श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1111 गुरमुखि जागि रहे चूकी अभिमानी राम ॥ अनदिनु भोरु भइआ साचि समानी राम ॥ साचि समानी गुरमुखि मनि भानी गुरमुखि साबतु जागे ॥ साचु नामु अम्रितु गुरि दीआ हरि चरनी लिव लागे ॥ प्रगटी जोति जोति महि जाता मनमुखि भरमि भुलाणी ॥ नानक भोरु भइआ मनु मानिआ जागत रैणि विहाणी ॥२॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य। जागि रहे = (माया के हमलों से) सचेत रहते हैं। चूकी = समाप्त हो जाती है। अभिमानी = अहंकार वाली दशा। अनदिनु = हर रोज। भोरु = दिन, आत्मिक जीवन की सूझ का प्रकाश। साचि = सदा कायम रहने वाले परमात्मा में। समानी = (तवज्जो) टिकी रहती है। मनि = मन में। भानी = भा जाती है, प्यारी लगती है। साबतु = संपूर्ण, गलती के बिना। अंम्रितु = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला। साचु नामु = सदा स्थिर हरि नाम। गुरि = गुरु ने। जोति = हरेक ज्योति में, हरेक जीव में। जाता = (परमात्मा को बसता) जान लिया। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाली जीव-स्त्री। भरमि = भटकना के कारण। भुलाई = गलत रास्ते पड़ी रहती है। नानक = हे नानक! मानिआ = पतीजा रहता है। रैणि = जिंदगी की रात।2। अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य (माया के हमलों की ओर से) सचेत रहते हैं, (उनके अंदर से) अहंकार वाली दशा समाप्त हो जाती है। (उनके अंदर) हर वक्त आत्मिक जीवन की सूझ की रौशनी बनी रहती है, (उनकी तवज्जो) सदा कायम रहने वाले परमात्मा में टिकी रहती है। हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों की तवज्जो सदा-स्थिर प्रभु में लीन रहती है, (उनको ये दशा अपने) मन में प्यारी लगती है। हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य सदा ही सचेत रहते हैं। गुरु ने उनको आत्मिक जीवन देने वाला सदा-स्थिर हरि-नाम बख्शा होता है, उनकी लगन परमात्मा के चरणों में लगी रहती है। हे भाई! गुरमुखों के अंदर परमात्मा की ज्योति का प्रकाश हो जाता है, वे हरेक जीव में उसी ईश्वरीय-ज्योति को बसता समझते हैं। पर अपने मन के पीछे चलने वाली जीव-स्त्री भटकना के कारण गलत रास्ते पर पड़ी रहती है। हे नानक! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों के अंदर आत्मिक जीवन की सूझ का प्रकाश हुआ रहता है, उनका मन (उस रौशनी में) परचा रहता है। (माया के हमलों की ओर से) सचेत रहते हुए ही उनकी जीवन की रात बीतती है।2। अउगण वीसरिआ गुणी घरु कीआ राम ॥ एको रवि रहिआ अवरु न बीआ राम ॥ रवि रहिआ सोई अवरु न कोई मन ही ते मनु मानिआ ॥ जिनि जल थल त्रिभवण घटु घटु थापिआ सो प्रभु गुरमुखि जानिआ ॥ करण कारण समरथ अपारा त्रिबिधि मेटि समाई ॥ नानक अवगण गुणह समाणे ऐसी गुरमति पाई ॥३॥ पद्अर्थ: गुणी = गुणों ने। घरु कीआ = ठिकाना बना लिया। एको = एक (परमात्मा) ही। रवि रहिआ = सब जगह मौजूद दिखता है। बीआ = दूसरा। ते = से। मन ही ते = मन से ही, अंतरात्मे ही। मानिआ = पतीजा रहता है। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। घटु घटु थापिआ = हरेक शरीर को बनाया। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। करण कारण = (सारे) जगत का मूल। समरथ = सब ताकतों का मालिक। अपारा = बेअंत। त्रिबिधि = तीन किस्मों वाली, त्रैगुणी माया। मेटि = मिटा के। गुणह = गुणों में।3। अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य के हृदय-आकाश में ‘तारा चढ़िआ लंमा’, उसके अंदर से) सारे अवगुण समाप्त हो जाते हैं, (उसके अंदर) गुण अपना ठिकाना बनाते हैं। उस मनुष्य को एक परमात्मा ही हर जगह मौजूद दिखाई देता है, उसके बिना और कोई दूसरा नहीं दिखता। हे भाई! (जिस मनुष्य के अंदर ‘तारा चढ़िआ लंमा’, उसको) हर जगह एक परमात्मा ही बसता दिखता है, उसके बिना कोई और उसको दिखाई नहीं देता, उस मनुष्य का मन अंतरात्मे (हरि-नाम में) परचा रहता है। जिस (परमात्मा) ने जल-थल तीनों भवन हरेक शरीर बनाए हैं वह मनुष्य उस परमात्मा के साथ गुरु के माध्यम सें गहरी सांझ बनाए रखता है। हे नानक! (जिस मनुष्य के हृदय-आकाश में ‘तारा चढ़िआ लंमा’, वह अपने अंदर से) त्रैगुणी माया का प्रभाव मिटा के उस परमात्मा में समाया रहता है जो सारे जगत का मूल है जो सारी ताकतों का मालिक है और जो बेअंत है। हे नानक! गुरु से वह मनुष्य ऐसी मति हासिल कर लेता है कि उसके सारे अवगुण गुणों में समा जाते हैं।3। आवण जाण रहे चूका भोला राम ॥ हउमै मारि मिले साचा चोला राम ॥ हउमै गुरि खोई परगटु होई चूके सोग संतापै ॥ जोती अंदरि जोति समाणी आपु पछाता आपै ॥ पेईअड़ै घरि सबदि पतीणी साहुरड़ै पिर भाणी ॥ नानक सतिगुरि मेलि मिलाई चूकी काणि लोकाणी ॥४॥३॥ पद्अर्थ: आवण जाण = (बहुवचन) जनम मरण का चक्कर। रहे = समाप्त हो गए। चूका = समाप्त हो गया। भोला = भोलावा, खराब जीवन चाल। मारि = मार के। साचा = सदा स्थिर, अडोल, विकारों के हमलों से अडोल, पवित्र। चोला = शरीर। गुरि = गुरु ने। खोई = नाश कर दी। परगटु = प्रसिद्ध, शोभा वाली। चूके = समाप्त हो गए। सोग = शोक। संतापै = दुख-कष्ट। समाणी = लीन हो गई। आपु = अपने आप को। आपै = अपने आप को। पेईअड़ै = पेके (घर) में। पेईअड़ै घरि = पेके घर में, इस लोक में। सबदि = गुरु के शब्द में। पतीणी = पतीजी रही। साहुरड़ै = परलोक में। पिर भाणी = पिर को भा गई, प्रभु पति को अच्छी लगी। सतिगुरि = गुरु ने। मेलि = मेल के। काणि = अधीनता। लोकाणी = जगत की।4। अर्थ: हे भाई! (जिनके हृदय-आकाश में ‘तारा चढ़िआ लंमा’, उनके) जनम-मरण के चक्कर समाप्त हो गए, उनकी अनुचित जीवन-चाल खत्म हो गई। वह (अपने अंदर से) अहंकार दूर करके (प्रभु चरणों में) जुड़ गए, उनका शरीर (विकारों के हमलों के मुकाबले के लिए) अडोल हो गया। हे भाई! गुरु ने जिस जीव-स्त्री का अहंकार दूर कर दिया, वह (लोक-परलोक में) शोभा वाली हो गई, उसके सारे ग़म सारे दुख-कष्ट समाप्त हो गए। उसकी जिंद परमात्मा की ज्योति में मिली रहती है, वह अपने आत्मिक जीवन की सदा पड़ताल करती रहती है। हे भाई! जो जीव-स्त्री इस लोक में गुरु के शब्द में जुड़ी रहती है, वह परलोक में (जा के) प्रभु-पति को भा जाती है। हे नानक! जिस जीव-स्त्री को गुरु ने (अपने शब्द में) जोड़ के प्रभु के साथ मिला दिया, उसको दुनिया की अधीनता नहीं रह जाती।4।3। तुखारी महला १ ॥ भोलावड़ै भुली भुलि भुलि पछोताणी ॥ पिरि छोडिअड़ी सुती पिर की सार न जाणी ॥ पिरि छोडी सुती अवगणि मुती तिसु धन विधण राते ॥ कामि क्रोधि अहंकारि विगुती हउमै लगी ताते ॥ उडरि हंसु चलिआ फुरमाइआ भसमै भसम समाणी ॥ नानक सचे नाम विहूणी भुलि भुलि पछोताणी ॥१॥ पद्अर्थ: भोलावड़ै = बहुत भुलेखे में। भुली = गलत रास्ते पड़ गई। भुलि = गलती करके। पछोताणी = अफसोस करती रही, हाथ मलती रही। पिरि = पिर ने, प्रभु पति ने। छोडिअड़ी = त्याग दी, प्यार करना छोड़ दिया। सुती = माया के मोह की नींद में पड़ी रही। सार = कद्र। अवगणि = औगुणों के कारण, (इस) भूल के कारण, (माया के मोह की नींद में सोए रहने की) भूल के कारण। मुती = (पति ने) त्याग दी। तिसु धन राते = उस (जीव-) स्त्री की (जीवन) रात। विधण = दुख भरी। कामि = काम में, क्रोध में। विगुती = दुखी होती रही। ताते = ताति, ईष्या। उडरि = उड़ के। उडरि चलिआ = उड़ चला। हंसु = जीवात्मा। भसम = मिट्टी। विहूणी = वंचित, बिना।1। अर्थ: हे भाई! (जो जीव-स्त्री परमात्मा के नाम से वंचित रहती है, वह) बहुत भुलेखे में पड़ कर जीवन-राह से टूट जाती है, बार-बार गलतियां करके पछताती रहती है। (ऐसी जीव-स्त्री) प्रभु-पति की कद्र नहीं समझती। (माया के मोह की नींद में) गाफिल हो रही (ऐसी जीव-स्त्री) को प्रभु-पति ने भी मानो त्याग दिया होता है। हे भाई! माया के मोह में सोई हुई जिस जीव-स्त्री को प्रभु-पति ने प्यार करना छोड़ दिया, (माया के मोह की नींद में सोए रहने के इस) अवगुण के कारण त्याग दिया, उस जीव-स्त्री की जिंदगी की रात दुखदाई हो जाती है (उसकी सारी उम्र दुखों में बीतती है)। वह स्त्री काम में क्रोध में अहंकार में (सदा) दुखी होती रहती है, उसको अहंकार चिपका रहता है, उसको ईष्या चिपकी रहती है। हे भाई! परमात्मा के हुक्म के अनुसार जीवात्मा (तो आखिर शरीर छोड़ के) चल पड़ती है, और शरीर मिट्टी की ढेरी हो के मिट्टी के साथ मिल जाता है। पर, हे नानक! परमात्मा के नाम से भूली हुई जीव-स्त्री सारी उम्र भूलें कर करके (अनेक दुख सहेड़ के) पछताती रहती है।1। सुणि नाह पिआरे इक बेनंती मेरी ॥ तू निज घरि वसिअड़ा हउ रुलि भसमै ढेरी ॥ बिनु अपने नाहै कोइ न चाहै किआ कहीऐ किआ कीजै ॥ अम्रित नामु रसन रसु रसना गुर सबदी रसु पीजै ॥ विणु नावै को संगि न साथी आवै जाइ घनेरी ॥ नानक लाहा लै घरि जाईऐ साची सचु मति तेरी ॥२॥ पद्अर्थ: नाह = हे नाथ! हे पति! निज घरि = अपने घर में। हउ = मैं। रुलि = भटक के, (विकारों में) दुखी हो के। बिनु नाहै = पति के बिना। न चाहै = पसंद नहीं करता। किआ कहीऐ = क्या कहना चाहिए? किआ कीजै = क्या करना चाहिए? अम्रित नामु = आत्मिक जीवन देने वाला हरि नाम। रसन रसु = सारे रसों से श्रेष्ठ रस। रसना = जीभ से। गुर सबदी = गुरु के शब्द में जुड़ के। पीजै = पीना चाहिए। संगि = संगी, साथी। आवै जाइ = पैदा होती है मरती है, जनम मरण के चक्कर में पड़ी रहती है। घनेरी = बहुत सारी दुनिया। नानक = हे नानक! लाहा = लाभ। घरि = घर में, प्रभु चरणों में। जाईऐ = जाना चाहिएै। साची मति = पवित्र मति। सचु = सदा स्थिर हरि नाम (को स्मरण करने से)।2। अर्थ: हे प्यारे (प्रभु-) पति! मेरी एक विनती सुन- तू अपने घर में बस रहा है, पर मैं (तुझसे विछुड़ के विकारों में) दुखी हो के राख की ढेरी हो रही हूँ। अपने (प्रभु-) पति के बिना (प्रभु-पति से विछुड़ी जीव-स्त्री को) कोई प्यार नहीं करता। (इस हालत में फिर) क्या कहना चाहिए? क्या करना चाहिए? (हे जीव-स्त्री!) परमात्मा का आत्मिक जीवन देने वाला नाम (दुनिया के) सब रसों से श्रेष्ठ रस है; गुरु के शब्द के द्वारा यह नाम-रस जीभ से पीते रहना चाहिए। हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना (जीवात्मा का और) कोई संगी कोई साथी नहीं। (नाम से टूट के) बहुत सारी दुनिया जनम-मरण के चक्करों में पड़ी रहती है। हे नानक! (कह: हे भाई!) परमात्मा का नाम-लाभ कमा के प्रभु की हजूरी में पहुँच जाया जाता है। (हे भाई!) परमात्मा का सदा स्थिर नाम (जपा कर। इसकी इनायत से) तेरी मति (विकारों के हमलों से) अडोल हो जाएगी।2। साजन देसि विदेसीअड़े सानेहड़े देदी ॥ सारि समाले तिन सजणा मुंध नैण भरेदी ॥ मुंध नैण भरेदी गुण सारेदी किउ प्रभ मिला पिआरे ॥ मारगु पंथु न जाणउ विखड़ा किउ पाईऐ पिरु पारे ॥ सतिगुर सबदी मिलै विछुंनी तनु मनु आगै राखै ॥ नानक अम्रित बिरखु महा रस फलिआ मिलि प्रीतम रसु चाखै ॥३॥ पद्अर्थ: साजन = सज्जन प्रभु जी! देसि = देश में, (जीव-स्त्री के) हृदय देश में। विदेस = परदेस। विदेसी = परदेसी, परदेस में रहने वाला। देदी = देती। सारि = चेते कर के। समाले = (हृदय में) संभालती है। तिन सजणा = उन सज्जनों को, प्रभु सज्जन जी को। मुंध = (मुगधा) अंजान जीव-स्त्री। सारेदी = सारेंदी, याद करती है। किउ प्रभ मिला = मैं कैसे प्रभु को मिलूँ? मारगु = रास्ता। पंथु = रास्ता। न जाणउ = ना जानूँ, मैं नहीं जानती। विखड़ा = मुश्किल, कठिनाई भरा। पारे = (कठिन रास्ते के) परले पासे। सबदी = शब्द से। विछुंनी = बिछुड़ी हुई जीव-स्त्री। आगै राखै = (प्रभु पति के) आगे रख देती है, भेटा कर देती है। अंम्रित बिरखु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम वृक्ष। महारस फलिआ = बड़े मीठे फलों वाला, जिसको उच्च आत्मिक गुणों वाले बड़े मीठे फल लगे हुए हैं। मिलि प्रीतम = प्रीतम प्रभु को मिल के। रसु = स्वाद। चाखै = चखती है (एकवचन)।3। अर्थ: हे भाई! सज्जन प्रभु जी! (हरेक जीव-स्त्री के) हृदय-देश में बस रहे हैं, (पर नाम-हीन जीव-स्त्री दुखों में घिर के उसको) परदेस में बसता जान के (दुखों से बचने के लिए) तरले-भरे संदेशे भेजती है। (नाम से टूटी हुई) अंजान जीव-स्त्री (अपने ऊपर चढ़ाए हुए सहेड़े हुए दुखों के कारण) रोती है, विरलाप करती है और उस सज्जन-प्रभु जी को बार-बार याद करती है। (नाम से वंचित हुई) अंजान जीव-स्त्री (सहेड़े हुए दुखों के कारण) विलाप करती है, प्रभु-पति के गुण चेते करती है, (और तरले लेती है कि) प्यारे प्रभु को कैसे मिलूँ? (जिस देश में वह बसता है, उसका) रास्ता (अनेक विकारों की) मुश्किलों से भरा हुआ है, मैं वह रास्ता जानती भी नहीं हूँ, मैं उस पति को कैसे मिलूँ, वह तो (इन विकारों की रुकावटों के) उस पार रहता है। हे नानक! (कह: हे भाई!) जो विछुड़ी हुई जीव-स्त्री गुरु के शब्द के द्वारा अपना तन अपना मन उसके हवाले कर देती है, वह उसको मिल जाती है। हे भाई! परमात्मा का नाम आत्मिक जीवन देने वाला एक ऐसा वृक्ष है जिसको ऊँचे आत्मिक गुणों के फल लगे रहते हैं (गुरु के शब्द द्वारा अपना तन-मन भेटा करने वाली जीव-स्त्री) प्रीतम प्रभु को मिल के (उस वृक्ष के फलों का) स्वाद चखती रहती है।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |