श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1105 राजन कउनु तुमारै आवै ॥ ऐसो भाउ बिदर को देखिओ ओहु गरीबु मोहि भावै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: राजन = हे राजा दुर्योधन! तुमारै = तुम्हारी तरफ। भाउ = प्यार। मोहि = मुझे। भावै = अच्छा लगता है।1। रहाउ। अर्थ: हे राजा (दुर्योधन)! तेरे घर कौन आए? (मुझे तेरे घर आने की उत्सुक्ता ही नहीं हो सकती)। मैंने बिदर का इतना प्रेम देखा है कि वह गरीब (भी) मुझे प्यारा लगता है।1। रहाउ। हसती देखि भरम ते भूला स्री भगवानु न जानिआ ॥ तुमरो दूधु बिदर को पान्हो अम्रितु करि मै मानिआ ॥१॥ पद्अर्थ: हसती = हाथी। भरम ते = भुलेखे से। भूला = ईश्वर को भुला बैठा है। पान्हो = (पान्हो) पानी।1। नोट: 'पानो्' (पान्हो) अक्षर ‘न’ के नीचे आधा ‘ह’ है। अर्थ: तू हाथी (आदि) देख के मान में आ के टूट चुका है, परमात्मा को भुला बैठा है। एक तरफ तेरा दूध है, दूसरी तरफ बिदर का पानी है; ये पानी मुझे अमृत दिखता है।1। खीर समानि सागु मै पाइआ गुन गावत रैनि बिहानी ॥ कबीर को ठाकुरु अनद बिनोदी जाति न काहू की मानी ॥२॥९॥ नोट: कृष्ण जी एक बार हस्तिनापुर गए। राज कौरवों का था। कौरव राज-मद में ये सोचते रहे कि कृष्ण जी हमारे पास ही आएंगे। पर वे अपने गरीब भक्त बिदर के घर चले गए। राजा दुर्योधन ने ये गिला किया। कृष्ण जी ने ये उक्तर दिया कि तुमको अपने राज-पाट का मान है, बिदर भले ही गरीब है, उसके पास रहने से समय भजन-भक्ति में गुजारा है। इस शब्द में कबीर जी कृष्ण जी के दुर्योधन को दिए गए उक्तर का हवाला देते हुए कहते हैं कि प्रभु को किसी का ऊँचा दर्जा व ऊँचा जाति स्वीकार नहीं, उसको प्रेम ही अच्छा लगता है। पद्अर्थ: रैनि = रात। बिनोदी = चोज तमाशे करने वाला, मौज का मालिक। न मानी = नहीं माना, परवाह नहीं करता।2। अर्थ: (बिदर के घर का पकाया हुआ) साग (तेरी रसोई की पकी) खीर जैसा मुझे (मीठा) लगता है, (क्योंकि बिदर के पास रह कर मेरी) रात प्रभु के गुण गाते हुए बीती है। कबीर का मालिक प्रभु आनंद और मौज का मालिक है (जैसे उसने कृष्ण-रूप में आ के किसी ऊँचे मरातबे की परवाह नहीं की, वैसे) वह किसी की ऊँची जाति की परवाह नहीं करता।2।9। शब्द का भाव: परमात्मा प्यार का भूखा है। किसी के ऊँचे दर्जे व ऊँची जाति उसको प्रभावित नहीं कर सकती। सलोक कबीर ॥ गगन दमामा बाजिओ परिओ नीसानै घाउ ॥ खेतु जु मांडिओ सूरमा अब जूझन को दाउ ॥१॥ पद्अर्थ: गगन = आकाश, दसवां द्वार, दिमाग़। दमामा = धौंसा। परिओ घाउ = चोट लगी है। नीसानै = निशाने पर, ठीक ठिकाने पर, हृदय में। परिओ नीसानै घाउ = हृदय में खींच पड़ी है प्रभु चरणों की ओर। खेतु = लड़ाई का मैदान, रण भूमि। जु = जो मनुष्य। मांडिओ = घेर के बैठा है। खेतु जु मांडिओ = जो मनुष्य मैदानि-जंग संभाल के बैठा है, जो मनुष्य इस जगत रूपी रण-भूमि में दलेर हो के विकारों के मुकाबले में डट गया है। अब = अब का समय, मनुष्य जनम। जूझन को दाउ = (कामादिक वैरियों से) लड़ने का मौका है।1। अर्थ: जो मनुष्य इस जगत-रूपी रण-भूमि में वीर हो के विकारों के मुकाबले में डट के खड़ा है, और यह समझता है कि ये मानव-जीवन ही मौका है जब इनके साथ लड़ा जा सकता है, वह है असली शूरवीर (सूरमा)। उसके दसवाँ-द्वार पर धौंसा बजता है, उसके निशाने पर चोट लगती है (भाव, उसका मन प्रभु-चरणों में ऊँची उड़ानें लगाता है, जहाँ किसी विकार की सुनवाई नहीं हो सकती, उसके हृदय में प्रभु-चरणों से जुड़े रहने की कसक पड़ती है)।1। सूरा सो पहिचानीऐ जु लरै दीन के हेत ॥ पुरजा पुरजा कटि मरै कबहू न छाडै खेतु ॥२॥२॥ अर्थ: (हाँ, एक और भी शूरवीर है) उस मनुष्य को भी सूरमा समझना चाहिए जो गरीबों की खातिर लड़ता है, (गरीब के लिए लड़ता-लड़ता) टुकड़े-टुकड़े हो के मरता है, पर लड़ाई के मैदान को कभी नहीं छोड़ता (पर पीछे को पैर नहीं हटाता, अपनी जान बचाने के लिए गरीब की पकड़ी हुई बाँह नहीं छोड़ता)।2।2। नोट: दुनिया के लोग सूरमा मर्द उसको कहते हैं जिसके महलों के सामने दमामे बजते हैं, और जो मैदाने-जंग में वैरियों का मुकाबला करता है। पर सारा जगत ही एक रण-भूमि है, यहाँ हरेक व्यक्ति को विकार वैरियों के साथ मुकाबला करना पड़ता है। असल सूरमा वह है जो इन वैरियों के मुकाबले में डट के खड़ा है और समझता है कि ये मानव-जीवन ही मौका है जब ये जंग जीती जा सकती है। नोट: जिस मनुष्य का धरती पर राज हो, जिसका छत्र ‘बारह जोजन’ झूलता हो, उसको गिला करना और उसको निडर हो के खरा उक्तर देना कि तेरे से ज्यादा मुझे वह गरीब अच्छा लगता है, जिसके अंदर ईश्वर का प्यार है; ये काम किसी विरले शूरवीर का है, हरेक की ये हिम्मत नहीं पड़ सकती। पर वह सूरमा वही हो सकता है जिसने कामादिक को वश में करके दुनिया की कोई अधीनता नहीं रखी। ‘राजन कउन तुमारै आवै’ शब्द के भाव से इन उपरोक्त शलोकों का भाव काफी हद तक मिलता-जुलता था, इस वास्ते कबीर जी के ये दोनों शलोक बाकी शलोकों के अलग यहाँ दर्ज किए गए हैं। इन शलोकों की गिनती शबदों से अलग नहीं मानी गई, आखिरी शब्द का दूसरा हिस्सा ही माना गया है, और दोनों शलोकों के आखिर में अंक 2 बरता गया है। (इन शलोकों के बारे में और विचार पढ़ने के लिए मेरी पुस्तक ‘सरबत दा भला’ में देखें मेरा लेख ‘ओहु गरीबु मोहि भावै’। ‘सिंघ ब्रदर्स’ बाजार माई सेवा अमृतसर से मिलती है)। कबीर का सबदु रागु मारू बाणी नामदेउ जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ चारि मुकति चारै सिधि मिलि कै दूलह प्रभ की सरनि परिओ ॥ मुकति भइओ चउहूं जुग जानिओ जसु कीरति माथै छत्रु धरिओ ॥१॥ पद्अर्थ: चारि मुकति = चार किस्म की मुक्तियाँ (सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य और सायुज्य। सालोक्य = अपने ईष्ट के साथ एक ही लोक में बसना। सामीप्य = ईष्ट के समीप नजदीक हो जाना। सरूप्य = ईष्ट के साथ एक रूप हो जाना। सायुज्य = अपने ईष्ट के साथ जुड़ जाना, उसमें लीन हो जाना)। चारै = ये चारों ही मुक्तियां। सिधि मिल कै = (चार मुक्तियां व अठारह) सिद्धियां साथ मिल के। दूलह की = पति की। जानिओ = मशहूर हो गया। जसु = शोभा।1। अर्थ: (जगत में) चार किस्म की मुक्तियां (मिथी गई हैं), ये चारों मुक्तियां (अठारह) सिद्धियों के साथ मिल के पति (-प्रभु) की शरण पड़ी हुई हैं, (जो मनुष्य उस प्रभु का नाम स्मरण करता है, उसको ये हरेक किस्म की) मुक्ति मिल जाती है, वह मनुष्य चारों युगों में मशहूर हो जाता है, उसकी (हर जगह) शोभा होती है, उसके सिर पर छत्र झूलता है।1। राजा राम जपत को को न तरिओ ॥ गुर उपदेसि साध की संगति भगतु भगतु ता को नामु परिओ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: को को न = कौन नहीं? उपदेसि = उपदेश से।1। रहाउ। अर्थ: प्रकाश-रूप परमात्मा का नाम स्मरण करके बेअंत जीव तैर गए हैं। जिस जिस मनुष्य ने अपने गुरु की शिक्षा पर चल के साधु-संगत की, उसका नाम भक्त पड़ गया।1। रहाउ। संख चक्र माला तिलकु बिराजित देखि प्रतापु जमु डरिओ ॥ निरभउ भए राम बल गरजित जनम मरन संताप हिरिओ ॥२॥ पद्अर्थ: देखि प्रतापु = (भक्त का) प्रताप देख के। हिरिओ = दूर हो जाता है।2। अर्थ: (प्रभु का) संख, चक्र, माला, तिलक आदि चमकता देख के, प्रताप देख के, जमराज भी सहम जाता है (जिन्होंने उस प्रभु को स्मरण किया है) उनको कोई डर नहीं रह जाता (क्योंकि उनसे तो जम भी डरता है), प्रभु का प्रताप उनके अंदर उछाले मारता है, उनके जनम-मरण के कष्ट नाश हो जाते हैं।2। अ्मबरीक कउ दीओ अभै पदु राजु भभीखन अधिक करिओ ॥ नउ निधि ठाकुरि दई सुदामै ध्रूअ अटलु अजहू न टरिओ ॥३॥ पद्अर्थ: अंबरीक = सूर्यवंशी एक राजा, प्रभु का एक भक्त था। दुर्वासा ऋषि एक बार इसके पास आया, तब राजे ने व्रत रखा हुआ था, ऋषि की अच्छी तरह सेवा ना कर सका। दुर्वासा श्राप देने लगा। विष्णू ने अपने भक्त की रक्षा के लिए अपना सुर्दशन चक्र छोड़ा, ऋषि जान बचाने के लिए भागा, पर कोई उसकी सहायता ना कर सका, आखिर अंबरीक ने ही बचाया। अधिक = बड़ा। ठाकुरि = ठाकुर ने।3। अर्थ: (अंबरीक ने नाम स्मरण किया, प्रभु ने) अंबरीक को निर्भयता का उच्चतम दर्जा बख्शा (और दुर्वासा उसका कुछ ना बिगाड़ सका), प्रभु ने विभीषण को राज दे के बड़ा बना दिया; सुदामा (गरीब) को ठाकुर ने नौ निधियां दे दीं, ध्रुव को अटल पदवी बख्शी जो आज तक कायम है।3। भगत हेति मारिओ हरनाखसु नरसिंघ रूप होइ देह धरिओ ॥ नामा कहै भगति बसि केसव अजहूं बलि के दुआर खरो ॥४॥१॥ पद्अर्थ: भगत हेति = भक्त की खातिर। देह धरिओ = शरीर धारण किया। बसि = वश में। केसव = लंबे केशों वाला। बलि = एक भक्त राजा था, इस को छलने के लिए विष्णू ने वामन अवतार धारण किया। वामन रूप में आ के राजे से ढाई करू जगह माँगी, कुटिया बनाने के लिए। पर नापने के समय दो करूओं में सारी धरती ही माप डाली और आधे करू से राजा का अपना शरीर। राजे को पाताल जा पहुँचाया। जाने लगा तो राजा ने कहा कि कुटिया बनाने का वचन अब पालो। सो अब तक उसके दरवाजे के आगे कुटिया डाले बैठा है।4। अर्थ: प्रभु ने अपने भक्त (प्रहलाद) की खातिर नरसिंघ का रूप धारण किया, और हरणाकश को मारा। नामदेव कहता है: परमात्मा भक्ति के अधीन है, (देखो!) अभी तक वह (अपने भक्त राजा) बलि के दरवाजे पर खड़ा हुआ है।4।1। भाव: स्मरण भक्ति की महिमा- भक्ति करने वाले की जगत में शोभा होती है, उसको कोई डर नहीं व्यापता, प्रभु स्वयं हर वक्त उसका सहायक होता है। नोट: इस शब्द में नामदेव जी बँदगी करने वाले की उपमा करते हैं। ‘रहाउ’ की तुक में यही केन्द्रिय ख्याल है। नामदेव जी हिन्दू जाति में जन्मे-पले थे; हिन्दुओं में एक प्रभु की भक्ति का प्रचार करने के वक्त प्रचार का प्रभाव डालने के लिए उन हिन्दू भक्तों का ही जिकर कर सकते थे जिनकी साखियां पुराणों में आई, और जो आम लोगों में प्रसिद्ध थीं। अंबरीक, सुदामा, प्रहलाद, द्रोपदी, अहिल्या, विभीषण, बलि, ध्रुव, गज– आम तौर पर इनके बारे में ही साखियां प्रसिद्ध थीं और हैं। गुरु तेग बहादर जी पूरब देश में जा के हिन्दू जनता के मुग़ल-राज के जुल्मों के सहम से ढारस देने के वक्त भी इन साखियों का ही हवाला देते रहे। वेरवे में जा के; ये साखियां सिख धर्म के अनुसार हैं अथवा नहीं; इस बात को छेड़ने की आवश्यक्ता नहीं थी। मुगल राज के सहमें हुए लोगों को उनके अपने घर के प्रसिद्ध भक्तों के नाम सुना के ही मानवता की प्रेरणा की जा सकती थी। अगर गुरु अरजन देव जी ने किसी जोगी को ये कहा कि; “चारि पुकारहि ना तू मानहि॥ खटु भी एका बात बखानहि॥ इस का भाव ये नहीं कि सतिगुरु जी खुद भी वेदों-शास्त्रों के श्रद्धालु थे। जब वे एक मुसलमान को कहते हैं कि; “दोजकि पउदा किउ रहै जा चिति न होइ रसूलि॥ ” तो यहाँ ये मतलब नहीं निकलता कि सतिगुरु जी मुसलमान थे। भक्त जी के शब्द ‘संख चक्र गदा’ आदि भी इसी लिए ही बरते हैं कि हिन्दू लोग विष्णू का यही स्वरूप मानते हैं। आज जो उत्साह किसी सिख को ‘कलगी’ और ‘बाज़’ शब्द प्रयोग करके दिया जा सकता है, और किसी उपदेश से नहीं। गुरु नानक देव जी ने भी तो परमात्मा का इसी तरह का स्वरूप एक बार दिखाया था; देखें, वडहंस महला १ छंत: तेरे बंके लोइण दंत रीसाला॥ सोहणे नक जिन लंमड़े वाला॥ कंचन काइआ सुइने की ढाला॥ सोवंन ढाला क्रिसन माला जपहु तुसी सहेलीहो॥ जमदूआरि न होहु खड़ीआ, सिख सुणहु महेलीहो॥७॥२॥ सो, इस शब्द में शब्द संख, चक्र, माला, तिलक आदि से यह भाव नहीं लिया जा सकता कि भक्त नामदेव जी किसी अवतार की किसी मूर्ति पर रीझे हुए थे। मारू कबीर जीउ ॥ दीनु बिसारिओ रे दिवाने दीनु बिसारिओ रे ॥ पेटु भरिओ पसूआ जिउ सोइओ मनुखु जनमु है हारिओ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: दीनु = धरम। रे दिवाने = हे पागल! जिउ = जैसे। हारिओ = गवा लिया है।1। रहाउ। अर्थ: हे कमले मनुष्य! तूने धर्म (मनुष्य जीवन का फर्ज) बिसार दिया है। तू पशुओं की तरह पेट भर के सोया रहता है; तूने मानव जीवन को ऐसे ही गवा लिया है।1। रहाउ। साधसंगति कबहू नही कीनी रचिओ धंधै झूठ ॥ सुआन सूकर बाइस जिवै भटकतु चालिओ ऊठि ॥१॥ पद्अर्थ: रचिओ = व्यस्त है। सुआन = कुक्ता। सूकर = सूअर। बाइस = कौआ। भटकतु = भटकता ही, दुखी होता है।1। अर्थ: तू कभी सत्संग में नहीं गया, जगत के झूठे धंधों में ही मस्त है; कौए, कुत्ते, सूअर की तरह भटकता ही (जगत से) चला जाएगा।1। आपस कउ दीरघु करि जानै अउरन कउ लग मात ॥ मनसा बाचा करमना मै देखे दोजक जात ॥२॥ पद्अर्थ: दीरघु = बड़ा, बड़ी उम्र वाला, लंबा। लग मात = मात्रा जितना, छोटा सा, तुच्छ। मनसा = (संस्कृत: instrumental singular form मनस् by means of mind) मन से। बाचा = (सं: वाचा instrumental singular form वाच् by means of words) वचनों द्वारा। करमना = (सं: कर्मणा instrumental singular form कर्मन् through action) काम से।2। अर्थ: जो मनुष्य मन, वचन व कर्म द्वारा और को तुच्छ जानते हैं और अपने आप को बड़े समझते हैं, ऐसे लोग मैंने नर्क में जाते देखें हैं (भाव, नित्य ये देखने में आता है कि ऐसे अहंकारी मनुष्य अहंकार में इस तरह दुखी होते हैं जैसे दोज़क की आग में जल रहे हों)।2। कामी क्रोधी चातुरी बाजीगर बेकाम ॥ निंदा करते जनमु सिरानो कबहू न सिमरिओ रामु ॥३॥ पद्अर्थ: चातुरी = चालाकी। बाजीगर = ठगी करने वाले। बेकाम = निकंमे, नकारे। सिरानो = गुजर गया।3। अर्थ: काम वश हो के, क्रोध अधीन हो के, चतुराईयाँ, ठगीयां, नकारेपन में, दूसरों की निंदा करके (हे कमले!) तूने जीवन गुजार दिया है, कभी प्रभु को याद नहीं किया।3। कहि कबीर चेतै नही मूरखु मुगधु गवारु ॥ रामु नामु जानिओ नही कैसे उतरसि पारि ॥४॥१॥ अर्थ: कबीर कहता है: मूर्ख मूढ़ गवार मनुष्य परमात्मा को नहीं स्मरण करता। प्रभु के नाम के साथ सांझ नहीं डालता। (संसार-समुंदर में से) कैसे पार लंघेगा?।41। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |