श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोकु मः ३ ॥ जिना गुरु नही भेटिआ भै की नाही बिंद ॥ आवणु जावणु दुखु घणा कदे न चूकै चिंद ॥ कापड़ जिवै पछोड़ीऐ घड़ी मुहत घड़ीआलु ॥ नानक सचे नाम बिनु सिरहु न चुकै जंजालु ॥१॥

पद्अर्थ: चिंद = चिन्ता। पछोड़ीऐ = पटड़ै पर पटकाते हैं। जंजाल = झमेला, चिन्ता, शंका।

नोट: ‘भेटिआ’ के बारे में। पिछली पौड़ी के शलोक नं: 2 में ‘गुर मिले’ और यहाँ ‘गुरु भेटिआ’ आया है। दोनों में अंतर देखें। ‘गुर मिले’ में ‘गुर’ का अर्थ है ‘गुरु को’। ‘गुरु भेटिआ’ का अर्थ है ‘गुरु मिला’; शब्द ‘जिना’ साफ बताता है ‘जिन्हें गुरु नहीं मिला’। सो, ‘भेटा ले के मिलने को ‘भेटना’ कहते हैं’; यह अर्थ बिल्कुल ही गलत है क्योंकि गुरु भेटा ले के सिख को नहीं मिलता।

अर्थ: जिनको गुरु नहीं मिला, जिनके अंदर ईश्वर का रक्ती मात्र भी डर नहीं, उन्हें पैदा होने-मरने (का) बहुत दुख लगा रहता है, उनकी चिन्ता कभी समाप्त नहीं होती।

हे नानक! जैसे (धोने के वक्त) कपड़ा (पटड़े पर) पटकाते हैं, जैसे घंटा बार-बार (चोटें खाता है) वैसे ही प्रभु के नाम से वंचित रह के उनके सिर से (भी) शंका समाप्त नहीं होता।1।

मः ३ ॥ त्रिभवण ढूढी सजणा हउमै बुरी जगति ॥ ना झुरु हीअड़े सचु चउ नानक सचो सचु ॥२॥

पद्अर्थ: जगति = जगत में। हीअड़े = हे दिल! नानक हीअड़े = हे नानक के दिल! सचु = सच्चा नाम। चउ = स्मरण कर, उचार।

नोट: ‘हीअड़ा’ से संबोधन ‘हीअड़े’ है, अगर अर्थ करना हो ‘दिल में’ तो ‘हीअड़ै’ शब्द है ‘अधिकरण कारक एकवचन’।

अर्थ: हे सज्जन (प्रभु!) मैंने तीनों ही भवनों में तलाश के देखा है कि जगत में ‘अहंकार’ चंदरी (बला चिपकी हुई) है।

(पर) हे नानक के दिल! (इस ‘अहंकार’ से घबरा के) चिन्ता ना कर, और प्रभु का नाम स्मरण कर जो सदा ही स्थिर रहने वाला है।2।

पउड़ी ॥ गुरमुखि आपे बखसिओनु हरि नामि समाणे ॥ आपे भगती लाइओनु गुर सबदि नीसाणे ॥ सनमुख सदा सोहणे सचै दरि जाणे ॥ ऐथै ओथै मुकति है जिन राम पछाणे ॥ धंनु धंनु से जन जिन हरि सेविआ तिन हउ कुरबाणे ॥४॥

पद्अर्थ: बखसिओनु = बख्शा है उसने। लाइओनु = लगाया है उसने। नीसाण = निशान (माया के प्रभाव से बचाने के लिए लगाया हुआ) निशान।

अर्थ: जो जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है उसको प्रभु खुद ही बख्शता है (भाव, माया के असर से बचाता है; देखें पौड़ी 3), वह मनुष्य प्रभु के नाम में जुड़ते हैं। सतिगुरु के शब्द से (माया के असर से निखेड़ने वाला) निशान लगा के स्वयं ही उसने (गुरमुख को) भक्ति में लगाया है।

जो मनुष्य भक्ति करते हैं उन्हें प्रभु के दर पर आँखें झुकानी नहीं पड़तीं, (क्योंकि भक्ति करने के कारण) उनके मुँह सुंदर लगते हैं, प्रभु के दर से आदर मिलता है।

जिन्होंने परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाली है वे लोक-परलोक में (माया के प्रभाव से) आजाद रहते हैं। भाग्यशाली हैं वह लोग जिन्होंने प्रभु की बंदगी की है, मैं उनसे सदके हूँ।4।

सलोकु मः १ ॥ महल कुचजी मड़वड़ी काली मनहु कसुध ॥ जे गुण होवनि ता पिरु रवै नानक अवगुण मुंध ॥१॥

पद्अर्थ: महल = स्त्री। मढ़ = शरीर। मड़वड़ी = शरीर से प्यार रखने वाली, शरीर के साथ अपने आप को एक समझने वाली। मुंध = स्त्री।

अर्थ: उस (जीव) स्त्री को कोई सलीका (चज) नहीं जो निरा अपने शरीर के साथ प्यार करती है, वह अंदर से काली है, मैली है। हे नानक! (जीव-स्त्री) पति-प्रभु से तभी मिल सकती है अगर (उसके) अंदर गुण हों, (पर दुष्ट) बेसलीके वाली स्त्री के पास हुए तो केवल अवगुण ही।1।

मः १ ॥ साचु सील सचु संजमी सा पूरी परवारि ॥ नानक अहिनिसि सदा भली पिर कै हेति पिआरि ॥२॥

पद्अर्थ: सा = वह स्त्री। परवारि = परिवार में। अहि = दिन। निसि = रात। हेति = हित में। पिआरि = प्यार में।

अर्थ: हे नानक! जो स्त्री पति के हित में रहती है वह दिन-रात हर वक्त अच्छी है, वही अच्छे आचरण वाली और जुगति वाली है, वह परिवार में जानी-मानी है।2।

पउड़ी ॥ आपणा आपु पछाणिआ नामु निधानु पाइआ ॥ किरपा करि कै आपणी गुर सबदि मिलाइआ ॥ गुर की बाणी निरमली हरि रसु पीआइआ ॥ हरि रसु जिनी चाखिआ अन रस ठाकि रहाइआ ॥ हरि रसु पी सदा त्रिपति भए फिरि त्रिसना भुख गवाइआ ॥५॥

अर्थ: जिस मनुष्य ने अपने आत्मिक जीवन को (सदा) पड़ताला है उसको नाम-खजाना मिल जाता है, प्रभु अपनी मेहर करके उसको सतिगुरु के शब्द में जोड़ता है, और, गुरु की पवित्र वाणी के माध्यम से उसको अपने नाम का रस पिलाता है।

जिन्होंने नाम-रस चखा है वे और रसों से बचे रहते हैं (भाव, दुनिया के चस्कों को अपने नजदीक नहीं फटकने देते); नाम-रस पी के वे सदा तृप्त रहते हैं और माया की तृष्णा और भूख का नाश कर लेते हैं।5।

सलोकु मः ३ ॥ पिर खुसीए धन रावीए धन उरि नामु सीगारु ॥ नानक धन आगै खड़ी सोभावंती नारि ॥१॥

पद्अर्थ: उरि = हृदय में। खुसीए = खुशी से। धन = जीव-स्त्री।

अर्थ: जिस जीव-स्त्री के हृदय में ‘नाम’-श्रृंगार है उसको प्रभु-पति खुशी के साथ अपने साथ मिलाता है। हे नानक! जो जीव-स्त्री प्रभु-पति की हजूरी में खड़ी रहती है उसको शोभा मिलती है।1।

मः १ ॥ ससुरै पेईऐ कंत की कंतु अगमु अथाहु ॥ नानक धंनु सुोहागणी जो भावहि वेपरवाह ॥२॥

(नोट: फरीद जी के शलोकों में भी यह भी शलोक नं: 32 पर दर्ज है; पर कई जगह फर्क हैं, पाठक जन स्वयं आमने सामने कर के देख लें)।

नोट: सुोहागणी, (यहाँ ‘स’ के साथ दो मात्राएं हैं पर ‘ु’ लगा के पढ़ना है असल शब्द है ‘सोहागणी’)।

अर्थ: प्रभु-पति अगम्य (पहुँच से परे) है और बहुत गहरा है; जो जीव-सि्त्रयाँ ससुराल और पेके घर (दोनों जगहों पर, भाव लोक परलोक में उस) पति की हो के रहती हैं और (इस तरह) उस बेपरवाह को प्यारी लगती हैं वे भाग्यशाली हैं।2।

पउड़ी ॥ तखति राजा सो बहै जि तखतै लाइक होई ॥ जिनी सचु पछाणिआ सचु राजे सेई ॥ एहि भूपति राजे न आखीअहि दूजै भाइ दुखु होई ॥ कीता किआ सालाहीऐ जिसु जादे बिलम न होई ॥ निहचलु सचा एकु है गुरमुखि बूझै सु निहचलु होई ॥६॥

पद्अर्थ: तखति = तख़्त पर। भूपति = (भू = धरती। पति = मालिक) धरती के मालिक। दूजै भाइ = माया के मोह में। कीता = पैदा किया हुआ। बिलम = विलम्ब, देर।

अर्थ: जो मनुष्य तख्त के लायक होता है वही राजा बन के तख्त पर बैठता है (भाव, जो माया की ‘तृष्णा भूख’ गवा के बेपरवाह हो जाता है वही आदर पाता है); सो, जिन्होंने प्रभु के साथ गहरी सांझ डाल ली है वही असल राजे हैं।

धरती के मालिक बने हुए ये लोग राजे नहीं कहे जा सकते, इनको (एक तो) माया के मोह के कारण सदा दुख मिलता है, (दूसरे) उसे क्या सलाहना जो पैदा किया हुआ है और जिसके नाश होते देर नहीं लगती।

अटल राज वाला एक प्रभु ही है। जो गुरु के सन्मुख हो के ये बात समझ लेता है, वह भी (‘तृष्णा भूख से) अडोल हो जाता है।6।

सलोकु मः ३ ॥ सभना का पिरु एकु है पिर बिनु खाली नाहि ॥ नानक से सोहागणी जि सतिगुर माहि समाहि ॥१॥

अर्थ: सब जीव-स्त्रीयों का पति एक प्रभु है, कोई ऐसी नहीं जिस पर पति ना हो। पर, हे नानक! सोहाग-भाग्य वाली वे हैं जो सतिगुरु में लीन हैं।1।

मः ३ ॥ मन के अधिक तरंग किउ दरि साहिब छुटीऐ ॥ जे राचै सच रंगि गूड़ै रंगि अपार कै ॥ नानक गुर परसादी छुटीऐ जे चितु लगै सचि ॥२॥

अर्थ: (जब तक) मन की कई लहरें हैं (भाव, तृष्णा की कई लहरें मन में उठ रही हैं, तब तक) मालिक की हजूरी में सही स्वीकार नहीं हो सकते। अगर बेअंत प्रभु के गूढ़े प्यार में, सदा स्थिर रहने वाले रंग में मन मस्त रहे, अगर चिक्त सदा-स्थिर प्रभु में जुड़ा रहे, तो, हे नानक! गुरु की मेहर से सुर्ख-रू हुआ जा सकता है।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh