श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 1087 मः ४ ॥ नाम विहूणे भरमसहि आवहि जावहि नीत ॥ इकि बांधे इकि ढीलिआ इकि सुखीए हरि प्रीति ॥ नानक सचा मंनि लै सचु करणी सचु रीति ॥२॥ अर्थ: जो मनुष्य ‘नाम’ से टूटे हुए हैं वह भटकते हैं (भटकना के कारण) नित्य पैदा होते मरते हैं (भाव, ‘वासना’ पूरी करने के लिए जनम-मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं); सो, कई जीव (इन ‘वासनाओं’ से) बंधे हुए हैं, कईयों ने बंधन कुछ ढीले कर लिए हैं और कई प्रभु के प्यार में रह के (बिल्कुल) सुखी हो गए हैं। हे नानक! जो मनुष्य सदा स्थिर परमात्मा को अपने मन में पक्का कर लेता है, सदा-स्थिर नाम उसके लिए करने-योग्य काम है सदा-स्थिर नाम ही उसकी जीवन-जुगति हो जाता है।2। पउड़ी ॥ गुर ते गिआनु पाइआ अति खड़गु करारा ॥ दूजा भ्रमु गड़ु कटिआ मोहु लोभु अहंकारा ॥ हरि का नामु मनि वसिआ गुर सबदि वीचारा ॥ सच संजमि मति ऊतमा हरि लगा पिआरा ॥ सभु सचो सचु वरतदा सचु सिरजणहारा ॥१॥ अर्थ: (ज्ञान, मानो) बहुत ही तेजधार खड़ग है, यह ज्ञान गुरु से मिलता है, (जिसको मिला है उसका) माया की खातिर भटकना, मोह, लोभ, अहंकार-रूप किला (जिसमें वह घिरा हुआ था, इस ज्ञान-खड़ग से) काटा जाता है; गुरु के शब्द में तवज्जो जोड़ने से उसके मन में परमात्मा का नाम बस जाता है। स्मरण के संजम से उसकी मति उत्तम हो जाती है, ईश्वर उसको प्यारा लगने लग जाता है; (आखिर उसकी ये हालत हो जाती है कि) सदा-स्थिर विधाता उसको हर जगह बसता दिखता है।1। सलोकु मः ३ ॥ केदारा रागा विचि जाणीऐ भाई सबदे करे पिआरु ॥ सतसंगति सिउ मिलदो रहै सचे धरे पिआरु ॥ विचहु मलु कटे आपणी कुला का करे उधारु ॥ गुणा की रासि संग्रहै अवगण कढै विडारि ॥ नानक मिलिआ सो जाणीऐ गुरू न छोडै आपणा दूजै न धरे पिआरु ॥१॥ पद्अर्थ: रासि = पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत। संग्रहै = इकट्ठी करे। विडारि = मार के। अर्थ: हे भाई! केदारा राग को (और बाकी के) रागों में तभी जानो (भाव, केदारा राग की उपमा तभी करनी चाहिए, यदि इसे गाने वाला) गुरु के शब्द में प्यार करने लग जाए, अंदर से अपनी मैल भी काटे और अपनी कुलों का भी उद्धार कर ले, गुणों की पूंजी इकट्ठी करे और अवगुणों को मार के निकाल दे। हे नानक! (केदारा राग से रब में) जुड़ा हुआ उसे समझो जो कभी भी अपने गुरु का आसरा ना छोड़े और माया में मोह ना डाले।1। मः ४ ॥ सागरु देखउ डरि मरउ भै तेरै डरु नाहि ॥ गुर कै सबदि संतोखीआ नानक बिगसा नाइ ॥२॥ पद्अर्थ: भै तेरै = तेरे डर से, तेरे भय में रहने से। बिगसा = मैं विगसता हूँ, खिलता हूँ। नाइ = नाम से। अर्थ: (हे प्रभु!) जब मैं (इस संसार-) समुंदर को देखता हूँ तो डर के मारे सहम जाता हूँ (कि कैसे इसमें से बच के पार होऊँगा, पर) तेरे डर में रहने से (इस संसार-समुंदर का कोई) डर नहीं रह जाता; क्योंकि, हे नानक! गुरु के शब्द से मैं संतोख वाला बन रहा हूँ और प्रभु के नाम से मैं खिलता हूँ।2। मः ४ ॥ चड़ि बोहिथै चालसउ सागरु लहरी देइ ॥ ठाक न सचै बोहिथै जे गुरु धीरक देइ ॥ तितु दरि जाइ उतारीआ गुरु दिसै सावधानु ॥ नानक नदरी पाईऐ दरगह चलै मानु ॥३॥ पद्अर्थ: बोहिथ = जहाज। लहरी = लहरें। ठाक = रोक। सावधानु = सचेत, तत्पर (स+अवधान = ध्यान सहित, ध्यान करने वाला) नोट: ‘लहरी’ है ‘लहरि’ का बहुवचन। अर्थ: (संसार-) समुंदर (तो विकारों की लहरों से) ठाठा मार रहा है पर मैं (गुरु-शब्द-रूप) जहाज में चढ़ के (इस समुंदर में से) पार हो जाऊँगा। अगर सतिगुरु हौसला दे तो इस सच्चे जहाज में चढ़ने से (यात्रा में) कोई रोक (कोई मुश्किल) नहीं आएगी। मुझे अपना गुरु सावधान दिखाई दे रहा है (मेरा दृढ़ निश्चय है कि गुरु मुझे) उस (प्रभु के) दर पर जा उतारेगा। हे नानक! (ये गुरु का शब्द जहाज) प्रभु की मेहर से मिलता है (इसकी इनायत से) प्रभु की हजूरी में आदर मिलता है।3। पउड़ी ॥ निहकंटक राजु भुंचि तू गुरमुखि सचु कमाई ॥ सचै तखति बैठा निआउ करि सतसंगति मेलि मिलाई ॥ सचा उपदेसु हरि जापणा हरि सिउ बणि आई ॥ ऐथै सुखदाता मनि वसै अंति होइ सखाई ॥ हरि सिउ प्रीति ऊपजी गुरि सोझी पाई ॥२॥ पद्अर्थ: निहकंटक = जिस में कोई काँटा चुभ ना सके। भुंचि = मान, भोग। सचु कमाई = स्मरण रूप कमाई। गुरि = गुरु ने। अर्थ: (हे भाई!) गुरु के सन्मुख हो के नाम-जपने की कमाई कर (और इस तरह) निहकंटक राज का भोग कर, (क्योंकि) जो प्रभु सदा-स्थिर तख्त पर बैठ कर न्याय कर रहा है वह तुझे सत्संग में मिला देगा, वहाँ नाम-जपने की सच्ची शिक्षा कमाने से तेरी प्रभु से (समीपता) बन आएगी, इस जीवन में सुखदाता प्रभु मन में बसेगा और अंत के समय भी साथी बनेगा। जिस मनुष्य को सतिगुरु ने समझ बख्शी उसका प्रभु के साथ प्यार बन जाता है।2। सलोकु मः १ ॥ भूली भूली मै फिरी पाधरु कहै न कोइ ॥ पूछहु जाइ सिआणिआ दुखु काटै मेरा कोइ ॥ सतिगुरु साचा मनि वसै साजनु उत ही ठाइ ॥ नानक मनु त्रिपतासीऐ सिफती साचै नाइ ॥१॥ पद्अर्थ: भूली भूली = बहुत समय तक विछड़ के भटकती हुई। पाधरु = पधरा रास्ता, सपाट राह। उत ही ठाइ = उसी जगह। त्रिपतासीऐ = तृप्त हो जाता है, भटकने से हट जाता है। नाइ = नाम से। अर्थ: बहुत समय से विछड़ी हुई मैं भटक रही हूँ, मुझे कोई सीधा सपाट रास्ता नहीं बताता, कोई जा के किसी सयाने लोगों से पूछो भला जो कोई मेरा कष्ट काट दे। हे नानक! अगर सच्चा गुरु मन में आ बसे तो सज्जन प्रभु भी उसी जगह (भाव, हृदय में ही मिल जाता है), प्रभु की महिमा करने से और प्रभु का नाम स्मरण करने से मन भटकने से हट जाता है।1। मः ३ ॥ आपे करणी कार आपि आपे करे रजाइ ॥ आपे किस ही बखसि लए आपे कार कमाइ ॥ नानक चानणु गुर मिले दुख बिखु जाली नाइ ॥२॥ पद्अर्थ: करणी = जो करनी चाहिए। किस ही = जिस किसी को। गुर मिले = गुरु को मिलने से। बिखु = विष। नाइ = नाम से। अर्थ: प्रभु अपनी रजा में स्वयं ही करने-योग्य काम करता है, आप ही जीव को बख्शता है आप ही (जिस पर मेहर करे उसमें साक्षात हो के भक्ति की) कार कमाता है। हे नानक! गुरु को मिल के जिसके हृदय में प्रकाश होता है वह ‘नाम’ स्मरण करके विष-रूपी माया से पैदा हुए दुखों को जला देता है।2। पउड़ी ॥ माइआ वेखि न भुलु तू मनमुख मूरखा ॥ चलदिआ नालि न चलई सभु झूठु दरबु लखा ॥ अगिआनी अंधु न बूझई सिर ऊपरि जम खड़गु कलखा ॥ गुर परसादी उबरे जिन हरि रसु चखा ॥ आपि कराए करे आपि आपे हरि रखा ॥३॥ पद्अर्थ: दरबु = धन। लखा = लख, देख। कलखा = कल खा, काल का। जिनि = जिन्होंने। रखा = रक्षक। अर्थ: हे मूर्ख! हे मन के गुलाम! माया को देख के गलती ना कर, यह (यहाँ से) चलने के वक्त किसी के साथ नहीं जाती, सो, सारे धन को झूठा साथी जान। (पर इस माया को देख के) मूर्ख अंधा मनुष्य नहीं समझता कि सिर पर जम की मौत की तलवार भी है (और इस माया से साथ टूटना है)। जिस मनुष्यों ने हरि-नाम का रस चखा है वह गुरु की मेहर से (माया में मोह डालने की गलती से) बच जाते हैं; यह (उद्यम) प्रभु स्वयं ही (जीवों से) करवाता है (जीव में बैठ के, जैसे) खुद ही करता है, खुद ही जीव का रखवाला है।3। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |