निगाह वाला। नदरि = मेहर की निगाह से। निहालणा = देखता है।7। अर्थ: हे प्रभु! तू सब जीवों को पैदा कर-कर के अपने पैदा किए हुओं की संभाल करने वाला है। हे भाई! सारे जीव-जंतु उसी विधाता को जपते हैं। अपनी कुदरति (पैदा करने की ताकत) को खुद ही जानता है। मेहर का मालिक प्रभु मेहर की निगाह से सबकी ओर देखता है।7। संत सभा जह बैसहि प्रभ पासे ॥ अनंद मंगल हरि चलत तमासे ॥ गुण गावहि अनहद धुनि बाणी तह नानक दासु चितारणा ॥८॥ पद्अर्थ: संत सभा = साधसंगति। जह = जहाँ। बैसहि = बैठते हैं (बहुवचन)। प्रभ पासे = प्रभु के पास, प्रभु के चरणों में। मंगल = खुशियां। गावहि = गाते हैं। अनहदि धुनि = एक रस सुर से। तह = वहाँ। चितारणा = चेते करता है।8। अर्थ: हे भाई! जिस साधु-संगत में (संत जन) प्रभु के चरणों में बैठते हैं, प्रभु के करिश्मों-तमाशों का जिकर करके आत्मिक आनंद खुशियाँ लेते हैं, और एक-रस सुर में वाणी के द्वारा प्रभु के गुण गाते हैं, (यदि प्रभु की मेहर हो तो) उस साधु-संगत में दास नानक भी उसके गुण अपने दिल में बसाए।8। आवणु जाणा सभु चलतु तुमारा ॥ करि करि देखै खेलु अपारा ॥ आपि उपाए उपावणहारा अपणा कीआ पालणा ॥९॥ पद्अर्थ: आवणु जाणा = (जीवों का) पैदा होना और मरना। चलतु = तमाशा, खेल। करि = पैदा कर के। अपारा = बेअंत प्रभु। उपावणहारा = पैदा करने की सामर्थ्य वाला। कीआ = पैदा किए हुए को।9। अर्थ: हे प्रभु! (जीवों का) पैदा होने और मरना- ये सारा तेरा (रचा हुआ) खेल है। हे भाई! बेअंत प्रभु ये खेल कर कर के देख रहा है। पैदा करने की समर्थता वाला प्रभु स्वयं (जीवों को) पैदा करता है। अपने पैदा किए हुए (जीवों) को (स्वयं ही) पालता है।9। सुणि सुणि जीवा सोइ तुमारी ॥ सदा सदा जाई बलिहारी ॥ दुइ कर जोड़ि सिमरउ दिनु राती मेरे सुआमी अगम अपारणा ॥१०॥ पद्अर्थ: सुणि = सुन के। जीवा = जीऊँ, मैं आत्मिक जीवन प्राप्त करता हूँ। सोइ = खबर, शोभा। जाई = मैं जाता हूँ। दुइ कर = दोनों हाथ (बहुवचन)। जोड़ि = जोड़ के। सिमरउ = स्मरण करूँ, मैं स्मरण करता हूँ। अपारणा = हे अपार!।10। अर्थ: हे प्रभु! तेरी शोभा सुन-सुन के मैं आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ, मैं तुझसे सदा ही सदके जाता हूँ। हे मेरे अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत मालिक! (जब तेरी मेहर होती है) मैं दोनों हाथ जोड़ के दिन-रात तुझे स्मरण करता हूँ।10। तुधु बिनु दूजे किसु सालाही ॥ एको एकु जपी मन माही ॥ हुकमु बूझि जन भए निहाला इह भगता की घालणा ॥११॥ पद्अर्थ: सालाही = मैं सालाहूँ। जपी = जपूँ। माही = में। बूझि = समझ के। जन = प्रभु के सेवक। निहाला = प्रसन्न। घालणा = मेहनत, कमाई।11। अर्थ: हे प्रभु! तुझे छोड़ के मैं किसी और की महिमा नहीं कर सकता। मैं अपने मन में सिर्फ एक तुझे ही जपता हूँ। तेरे सेवक तेरी रज़ा को समझ के सदा प्रसन्न रहते हैं - ये है तेरे भक्तों की घाल-कमाई।11। गुर उपदेसि जपीऐ मनि साचा ॥ गुर उपदेसि राम रंगि राचा ॥ गुर उपदेसि तुटहि सभि बंधन इहु भरमु मोहु परजालणा ॥१२॥ पद्अर्थ: उपदेसि = उपदेश से। जपीऐ = जपना चाहिए। मनि = मन में। साचा = सदा स्थिर प्रभु। रंगि = प्रेम रंग में। राचा = रच मिच जाता है। तूटहि = टूट जाते हैं (बहुवचन)। सभि = सारे। परजालणा = अच्छी तरह जल जाता है।12। अर्थ: हे भाई! गुरु के उपदेश से मन में सदा-स्थिर प्रभु का नाम जपना चाहिए। गुरु के उपदेश पर चल के मन प्रभु के प्रेम-रंग में रंगा रहता है। हे भाई! गुरु के उपदेश की इनायत से (मनुष्य के अंदर से माया-मोह के) सारे बंधन टूट जाते हैं। मनुष्य की यह भटकना, मनुष्य का यह मोह अच्छी तरह जल जाता है।12। जह राखै सोई सुख थाना ॥ सहजे होइ सोई भल माना ॥ बिनसे बैर नाही को बैरी सभु एको है भालणा ॥१३॥ पद्अर्थ: जह = जहाँ। राखै = (परमात्मा हमें) रखता है। सुख थाना = सुख देने वाली जगह। सहज = प्रभु की रजा में ही। भला = भला। माना = मानता है। बैर = (सारे) वैर। सभु = हर जगह। एको = एक परमात्मा को ही।13। अर्थ: हे भाई! (‘अैसा को वडभागी आइआ’ जो ये निश्चय रखता है कि) जहाँ (परमात्मा हमें) रखता है वही (हमारे लिए) सुख देने वाली जगह है, (जो मनुष्य) जो कुछ रजा में हो रहा है उसको भलाई के लिए मानता है, (जिस मनुष्य के अंदर से) सारे वैर-विरोध मिट जाते हैं, (जिसको जगत में) कोई वैरी नहीं दिखता, (जो) हर जगह सिर्फ परमात्मा को ही देखता है।13। डर चूके बिनसे अंधिआरे ॥ प्रगट भए प्रभ पुरख निरारे ॥ आपु छोडि पए सरणाई जिस का सा तिसु घालणा ॥१४॥ पद्अर्थ: चूके = समाप्त हो गए। अंधिआरे = (आत्मिक जीवन की राह के) अंधेरे। निरारे = निराला, निर्लिप। आपु = स्वै भाव। छोडि = त्याग के। जिस का = जिस (प्रभु) का। सा = था, है। तिसु घालणा = उस (प्रभु के नाम) की घाल कमाई।14। नोट: ‘जिस का’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे भाई! (‘अैसा को वडभागी आइआ’, जिसके अंदर से) सारे भय समाप्त हो जाते हैं, आत्मिक जीवन के रास्ते के सारे अंधेरे दूर हो जाते हैं, (जिसके अंदर) निर्लिप प्रभु प्रकट हो जाता है, (जो मनुष्य) स्वैभाव दूर करके परमात्मा की शरण पड़ता है, जिस प्रभु का पैदा किया हुआ है उसी (के स्मरण) की घाल-कमाई करता है।14। ऐसा को वडभागी आइआ ॥ आठ पहर जिनि खसमु धिआइआ ॥ तिसु जन कै संगि तरै सभु कोई सो परवार सधारणा ॥१५॥ पद्अर्थ: को = कोई (विरला) मनुष्य। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। कै संगि = के साथ, की संगति में। सभु कोई = हरेक जीव। सधारणा = आसरा देने वाला।15। अर्थ: हे भाई! कोई विरला ही ऐसा भाग्यशाली मनुष्य पैदा होता है, जो आठों पहर मालिक-प्रभु का नाम याद करता है। उस मनुष्य की संगति में (रह के) हरेक मनुष्य संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है, वह मनुष्य अपने परिवार के लिए सहारा बन जाता है।15। इह बखसीस खसम ते पावा ॥ आठ पहर कर जोड़ि धिआवा ॥ नामु जपी नामि सहजि समावा नामु नानक मिलै उचारणा ॥१६॥१॥६॥ पद्अर्थ: बखसीस = दाति। ते = से। पावा = पाऊँ, हासिल करूँ। कर जोड़ि = (दोनों) हाथ जोड़ के। धिआवा = मैं स्मरण करता रहूँ। जपी = जपूँ। नामि = नाम में। सहजि = आत्मिक अडोलता में। समावा = समाया रहूँ।16। अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! अगर मेरे मालिक की मेरे ऊपर मेहर हो तो) मैं उस मालिक से ये दाति हासिल करूँ कि आठों पहर दोनों हाथ जोड़ के उसका नाम स्मरण करता रहूँ, उसका नाम जपता रहूँ, उसके नाम में आत्मिक अडोलता में लीन रहूँ, मुझे उसका नाम जपने की दाति मिली रहे।16।1।6। मारू महला ५ ॥ सूरति देखि न भूलु गवारा ॥ मिथन मोहारा झूठु पसारा ॥ जग महि कोई रहणु न पाए निहचलु एकु नाराइणा ॥१॥ पद्अर्थ: सूरति = शक्ल। देखि = देख के। गवारा = हे मूर्ख! मिथन = झूठा। मोहारा = मोह का। पसारा = खिलारा। निहचलु = सदा कायम रहने वाला।1। अर्थ: हे मूर्ख! (जगत के पदार्थों की) सूरत देख के गलती ना खा। ये सारा झूठे मोह का झूठा पसारा है। जगत में कोई भी सदा के लिए टिका नहीं रह सकता, सिर्फ एक परमात्मा सदा कायम रहने वाला है।1। गुर पूरे की पउ सरणाई ॥ मोहु सोगु सभु भरमु मिटाई ॥ एको मंत्रु द्रिड़ाए अउखधु सचु नामु रिद गाइणा ॥२॥ पद्अर्थ: सभु भरमु = हरेक किस्म का भ्रम। मिटाई = (गुरु) मिटाता है। मंत्रु = उपदेश। द्रिढ़ाए = हृदय में पक्का करता है। अउखधु = दवा, औषधि। सचु = सदा स्थिर। रिद = हृदय में।2। अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु की शरण पड़ा रह। गुरु (शरण पड़े मनुष्य का) मोह-सोग और सारा भ्रम मिटा देता है। गुरु एक ही उपदेश हृदय में बसाता है, एक ही दवाई देता है कि हृदय में सदा कायम रहने वाला हरि-नाम स्मरणा चाहिए।2। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |