श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सचु कमावै सोई काजी ॥ जो दिलु सोधै सोई हाजी ॥ सो मुला मलऊन निवारै सो दरवेसु जिसु सिफति धरा ॥६॥

पद्अर्थ: सचु = सदा कायम रहने वाले ख़ुदा की याद। सोधै = सोधता है, पड़तालता है पवित्र रखता है। हाजी = मक्के का हज करने वाला, हज के मौक पर मक्के का दर्शन करने वाला। मलऊन = विकारों को। निवारै = दूर करता है। जिसु धरा = जिस का आसरा।6।

अर्थ: हे ख़ुदा के बँदे! जो मनुष्य सदा कायम रहने वाले अल्लाह की बंदगी करता है वह है (असल) काज़ी। जो मनुष्य अपने दिल को पवित्र रखने का प्रयत्न करता रहता है वही है (असल) हज करने वाला। जो मनुष्य (अपने अंदर से) विकारों को दूर करता है वह (असल) मुल्ला है। जिस मनुष्य को ख़ुदा की महिमा का सहारा है वह (असल) फ़कीर।6।

सभे वखत सभे करि वेला ॥ खालकु यादि दिलै महि मउला ॥ तसबी यादि करहु दस मरदनु सुंनति सीलु बंधानि बरा ॥७॥

पद्अर्थ: वखत = वक्त (शब्द ‘वक़त’ इस्लामी शब्द है, और ‘वेला’ व ‘बेला’ हिन्दका शब्द है)। खालकु = सृष्टि को पैदा करने वाला। दस मरदनु = दसों (इन्द्रियों) को जीत लेने वाला रब, दसों इन्द्रियों को वश में करा देने वाला अल्लाह। सीलु = अच्छा स्वभाव। बंधानि = परहेज़, विकारों से संकोच। बरा = श्रेष्ठ।7।

अर्थ: हे ख़ुदा के बँदे! हर वक्त हर समय ख़ालक को मौला को अपने दिल में याद करता रह। हर वक्त ख़ुदा को याद करते रहो- यही है तसब्बी। वह ख़ुदा दसों इन्द्रियों को वश में ला सकता है। हे ख़ुदा के बँदे! अच्छा स्वभाव और (विकारों से) मज़बूती से परहेज़ ही सुन्नत (समझ)।7।

दिल महि जानहु सभ फिलहाला ॥ खिलखाना बिरादर हमू जंजाला ॥ मीर मलक उमरे फानाइआ एक मुकाम खुदाइ दरा ॥८॥

पद्अर्थ: सभ = सारी श्रेष्ठ। फिलहाला = नाशवान, चंद रोजा। बिरादर = हे भाई! खिलखाना = परिवार, घराना, कुटुम्ब। हमू = सारा। मीर = शाह। उमरे = अमीर लोग। फानाइआ = नाशवान, फनाह होने वाले। मुकाम = कायम रहने वाला।8।

अर्थ: हे अल्लाह के बँदे! सारी रचना का अपने दिल में नाशवान जान। हे भाई! ये घराना/कुटुम्ब (परिवार आदि) का मोह सब बंधन (में फसाने वाले ही) हैं। शाह, पातशाह, अमीर लोक सब नाशवान हैं। सिर्फ ख़ुदा का दर ही सदा कायम रहने वाला है।8।

अवलि सिफति दूजी साबूरी ॥ तीजै हलेमी चउथै खैरी ॥ पंजवै पंजे इकतु मुकामै एहि पंजि वखत तेरे अपरपरा ॥९॥

पद्अर्थ: अवलि = (निमाज़ का) पहला (वक्त)। दूजी = दूसरी (निमाज़)। साबूरी = संतोख। तीजै = (निमाज़ के) तीसरे (वक्त)। हलेमी = निम्रता। चउथै = चौथे (वक्त) में। खैरी = सबका भला माँगना। पंजे = (कामादिक) पाँच ही। इकतु = एक में। इकतु मुकामै = एक ही जगह में, वश में (रखने)। एहि = वे। वखत = निमाज़ के वक्त। अपर परा = परे से परे, बहुत बढ़िया।9।

नोट: ‘एहि’ है ‘इह/यह’ का बहुवचन।

अर्थ: हे ख़ुदा के बँदे! (तेरी उम्र के) ये पाँच वक्त तेरे वास्ते बड़े ही लाभदायक हो सकते हैं (अगर तू) पहले वक्त में रब की महिमा करता रहे, अगर संतोष तेरी दूसरी निमाज़ हो, निमाज़ के तीसरे वक्त में तू विनम्रता धारण करे, और चौथे वक्त में तू सबका भला माँगे, अगर पाँचवें वक्त में तू कामादिक पाँचों को ही वश में रखे (भाव, रब की महिमा, संतोष, विनम्रता, सबका भला माँगना और कामादिक पाँचों को वश में रखना- ये पाँच हैं आत्मिक जीवन की पाँच निमाज़ें, और ये जीवन को बहुत ऊँचा करती हैं)।9।

सगली जानि करहु मउदीफा ॥ बद अमल छोडि करहु हथि कूजा ॥ खुदाइ एकु बुझि देवहु बांगां बुरगू बरखुरदार खरा ॥१०॥

पद्अर्थ: सगली = सारी (सृष्टि) में। सउफीदा = वज़ीफा, इस्लामी श्रद्धा अनुसार सदा जारी रखने वाला एक पाठ। बद अमल = बुरे काम। हथि = हाथ में। कूजा = कूज़ा, लोटा, असतावा। बुझि = समझ के। बुरगू = सिंगी जो मुसलमान फकीर बजाते हैं। बरखुरदार = भला बच्चा। खरा = अच्छा।10।

अर्थ: हे अल्ला के बँदे! सारी सृष्टि में एक ही ख़ुदा को बसता जान- इसको तू हर वक्त अपना रूहानी सलाम का पाठ बनाए रख। बुरे काम करने छोड़ दे- ये पानी का लोटा तू अपने हाथ में पकड़ (शरीर की स्वच्छता के लिए)। ये यकीन बना कि सारी सृष्टि का एक ही ख़ुदा है; ये बाँग सदा दिया कर। हे फकीर सांई! ख़ुदा अच्छा पुत्र बनने का प्रयत्न किया कर-ये सिंज्ञीं बजाया कर।10।

हकु हलालु बखोरहु खाणा ॥ दिल दरीआउ धोवहु मैलाणा ॥ पीरु पछाणै भिसती सोई अजराईलु न दोज ठरा ॥११॥

पद्अर्थ: हकु = हक की कमाई, अपनी नेक मेहनत से कमाई हुई माया। बखोरहु = खाओ। मैलाणा = विकारों की मैल। पीरु = गुरु, राहबर। भिसती = बहिश्त का हकदार। दोज = दोज़क (में)। ठरा = ठेलता, फेंकता।11।

अर्थ: हे ख़ुदा के बँदे! हक की कमाई करा कर- ये है ‘हलाल’, ये खाना खाया कर। (दिल में से भेद भाव निकाल के) दिल को दरिया बनाने का प्रयत्न कर, (इस तरह) दिल की (विकारों की) मैल धोया कर।

हे अल्लाह के बँदे! जो मनुष्य अपने गुरु-पीर (के हुक्म) को पहचानता है, वह बहिश्त का हकदार बन जाता है, अज़राइल उसको दोज़क में नहीं फैंकता।11।

काइआ किरदार अउरत यकीना ॥ रंग तमासे माणि हकीना ॥ नापाक पाकु करि हदूरि हदीसा साबत सूरति दसतार सिरा ॥१२॥

पद्अर्थ: काइआ = शरीर। किरदार = अमल, अच्छे बुरे काम। अउरत = स्त्री। अउरत यकीना = पतिव्रता स्त्री। हकीना = हक के, रब के मिलाप के। नापाक = अपवित्र। पाकु = पवित्र। हदीस = पैग़ंबरी पुस्तक जिसको कुरान के बाद दूसरा दर्जा दिया जाता है, इसमें इस्लामी शरह की हिदायत है। हदूरि हदीसा = हजूरी हदीस, रूहानी शरह की किताब। साबत सूरति = (सुन्नत, लबें काटने आदि की शरह ना कर के) शरीर को ज्यों का त्यों रखना। दसतार सिरा = सिर पर दस्तार (का कारण बनती है), इज्जत आदर का साधन है।12।

अर्थ: हे ख़ुदा के बँदे! अपने इस शरीर को, जिसके द्वारा सदा अच्छे-बुरे काम किए जाते हैं अपनी वफ़ादार औरत (पतिव्रता स्त्री) बना, (और, विकारों के रंग-तमाशों में डूबने की जगह, इस पतिव्रता स्त्री के माध्यम से) रूब के मिलाप के रंग-तमाशे भोगा कर। हे अल्ला के बँदे! (विकारों में) मलीन हो रहे मन को पवित्र करने का प्रयत्न कर- यही है रूब के मिलाप पैदा करने वाली शरह की किताब। (सुन्नत, लबें कटाने आदि की शरह छोड़ के) अपनी शकल को ज्यों का त्यों रख- यह (लोक-परलोक में) इज्जत-सम्मान प्राप्त करने का साधन बन जाता है।12।

मुसलमाणु मोम दिलि होवै ॥ अंतर की मलु दिल ते धोवै ॥ दुनीआ रंग न आवै नेड़ै जिउ कुसम पाटु घिउ पाकु हरा ॥१३॥

पद्अर्थ: दिलि = दिल वाला। मोम दिलि = मोम जैसे (नर्म) दिल वाला। अंतर की = अंदर की। ते = से। कुसम = फूल। पाटु = रेशम। पाकु = पवित्र। हरा = (हारिण) हिरन की खाल, मृग छाला।13।

अर्थ: हे ख़ुदा के बँदे! (असल) मुसलमान वह है जो मोम जैसे नर्म दिल वाला होता है और जो अपने दिल के अंदरूनी (विकारों की) मैल धो देता है। (वह मुसलमान) दुनियावी रंग-तमाशों के नजदीक नहीं फटकता (जो इस तरह पवित्र रहता है) जैसे फूल रेशम घी और मृगछाला पवित्र (रहते हैं)।13।

जा कउ मिहर मिहर मिहरवाना ॥ सोई मरदु मरदु मरदाना ॥ सोई सेखु मसाइकु हाजी सो बंदा जिसु नजरि नरा ॥१४॥

पद्अर्थ: मरदाना = सूरमा। सेखु = शेख। नरा = नरहर, परमात्मा।14।

अर्थ: हे ख़ुदा के बँदे! जिस मनुष्य पर मेहरवान (मौला) की हर वक्त मेहर रहती है, (विकारों के मुकाबले पर) वही मनुष्य सूरमा मर्द (साबित होता) है। वही है (असल) शेख मसाइक और हाज़ी, वही है (असल) ख़ुदा का बँदा जिस पर ख़ुदा की मेहर की निगाह रहती है।14।

कुदरति कादर करण करीमा ॥ सिफति मुहबति अथाह रहीमा ॥ हकु हुकमु सचु खुदाइआ बुझि नानक बंदि खलास तरा ॥१५॥३॥१२॥

पद्अर्थ: कुदरति कादर = कादर की कुदरत को, कर्तार की रची रचना को। करण करीमा = करीम के करण को, बख्शिंद प्रभु के रचे जगत को। रहीम = रहम करने वाला रब। मुहबति = प्यार। हकु = सदा कायम रहने वाले परमात्मा के नाम को। बुझि = समझ के। बंदि = माया के मोह के बंधन। तरा = तैर जाते हैं15।

अर्थ: हे नानक! (कह:) हे ख़ुदा के बँदे! कादर की कुदरति को, बख्शिंद मालिक के रचे हुए जगत को, बेअंत गहरे रहिम-दिल ख़ुदा की मुहब्बत और महिमा को, सदा कायम रहने वाले प्रभु के हुक्म को, सदा कायम रहने वाले ख़ुदा को समझ के माया के मोह के बंधनो से मुक्ति मिल जाती है, और, संसार-समुंदर से पार लांघा जाता है।15।3।12।

मारू महला ५ ॥ पारब्रहम सभ ऊच बिराजे ॥ आपे थापि उथापे साजे ॥ प्रभ की सरणि गहत सुखु पाईऐ किछु भउ न विआपै बाल का ॥१॥

पद्अर्थ: सभ ऊच = सबसे ऊँचा। बिराजे = टिका हुआ हैं आपे = आप ही। थापि = पैदा करके। उथापे = नाश करता है। साजे = साजता है, बनाता है। गहत = पकड़ते हुए। पाईऐ = पाते हैं। न विआपै = जोर नहीं डाल सकता। बाल = बाला, माया।1।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा सबसे ऊँचे (आत्मिक) ठिकाने पर टिका रहता है, वह खुद ही (सबको) पैदा करके आप ही नाश करता है, वह स्वयं ही रचना रचता है। हे भाई! उस परमात्मा का आसरा लेने से आत्मिक आनंद प्राप्त हुआ रहता है, माया के मोह का डर तिल मात्र भी अपना जोर नहीं डाल सकता।1।

गरभ अगनि महि जिनहि उबारिआ ॥ रकत किरम महि नही संघारिआ ॥ अपना सिमरनु दे प्रतिपालिआ ओहु सगल घटा का मालका ॥२॥

पद्अर्थ: जिनहि = जिनि ही, जिस ने। उबारिआ = बचाया। रकत = रक्त, लहू। किरम = कीड़े। नही संघारिआ = नहीं मरने दिया। दे = दे के। प्रतिपालिआ = रक्षा की। घट = शरीर।2।

नोट: ‘जिनहि’ में से ‘जिनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा ने (जीवों को) माँ की पेट की आग में बचाए रखा, जिसने माँ का लहू के कृमियों के बीच (जीव को) मरने ना दिया उसने (तब) अपने (नाम का) स्मरण दे के रक्षा की। हे भाई! वह प्रभु सारे जीवों का मालिक है।2।

चरण कमल सरणाई आइआ ॥ साधसंगि है हरि जसु गाइआ ॥ जनम मरण सभि दूख निवारे जपि हरि हरि भउ नही काल का ॥३॥

पद्अर्थ: चरण कमल = कमल फूल जैसे सुंदर चरण। साध संगि = साधु-संगत में। जसु = महिमा। सभि = सारे। जनम मरन सभि दूख = जनम से मरने तक के सारे दुख, सारी उम्र के दुख। निवारे = दूर करता है। कालु = मौत, आत्मिक मौत।3।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य प्रभु के सोहणें चरणों की शरण में आ जाता है, जो मनुष्य साधु-संगत में (रह के) परमात्मा की महिमा करता है, परमात्मा उसके सारी उम्र के दुख दूर कर देता है। परमात्मा का नाम जप-जप के उसको (आत्मिक) मौत का डर नहीं रह जाता।3।

समरथ अकथ अगोचर देवा ॥ जीअ जंत सभि ता की सेवा ॥ अंडज जेरज सेतज उतभुज बहु परकारी पालका ॥४॥

पद्अर्थ: समरथ = सब ताकतों का मालिक। अकथ = जिसके स्वरूप का बयान ना किया जा सके। अगोचर = (अ+गो+चर) ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच से परे। सेवा = प्रकाश रूप। सभि = सारे। ता की = उस (परमात्मा की)। सेवा = शरण। अंडज = अंड+ज, अण्डे से पैदा होने वाले। उतभुज = (उद्भिज्ज = sprouting, germinating as a plant) धरती में से उगने वाले। बहु परकारी = अनेक तरीके से।4।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा सब ताकतों का मालिक है, उसका स्वरूप सही तरह से बयान नहीं किया जा सकता, वह ज्ञान-इन्द्रियों की पहुँच से परे है, वह नूर ही नूर है। सारे जीव-जंतुओं को उसी का ही आसरा है। हे भाई! अंडज-जेरज-सेतज-उत्भुज -इन चारों ही खाणियों के जीवों को वह कई तरीकों से पालने वाला है।4।

तिसहि परापति होइ निधाना ॥ राम नाम रसु अंतरि माना ॥ करु गहि लीने अंध कूप ते विरले केई सालका ॥५॥

पद्अर्थ: तिसहि = उसको ही। निधाना = खजाना। रसु = आनंद, स्वाद। माना = माणता है। करु = हाथ (एकवचन)। गहि = पकड़ के। कूप = कूआँ। अंध कूप ते = अंधे कूएँ से। सालका = संत।5।

नोट: ‘तिसहि’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

अर्थ: हे भाई! उस-उस मनुष्य को ही (नाम का) खजाना मिलता है, वही मनुष्य परमात्मा के नाम का आनंद अपने अंदर उठाते हैं, जिनको (उनका) हाथ पकड़ कर (परमातमा माया के मोह के) अंधे कूएँ में से निकाल लेता है। पर, हे भाई! ऐसे कोई विरले ही संत होते हैं।5।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh