श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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जिसु नामै कउ तरसहि बहु देवा ॥ सगल भगत जा की करदे सेवा ॥ अनाथा नाथु दीन दुख भंजनु सो गुर पूरे ते पाइणा ॥३॥

पद्अर्थ: जिसु नामै कउ = जिस के नाम को। जा की = जिस प्रभु की। दीन दुख भंजनु = गरीबों के दुख नाश करने वाला।3।

अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा के नाम को अनेक देवते तरसते हैं, सारे ही भक्त जिस प्रभु की सेवा-भक्ति करते हैं, जो परमात्मा निखस्मों का खसम हैं, जो परमात्मा गरीबों के दुख नाश करने वाला है, वह परमात्मा पूरे गुरु से मिलता है।3।

होरु दुआरा कोइ न सूझै ॥ त्रिभवण धावै ता किछू न बूझै ॥ सतिगुरु साहु भंडारु नाम जिसु इहु रतनु तिसै ते पाइणा ॥४॥

पद्अर्थ: दुआरा = दरवाजा, दर। त्रिभवण = तीनों भवनों में। धावै = (जो) दौड़ता फिरे। भंडारु = खजाना। तिसै ते = उस (गुरु) से ही।4।

अर्थ: हे भाई! और कोई दर (ऐसा) नहीं सूझता (जहाँ से रतन-नाम मिल सके)। यदि मनुष्य तीनों भवनों में दौड़-भाग करता फिरे तो भी उसको नाम-रतन की कोई सूझ नहीं पड़ सकती। एक गुरु ही ऐसा शाह है जिसके पास नाम का खजाना है। उस गुरु से नाम-रतन मिल सकता है।4।

जा की धूरि करे पुनीता ॥ सुरि नर देव न पावहि मीता ॥ सति पुरखु सतिगुरु परमेसरु जिसु भेटत पारि पराइणा ॥५॥

पद्अर्थ: पुनीता = पवित्र। सुर = स्वर्ग के रहने वाले। नर = मनुष्य। मीता = हे मित्र! 5।

अर्थ: हे भाई! जिस (प्रभु) की चरण-धूल पवित्र कर देती है, हे मित्र! उसको देवते मनुष्य प्राप्त नहीं कर सकते। सिर्फ हरि-रूप गुरु पुरख ही है जिसको मिलने से (संसार-समुंदर से) पार लांघा जा सकता है।5।

पारजातु लोड़हि मन पिआरे ॥ कामधेनु सोही दरबारे ॥ त्रिपति संतोखु सेवा गुर पूरे नामु कमाइ रसाइणा ॥६॥

पद्अर्थ: पारजातु = मनोकामना पूरी करने वाला वृक्ष (हिन्दू धर्म पुस्तकों के अनुसार स्वर्ग में पाँच एसे वृक्ष माने गए हैं)। मन = हे मन! लोड़हि = (अगर तू हासिल करना) चाहता है। कामधेनु = (धेनु = गाय) मन की कामना पूरी करने वाली गाय (ये भी स्वर्ग में रहने वाली मानी गई है)। सोही = शोभा दे। दरबारे = (तेरे) दर से। त्रिपति = तृप्ति। रसाइणा = (रस+आयन, रसों का घर) सब रसों का श्रोत।6।

अर्थ: हे प्यारे मन! अगर तू (स्वर्ग का) पारजात (वृक्ष) हासिल करना चाहता है, यदि तू चाहता है कि कामधेनु तेरे दरवाजे पर शोभायमान हो, तो पूरे गुरु की शरण पड़ा रह, गुरु से पूर्ण संतोख प्राप्त कर, (गुरु के बताए हुए रास्ते पर चल के) नाम-जपने की कमाई कर, हरि-नाम ही सारे रसों का श्रोत है।6।

गुर कै सबदि मरहि पंच धातू ॥ भै पारब्रहम होवहि निरमला तू ॥ पारसु जब भेटै गुरु पूरा ता पारसु परसि दिखाइणा ॥७॥

पद्अर्थ: कै सबदि = के शब्द से। मरहि = मर जाते हैं। पंच धातू = (कामादिक) पाँच विषौ। भै पारब्रहम = परमात्मा के डर-अदब में (रह के)। होवहि तू = तू हो जाएगा। निरमल = पवित्र करने वाला। पारसु = और धातुओं को सोना बना देने वाला पत्थर। भेटै = मिलता है। परसि = छू के। दिखाइणा = (परमात्मा) दिख जाता है।7।

अर्थ: हे प्यारे मन! गुरु के शब्द की इनायत सेकामादिक पाँचों विषौ मर जाते हैं, (गुरु के शब्द से) परमात्मा के भय-अदब में रह के तू पवित्र हो जाएगा। (हे मन! गुरु ही) पारस है। जब पूरा गुरु पारस मिल जाता है, तो उस पारस को छूने से (परमात्मा हर जगह) दिखाई दे जाता है।7।

कई बैकुंठ नाही लवै लागे ॥ मुकति बपुड़ी भी गिआनी तिआगे ॥ एकंकारु सतिगुर ते पाईऐ हउ बलि बलि गुर दरसाइणा ॥८॥

पद्अर्थ: लवै लागे = बराबरी कर सकते। बपुड़ी = निमाणी, बेचारी। गिआनी = परमात्मा के साथ गहरी सांझ रखने वाला। ते = से। हउ = मैं। बलि बलि = सदा सदके।8।

अर्थ: हे भाई! अनेक बैकुंठ (गुरु के दर्शनों की) बराबरी नहीं कर सकते। जो मनुष्य (गुरु के द्वारा) परमात्मा के साथ सांझ डालता है, वह मुक्ति को भी एक तुच्छ सी वस्तु समझ के (इसकी लालसा) त्याग देता है। हे भाई! गुरु के माध्यम से परमात्मा के साथ मिलाप होता है। मैं तो गुरु के दर्शनों से सदा सदके हूँ सदा बलिहार हूँ।8।

गुर की सेव न जाणै कोई ॥ गुरु पारब्रहमु अगोचरु सोई ॥ जिस नो लाइ लए सो सेवकु जिसु वडभाग मथाइणा ॥९॥

पद्अर्थ: अगोचरु = (अ+गो+चरु) जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच ना हो सके। मथाइणा = माथे पर।9।

नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक नो’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण (पड़ने का क्या महातम है? - ये भेद निरे दिमागी तौर पर) कोई मनुष्य नहीं समझ सकता (शरण पड़ के ही समझ पड़ती है)। गुरु (आत्मिक जीवन में) वही परमात्मा में जो ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे है। जिस मनुष्य के माथे के भाग्य जाग उठें, जिसको (परमात्मा खुद गुरु के चरणों से) लगाता है वह गुरु का सेवक बनता है।9।

गुर की महिमा बेद न जाणहि ॥ तुछ मात सुणि सुणि वखाणहि ॥ पारब्रहम अपर्मपर सतिगुर जिसु सिमरत मनु सीतलाइणा ॥१०॥

पद्अर्थ: महिमा = बड़ाई, उच्च आत्मिकता। न जाणहि = नहीं जानते (बहुवचन)। तुछ मात = तुच्छ मात्र, बहुत ही थोड़ा। सुणि = सुन के। अपरंपर = परे से परे।10।

अर्थ: हे भाई! गुरु की उच्चात्मिकता वेद (भी) नहीं जानते, वे (औरों से) सुन-सुन के रक्ती-मात्र ही बयान कर सके हैं। हे भाई! गुरु (उच्च आत्मिकता में) वह परमात्मा ही है जो परे से परे हैं और जिसका नाम स्मरण करने से मन शीतल हो जाता है।10।

जा की सोइ सुणी मनु जीवै ॥ रिदै वसै ता ठंढा थीवै ॥ गुरु मुखहु अलाए ता सोभा पाए तिसु जम कै पंथि न पाइणा ॥११॥

पद्अर्थ: जा की = जिस (गुरु) की। सोइ = शोभा। सुणी = सुन के। जीवै = आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है। रिदै = हृदय में। थीवै = हो जाता है। गुरमुखहु = गुरु के मुंह से, गुरु की राह चल के। अलाए = (नाम) उचारे। जिसु = उस (मनुष्य) को। जम कै पंथि = जमराज के राह पर। न पाइणा = नहीं डालता।11।

अर्थ: हे भाई! जिस (गुरु) की शोभा सुन के मन आत्मिक जीवन प्राप्त करता है, अगर गुरु (मनुष्य के) हृदय में आ बसे, तो हृदय शांत हो जाता है। अगर मनुष्य गुरु के रास्ते पर चल के हरि-नाम स्मरण करे, तो मनुष्य (लोक-परलोक में) शोभा कमाता है, गुरु उस मनुष्य को जमराज के रास्ते पर नहीं पड़ने देता।11।

संतन की सरणाई पड़िआ ॥ जीउ प्राण धनु आगै धरिआ ॥ सेवा सुरति न जाणा काई तुम करहु दइआ किरमाइणा ॥१२॥

पद्अर्थ: पड़िआ = (मैं भी) पड़ा हूँ। जीउ = जिंद। आगै = गुरु के आगे। सुरति = सूझ। जाणा = मैं जानूँ। किरमाइणा = क्रिमि पर, कीड़े पर।12।

नोट: ‘काई’ स्त्रीलिंग है जिस का पुलिंग है ‘कोई’।

अर्थ: हे प्रभु! मैं भी तेरे संत जनों की शरण पड़ा हूँ, मैंने अपनी जिंद, अपने प्राण, अपना धन संत जनों के आगे ला रखा है। मैं सेवा-भक्ति करने की कोई सूझ नहीं जानता। मुझ निमाणे पर तू स्वयं ही किरपा कर।12।

निरगुण कउ संगि लेहु रलाए ॥ करि किरपा मोहि टहलै लाए ॥ पखा फेरउ पीसउ संत आगै चरण धोइ सुखु पाइणा ॥१३॥

पद्अर्थ: निरगुण = गुण हीन। कउ = को। संगि = गुरु की संगति में। मोहि = मुझे। टहलै = गुरु की टहल मे। फेरउ = मैं फेरूँ। पीसहु = मैं पीसता हूँ। संत = गुरु। धोइ = धो के।13।

अर्थ: हे प्रभु! मुझ गुण-हीन को गुरु की संगति में मिलाए रख। मुझे गुरु की सेवा अहल में जोड़े रख। मैं गुरु के दर पर पंखा फेरता रहूँ, (चक्की) पीसता रहूँ, और गुरु के चरण धो के आनंद लेता रहूं।13।

बहुतु दुआरे भ्रमि भ्रमि आइआ ॥ तुमरी क्रिपा ते तुम सरणाइआ ॥ सदा सदा संतह संगि राखहु एहु नाम दानु देवाइणा ॥१४॥

पद्अर्थ: भ्रमि = भटक के। तों = साथ, से। तुम सरणाइआ = तेरी शरण। संगि = साथ।14।

अर्थ: हे प्रभु! मैं दरवाजों पर भटक-भटक के आया हूँ। तेरी ही कृपा से (अब) तेरी शरण आया हूँ। मुझे सदा ही अपने संत जनों की संगति में रख, और उनसे अपने नाम की खैर डलवा।14।

भए क्रिपाल गुसाई मेरे ॥ दरसनु पाइआ सतिगुर पूरे ॥ सूख सहज सदा आनंदा नानक दास दसाइणा ॥१५॥२॥७॥

पद्अर्थ: गुसाई = मालिक। सहज = आत्मिक अडोलता। नानक = हे नानक! दास दसाइणा = दासों का दास।15।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) जब (अब) मेरा मालिक प्रभु दयावान हुआ, तो मुझे पूरे गुरु के दर्शन हुए। अब मेरे अंदर सदा आत्मिक अडोलता और सुख-आनंद बने रहते हैं। मैं उसके दासों का दास बना रहता हूँ।15।2।7।

मारू सोलहे महला ५    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

सिमरै धरती अरु आकासा ॥ सिमरहि चंद सूरज गुणतासा ॥ पउण पाणी बैसंतर सिमरहि सिमरै सगल उपारजना ॥१॥

पद्अर्थ: सिमरै = स्मरण करता है, हर वक्त याद रखता है, रजा में चलता है। अरु = और। सिमरहि = स्मरण करते हैं (बहुवचन)। गुणतासा = गुणों का खजाना परमात्मा। पउण = पवन। बैसंतर = आग। सगल = सारी। उपारजना = सृष्टि।1।

अर्थ: हे भाई! धरती परमात्मा की रजा में चल रही है आकाश उसकी रजा में है। चाँद और सूरज उस गुणों के खजाने प्रभु की रजा में चल रहे हैं। हवा पानी आग (आदिक तत्व) प्रभु की रजा में काम करि रहे हैं। सारी सृष्टि उसकी रजा में काम कर रही है।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh