श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 1085 आदि अंति मधि प्रभु सोई ॥ आपे करता करे सु होई ॥ भ्रमु भउ मिटिआ साधसंग ते दालिद न कोई घालका ॥६॥ पद्अर्थ: आदि = शुरू में। मधि = बीच, अब। अंति = (रचना के) अंत में। आपे = आप ही। भ्रमु = भटकना। साध संग ते = साधु-संगत से। दालिद = दरिद्र, गरीबी, दुख। घालका = नाश करने वाला, आत्मिक मौत लाने वाला।6। नोट: ‘गुोपाला’ में अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘गोपाला’, यहां ‘गुपाला’ पढ़ना है। अर्थ: हे भाई! साधु-संगत की इनायत से जिस मनुष्यों की हरेक भटकना, जिनका हरेक डर दूर हो जाता है, कोई भी दुख-कष्ट उनकी आत्मिक मौत नहीं ला सकते, उन्हें (जगत के) आदि में, अब, और आखिर में (कायम रहने वाला) वह परमात्मा ही दिखता है, (उनको निश्चय होता है कि) कर्तार स्वयं ही जो कुछ करता है वही होता है।6। ऊतम बाणी गाउ गुोपाला ॥ साधसंगति की मंगहु रवाला ॥ बासन मेटि निबासन होईऐ कलमल सगले जालका ॥७॥ पद्अर्थ: रवाला = चरण धूल। बासना = वासना। मेटि = मिटा के। निबासन = वासना रहित। होईऐ = हो जाते हैं। कलमल = पाप। सगले = सारे। जालका = जला लेते।7। अर्थ: हे भाई! जीवन को ऊँचा करने वाली महिमा की वाणी गाया करो, (हर वक्त) साधु-संगत की चरण-धूल माँगा करो, (इस तरह अपने अंदर की) सारी वासनाएं मिटा के वासना-रहित हो जाया जाता है, और अपने सारे पाप जला लिए जाते हैं।7। संता की इह रीति निराली ॥ पारब्रहमु करि देखहि नाली ॥ सासि सासि आराधनि हरि हरि किउ सिमरत कीजै आलका ॥८॥ पद्अर्थ: रीति = मर्यादा, जीवन चाल। निराली = अलग। करि = कर के, समझ के। नाली = (अपने) साथ ही। देखहि = देखते हैं (बहुवचन)। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। किउ कीजै = क्यों किया जाए? नहीं करना चाहिए। आलका = आलस, ढील।8। अर्थ: हे भाई! संत जनों की (दुनियां के लोगों से) ये अलग ही जीवन चाह है, कि वह परमात्मा को (सदा अपने) साथ ही बसता देखते हैं। हे भाई! संत जन हरेक सांस के साथ परमात्मा की आराधना करते रहते हैं (वे जानते हैं कि) परमात्मा का नाम स्मरण करने से कभी आलस नहीं करना चाहिए।8। जह देखा तह अंतरजामी ॥ निमख न विसरहु प्रभ मेरे सुआमी ॥ सिमरि सिमरि जीवहि तेरे दासा बनि जलि पूरन थालका ॥९॥ पद्अर्थ: जह = जहाँ। देखा = देखूँ, मैं देखता हूँ। अंतरजामी = हे सबके दिल की जानने वाले! निमख = (निमेश) आँख झपकने जितना समय। प्रभ = हे प्रभु! सिमरि = स्मरण करके। जीवहि = जीते हैं, आत्मिक जीवन हासिल करते हैं। बनि = जंगल में। जलि = जल में। थालका = थल में। पूरन = विआपक।9। अर्थ: हे हरेक के दिल की जानने वाले! मैं जिधर देखता हूँ, उधर (मुझे तू ही दिखता है)। हे मेरे मालिक प्रभु! (मेहर कर, मुझे) आँख झपकनें जितने समय के लिए भी ना बिसर। हे प्रभु! तेरे दास तुझे स्मरण कर-कर के आत्मिक जीवन हासिल करते रहते हैं। हे प्रभु! तू जंगल में जल में थल में (हर जगह बसता है)।9। तती वाउ न ता कउ लागै ॥ सिमरत नामु अनदिनु जागै ॥ अनद बिनोद करे हरि सिमरनु तिसु माइआ संगि न तालका ॥१०॥ पद्अर्थ: वाउ = हवा। तती वाउ = गरम हवा, थोड़ा सा भी दुख। ता कउ = उस (मनुष्य) को। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। जागै = जागता रहता है, (विकारों के हमलों से) सचेत रहता है। अनद बिनोद = आत्मिक आनंद खुशियां। संगि = साथ। तालका = तालुक, मेल जोल।10। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करते हुए हर वक्त (विकारों के हमलों से) सुचेत रहता है, उसको रक्ती भर भी कोई दुख नहीं पोह सकता। वह मनुष्य (ज्यों-ज्यों) परमात्मा के नाम का स्मरण करता है (त्यों-त्यों) आत्मिक आनंद पाता है, उसका माया के साथ गहरा संबंध नहीं बनता।10। रोग सोग दूख तिसु नाही ॥ साधसंगि हरि कीरतनु गाही ॥ आपणा नामु देहि प्रभ प्रीतम सुणि बेनंती खालका ॥११॥ पद्अर्थ: तिसु = उस (मनुष्य) को। गाही = गाहि, गाते हैं। साधसंगि = साधु-संगत में। प्रभ = हे प्रभु! खालका = हे ख़ालक! हे सृष्टि के पैदा करने वाले!।11। अर्थ: हे भाई! उस उस मनुष्य को कोई रोग-सोग दुख छू नहीं सकते, जो गुरु की संगति में टिक के परमात्मा की महिमा के गीत गाते रहते हैं। हे प्रीतम प्रभु! हे सृष्टि के पैदा करने वाले! (मेरी भी) विनती सुन, (मुझे भी) अपना नाम दे।11। नाम रतनु तेरा है पिआरे ॥ रंगि रते तेरै दास अपारे ॥ तेरै रंगि रते तुधु जेहे विरले केई भालका ॥१२॥ पद्अर्थ: पिआरे = हे प्यारे! रतनु = बहुत कीमती पदार्थ। तेरै रंगि = तेरे प्यार रंग में रंगे हुए। अपारे = हे बेअंत! जेहे = जैसे। भालका = ढूँढते हैं।12। अर्थ: हे प्यारे! तेरा नाम बहुत ही कीमती पदार्थ है। हे बेअंत प्रभु! तेरे दास तेरे प्रेम-रंग में रंगे रहते हैं। हे प्रभु जो मनुष्य तेरे प्रेम-रंग में रंगे रहते हैं, वे तेरे जैसे ही हो जाते हैं। पर ऐसे बंदे बहुत विरले मिलते हैं।12। तिन की धूड़ि मांगै मनु मेरा ॥ जिन विसरहि नाही काहू बेरा ॥ तिन कै संगि परम पदु पाई सदा संगी हरि नालका ॥१३॥ पद्अर्थ: मांगै = माँगता है। (नोट: यहाँ मात्रा ‘ं’ प्रयोग की गई है। शीर्षक के शब्द ‘महला’ के साथ बरते हुए अंक १,२,३,४,५,९ को कैसे पढ़ना है; इस बारे सारे गुरु ग्रंथ साहिब जी में तीन-चार बार ही हिदायत दी गई है। बाकी हरेक जगह उसी हिदायत को बरतना है कि इन अंको को पहिला, दूजा, तीजा, चौथा, पंजवां, नौवां पढ़ना है। इसी तरह ‘ं’ की प्रयोग भी बहुत कम जगहों पर किया गया है, सिर्फ हिदायत मात्र ही। आवश्यक्ता अनुसार और जगहों पर भी पाठ करने के वक्त ये ‘ं’ मात्रा लगा के पढ़नी है)। काहू बेरा = किसी भी वक्त। विसरहि = तू बिसरता। कै संगि = की संगति में परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। पाई = मैं पा सकूँ। संगी = साथी। नालका = साथ।13। अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्यों को तू किसी भी वक्त भूलता नहीं, मेरा मन उनके चरणों की धूल माँगता है। हे भाई! (ऐसे) उन मनुष्यों की संगति में मैं भी (उस प्रभु की मेहर से) ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर सकूँगा, और परमात्मा (मेरा) सदा साथी बना रहेगा।13। साजनु मीतु पिआरा सोई ॥ एकु द्रिड़ाए दुरमति खोई ॥ कामु क्रोधु अहंकारु तजाए तिसु जन कउ उपदेसु निरमालका ॥१४॥ पद्अर्थ: सोई = वही मनुष्य। द्रिढ़ाए = (हृदय में) पक्का कर दे। दुरमति = खोटी मति। खोई = दूर कर के। तजाए = छुड़ा दे। कउ = को। निरमालका = पवित्र करने वाला।14। अर्थ: हे भाई! वही मनुष्य मेरा प्यारा सज्जन है, मित्र है, जो मेरी खोटी मति दूर कर के (मेरे हृदय में) एक (परमात्मा की याद) को पक्का कर दे, जो मुझमें से काम क्रोध अहंकार (को) हटा दे। हे भाई! उस मनुष्य को ऐसा उपदेश (उठता है जो सुनने वालों को) पवित्र कर देता है।14। तुधु विणु नाही कोई मेरा ॥ गुरि पकड़ाए प्रभ के पैरा ॥ हउ बलिहारी सतिगुर पूरे जिनि खंडिआ भरमु अनालका ॥१५॥ पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। हउ = मैं। जिनि = जिस (गुरु) ने। खंडिआ = नाश कर दिया। अनालका = अनल, हवा, झक्खड़ (विकारों का तूफान)।15। अर्थ: हे प्रभु! तेरे बिना मेरा कोई (सहारा) नहीं है। हे भाई! गुरु ने मुझे प्रभु के पैर पकड़ाए हैं। मैं पूरे गुरु के सदके जाता हूँ जिसने मेरी भटकना नाश की है, जिसने विकारों के तूफान को थाम लिया है।15। सासि सासि प्रभु बिसरै नाही ॥ आठ पहर हरि हरि कउ धिआई ॥ नानक संत तेरै रंगि राते तू समरथु वडालका ॥१६॥४॥१३॥ पद्अर्थ: सासि सासि = हरेक सांस के साथ। धिआई = मैं ध्याऊँ। नानक = हे नानक! राते = रंगे हुए। वडालका = बड़ा। समरथु = सारी ताकतों का मालिक।16। अर्थ: हे भाई! (अगर प्रभु की मेहर हो तो) मैं आठों पहर प्रभु का ध्यान धरता रहूँ, हरेक सांस के साथ (उसको स्मरण करता रहूँ, मुझे किसी भी वक्त वह) भूले ना। हे नानक! (कह: हे प्रभु!) तू सब ताकतों का मालिक है, तू सबसे बड़ा है, तेरे संत तेरे प्रेम-रंग में सदा रंगे रहते हैं।16।4।13। मारू महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ चरन कमल हिरदै नित धारी ॥ गुरु पूरा खिनु खिनु नमसकारी ॥ तनु मनु अरपि धरी सभु आगै जग महि नामु सुहावणा ॥१॥ पद्अर्थ: हिरदै = हृदय में। नित = सदा। धारी = धारण की, मैं टिकाए रखूँ। खिनु खिनु = हरेक छिन। नमसकारी = मैं नमस्कार करता रहूँ। अरपि = भेटा करके। सभु = सब कुछ। धरी आगै = (गुरु के) आगे रख दूँ। सुहावणा = सोहाना (बनाता है)।1। अर्थ: हे भाई! (अगर प्रभु मेहर करे तो) मैं (गुरु के) सुंदर चरण सदा (अपने) हृदय में टिकाए रखूँ, पूरे गुरु को हरेक छिन नमस्कार करता रहूँ, अपना तन अपना मन सब कुछ (गुरु के) आगे भेटा करके रख दूँ (क्योंकि गुरु से ही परमात्मा का नाम मिलता है, और) नाम ही जगत में (जीव को) सुंदर बनाता है।1। सो ठाकुरु किउ मनहु विसारे ॥ जीउ पिंडु दे साजि सवारे ॥ सासि गरासि समाले करता कीता अपणा पावणा ॥२॥ पद्अर्थ: मनहु = मन से। विसारे = तू विचाराता है। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। दे = दे के। साजि = पैदा करके। सवारे = सुंदर बनाता है। सासि = साँस के साथ। गिरासि = ग्रास के साथ। समाले = संभाल, याद रख। करता = कर्तार को। कीता = की हुई कमाई।2। अर्थ: हे भाई! तू उस मालिक प्रभु को (अपने) मन से क्यों भुलाता है, जो जिंद दे के शरीर दे के पैदा करके सुंदर बनाता है? हरेक साँस के साथ ग्रास के साथ (खाते हुए साँस लेते हुए) कर्तार को अपने हृदय में संभाल के रख। अपनी ही की हुई कमाई का फल मिलता है।2। जा ते बिरथा कोऊ नाही ॥ आठ पहर हरि रखु मन माही ॥ साधसंगि भजु अचुत सुआमी दरगह सोभा पावणा ॥३॥ पद्अर्थ: जा ते = इस (परमात्मा के दर) से। बिरथा = खाली। माही = में। संगि = संगति में। अचुत = अविनाशी, नाश ना होने वाला। सोभा = इज्जत।2। अर्थ: हे भाई! जिस (कर्तार के दर) से कभी कोई ख़ाली नहीं मुड़ता, उसको आठों पहर संभाल के रख। उस अविनाशी मालिक प्रभु का नाम गुरु की संगति में (रह के) जपा कर। प्रभु की हजूरी में (इस तरह) इज्जत मिलती है।3। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |