श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 1082 आपे सकती सबलु कहाइआ ॥ आपे सूरा अमरु चलाइआ ॥ आपे सिव वरताईअनु अंतरि आपे सीतलु ठारु गड़ा ॥१३॥ पद्अर्थ: आपे = आप ही। सबलु = बलवाला (परमात्मा)। सकती = शक्ति, माया। सूरा = सूरमा। अमरु = हुक्म। सिव = शिव, सुख, शांति। वरताईअनु = उसने बरताई हुई हैं। अंतरि = (सबके) अंदर। ठारु गड़ा = गड़े जैसा ठंडा ठार, ओले जैसा ठंडा।13। अर्थ: हे भाई! बलवान परमात्मा स्वयं ही (अपने आप को) माया कहलवा रहा है। वह शूरवीर प्रभु स्वयं ही (सारे जगत में) हुक्म चला रहा है। (सब जीवों के) अंदर उसने स्वयं ही सुख-शांति बरताई हुई है, (क्योंकि) वह स्वयं ओले (बर्फ के गोले) की तरह शीतल ठंढा-ठार है।13। जिसहि निवाजे गुरमुखि साजे ॥ नामु वसै तिसु अनहद वाजे ॥ तिस ही सुखु तिस ही ठकुराई तिसहि न आवै जमु नेड़ा ॥१४॥ पद्अर्थ: जिसहि = जिस को। निवाजे = बख्शिश करता है। गुरमुखि साजे = गुरु की शरण ले के नई आत्मिक घाड़त घड़ता है। तिसु = उसके (दिल में)। अनहद = एक रस, लगातार। ठकुराई = सरदारी, उच्चता।14। नोट: ‘जिसहि’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है। नोट ‘तिस ही’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है, उसको गुरु की शरण में डाल के उसकी नई आत्मिक घाड़त घाड़ता है। उस (मनुष्य) के अंदर परमात्मा का नाम आ बसता है (मानो) उसके अंदर एक-रस बाजे (बज पड़ते हैं)। उसी मनुष्य को (सदा) आत्मिक आनंद प्राप्त रहता है, उसी को (परलोक में) आत्मिक अच्चता मिल जाती है। जमराज उसके नजदीक नहीं फटकता (मौत का डर, आत्मिक मौत उस पर असर नहीं डाल सकती)।14। कीमति कागद कही न जाई ॥ कहु नानक बेअंत गुसाई ॥ आदि मधि अंति प्रभु सोई हाथि तिसै कै नेबेड़ा ॥१५॥ पद्अर्थ: कागद = कागजों पर। नानक = हे नानक! गुसाई = धरती के पति-प्रभु! हाथि = हाथ में। तिसै कै हाथि = उसी के हाथ मे। नेबेड़ा = फैसला।15। अर्थ: हे नानक! कह: सृष्टि का मालिक-प्रभु बेअंत है, कागजों पर (लिख कर) उसका मूल्य नहीं डाला जा सकता। जगत के आरम्भ में, अब और अंत में भी वही कायम रहने वाला है। जीवों के कर्मों का फैसला उसी के हाथ में है।15। तिसहि सरीकु नाही रे कोई ॥ किस ही बुतै जबाबु न होई ॥ नानक का प्रभु आपे आपे करि करि वेखै चोज खड़ा ॥१६॥१॥१०॥ पद्अर्थ: रे = हे भाई! तिसहि सरीकु = उस (प्रभु) का शरीर (बराबर का)। बुता = बुक्ता, काम। बुतै = काम में। किस ही बुतै = (उसके) किसी भी काम में। जबाबु = उज्र, इन्कार। करि = कर के। चोज = तमाशे (बहुवचन)।16। अर्थ: हे भाई! कोई भी जीव उस (परमात्मा) के बराबर का नहीं है। उसके किसी भी काम में किसी तरफ से भी इन्कार नहीं किया जा सकता। नानक का प्रभु (हर जगह) स्वयं ही स्वयं है। वह स्वयं ही तमाशे कर-कर के खड़ा स्वयं ही देख रहा है।16।1।10। मारू महला ५ ॥ अचुत पारब्रहम परमेसुर अंतरजामी ॥ मधुसूदन दामोदर सुआमी ॥ रिखीकेस गोवरधन धारी मुरली मनोहर हरि रंगा ॥१॥ पद्अर्थ: अचुत = (च्यु = to fall = च्युत = fallen) ना नाश होने वाला। परमेसुर = परम ईश्वर, सबसे बड़ा मालिक। अंतरजामी = सबके दिलों में पहुँचने वाला (या = to go)। मधुसूदन = मधू दैत्य को मारने वाला। दामोदर = (दाम+उदर) जिसके पेट के इर्दगिर्द रस्सी है। रिखीकेस = (हृषीक = इंद्रिय। ईस = मालिक) जगत की ज्ञान इन्द्रियों का मालिक। गोवरधन धारी = गौवर्धन पर्वत को उठाने वाला। मुरली मनोहर = सुंदर बाँसुरी वाला। रंगा = अनोकें रंग करिश्मे तमाशे।1। अर्थ: हे कर्तार! तू अविनाशी है, तू पारब्रहम है, तू परमेश्वर है, तू अंतरजामी है। हे स्वामी! मधुसूदन और दामोदर भी तू ही है। हे हरि! तू ही ऋषिकेश गोवर्धन और मनोहर मुरलीवाला है। तू अनेक रंग-तमाशे कर रहा है।1। मोहन माधव क्रिस्न मुरारे ॥ जगदीसुर हरि जीउ असुर संघारे ॥ जगजीवन अबिनासी ठाकुर घट घट वासी है संगा ॥२॥ पद्अर्थ: मोहन = मन को मोह लेने वाला। माधव = (माया का धव) माया का पति। मुरारे = मुर दैत्य का वैरी, परमात्मा। जगदीसुर = जगत का ईश्वर। असुर संघारे = दैत्यों का नाश करने वाला। जग जीवन = जगत का जीवन आसरा। घट घट वासी = सब शरीरों में बसने वाला। संगा = संगि, साथ।2। अर्थ: हे हरि जीउ! मेहन, माधव, कृष्ण मुरारी तू ही है। तू ही है जगत का मालिक, तू ही दैत्यों का नाश करने वाला। हे जगजीवन! हे अविनाशी ठाकुर! तू सब शरीरों में मौजूद है, तू सबके साथ बसता है।2। धरणीधर ईस नरसिंघ नाराइण ॥ दाड़ा अग्रे प्रिथमि धराइण ॥ बावन रूपु कीआ तुधु करते सभ ही सेती है चंगा ॥३॥ पद्अर्थ: धरणी धर = धरती का हिस्सा। ईस = ईश, मालिक। नाराइण = (नार = जल। अयन = घर) जिसका घर पानी (समुंदर) में है। दाड़ा अग्रे = दाड़ों के ऊपर। प्रिथमि = धरती। धराइण = उठाने वाला। बावन रूपु = वामन (वउणा) अवतार। करते = हे कर्तार! सेती = साथ।3। अर्थ: हे धरती के आसरे! हे ईश्वर! तू ही है नरसिंह अवतार, तू है विष्णू जिसका निवास समुंदर में है। (वराह अवतार धार के) धरती को अपनी दाड़ों पर उठाने वाला भी तू ही है। हे कर्तार! (राजा बलि को छलने के लिए) तूने ही वामन-रूप धारण किया था। तू सब जीवों के साथ बसता है, (फिर भी तू सबसे) उत्तम है।3। स्री रामचंद जिसु रूपु न रेखिआ ॥ बनवाली चक्रपाणि दरसि अनूपिआ ॥ सहस नेत्र मूरति है सहसा इकु दाता सभ है मंगा ॥४॥ पद्अर्थ: रेखिआ = चक्र चिन्ह। बनवाली = बन है माला जिस की। चक्रपाणि = (पाणि = हाथ) जिसके हाथ में (सुदर्शन) चक्र है। दरसि अनूपिआ = उपमा रहित दर्शन वाला। सहस नेत्र = हजारों आँखों वाला। सहसा = हजारों। मंगा = माँगने वाला।4। अर्थ: हे प्रभु! तू वह श्री रामचंद्र है जिसका ना कोई रूप है ना रेख। तू ही है बनवाली और सुदर्शन चक्रधारी। तू बेमिसाल अलोकिक स्वरूप वाला है। तेरे हजारों नेत्र हैं, तेरी हजारों मूर्तियाँ हैं। तू ही अकेला दाता है, सारी दुनिया तुझसे माँगने वाली है।4। भगति वछलु अनाथह नाथे ॥ गोपी नाथु सगल है साथे ॥ बासुदेव निरंजन दाते बरनि न साकउ गुण अंगा ॥५॥ पद्अर्थ: भगति वडलु = भक्ति को प्यार करने वाला। अनथह नाथे = हे अनाथों के नाथ! गोपी नाथ = गोपियों के नाथ। बासुदेव = वासुदेव का। निरंजनु = (निर+अंजन) माया के मोह की कालिख से रहित। दाते = हे दातार! साकउ = सकूँ। बरनि न साकउ = मैं बयान नहीं कर सकता।5। अर्थ: हे अनाथों के नाथ! तू भक्ति को प्यार करने वाला है! तू ही गोपियों का नाथ है। तू सब जीवों के साथ रहने वाला है। हे वासुदेव! हे निर्लिप दातार! मैं तेरे अनेक गुण बयान नहीं कर सकता।5। मुकंद मनोहर लखमी नाराइण ॥ द्रोपती लजा निवारि उधारण ॥ कमलाकंत करहि कंतूहल अनद बिनोदी निहसंगा ॥६॥ पद्अर्थ: मुकंद = (मुकंदाति इति) मुक्ति देने वाला। लखमी नाराइण = लक्ष्मी का पति नारायण। निवारि = बेइज्जती से बचा के। उधारण = बचाने वाला। कमला कंत = हे माया के पति! करहि = तू करता है। कंतूहल = करिश्मे तमाशे। बिनोदी = आनंद लेने वाला। निसंगा = निर्लिप।6। अर्थ: हे मुक्ति के दाते! हे सुंदर प्रभु! हे लक्ष्मी के पति नारायण! हे द्रोपदी को बेइज्जती से बचा के उसकी इज्जत रखने वाले! हे लक्ष्मी के पति! तू अनेक करिश्मे करता है। तू सारे आनंद लेने वाला है, और निर्लिप भी है।6। अमोघ दरसन आजूनी स्मभउ ॥ अकाल मूरति जिसु कदे नाही खउ ॥ अबिनासी अबिगत अगोचर सभु किछु तुझ ही है लगा ॥७॥ पद्अर्थ: अमोघ = फल देने वाला, कभी खाली ना जाने वाला। आजूनी = जूनियों से रहित। संभउ = (स्वयंभु) अपने आप से प्रकट होने वाला। अकाल मूरति = जिसकी हस्ती काल से रहित है। खउ = क्षय, नाश। अबगत = (अव्यक्त) अदृष्ट। अगोचर = हे ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच से परे रहने वाले! लगा = आसरे।7। अर्थ: हे फल देने से कभी ना उकताने वाले दर्शनों वाले प्रभु! हे जूनि-रहित प्रभु! हे अपने आप से प्रकाश करने वाले प्रभु! हे मौत-रहित स्वरूप वाले! हे (ऐसे) प्रभु जिसका कभी नाश नहीं हो सकता! हे अविनाशी! हे अदृष्ट! हे अगोचर! (जगत की) हरेक चीज़ तेरे ही आसरे है।7। स्रीरंग बैकुंठ के वासी ॥ मछु कछु कूरमु आगिआ अउतरासी ॥ केसव चलत करहि निराले कीता लोड़हि सो होइगा ॥८॥ पद्अर्थ: स्री रंग = श्री रंग, हे लक्ष्मी के पति! कूरमु = कछुआ। आगिआ = तेरी आज्ञा में। अउतरासी = अवतार लिया। केसव = (केशा: प्रशस्या: सन्ति अस्य) हे सुंदर लंबे केशों वाले! निराले = अनोखे। कीता लोड़हि = (जो कुछ) तू करना चाहता है।8। अर्थ: हे लक्ष्मी के पति! हे बैकुंठ के रहने वाले! मछ और कछुए (आदि) का तेरी ही आज्ञा में अवतार हुआ। हे सुंदर लंबे केशों वाले! तू (सदा) अनोखे करिश्मे करता है। जो कुछ तू करना चाहता है वही अवश्य होता है।8। निराहारी निरवैरु समाइआ ॥ धारि खेलु चतुरभुजु कहाइआ ॥ सावल सुंदर रूप बणावहि बेणु सुनत सभ मोहैगा ॥९॥ पद्अर्थ: निराहरी = निर+आहारी, (आहार = खुराक), अन्न के बिना जीवित रहने वाला। समाइआ = सब में व्यापक। धारि = धार के, रच के। खेलु = जगत तमाशा। चतुरभुज = चार बाँहों वाला, ब्रहमा। सावल = साँवले रंग वाला। बणावहि = तू बनाता है। बेणु = बाँसुरी। सुनत = सुनते हुए। सभ = सारी सृष्टि।9। अर्थ: हे प्रभु! तू अन्न खाए बिना जीवित रहने वाला है, तेरा किसी के साथ वैर नहीं, तू सबमें व्यापक है। ये जगत-खेल रच के (तूने ही अपने आप को) ब्रहमा कहलवाया है। हे प्रभु! (कृष्ण जैसे) अनेक साँवले-सुंदर रूप तू बनाता रहता है। तेरी बाँसुरी सुनते ही सारी सृष्टि मोहित हो जाती है।9। बनमाला बिभूखन कमल नैन ॥ सुंदर कुंडल मुकट बैन ॥ संख चक्र गदा है धारी महा सारथी सतसंगा ॥१०॥ पद्अर्थ: बनमाला = पैरों तक लटकने वाली जंगली फूलों की माला, वैजयंती माला। बिभूखन = आभूषण, गहने। नैन = आँखें। बैन = बेन, बाँसुरी। गदा = गुरज। सारथी = रथवाही (कृष्ण अरजुन के रथवाह बना)।10। अर्थ: हे प्रभु! सारी सृष्टि की वनस्पति तेरे आभूषण हैं। हे कमल-पुष्प जैसी आँखों वाले! हे सुंदर कुण्डलों वाले! हे मुकट धारी! हे बाँसुरी वाले! हे शँखधारी! हे चक्रधारी! हे गदाधारी! तू सत्संगियों का सबसे बड़ा सारथी (रथवाह, नेता) है।10। पीत पीत्मबर त्रिभवण धणी ॥ जगंनाथु गोपालु मुखि भणी ॥ सारिंगधर भगवान बीठुला मै गणत न आवै सरबंगा ॥११॥ पद्अर्थ: पीत = पीला। पीतंबर = पीले वस्त्रों वाला (कृष्ण)। धणी = मालिक। मुखि = मुँह से। भणी = मैं उचारता हूँ। सारंगिधर = धनुषधारी। बीठुला = (विष्ठल, बीठल) माया के प्रभाव से परे रहने वाला। सरबंगा = सरब अंगा, सारे गुण।11। अर्थ: हे पीले वस्त्रों वाले! हे तीनों भवनों के मालिक! तू ही सारे जगत का नाथ है, सृष्टि का पालनहार है। मैं (अपने) मुँह से (तेरा नाम) उचारता हूँ। हे धर्नुधारी! हे भगवान! हे माया के प्रभाव से परे रहने वाले! मुझसे तेरे सारे गुण बयान नहीं हो सकते।11। निहकंटकु निहकेवलु कहीऐ ॥ धनंजै जलि थलि है महीऐ ॥ मिरत लोक पइआल समीपत असथिर थानु जिसु है अभगा ॥१२॥ पद्अर्थ: निहकंटकु = (कंटक = काँटा, वैरी) जिसका कोई वैरी नहीं। निहकेवलु = वासना रहित। कहीऐ = कहा जाता है। धंनजै = (धनंजय। सर्वान् जनपदान् जित्वा, विक्तमादाय केवलं॥ मध्ये धनस्य तिष्ठामि, तेनाहुर्मां धनंजय: ॥) सारे जगत के धन को जीतने वाला। जलि = जल में। थलि = थल में। महीऐ = धरती पर (मही = धरती)। मिरत लोक = मातृ लोक। पइआल = पाताल। समीपत = नजदीक। असथित = सदा कायम रहने वाला। अभगा = अटूट।12। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का कोई वैरी नहीं है, उसको वासना-रहित कहा जाता है वही (सारे जगत के धन को जीतने वाला) धनंजय है। वह जल में है थल में है धरती पर (हर जगह) है। मातृ लोक में, पाताल में (सब जीवों के) नजदीक है। उसकी जगह हमेशा कायम रहने वाली है, कभी टूटने वाली नहीं।12। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |