श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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चारि पदारथ असट दसा सिधि ॥ नामु निधानु सहज सुखु नउ निधि ॥ सरब कलिआण जे मन महि चाहहि मिलि साधू सुआमी रावणा ॥४॥

पद्अर्थ: चारि पदारथ = धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष = चार पदार्थ। असट दसा = आठ और दस, अठारह। सिधि = सिद्धियाँ। निधानु = खजाना। सहज सुखु = आत्मिक अडोलता का आनंद। नउ निधि = (दुनिया के सारे) नौ खजाने। सरब = सारे। कलिआण = सुख। चाहहि = तू चाहता है। मिलि साधू = गुरु को मिल के। रावणा = स्मरणा चाहिए।4।

अर्थ: हे भाई! अगर तू चार पदार्थ चाहता है, अगर तू अठारह सिद्धियों की अभिलाषा रखता है, यदि तुझे दुनियां के नौ निधियाँ (नौ खजाने) चाहिए, यदि तुझे सारे सुख चाहिए, तो गुरु को मिल के मालिक-प्रभु का स्मरण किया कर। ये हरि-नाम ही (असल) खजाना है, ये नाम ही आत्मिक अडोलता का सुख है, ये नाम ही चार-पदार्थ अठारह सिद्धियाँ और नौ निधियाँ हैं।4।

सासत सिम्रिति बेद वखाणी ॥ जनमु पदारथु जीतु पराणी ॥ कामु क्रोधु निंदा परहरीऐ हरि रसना नानक गावणा ॥५॥

पद्अर्थ: वखाणी = कहा है कि। पराणी = हे प्राणी! परहरीऐ = दूर किया जा सकता है। रसना = जीभ (से)। नानक = हे नानक!।5।

अर्थ: हे नानक! (कह:) हे प्राणी! शास्त्रों ने, स्मृतियों ने, वेदों ने कहा है कि अपने कीमती मानव जनम को सफल कर। (पर ये सफल तब ही हो सकता है यदि) जीभ से परमात्मा की महिमा गाई जाए। महिमा की इनायत से ही काम छोड़ा जा सकता है, क्रोध त्यागा जा सकता है निंदा तजी जा सकती है (और इन विकारों को त्यागने में ही जनम की सफलता है)।5।

जिसु रूपु न रेखिआ कुलु नही जाती ॥ पूरन पूरि रहिआ दिनु राती ॥ जो जो जपै सोई वडभागी बहुड़ि न जोनी पावणा ॥६॥

पद्अर्थ: रेखिआ = रेखा चित्र, चक्र चिन्ह। जाती = जाति। पूरन = सर्व व्यापक। सोई = वही मनुष्य। वडभागी = बड़े भाग्यों वाला। बहुड़ि = दोबारा, फिर।6।

नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा का (क्या) रूप, रेख, कुल और जाति (है– ये बात) बताई नहीं जा सकती, जो परमात्मा दिन-रात हर वक्त सब जगह मौजूद है, उस परमात्मा का नाम जो जो मनुष्य जपता है वह बहुत भाग्यशाली बन जाता है, वह मनुष्य बार-बार जूनियों में नहीं पड़ता।6।

जिस नो बिसरै पुरखु बिधाता ॥ जलता फिरै रहै नित ताता ॥ अकिरतघणै कउ रखै न कोई नरक घोर महि पावणा ॥७॥

पद्अर्थ: बिधाता = विधाता। पुरखु = सर्व व्यापक प्रभु। जलता = जलता। ताता = गरम, क्रोध में। कउ = को। घोर = भयानक।7।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को सर्व-व्यापक बिसरा रहता है, वह सदा (विकारों में) जलता फिरता है, वह सदा (क्रोध से) जला भुजा रहता है। परमात्मा के किए उपकारों को भुलाने वाले उस मनुष्य को (इस बुरी आत्मिक दशा से) कोई बचा नहीं सकता। वह मनुष्य (सदा इस) भयानक नर्क में पड़ा रहता है।7।

जीउ प्राण तनु धनु जिनि साजिआ ॥ मात गरभ महि राखि निवाजिआ ॥ तिस सिउ प्रीति छाडि अन राता काहू सिरै न लावणा ॥८॥

पद्अर्थ: जीउ = जिंद। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। साजिआ = बनाया। मात = माँ। राखि = रख के, रक्षा कर के। निवाजिआ = मेहरबानी की। छाडि = छोड़ के। अन = अन्य, और (ही पदार्थों के मोह में)। राता = रति हुआ, मस्त। काहू सिरै = किसी (काम के) सिरे पर। काहू....लावणा = किसी काम में सफलता नहीं होती।8।

अर्थ: हे नानक! जिस परमात्मा ने जिंद दी, प्राण दिए, शरीर बनाया, धन दिया, माँ के पेट में रक्षा करके बड़ी दया की, जो मनुष्य उस परमात्मा का प्यार छोड़ के और ही पदार्थों के मोह में मस्त रहता है, वह मनुष्य किसी तरफ भी सिरे नहीं चढ़ता।8।

धारि अनुग्रहु सुआमी मेरे ॥ घटि घटि वसहि सभन कै नेरे ॥ हाथि हमारै कछूऐ नाही जिसु जणाइहि तिसै जणावणा ॥९॥

पद्अर्थ: अनुग्रहु = मेहर, कृपा (पुलिंग)। सुआमी = हे स्वामी! घटि घटि = हरेक घट में। वसहि = तू बसता है। हाथि = हाथ में, वश में। कछूऐ = कुछ भी। जणाइहि = तू समझ बख्शता है।9।

अर्थ: हे मेरे मालिक प्रभु! (हम जीवों पर) दया किए रख, तू हरेक शरीर में बसता है, तू सब जीवों के नजदीक बसता है। हम जीवों के बस में कुछ भी नहीं है। जिस मनुष्य को तू (आत्मिक जीवन की) समझ बख्शता है, वही मनुष्य यह समझ हासिल करता है।9।

जा कै मसतकि धुरि लिखि पाइआ ॥ तिस ही पुरख न विआपै माइआ ॥ नानक दास सदा सरणाई दूसर लवै न लावणा ॥१०॥

पद्अर्थ: मसतकि = माथे पर। कै मसतकि = के माथे पर। धुरि = धुर से, परमात्मा की ओर से ही। लिखि = लिख के। न विआपै = जोर नहीं डाल सकती। नानक = हे नानक! दास = (बहुवचन) परमात्मा के भक्त। लवै न लावणा = नजदीक नहीं लगाते, बराबर के नहीं समझते।10।

नोट: ‘तिस ही’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) धुर हजूरी में से जिस मनुष्य के माथे पर (प्रभु ने अच्छे भाग्यों के लेख) लिख दिए होते हैं, सिर्फ उस मनुष्य पर ही माया अपना जोर नहीं डाल सकती। हे भाई! परमात्मा के भक्त सदा परमात्मा की शरण पड़े रहते हैं, वे किसी और को परमात्मा के बराबर का नहीं समझते।10।

आगिआ दूख सूख सभि कीने ॥ अम्रित नामु बिरलै ही चीने ॥ ता की कीमति कहणु न जाई जत कत ओही समावणा ॥११॥

पद्अर्थ: आगिआ = हुक्म में। सभि = सारे। अंम्रित नामु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। बिरलै ही = किसी विरले ने ही। चीने = पहचाना है। ता की = उस (परमातमा) की। जत कत = हर जगह। ओही = वह परमात्मा ही।11।

अर्थ: हे भाई! (जगत के) सारे दुख सारे सुख (परमात्मा ने अपने) हुक्म में (आप ही) बनाए हैं। (इन दुखों से बचने के लिए) किसी विरले मनुष्य ने ही आत्मिक जीवन देने वाले हरि-नाम के साथ सांझ डाली है। हे भाई! उस परमात्मा का मूल्य नहीं बताया जा सकता (वह परमात्मा किसी दुनियावी पदार्थ के बदले में नहीं मिलता, वैसे) हर जगह वह स्वयं ही समाया हुआ है।11।

सोई भगतु सोई वड दाता ॥ सोई पूरन पुरखु बिधाता ॥ बाल सहाई सोई तेरा जो तेरै मनि भावणा ॥१२॥

पद्अर्थ: सोई = वह (परमात्मा स्वयं) ही। भगतु = भक्ति करने वाला। बिधाता = विधाता, निर्माता। बाल सहाई = बाल उम्र बचपन से ही साथी। सहाई = सखा, मित्र, साथी। तेरै मनि = (हे प्रभु!) तेरे मन में। भावणा = अच्छा लगा है।12।

अर्थ: हे भाई! वह परमात्मा आप ही (अपने सेवक में बैठा अपनी) भक्ति करने वाला है, वह स्वयं ही सबसे बड़ा दातार है, वह स्वयं ही सबमें व्यापक विधाता है। हे प्रभु! जो (तेरा भक्त) तेरे मन में (तुझे) प्यारा लगता है, वही तेरा बाल सखा है (वही तुझे इस तरह प्यारा है जैसे कोई छोटी उम्र से एक साथ रहने वाले बालक एक-दूसरे को सारी उम्र प्यार करने वाले होते हैं)।12।

मिरतु दूख सूख लिखि पाए ॥ तिलु नही बधहि घटहि न घटाए ॥ सोई होइ जि करते भावै कहि कै आपु वञावणा ॥१३॥

पद्अर्थ: मिरतु = मौत, मृत्यु। लिखि = (हरेक जीव के भाग्यों में) लिख के। तिलु = रक्ती भर भी। बधहि = बढ़ते (बहुवचन)। होइ = होता है। करते भावै = कर्तार को अच्छा लगता है। कहि कै = कह के। आपु = अपने आप को। वञावणा = गवाना होता है।13।

अर्थ: हे भाई! मौत दुख-सुख कर्तार ने स्वयं ही (जीवों के लेखों में) लिख के रख दिए हैं। ना ये बढ़ाने से तिल मात्र बढ़ते हैं, ना ही कम करने से कम होते हैं। हे भाई! जो कुछ कर्तार को अच्छा लगता है वही होता है। (यह) कह के (कि हम अपने आप कुछ कर सकते हैं) अपने आप को दुखी ही करना होता है।13।

अंध कूप ते सेई काढे ॥ जनम जनम के टूटे गांढे ॥ किरपा धारि रखे करि अपुने मिलि साधू गोबिंदु धिआवणा ॥१४॥

पद्अर्थ: अंध कूप = (माया के मोह का) घोर अंधेरा भरा कूआँ। ते = से। सेई = वही (मनुष्य) (बहुवचन)। धारि = धार के, कर के। करि = बना के। मिलि साधू = गुरु को मिल के।14।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा कृपा करके जिस मनुष्यों को अपना बना लेता है, जो मनुष्य गुरु को मिल के परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं, उनको ही परमात्मा माया के मोह के घोर अंधकार भरे कूएँ में से निकाल लेता है, और, कई जन्मों के (अपने से) टूटे हुओं को (दोबारा अपने साथ) जोड़ लेता है।14।

तेरी कीमति कहणु न जाई ॥ अचरज रूपु वडी वडिआई ॥ भगति दानु मंगै जनु तेरा नानक बलि बलि जावणा ॥१५॥१॥१४॥२२॥२४॥२॥१४॥६२॥

पद्अर्थ: दानु = ख़ैर। जनु = दास। नानक = हे नानक! बलि बलि = सदके।15।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु!) तेरा मूल्य नहीं पाया जा सकता। तेरा स्वरूप हैरान कर देने वाला है और तेरी बड़ाई बड़ी है। तेरा सेवक (तेरे दर से) तेरी भक्ति की ख़ैर माँगता है, और तुझसे सदके जाता है कुर्बान जाता है।15।1।14।22।24।2।14।62।

अंकों का वेरवा:
सोलहे महला १----------------22
सोलहे महला ३----------------24
सोलहे महला ४----------------02
सोलहे महला ५----------------14
कुल जोड़-----------------------62


मारू वार महला ३

पउड़ी वार भाव:

गुरु से मिले ज्ञान से भ्रम मोह लोभ अहंकार का गढ़ टूट जाता है और प्रभु का नाम बस जाता है।

जो मनुष्य गुरु के सन्मुख हो के ‘नाम’ कमाता है, वह संसार सागर की लहरों में पड़ के दुखी नहीं होता।

चाहे ये सांसारिक माया, साथ नहीं निभती, मनमुख इसमें भूल जाता है। बचते वे हैं जो गुरु की मेहर से नाम-रस चखते हैं।

जो गुरु की शरण पड़ कर गुरु-शब्द के द्वारा ‘नाम’ में जुड़ते हैं, वे लोक-परलोक सँवार लेते हैं।

जिन्होंने गुरु-शब्द से नाम-रस चखा है उनको मायावी रस छू नहीं सकते, उनकी तृष्णा-भूख मिट जाती है।

दुनिया वाले भूपति राजे एक तो दुख ही दुख सहेड़ते हैं, दूसरा इस राज को जाते हुए देर नहीं लगती। असल राजा तो वो हैं जिन्होंने प्रभु को पहचाना है।

उनके पास ‘नाम’ एक एैसा पदार्थ है जिसका मूल्य नहीं आँका जा सकता; इस अमूल्य धन की इनायत से उनका हृदय सदा खिला रहता है।

जिन्होंने गुरु की मेहर से -‘नाम’ जप के मन को जीता है वे असल सूरमे हैं, उन्होंने सारे जगत को जीत लिया है।

वे सूरमे नहीं हैं, जो अहंकारी हो के माया की खातिर लड़ मरते हैं। वे तो जनम व्यर्थ ही गवा गए। रब को अहंकार अच्छा नहीं लगता।

मन के साथ लड़ने वाले, और, अहंकारी हो के माया की खातिर दूसरों के साथ लड़ने वाले- ये दोनों पक्ष प्रभु ने स्व्यं ही बनाए हैं। सुखी वह हैं जो गुरु के सन्मुख हो के ‘नाम’ जपते हैं।

धन पदार्थ के गुमान में आ के विकार करने वाले दुखी हैं क्योंकि जगत में असल दुख एक ही है, वह है मौत का डर, और ये मौत का डर धनी और विकारियों को हर वक्त सहम में डाले रखता है।

मौत का डर मनमुख को ही दबाता है क्योंकि वह माया के मोह में फंसा रहता है; डरता है कि कहीं मौत आ कर इस माया से विछोड़ ना दे।

जो माया को सच्चा साथी जान के माया की खातिर भटकते रहे, उनकी सारी मेहनत निहफल गई। पर जिनको गुरु के सन्मुख हो के समझ आ गई, उन्होंने ‘नाम’ स्मरण किया, उनके अंदर रब का प्यार उपजा।

जिन्होंने गुरु-शब्द द्वारा अपने आप को खोजा वे प्रभु के गुण गाते हैं और ‘नाम’ में लीन होते हैं।

जगत में प्रभु का ‘नाम’ ही ऐसा खजाना है जो साथ निभता है कभी खत्म नहीं होता, इसकी इनायत से मौत का डर दूर हो जाता है, इस धन वाले ही असल शाह हैं।

प्रभु के ‘नाम’ के बिना मनुष्य कभी तृप्त नहीं होता भले ही इसके पास कितना ही धन क्यों ना हो, इस धन के होते हुए भी कंगाल ही है।

यह ‘नाम’-धन मनुष्य के अंदर ही है, गुरु के शब्द द्वारा ये समझ पड़ती है। जब ‘नाम’ स्मरण करता है इसका अहंकार दूर होता है और नाम-रस से अघा जाता है।

प्रभु-पातशाह मनुष्य के अंदर ही हृदय-तख्त पर बैठा हुआ है, पर उसके महल का दर गुरु के माध्यम से मिलता है। हरेक के अंदर बैठा ही खोटे-खरे की परख किए जा रहा है।

पर मनमुख अपना अंदर नहीं तलाशता, तृष्णा का मारा हुआ बाहर भटकता है। गुरु-दर पर पड़ने से ये समझ आ जाती है कि ‘नाम’ जपने से ही इस तृष्णा से मुक्ति मिलती है।

प्रभु का ‘नाम’ ही पापों की मैल उतार के अंदर ठंडक कर देता है। चिन्ता और मोह दूर हो जाते हैं।

प्रभु अपनी रजा के अनुसार ही मेहर करके गुरु मिलाता है और स्मरण में जोड़ता है।

प्रभु, मालिक तो सब जीवों का है; पर गुरु-चरणों में जोड़ के जिसको ‘नाम’ में लगाता है वही लगता है। उसी के नचाए सारे जीव नाचते हैं।

संक्षेप भाव:

माया चाहे साथ नहीं निभती, फिर भी मनुष्य इसमें भूला रहता है, भ्रम मोह अहंकार आदि के किले में कैद रहता है, तृष्णा आदि की लहरों में गोते खाता रहता है। जब गुरु की शिक्षा पर चल कर ये ‘नाम’ जपता है तो ये किला टूट जाता है, तृष्णा की लहरें समाप्त हो जाती हैं क्योंकि फिर इसे मायावी रस प्रभावित नहीं कर सकते। (1 से 5)

प्रभु ने जगत दो तरह का रचा है; एक है दुनिया के भूपति राजे और शूरवीर, दूसरे हैं ‘नाम’ के धनी और अपने मन को जीतने वाले। दुनिया की पातशाही चार दिनों की ही है, और जब तक है तब तक भी दुख ही दुख, फिर, हर वक्त सहम और मौत का डर कि कहीं जल्दी ही इस धन से विछोड़ा ना हो जाए।

जिनके पास नाम-धन है, जिन्होंने अपना मन जीत लिया है वही सुखी हैं, बेमुथाज हैं, सदा खिले रहते हैं। (6 से 12)

‘नाम’ ही ऐसा धन है जो सदा साथ निभता है, इसकी इनायत से मौत का डर नहीं रहता, नाम-धन वाले ही असल शाह हैं।

दुनियावी धन भले ही कितना ही हो, फिर भी मनुष्य का मन कंगाल ही कंगाल; सो, निरी माया की खातिर की हुई मेहनत निहफल ही जाती है। (13 से 16)

ये नाम-धन हरेक मनुष्य के अंदर ही है; प्रभु-पातशाह हरेक के हृदय में बैठा ही देख रहा है कि गलत दिशा में जा के दुखी कौन हो रहा है और सही दिशा में चल कर सुखी कौन है। पर, मनमुख अपने अंदर नहीं झाँकता, बाहर ही भटकता और दुखी होता है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर ‘नाम’ जपता है उसका अहंकार दूर होता है उसके पाप नाश होते हैं और उसके अंदर ठंड पैदा होती है। (17 से 20)

प्रभु स्वयं ही सबका मालिक है, उसी के नचाए सारे नाचते हैं। गुरु से मेल भी उसकी अपनी मेहर से ही होता है। जिसको प्रभु स्वयं गुरु चरणों में जोड़ता है वही ‘नाम’ जपता है। (21, 22)

वार की संरचना:

‘वार’ की 22 पउड़ियां हैं, इनके साथ 47 शलोक हैं। शलोकों का वेरवा:

महला ३----------------23
महला १----------------18
महला ४----------------03
महला ५----------------02
महला २----------------01
कुल: -------------------47

सिर्फ निम्न-लिखित पौड़ियों के साथ सारे शलोक गुरु अमरदास जी (महला ३) के हैं जिनके द्वारा लिखी गई ये वार है: 4, 7, 9, 10, 11, 16, 17, 18, 22 कुल 9 पौड़ियां।

निम्न-लिखित पौड़ियों के साथ सिर्फ एक-एक श्लोक महले तीजे का है: 1, 3, 6, 8, 19 कुल: 5 पौड़ियां।

19 पौडियों के साथ दो-दो श्लोक हैं और निम्न-लिखित पौड़ियों के साथ तीन-तीन श्लोक हैं: 2, 13, 14।

हरेक पौड़ी की पाँच-पाँच तुकें हैं, सिर्फ आखिरी पौड़ी की 6 तुकें हैं।

सारी ‘वार’ में सिर्फ 8 पौड़ियाँ ऐसी हैं जिनके साथ गुरु अमरदास जी का कोई श्लोक नहीं है; पहली ही पौड़ी के साथ आपका कोई श्लोक नहीं।

आखिरी पौड़ी के अलावा, सारी पौड़िओं की एक जितनी ही तुकें, सारी पौड़ियों के विषय-वस्तु (मजमून) की भी एक ही लड़ी; ये दोनों बातें साबित करती हैं कि ‘वार’ गुरु अमरदास जी ने एक ही समय पर उचारण की।

सिर्फ 9 पौड़ियों के साथ गुरु अमरदास जी के सारे शलोक; 5 पौड़ियों के साथ उनका एक-एक शलोक; 8 पौड़ियों के साथ उनका कोई भी शलोक नहीं; पहली ही पौड़ी के साथ उनके किसी भी शलोक का ना होना; ये सारी बातें साबित करती हैं कि गुरु अमरदास जी के शलोक किसी और मौके के उचारे हुए हैं, ‘वार’ के साथ उन्होंने स्वयं दर्ज नहीं किए। मूल ‘वार’ सिर्फ ‘पउड़ियों’ में ही थी। सो, जो टीकाकार पउड़ी नं: 10 की पहली तुक ‘दोवै तरफा उपाईओनु’ पर ये नोट लिखता है ‘गुरमुखा वाला और मनमुखा वाला राह, जिनको शलोक में कौआ और हंस कहा है’ गलती खा रहा है, क्योंकि पौड़ियों के साथ ये शलोक तो गुरु अरजन देव जी ने दर्ज किए थे। फिर यह ‘दोवै तरफा’ कौन से हैं? इसका उक्तर ढूँढने के लिए देखें पौड़ी नंबर: 6, 7, 8 और 9;

नंबर 6 – दुनिया के ‘भूपति राजे’।

नंबर 9 – ‘सूरे’ जो ‘अहंकार मरहि’।

नंबर 7 – जिनके पास ‘हरि का नामु अमोलु है’।

नंबर 8 – ‘से सूरे परधाना’ जो ‘लूझहि मनै सिउ’।

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सलोकु मः १ ॥

विणु गाहक गुणु वेचीऐ तउ गुणु सहघो जाइ ॥ गुण का गाहकु जे मिलै तउ गुणु लाख विकाइ ॥ गुण ते गुण मिलि पाईऐ जे सतिगुर माहि समाइ ॥ मुोलि अमुोलु न पाईऐ वणजि न लीजै हाटि ॥ नानक पूरा तोलु है कबहु न होवै घाटि ॥१॥

पद्अर्थ: सहघो = सस्ता (‘महिघा’ और ‘सहघा = महंगा और सस्ता)। लाख = लाखों रुपए, भाव बड़ी कीमत से। गुण ते = गुणों से, प्रभु के गुण गाने से। गुण मिलि = गुणों में मिल के, प्रभु के गुणों में मिलने से, प्रभु की महिमा में मन जोड़ने से। पाईऐ = पाते हैं, मिलता है, (‘नाम’) मिलता है।

नोट: ‘पाईअै’ शब्द ‘एकवचन’ है, इसका ‘बहुवचन’ है ‘पाईअहि’; शब्द ‘गुण’ भी बहुवचन है, इसका ‘एकवचन’ हुआ ‘गुणु’; सो ‘पाईअै’ का अर्थ करना ‘गुण मिलते हैं’ गलत है।

नोट: कई टीकाकार ‘पउड़ी’ में शब्द ‘गिआनु’ देख के इस श्लोक में भी ‘पाईअै’ के साथ शब्द ‘गिआनु’ जोड़ते हैं, ये भी गलत है। ‘वार’ की पउड़ी अपनी जगह पर है और ये शलोक अपनी जगह पर, फिर, ये शलोक है भी गुरु नानक देव जी का और ‘पउड़ी’ है गुरु अमरदास जी की।

नोट: मुोलि, (असल पाठ ‘मुलि’ है यहाँ पढ़ना है ‘मोलि’) (किसी) मूल्य से, किसी कीमत से। अमुोलु, (असल पाठ ‘अमुलु’, यहाँ पढ़ना है ‘अमोलु’) अमोलक।

वणजि = खरीद के। हाटि = हाट से। तोलु = (‘नाम’ के) बराबर की चीज। पूरा = मुकम्मल, कभी कम ज्यादा ना होने वाला।

अर्थ: अगर कोई गाहक ना हो और (कोई) गुण (भाव, कोई कीमती पदार्थ) बेचें तो वह गुण सस्ते भाव में बिक जाता है, (भाव, उसकी कद्र नहीं पड़ती)। पर, यदि गुण का गाहक मिल जाए तो वह बहुत कीमती बिकता है।

(पर अगर कोई कद्र जानने वाला मनुष्य) गुरु में ‘स्वै’ लीन कर दे, तो प्रभु के गुण गाने से, प्रभु की महिमा में जुड़ने से (प्रभु का ‘नाम’-रूपी कीमती पदार्थ) मिलता है। ‘नाम’ बहुमूल्य पदार्थ है, किसी कीमत से नहीं मिल सकता, किसी दुकान से खरीदा नहीं जा सकता। हे नानक! (‘नाम’ के मूल्य का) तोल तो बँधा हुआ है, वह कभी कम नहीं हो सकता (भाव, ‘अपने आप को गुरु में लीन करना’- ये बँधा हुआ मूल्य है, और इससे कम कोई उद्यम ‘नाम’ की प्राप्ति के लिए काफी नहीं है)।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh