श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सेवक जन सेवहि ते परवाणु जिन सेविआ गुरमति हरे ॥ तिन के कोटि सभि पाप खिनु परहरि हरि दूरि करे ॥ तिन के पाप दोख सभि बिनसे जिन मनि चिति इकु अराधिआ ॥ तिन का जनमु सफलिओ सभु कीआ करतै जिन गुर बचनी सचु भाखिआ ॥ ते धंनु जन वड पुरख पूरे जो गुरमति हरि जपि भउ बिखमु तरे ॥ सेवक जन सेवहि ते परवाणु जिन सेविआ गुरमति हरे ॥३॥

पद्अर्थ: सेवहि = सेवा भक्ति करते हैं, स्मरण करते हैं। ते = (बहुवचन) वह मनुष्य। गुरमति = गुरु की मति पर चल के। कोटि पाप = करोड़ों पाप। सभि = सारे। परहरि = दूर कर के।

दोख = ऐब, अवगुण। बिनसे = नाश हो जाते हैं। मनि = मन में। चिति = चित में। इकु = एक परमात्मा को। सफलिओ = कामयाब। सभ = सारा। करतै = कर्तार ने। बचनी = वचन से। सचु = सदा कायम रहने वाला हरि नाम। भाखिआ = उचारा, जपा।

धंनु = भाग्यशाली। पूरे = सब गुणों वाले। जपि = जप के। भउ = भव सागर, संसार समुंदर। बिखमु = मुश्किल से तैरा जा सकने वाला। ते = पार हो गए।3।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के भक्त (परमात्मा की) सेवा-भक्ति करते हैं, वे (परमात्मा की हजूरी में) आदर-सत्कार पाते हैं। हे भाई! जिस मनुष्यों ने गुरु की मति पर चल कर प्रभु की सेवा-भक्ति की, परमात्मा ने उनके सारे पाप एक छिन में दूर कर दिए।

हे भाई! जिस मनुष्यों ने अपने मन में अपने चिक्त में एक परमात्मा का स्मरण किया, उनके सारे पाप उनके सारे अवगुण नाश हो गए। हे भाई! जिस मनुष्यों ने गुरु के वचनों पर चल कर सदा-स्थिर हरि-नाम स्मरण किया, कर्तार ने उनका सारा जनम सफल कर दिया।

हे भाई! वे मनुष्य भाग्यशाली हैं, महापुरख हैं, गुणों के पात्र हैं, जो गुरु की मति पर चल कर इस मुश्किल तैरे जाने वाले संसार-समुंदर से पार लांघ जाते हैं।

हे भाई! परमात्मा के भक्त (परमात्मा की) सेवा-भक्ति करते हैं, वह (परमात्मा की हजूरी में) आदर-सत्कार पाते हैं। हे भाई! जिस मनुष्यों ने गुरु की मति पर चल के प्रभु की सेवा-भक्ति की (परमात्मा ने उनके सारे पाप एक छिन में ही दूर कर दिए)।3।

तू अंतरजामी हरि आपि जिउ तू चलावहि पिआरे हउ तिवै चला ॥ हमरै हाथि किछु नाहि जा तू मेलहि ता हउ आइ मिला ॥ जिन कउ तू हरि मेलहि सुआमी सभु तिन का लेखा छुटकि गइआ ॥ तिन की गणत न करिअहु को भाई जो गुर बचनी हरि मेलि लइआ ॥ नानक दइआलु होआ तिन ऊपरि जिन गुर का भाणा मंनिआ भला ॥ तू अंतरजामी हरि आपि जिउ तू चलावहि पिआरे हउ तिवै चला ॥४॥२॥

पद्अर्थ: अंतरजामी = (अन्तर+या) अंदर तक पहुँच वाला, अंदर की जानने वाला। जिउ = जैसे, जिस तरह। चलावहि = (जीवन-राह पर) तू चलाता है। हउ = मैं। चला = चलता हूँ। हाथि = हाथ में। जा = जब। आइ = आ के। मिला = मैं मिलता हूँ।

कउ = को। हरि = हे हरि! सुआमी = हे स्वामी! सभु = सारा। छुटकि गइआ = खत्म हो गया, समाप्त हो जाता है। गणत = दंत कथा, नुक्ताचीनी, कर्मों की गिनती विचार। को = कोई पक्ष। भाई = हे भाई! गुर बचनी = गुरु के वचनों से।

नानक = हे नानक! भला = भला जान के। भाणा = हुक्म, रज़ा।4।

अर्थ: हे हरि! तू स्वयं सब के दिल की जानने वाला है। हे प्यारे! जैसे तू (हम जीवों को) जीवन-राह पर चलाता है, मैं उसी तरह ही चलता हूँ। हे हरि! हम जीवों के वश में कुछ भी नहीं। जब तू (मुझे अपने चरणों में) मिलाता है, तब (ही) मैं आ के मिलता हूँ।

हे हरि! हे स्वामी! जिनको तू (अपने चरणों में) जोड़ता है, उनके (पिछले किए कर्मों का) सारा लेख समाप्त हो जाता है (उनके अंदर से पिछले किए सारे बुरे कर्मों के संस्कार मिट जाते हैं)। हे भाई! जिस मनुष्यों को परमात्मा गुरु के वचन पर चला के (अपने साथ) मिलाता है, कोई भी पक्ष उनके (पिछले कर्मों की) विचार मत करना (क्योंकि उनके अंदर से तो वे सारे संस्कार मिट जाते हैं)।

हे नानक! जो मनुष्य गुरु की रज़ा को मीठी कर के मानते हैं, परमात्मा उन पर स्वयं दयावान होता है।

हे हरि! तू स्वयं सब के दिल की जानने वाला है। हे प्यारे! जैसे तू (हम जीवों को) जीवन-राह पर चलाता है, मैं उसी तरह चलता हूँ।4।2।

तुखारी महला ४ ॥ तू जगजीवनु जगदीसु सभ करता स्रिसटि नाथु ॥ तिन तू धिआइआ मेरा रामु जिन कै धुरि लेखु माथु ॥ जिन कउ धुरि हरि लिखिआ सुआमी तिन हरि हरि नामु अराधिआ ॥ तिन के पाप इक निमख सभि लाथे जिन गुर बचनी हरि जापिआ ॥ धनु धंनु ते जन जिन हरि नामु जपिआ तिन देखे हउ भइआ सनाथु ॥ तू जगजीवनु जगदीसु सभ करता स्रिसटि नाथु ॥१॥

पद्अर्थ: जग जीवनु = जगत का जीवन, जगत के जीवों को जिंदगी देने वाला। जगदीसु = जगत का ईश, जगत का मालिक। नाथु = खसम, पति। तू = तुझे। जिन कै = जिनके भाग्यों में। धुरि = धुर से, प्रभु की हजूरी से। लेखु = (स्मरण के संस्कारों का) लेख। माथु = माथा।

तिन कउ = जिस के लिए। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। सभि पाप = सारे पाप। गुरबचनी = गुरु के वचन पर चल के। जापिआ = जपा। ते जन = (वह लोग)। तिन देखे = उनको देख के, उनके दर्शन करके। हउ = मैं। सनाथु = नाथ वाला, पति वाला।1।

अर्थ: हे प्रभु! तू जगत के जीवों को जिंदगी देने वाला है, तू जगत का मालिक है, तू सारी (सृष्टि) का खसम है। हे प्रभु! धुर दरगाह से जिनके भाग्यों में (हरि-स्मरण के संस्कारों का) लेख लिखा हुआ है, जिनका माथा भाग्यशाली है, उन्होंने तुझे स्मरण किया है। हे भाई! उन्होंने मेरे राम को स्मरण किया है।

हे भाई! मालिक-हरि ने जिनके भाग्यों में धुर से स्मरण का लेख लिख दिया है, वह (सदा) हरि-नाम का स्मरण करते हैं। हे भाई! जिन्होंने गुरु के वचन पर चल के परमात्मा का नाम जपा है, उनके सारे सारे पाप आँख झपकने जितने समय में दूर हो जाते हैं।

हे भाई! वे मनुष्य भाग्यशाली हैं, मुबारक हैं, जो परमात्मा का नाम जपते हैं। उनके दर्शन करके मैं (भी) पति वाला (कहलवाने योग्य) हो गया हूँ (क्योंकि मैं भी पति-प्रभु का नाम जपने लग गया हूँ)।

हे प्रभु! तू जगत के जीवों को जिंदगी देने वाला है, तू जगत का मालिक है, तू सारी (सृष्टि) का पैदा करने वाला है, तू सृष्टि का खसम पति है।1।

तू जलि थलि महीअलि भरपूरि सभ ऊपरि साचु धणी ॥ जिन जपिआ हरि मनि चीति हरि जपि जपि मुकतु घणी ॥ जिन जपिआ हरि ते मुकत प्राणी तिन के ऊजल मुख हरि दुआरि ॥ ओइ हलति पलति जन भए सुहेले हरि राखि लीए रखनहारि ॥ हरि संतसंगति जन सुणहु भाई गुरमुखि हरि सेवा सफल बणी ॥ तू जलि थलि महीअलि भरपूरि सभ ऊपरि साचु धणी ॥२॥

पद्अर्थ: जलि = जल में। थलि = धरती में। महीअलि = मही तलि (मही = धरती। तलि = तल पर)। धरती के तल पर, आकाश में। भरपूरि = व्यापक। साचु = सदा कायम रहने वाला। धणी = मालिक। मनि = मन में। चिति = चिक्त में। जपि जपि = बार बार जप के। घणी = बहुत सारी दुनिया।

ते = वे (बहुवचन)। मुकत = विकारों से स्वतंत्र। तिन के मुख = उनके मुँह। ऊजल = रौशन। दुआरि = द्वारे पर, दर पर। ओइ = वे लोग। हलति = (अत्र) इस लोक में। पलति = (परत्र) परलोक में। सुहेले = सुखी। रखनहारि = राखनहार ने, बचाने की समर्थता वाले ने।

नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।

पद्अर्थ: भाई = हे भाई! गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने वाले ने। सफल = फल वाली, कामयाब।2।

अर्थ: हे प्रभु! तू जल में धरती में आकाश में (हर जगह) व्यापक है, तू सब जीवों के सिर पर है, तू सदा कायम रहने वाला मालिक है। हे भाई! जिस मनुष्यों ने अपने मन में अपने चिक्त में परमात्मा का नाम (सदा) जपा (वे विकारों से बच गए)। हे भाई! प्रभु का नाम बार-बार जपके बेअंत दुनिया मुक्त हो जाती है।

हे भाई! जो प्राणी परमात्मा का नाम जपते हैं, वे पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं, परमात्मा के दर पर उनके मुँह उज्जवल होते हैं (प्रभु के द्वार पर वे आदर-मान पाते हैं)। वे लोग इस लोक में और परलोक में सुखी जीवन वाले हो जाते हैं। बचाने की समर्थता वाले परमात्मा ने उन्हें स्वयं (विकारों से) बचा लिया होता है।

हे हरि! हे संत जनो! हे साधु-संगत! हे भाई! सुनो- गुरु की शरण पड़ कर ही परमात्मा की की हुई सेवा-भक्ति सफल होती है।

हे प्रभु! तू जल में धरती में आकाश में (हर जगह) व्यापक है, तू सब जीवों के सिर पर है, तू सदा कायम रहने वाला मालिक है।2।

तू थान थनंतरि हरि एकु हरि एको एकु रविआ ॥ वणि त्रिणि त्रिभवणि सभ स्रिसटि मुखि हरि हरि नामु चविआ ॥ सभि चवहि हरि हरि नामु करते असंख अगणत हरि धिआवए ॥ सो धंनु धनु हरि संतु साधू जो हरि प्रभ करते भावए ॥ सो सफलु दरसनु देहु करते जिसु हरि हिरदै नामु सद चविआ ॥ तू थान थनंतरि हरि एकु हरि एको एकु रविआ ॥३॥

पद्अर्थ: थान थनंतरि = स्थान स्थान अंतर, हरेक जगह में। रविआ = व्यापक, मौजूद। वणि = बन में। त्रिणि = तृण में, घास के तीले में। त्रिभवणि = तीन भवनों वाले जगत में। मुखि = मुँह से। चविआ = उचारा।

सभि = सारे जीव। चवहि = उचारते हैं। करते = कर्तार ने। असंख = जिनकी संख्या नहीं गिनी जा सकती, अनगिनत। धिआवए = ध्यावै, ध्यान लगाती है (एकवचन)। करते भावए = कर्तार को भाती है।

सफलु = कामयाब। सो = वह मनुष्य। दरसनु = (उस मनुष्य के) दर्शन। करते = हे कर्तार! जिसु हिरदै = जिस हृदय में। सद = सदा। चविआ = उचारा।

अर्थ: हे हरि! हरेक जगह में एक तू ही तू मौजूद है।

हे प्रभु! जंगल में, तिनकों में, त्रिभवणी जगत में- हर जगह तू ही तू बस रहा है। हे भाई! सारी सृष्टि (भाव, सारी सृष्टि के जीव) अपने मुँह से हरि-नाम ही उचार रही है।

हे भाई! असंखों जीव अनगिनत जीव सारे ही कर्तार का नाम सदा उचार रहे हैं। हे भाई! (सारी सृष्टि) हरि का नाम स्मरण कर रही है। हे भाई! हरि का वह संत हरि का वह साधु धन्य है धन्य है, जो हरि-प्रभु को जो कर्तार को प्यारा लगता है (भा जाता है)।

हे कर्तार! जिसके हृदय में (तू बसता है), जो सदा (तेरा) नाम उचारता है, वह मनुष्य कामयाब (जीवन वाला) है, (मुझे उसका) दर्शन बख्श। हे हरि! हरेक जगह पर एक तू ही तू मौजूद है।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh