श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1110 तुखारी महला १ ॥ पहिलै पहरै नैण सलोनड़ीए रैणि अंधिआरी राम ॥ वखरु राखु मुईए आवै वारी राम ॥ वारी आवै कवणु जगावै सूती जम रसु चूसए ॥ रैणि अंधेरी किआ पति तेरी चोरु पड़ै घरु मूसए ॥ राखणहारा अगम अपारा सुणि बेनंती मेरीआ ॥ नानक मूरखु कबहि न चेतै किआ सूझै रैणि अंधेरीआ ॥१॥ पद्अर्थ: पहिले पहरै = (रात के) पहले पहर में, (जिंदगी की रात के) पहले पहर में, उम्र के पहले पड़ाव में। सलोनड़ीए = हे सलोने नैनों वाली! हे सुंदर लोचनों वाली! रैणि = रात। अंधिआरी = अंधेरी, घोर अंधेर भरी। रैणि अंधिआरी = घौर अंधेरी रात (जिसमें आँखों को कुछ नहीं दिखता)। वखरु = सौदा। राखु = संभाल ले। मुईए = हे मरी हुई स्त्रीयां! हे आत्मिक जीवन से मरी हुई जीव स्त्रीयां! हे आत्मिक मौत सहेड़ रही जीव-स्त्री! आवै = आ रही है। कवणु = कौन? सूती = सोई हुई, माया के मोह में लिप्त। जम रसु = जमों के साथ वास्ता डालने वाला मायावी पदार्थों का रस। चूसए = चूसे, चूसती रहती है। रैणि अंधेरी = अंधेरी रात। पति = इज्जत। किआ पति तेरी = तेरी क्या इज्जत होगी? तुझे सम्मान नहीं मिलेगा। मूसए = मूसै, लूटता है। अगम = हे अगम्य (पहुँच से परे)! अपारा = हे बेअंत! नानक = हे नानक! किआ सूझै = क्या सूझता है? कुछ भी नहीं दिखता।1। नोट: ‘चूसऐ’ है वर्तमान काल, अन्न पुरख, एकवचन। अर्थ: हे सलोने नैनों वालिए! (हे जीव सि्त्रए! आत्मिक जीवन का रास्ता देखने के लिए तुझे सुंदर ज्ञान नेत्र मिले थे, पर जिंदगी की रात के) पहले हिस्से में (तेरी उन) आँखों के लिए (अज्ञानता की) अंधेरी रात (बनी रहती है)। (इस आत्मिक अंधेरे में रह के) हे आत्मिक मौत सहेड़ रही जीव-सि्त्रए! (होश कर, अपने आत्मिक जीवन का) सौदा संभाल के रख, (जो भी जीव-स्त्री यहाँ आती है, यहाँ से चले जाने की हरेक की) बारी आ जाती है। (पर, जो जीव-स्त्री माया के मोह में फंस के आत्मिक जीवन की ओर से) बेपरवाह हुई रहती है, वह जमों के साथ वास्ता डालने वाला मायावी पदार्थों का रस चूसती रहती है? (ऐसी को) जगाए भी कौन? हे सुंदर नैनों वालिये! (अगर आत्मिक जीवन से तेरी आँखों के लिए) अंधेरी रात (ही बनी रही, तो) लोक परलोक में (कहीं भी) तुझे इज्ज़त नहीं मिलेगी। (ऐसी सोई हुई जीव-स्त्री के हृदय-घर में कामादिक हरेक) चोर सेंध लगाए रखता है (और, उसका हृदय-) घर लूट लेता है। हे नानक! (कह:) हे रक्षा करने वाले प्रभु! हे अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु! हे बेअंत प्रभु! मेरी बिनती सुन (मेरी जीवन-रात को विकारों को घोर अंधकार दबाए ना रखे)। हे नानक! मूर्ख मनुष्य कभी भी (परमात्मा को) याद नहीं करता (विकारों की घोर) अंधेरी (जीवन-) रात में (उसको आत्मिक जीवन का सही रास्ता) सूझता ही नहीं।1। दूजा पहरु भइआ जागु अचेती राम ॥ वखरु राखु मुईए खाजै खेती राम ॥ राखहु खेती हरि गुर हेती जागत चोरु न लागै ॥ जम मगि न जावहु ना दुखु पावहु जम का डरु भउ भागै ॥ रवि ससि दीपक गुरमति दुआरै मनि साचा मुखि धिआवए ॥ नानक मूरखु अजहु न चेतै किव दूजै सुखु पावए ॥२॥ पद्अर्थ: जागु = सचेत हो। अचेती = हे अचेत जीव-स्त्री! हे गाफिल जीव-स्त्री! खाजै = खाई जा रही है। खेती = आत्मिक गुणों वाली फसल। हेती = हेतु, प्यार की इनायत से। जागत = (विकारों के हमलों से) सचेत रहने से। चोरु = (कामादिक कोई भी) चोर (एकवचन)। मगि = रास्ते पर। भागै = भाग जाता है। रवि = सूरज, ज्ञान, आत्मिक जीवन की सूझ। ससि = चँद्रमा, शीतलता, शांति। दीपक = दीए। दुआरे = उर पर। मनि = मन में। साचा = सदा स्थिर प्रभु। मुखि = मुँह से। धिआवए = ध्याता है (एकवचन)। नानक = हे नानक! अजहु = अभी भी। किव = कैसे? दूजे = (परमात्मा को छोड़ के) और (के प्यार) में। पावए = पा सकता है, पाए।2। अर्थ: हे गाफिल जीव-स्त्री! (अब तो तेरी जिंदगी की रात का) दूसरा पहर गुजर रहा है (अब तो माया के मोह की नींद में से) सचेत हो। हे आत्मिक मौत सहेड़ रही जीव-सि्त्रए! (अपने आत्मिक जीवन का) सौदा संभाल के रख, (तेरे आत्मिक गुणों वाली) फसल (विकारों के मुँह आ के) खाई जा रही है। हे भाई! हरि से गुरु से प्रेम डाल के (अपनी आत्मिक गुणों वाली) फसल संभाल के रखो, (विकारों के हमलों की ओर से) सचेत रहने से (कामादिक कोई भी विकार) चोर (आत्मिक जीवन के धन को) सेंध नहीं लगा सकता। हे भाई! (विकारों में फंस के) जमों के रास्ते पर ना चलो, और दुख ना पल्ले डालो। (विकारों से बचे रहने से) जमराज का डर-भय दूर हो जाता है। हे भाई! जिस मनुष्य के मन में सदा कायम रहने वाला परमात्मा बसता रहता है, जो मनुष्य अपने मुँह से (परमात्मा का नाम) स्मरण करता रहता है, गुरु की मति की इनायत से उसके हृदय में ज्ञान और शांति के दीपक जलते रहते हैं। पर, हे नानक! मूर्ख मनुष्य अभी भी परमात्मा को याद नहीं करता (जबकि उसकी जिंदगी की रात्रि का दूसरा पहर बीत रहा है। परमात्मा को भुला के) और-और (प्यार) में मनुष्य किसी भी हालत में आत्मिक आनंद नहीं पा सकता।2। तीजा पहरु भइआ नीद विआपी राम ॥ माइआ सुत दारा दूखि संतापी राम ॥ माइआ सुत दारा जगत पिआरा चोग चुगै नित फासै ॥ नामु धिआवै ता सुखु पावै गुरमति कालु न ग्रासै ॥ जमणु मरणु कालु नही छोडै विणु नावै संतापी ॥ नानक तीजै त्रिबिधि लोका माइआ मोहि विआपी ॥३॥ पद्अर्थ: नीद विआपी = (माया के मोह की) नींद अपना जोर डाले रखती है। सुत = पुत्र। दारा = स्त्री। दूखि = दुख में, चिन्ता फिक्र में। संतापी = कलपती रहती है। चोग चुगै = (मनुष्य मायावी पदार्थों के) भोग भोगता रहता है। ता = तब। सुखु = आत्मिक आनंद। कालु = मौत, आत्मिक मौत। ग्रासै = खाता, अपने काबू में रखता। तीजै = जिंदगी की रात का तीसरा पहर गुजरते ही। लोका = हे लोगो! त्रिबिधि माइआ मोहि = तीन गुणों वाली माया के मोह में (तिंन गुण = रजो तमो, सतो)। विआपी = फसी रहती है।3। अर्थ: हे भाई! जब जिंदगी की रात का तीसरा पहर भी गुजरता जा रहा है तब भी माया के मोह की नींद जीव पर अपना प्रभाव डाले रखती है; माया पुत्र स्त्री आदि कई किस्म के चिन्ता-फिक्र में मनुष्य की जीवात्मा दुखी होती रहती है। हे भाई! मनुष्य को माया का प्यार, पुत्रों का प्यार, स्त्री का प्यार, दुनिया का प्यार (मोहे रखता है, ज्यों ज्यों मनुष्य) मायावी पदार्थों के भोग भोगता है त्यों-त्यों सदा (इनमें) फसा रहता है (और दुख पाता है)। जब मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करता है, तब आत्मिक आनंद हासिल करता है, और गुरु की मति की इनायत से आत्मिक मौत इसको अपने काबू में नहीं रख सकती। हे नानक! परमात्मा के नाम से टूट के मनुष्य की जिंद हमेशा दुखी होती रहती है, जनम-मरण का चक्कर इसकी खलासी नहीं करता, आत्मिक मौत इसको मुक्त नहीं करती। हे लोगो! जिंदगी की रात का तीसरा पहर गुजरते हुए भी (नाम से सूनी रहने के कारण मनुष्य की जिंद) त्रैगुणी माया के मोह में फसी रहती है।3। चउथा पहरु भइआ दउतु बिहागै राम ॥ तिन घरु राखिअड़ा जुो अनदिनु जागै राम ॥ गुर पूछि जागे नामि लागे तिना रैणि सुहेलीआ ॥ गुर सबदु कमावहि जनमि न आवहि तिना हरि प्रभु बेलीआ ॥ कर क्मपि चरण सरीरु क्मपै नैण अंधुले तनु भसम से ॥ नानक दुखीआ जुग चारे बिनु नाम हरि के मनि वसे ॥४॥ पद्अर्थ: दउत = उदय, प्रकाश। बिहागै = सूरज का (विहाग = सूरज)। दउत बिहागै = सूर्य का उदय, सूरज चढ़ जाता है, रात से दिन हो जाता है, काले केसों से धउले (सफेद) आ जाते हैं। तिन = उन्होंने। घरु राखिअड़ा = हृदय घर विकारों से बचा लिया, आत्मिक गुणों की राशि-पूंजी बचा ली। जुो = जो मनुष्य, जो जो मनुष्य। जागै = जागता रहता है, माया के हमलों से सचेत रहता है (एकवचन)। अनदिनु = हर रोज। नोट: ‘तिन’ है तिनि का बहुवचन (‘तिनि’ है एकवचन)। नोट: ‘जुो’ में ‘ज’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘जो’, यहाँ ‘जु’ पढ़ना है। नोट: ‘जागै’ है एकवचन और ‘जागहि’ बहुवचन। पद्अर्थ: गुर पूछि = गुरु को पूछ के, गुरु की शिक्षा पर चल के। जागे = (बहुवचन) जो जागते रहे, जो माया के मोह की नींद में ना सोए। नामि = प्रभु के नाम में। लागे = जुड़े रहे, लगे रहे। रैणि = रात, जिंदगी की रात, सारी जिंदगी। सुहेलीआ = सुखदाई, आसान। सबदु कमावहि = शब्द अनुसार जीवन व्यतीत करते हैं। जनमि = जनम में, जनम मरण के चक्करों में। बेलीआ = मित्र। करि = हाथ (बहुवचन)। चरण = पैर (बहुवचन)। कंपि = काँप के। क्मपै = (एकवचन) काँपता है। अंधुले = अंधे से। नैण अंधुले = आँखें अंधी सी, आँखों से कम दिखता है। तनु = शरीर। भसम से = राख जैसा (रूखा)। जुग चारे = चारों जुगों में (कोई भी युग हो। यह अटल नियम है कि नाम के बिना दुख ही दुख है)। मनि = मन में।4। अर्थ: हे भाई! जब मनुष्य की जिंदगी की रात का चौथा पहर बीत रहा होता है तब रात से दिन हो जाता है (तब काले केस सफेद हो जाते हैं)। पर आत्मिक जीवन की राशि-पूंजी (उन) मनुष्यों ने ही बचाई होती है जो हर वक्त (विकारों के हमलों से) सचेत रहता है। हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शिक्षा ले के (विकारों के हमलों से) सचेत रहे, जो परमात्मा के नाम में जुड़े रहे, उनकी जिंदगी की रात (उनकी सारी उम्र) आसान गुजरती है। जो मनुष्य गुरु के शब्द के अनुसार जीवन व्यतीत करते हैं, वे जनम-मरण के चक्करों में नहीं आते (विकारों से बचाने के लिए) परमात्मा (स्वयं) उनका मददगार बना रहता है। हे नानक! (जिंदगी की रात के चौथे पहर में मनुष्य के) हाथ-पैर काँपने लगते हैं, शरीर काँपने लग पड़ता है, आँखों से कम दिखता है, शरीर राख जैसा (रूखा सा) हो जाता है (जो मनुष्य अभी भी हरि नाम चेते नहीं करता है, उसे भाग्यहीन ही समझो। युग कोई भी हो ये पक्का ही जानो कि) परमात्मा का नाम बसे बिना मनुष्य चारों युगों में दुखी रहता है।4। खूली गंठि उठो लिखिआ आइआ राम ॥ रस कस सुख ठाके बंधि चलाइआ राम ॥ बंधि चलाइआ जा प्रभ भाइआ ना दीसै ना सुणीऐ ॥ आपण वारी सभसै आवै पकी खेती लुणीऐ ॥ घड़ी चसे का लेखा लीजै बुरा भला सहु जीआ ॥ नानक सुरि नर सबदि मिलाए तिनि प्रभि कारणु कीआ ॥५॥२॥ नोट: भाव यह है कि समय कोई भी हो (सतियुग हो, त्रेता हो, द्वापर हो, कलियुग हो) परमात्मा का नाम स्मरण के बिना आनंद कभी नहीं मिल सकता। पद्अर्थ: खूली = (जब) खुल गई, जब खुल जाती है। गंठि = गाँठ, जिंदगी के मिले स्वासों की गाँठ। उठो = उठ। रस कस = सारे रस, सब रसों के पदार्थ। ठाके = रोक लिए। बंधि = बाँध के। चलाइआ = जीव को आगे चला रहा है। जा = जब। प्रभ भाइआ = प्रभु को अच्छा लगता है, जब प्रभु की रजा होती है। सभसै = हरेक जीव की। पकी खेती = पकी हुई फसल। लुणीऐ = काटी जाती है, काटा जाता है। चसा = रक्ती भर समय। लीजै = लिया जाता है। सहु = सह। जीआ = हे जीव! नानक = हे नानक! सुरि नर = भले बँदे। सबदि = गुरु के शब्द में। तिनि = उसने। तिनि प्रभि = उस प्रभु ने। कारणु = सबब।5। अर्थ: हे भाई! जब जीव की जिंदगी की मिले हुई सांसों की गाँठ खुल जाती है (श्वास खत्म हो जाते हैं), तब परमात्मा की ओर से लिखा हुक्म आ जाता है (कि हे जीव!) उठ (चलने के लिए तैयार हो जा)। जीव के सारे खाने-पीने सारे सुख रोक लिए जाते हैं, जीव को बाँध के आगे चलाया जाता है (भाव, जाना चाहे अथवा ना जाना चाहे, उसको जगत से चला लिया जाता है)। जब प्रभु की रजा होती है, जीव को यहाँ से उठा लिया जाता है, (फिर) ना जीव का यहाँ कुछ दिखता है, ना कुछ सुना जाता है। हे भाई! हरेक जीव की यह वारी आ जाती है; (जैसे) पकी फसल (आखिर में) काटी ही जाती है। हे भाई! जीव के हरेक घड़ी-पल के किए कर्मों का इससे लेखा माँगा जाता है। हे जीव! अपने किए अच्छे-बुरे कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है। हे नानक! उस परमात्मा ने ऐसा सबब बना रखा है कि भले मनुष्यों को गुरु के शब्द में जोड़े रखता है।5।2। तुखारी महला १ ॥ तारा चड़िआ लमा किउ नदरि निहालिआ राम ॥ सेवक पूर करमा सतिगुरि सबदि दिखालिआ राम ॥ गुर सबदि दिखालिआ सचु समालिआ अहिनिसि देखि बीचारिआ ॥ धावत पंच रहे घरु जाणिआ कामु क्रोधु बिखु मारिआ ॥ अंतरि जोति भई गुर साखी चीने राम करमा ॥ नानक हउमै मारि पतीणे तारा चड़िआ लमा ॥१॥ पद्अर्थ: तारा लंमा = पूँछ वाला तारा। (नोट: जब पुच्छल तारा चढ़ता है, तो बड़े उत्साह से देखते हैं। सूर्य के प्रकाश में तो दिखाई नहीं देता। अंधेरा होते ही लोग्र आकाश की ओर देखने लग जाते हैं), सर्व व्यापक ईश्वरीय ज्योति। किउ = कैसे, क्यों, किस तरह? निहालिआ = देखा जाए। सेवक पूर करंमा = उस सेवक के पूरे कर्म (जाग उठते हैं)। सतिगुरि = गुरु ने। सबदि = शब्द से। सचु = सदा स्थिर हरि नाम। समालिआ = हृदय में बसाया। अहि = दिन। निसि = रात। देखि = देख के। बीचारिआ = (उसके गुणों की) विचार करता है। पंच = पाँच ज्ञान-इंद्रिय। धावत रहे = भटकना से हट गए। बिखु = जहर, आत्मिक मौत लाने वाला जहर। अंतरि = उसके अंदर। जोति = परमात्मा का नूर। गुर साखी = गुरु की शिक्षा से। चीने = देखता है। राम करंमा = परमात्मा के करिश्मों को। नानक = हे नानक! मारि = मार के। पतीणे = पतीज गए।1। अर्थ: हे भाई! व्यापक-स्वरूप परमात्मा (सारे जगत में अपना) प्रकाशस कर रहा है। पर उसे आँखों से कैसे देखा जाए? हे भाई! गुरु ने अपने शब्द के द्वारा (जिसको) दर्शन करवा दिए, उस सेवक के पूरे भाग्य जाग उठे। जिस मनुष्य को गुरु के शब्द ने (सर्व-व्यापक परमात्मा) दिखा दिया, वह सदा-स्थिर हरि-नाम को अपने हृदय में बसा लेता है। उसके दर्शन करके वह मनुष्य दिन-रात उसके गुणों को अपने चिक्त में बसाता है। वह मनुष्य (अपने असल) घर को जान लेता है, उसकी पाँचों-ज्ञान-इंद्रिय (विकारों की तरफ) भटकने से हट जाती हैं, वह मनुष्य आत्मिक मौत लाने वाले काम को क्रोध को समाप्त कर देता है। हे भाई! गुरु के उपदेश की इनायत से उस मनुष्य के अंदर रूहानी ज्योति प्रकट हो जाती है (जो कुछ जगत में हो रहा है, उसको) वह परमात्मा के करिश्में (समझ के) देखता है। हे नानक! (जिस मनुष्यों के अंदर) सर्व-व्यापक प्रभु की ज्योति जग उठती है, वह (अपने अंदर से) अहंकार को मार के (परमात्मा के चरणों में) सदा टिके रहते हैं।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |