श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सिमरहि खंड दीप सभि लोआ ॥ सिमरहि पाताल पुरीआ सचु सोआ ॥ सिमरहि खाणी सिमरहि बाणी सिमरहि सगले हरि जना ॥२॥

पद्अर्थ: दीप = द्वीप, टापू। सभि = सारे। लोआ = मण्डल (लोक)। सचु = सदा स्थिर प्रभु। सचु सोआ = उस सदा स्थिर प्रभु को। खाणी = (अण्डज, जेरज सेतज उत्भुज आदि) खाणियां। बाणी = सब बोलियों (के बोलने वाले)।2।

अर्थ: हे भाई! सारे खंड, द्वीप, मण्डल, पाताल और सारियां पुरियां, सारी खाणियों और बाणियों (के जीव), सारे प्रभु के सेवक सदा-स्थिर प्रभु की रजा में बरत रहे हैं।2।

सिमरहि ब्रहमे बिसन महेसा ॥ सिमरहि देवते कोड़ि तेतीसा ॥ सिमरहि जख्यि दैत सभि सिमरहि अगनतु न जाई जसु गना ॥३॥

पद्अर्थ: ब्रहमे = (बहुवचन) अनेको ब्रहमा। बिसन = कई विष्णु (बहुवचन)। महेसा = शिव। कोड़ि तैतीसा = तेतिस करोड़। जख्यि = जख (देवताओं की एक श्रेणी)। अगनतु = अनगिनत, वह परमात्मा जिसके गुण गिने नहीं जा सकते। जसु = महिमा। न जाई गना = गिना नहीं जा सकता।3।

अर्थ: हे भाई! अनेक ब्रहमा, विष्णु और शिव, तैतिस करोड़ देवतागण, सारे जख और दैत्य उस अगनत प्रभु को हर वक्त याद कर रहे हैं। उसकी महिमा का अंत नहीं पाया जा सकता।3।

सिमरहि पसु पंखी सभि भूता ॥ सिमरहि बन परबत अउधूता ॥ लता बली साख सभ सिमरहि रवि रहिआ सुआमी सभ मना ॥४॥

पद्अर्थ: सभि भूता = सारे जीव। परबत अउधूता = नांगे साधूओं की तरह अडोल टिके हुए पर्वत। लता = वेल। बली = (वल्ली) वेल। शाख = शाखा। रवि रहिआ = व्यापक है। सभ मना = सारे मनों में।4।

अर्थ: हे भाई! सारे पशु, पक्षी आदि जीव, जंगल और अडोल टिके हुए पहाड़, वेलें वृक्षों की शाखाएं, सब परमात्मा की रजा में काम कर रहे हैं। हे भाई! मालिक-प्रभु सब जीवों के मनों में बस रहा है।4।

सिमरहि थूल सूखम सभि जंता ॥ सिमरहि सिध साधिक हरि मंता ॥ गुपत प्रगट सिमरहि प्रभ मेरे सगल भवन का प्रभ धना ॥५॥

पद्अर्थ: थूल = स्थूल, बड़े आकार वाला। सूखम = सूक्ष्म, बहुत ही छोटे आकार वाला। सभि = सारे। सिध = सिद्ध, जोग साधना में निपुन्न योगी। साधिक = योग साधना करने वाले साधक। मंता = मंत्र, जाप। गुपत प्रगट = दिखाई देते और ना दिखाई देते जीव। प्रभ = हे प्रभु! धना = धनी, मालिक।5।

अर्थ: हे मेरे प्रभु! बहुत बड़े आकार के शरीरों से ले के बहुत ही सूक्ष्म शरीरों वाले सारे जीव, सिद्ध और साधिक, दृश्य और अदृश्य सारे जीव तुझे ही स्मरण करते हैं। हे प्रभु! तू सारे भवनों का मालिक है।5।

सिमरहि नर नारी आसरमा ॥ सिमरहि जाति जोति सभि वरना ॥ सिमरहि गुणी चतुर सभि बेते सिमरहि रैणी अरु दिना ॥६॥

पद्अर्थ: आसरमा = चारों आश्रमों के प्राणी (ब्रहमचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास)। वरना = (ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) चार वर्णों के प्राणी। सभि = सारे। गुनी = गुणवान। बेते = विद्वान। रैणी = रात।6।

अर्थ: हे भाई! चारों आश्रमों के नर और नारियाँ, सब जातियों और वर्णों के सारे प्राणी, गुणवान, चतुर सयाने सारे जीव परमात्मा को ही स्मरण करते हैं। (सारे जीव) रात और दिन हर वक्त उसी प्रभु को स्मरण करते हैं।6।

सिमरहि घड़ी मूरत पल निमखा ॥ सिमरै कालु अकालु सुचि सोचा ॥ सिमरहि सउण सासत्र संजोगा अलखु न लखीऐ इकु खिना ॥७॥

पद्अर्थ: मूरत = महूरत। निमखा = (निमेष) आँख झपकने जितना समय। कालु = मौत। अकालु = जनम। सुचि = शरीरिक पवित्रता। सोचा = शौच, शारीरिक क्रिया साधनी। सउण सासत्र = ज्योतिष आदि के शास्त्र। अलखु = जिसका सही स्वरूप बयान ना किया जा सके।7।

अर्थ: हे भाई! घड़ी महूरत पल निमख (आदि समय के बटवारे) प्रभु के हुक्म-नियम में गुजरते जा रहे हैं। मौत प्रभु के हुक्म में चल रही है, जनम प्रभु के हुक्म में चल रहा है। सुच और शारीरिक क्रिया - ये भी कार हुक्म में ही चल रही है। संजोग आदि बताने वाले ज्योतिष व अन्य शास्त्र उसके हुक्म में ही चल रहे हैं। पर, प्रभु स्वयं ऐसा है कि उसका सही स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता, तिल मात्र भी बयान नहीं किया जा सकता।7।

करन करावनहार सुआमी ॥ सगल घटा के अंतरजामी ॥ करि किरपा जिसु भगती लावहु जनमु पदारथु सो जिना ॥८॥

पद्अर्थ: करावनहार = (जीवों से) करवा सकने वाला। घट = हृदय। करि = कर के। जिना = जीतता।8।

अर्थ: हे सब कुछ आप कर सकने वाले और जीवों से करवा सकने वाले स्वामी! हे सब दिलों की जानने वाले प्रभु! तू मेहर करके जिस मनुष्य को अपनी भक्ति में लगाता है, वह इस कीमती मानव जन्म की बाजी जीत जाता है।8।

जा कै मनि वूठा प्रभु अपना ॥ पूरै करमि गुर का जपु जपना ॥ सरब निरंतरि सो प्रभु जाता बहुड़ि न जोनी भरमि रुना ॥९॥

पद्अर्थ: जा कै मनि = जिस (मनुष्य) के मन में। वूठा = आ बसा। करमि = बख्शिश से। सरब निरंतरि = सबके अंदर। जाता = जान लिया। बहुड़ि = दोबारा, फिर। भरमि = भटक के। रुना = रोया, दुखी हुआ।9।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के मन में प्यारा प्रभु आ बसता है, वह (प्रभु की) पूरी मेहर से गुरु का (बताया) नाम-जाप जपता है। वह मनुष्य उस प्रभु को सबके अंदर बसता पहचान लेता है, वह मनुष्य दोबारा जूनियों की भटकना में दुखी नहीं होता।9।

गुर का सबदु वसै मनि जा कै ॥ दूखु दरदु भ्रमु ता का भागै ॥ सूख सहज आनंद नाम रसु अनहद बाणी सहज धुना ॥१०॥

पद्अर्थ: भ्रमु = भटकना। ता का = उस (मनुष्य) का। भागै = भाग जाता है (एकवचन)। सहज = आत्मिक अडोलता। अनहद = एक रस, लगातार। धुना = तुकांत।10।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के मन में गुरु का शब्द टिक जाता है, उसका दुख उसका दर्द दूर हो जाता है,, उसकी भटकना समाप्त हो जाती है। उसके अंदर आत्मिक अडोलता के सुख-आनंद बने रहते हैं, उसको परमात्मा के नाम का स्वाद आने लग पड़ता है, गुरबाणी की इनायत से उसके अंदर एक-रस आत्मिक अडोलता की धुनि (तुकांत) चलती रहती है।10।

सो धनवंता जिनि प्रभु धिआइआ ॥ सो पतिवंता जिनि साधसंगु पाइआ ॥ पारब्रहमु जा कै मनि वूठा सो पूर करमा ना छिना ॥११॥

पद्अर्थ: जिनि = जिस (मनुष्य) ने। पतिवंता = इज्जत वाला। संगु = साथ। साध संगु = गुरु का साथ। पूर करंमा = पूरे भाग्यों वाला। छिना = गुप्त, छुपा हुआ। ना छिना = मशहूर।11।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने प्रभु का ध्यान धरा वह नाम-खजाने का मालिक बन गया, जिस मनुष्य ने गुरु का साथ हासिल कर लिया वह (लोक-परलोक में) इज्जत वाला हो गया। हे भाई! जिस मनुष्य के मन में परमात्मा आ बसा, वह बड़ी किस्मत वाला हो गया वह (जगत में) प्रसिद्ध हो गया।11।

जलि थलि महीअलि सुआमी सोई ॥ अवरु न कहीऐ दूजा कोई ॥ गुर गिआन अंजनि काटिओ भ्रमु सगला अवरु न दीसै एक बिना ॥१२॥

पद्अर्थ: जलि = जल में। थलि = धरती मे। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, अंतरिक्ष में, आकाश में। कहीऐ = बताया जा सकता। गुर गिआन अंजनि = गुरु के ज्ञान के सुरमे ने। सगला = सारा। दीसै = दिखता।12।

अर्थ: हे भाई! वही मालिक-प्रभु जल में धरती में आकाश में बसता है, उसके बिना कोई दूसरा बताया नहीं जा सकता। हे भाई! गुरु के ज्ञान के सुरमे ने (जिस मनुष्य की आँखों का) सारा भ्रम (-जाल) काट दिया, उसको एक परमात्मा के बिना (कहीं कोई) और नहीं दिखता।12।

ऊचे ते ऊचा दरबारा ॥ कहणु न जाई अंतु न पारा ॥ गहिर ग्मभीर अथाह सुआमी अतुलु न जाई किआ मिना ॥१३॥

पद्अर्थ: ते = से। ऊचे ते ऊचा = सबसे ऊँचा। पारा = उस पार का किनारा। गहिर = गहरा। गंभीर = बड़े जिगरे वाला। किआ मिना = मैं क्या मिण सकता हूँ? मैं गिन तौल नहीं सकता।13।

अर्थ: हे प्रभु! तेरा दरबार सब (दरबारों) से ऊँचा है, उसका आखिरी और उसका परला छोर बताया नहीं जा सकता। हे गहरे और अथाह (समुंदर)! हे बड़े जिगरे वाले! हे मालिक! तू अतुल्य है, तुझे तोला नहीं जा सकता, तुझे मापा नहीं जा सकता।13।

तू करता तेरा सभु कीआ ॥ तुझु बिनु अवरु न कोई बीआ ॥ आदि मधि अंति प्रभु तूहै सगल पसारा तुम तना ॥१४॥

पद्अर्थ: सभु = सारा जगत। बीआ = दूसरा। आदि मधि अंति = जगत रचना के शुरू में बीच में और आखिर में। तुम तना = तेरे शरीर का, तेरे तन का।14।

अर्थ: हे प्रभु! तू पैदा करने वाला है, सारा जगत तेरा पैदा किया हुआ है। तेरे बिना (तेरे जैसा) कोई और दूसरा नहीं है। जगत के आरम्भ से आखिर तक तू सदा कायम रहने वाला है। ये सारा जगत पसारा तेरे ही अपने आप का है।14।

जमदूतु तिसु निकटि न आवै ॥ साधसंगि हरि कीरतनु गावै ॥ सगल मनोरथ ता के पूरन जो स्रवणी प्रभ का जसु सुना ॥१५॥

पद्अर्थ: निकटि = नजदीक। साध संगि = गुरु की संगति में। ता के = उस मनुष्य के। स्रवणी = कानों से।15।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की संगति में रह के परमात्मा की महिमा के गीत गाता है, जमदूत उसके नजदीक नहीं आ सकता (मौत उसको डरा नहीं सकती। आत्मिक मौत उसके नजदीक नहीं आ सकती)। जो मनुष्य अपने कानों से प्रभु का यश सुनता रहता है, उसकी सारी जरूरतें पूरी हो जाती हैं।15।

तू सभना का सभु को तेरा ॥ साचे साहिब गहिर ग्मभीरा ॥ कहु नानक सेई जन ऊतम जो भावहि सुआमी तुम मना ॥१६॥१॥८॥

पद्अर्थ: सभु को = हरेक जीव। साहिब = हे साहिब! सचे = हे सदा कायम रहने वाले! नानक = हे नानक! सोई जन = वही मनुष्य (बहुवचन)। सुआमी = हे स्वामी!।16।

अर्थ: हे प्रभु! तू सारे जीवों का (पति) है। हरेक जीव तेरा (पैदा किया हुआ) है। हे नानक! कह: (हे सदा कायम रहने वाले मालिक! हे गहरे और बड़े जिगरे वाले प्रभु) वही मनुष्य श्रेष्ठ हैं जो तुझे अच्छे लगते हैं।16।1।8।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh