श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1116 तेरी भगति भंडार असंख जिसु तू देवहि मेरे सुआमी तिसु मिलहि ॥ जिस कै मसतकि गुर हाथु तिसु हिरदै हरि गुण टिकहि ॥ हरि गुण हिरदै टिकहि तिस कै जिसु अंतरि भउ भावनी होई ॥ बिनु भै किनै न प्रेमु पाइआ बिनु भै पारि न उतरिआ कोई ॥ भउ भाउ प्रीति नानक तिसहि लागै जिसु तू आपणी किरपा करहि ॥ तेरी भगति भंडार असंख जिसु तू देवहि मेरे सुआमी तिसु मिलहि ॥४॥३॥ पद्अर्थ: भंडार = खजाने। असंख = बेअंत। सुआमी = हे स्वामी! जिस कै मसतकि = जिसके माथे पर। गुर हाथु = गुरु का हाथु। टिकहि = टिक जाते हैं। नोट: ‘जिस कै मसतकि’ में से संबंधक ‘कै’ के कारण ‘जिसु’ का ‘ु’ हट गया है। तिस कै हिरदै = उस (मनुष्य) के हृदय में। भउ = डर अदब। भावनी = श्रद्धा, प्यार। बिनु भै = डर अदब के बिना। नोट: ‘बिनु भै’ में से संबंधक के कारण ‘भउ’ से ‘भै’ बन जाता है। नानक = हे नानक! तिसहि = उस (मनुष्य) को।4। नोट: ‘तिसहि’ में क्रिया विशेषण ‘ही’ के कारण शब्द ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा हटा दी गई है। अर्थ: हे मेरे स्वामी! (तेरे घर में) तेरी भक्ति के बेअंत खजाने भरे पड़े हैं, (पर यह खजाने) उस (मनुष्य) को मिलते हैं जिसको तू (स्वयं) देता है। हे भाई! जिस (मनुष्य) के माथे पर गुरु का हाथ हो, उसके हृदय में परमात्मा के गुण टिके रहते हैं। हे भाई! जिस (मनुष्य) के अंदर (परमात्मा का) डर-अदब है (परमात्मा के लिए) श्रद्धा-प्यार है, उसके हृदय में परमात्मा के गुण टिके रहते हैं। हे भाई! परमात्मा के डर-अदब के बिना किसी भी मनुष्य ने (परमात्मा का) प्रेम प्राप्त नहीं किया। कोई भी मनुष्य (परमात्मा के) डर-अदब के बिना (संसार-समुंदर से) पार नहीं लांघ सका (कोई भी विकारों से बच नहीं सका)। हे नानक! (कह: हे प्रभु!) उसी मनुष्य के हृदय में तेरा डर-अदब तेरा प्रेम-प्यार पैदा होता है जिस पर तू अपनी मेहर करता है। हे मेरे स्वामी! (तेरे घर में) तेरी भक्ति के बेअंत खजाने भरे हुए हैं, (पर ये खजाने) उस (मनुष्य) को मिलते हैं जिसको तू (स्वयं) देता है।4।3। तुखारी महला ४ ॥ नावणु पुरबु अभीचु गुर सतिगुर दरसु भइआ ॥ दुरमति मैलु हरी अगिआनु अंधेरु गइआ ॥ गुर दरसु पाइआ अगिआनु गवाइआ अंतरि जोति प्रगासी ॥ जनम मरण दुख खिन महि बिनसे हरि पाइआ प्रभु अबिनासी ॥ हरि आपि करतै पुरबु कीआ सतिगुरू कुलखेति नावणि गइआ ॥ नावणु पुरबु अभीचु गुर सतिगुर दरसु भइआ ॥१॥ पद्अर्थ: नावणु = स्नान, तीर्थ स्नान। पुरबु = (पर्वन्) पवित्र दिन, उजाले पक्ष की पहली, पूरनमाशी। नोट: ‘नावणु’ है संज्ञा, कर्ताकारक, एकवचन। अभीचु = (अभिजित् = पूर्ण जीत देने वाला) वह लगन जो किसी मुहिम के आरम्भ के लिए शुभ समझा जाता है। पुरबु अभीचु = वह पवित्र दिन जब तीर्थ स्नान वैरियों पर विजय देने वाला माना जाता है। गुर सतिगुर दरसु = गुरु का सतिगुरु के दर्शन। दुरमति मैलु = खोटी मति की मैल। हरी = (taken away) दूर हो गई। अगिआनु = आत्मिक जीवन से बेसमझी। अंधेरु = अंधेरा। अंतरि = अंदर। प्रगासी = प्रकट हो गई। जोति प्रगासी = ज्योति ने प्रकाश किया। जनम मरण दुख = जनम मरण के दुख। बिनसे = नाश हो गए। अबिनासी = नाश रहित। आपि करतै = कर्तार ने स्वयं। कीआ = किया। कुलखेति = कुलखेत से। नावणि = नावण ते, नावण (के मौके) पर, तीर्थ स्नान के समय पर।1। नोट: ‘नावणि’ है ‘नावण’ का अधिकरण कारक, एकवचन। अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य को) गुरु के सतिगुरु के दर्शन हो गए, (यह गुरु-दर्शन उस मनुष्य के लिए) तीर्थ-स्नान है, (उस मनुष्य के लिए) अभीच (नक्षत्र का) पवित्र दिन है। (गुरु के दर्शन की इनायत से उस मनुष्य की) खोटी मति की मैल काटी जाती है, (उस मनुष्य के अंदर से) आत्मिक जीवन की ओर से बेसमझी वाला अंधकार दूर हो जाता है। हे भाई! (जिस मनुष्य ने) गुरु के दर्शन कर लिए, (उसने अपने अंदर से) अज्ञान (-अंधेरा) दूर कर लिया, उसके अंदर परमात्मा की ज्योति ने अपना प्रकाश कर दिया, (गुरु के दर्शन की इनायत से उस मनुष्य ने) अविनाशी प्रभु (का मिलाप) हासिल कर लिया, उस मनुष्य के जनम से मरने तक के सारे दुख नाश हो गए। हे भाई! गुरु (अमरदास अभिजीत पर्व के) तीर्थ स्नान (के समय) पर कुलखेत पर गया, हरि ने कर्तार ने स्वयं (गुरु के जाने के इस उद्यम को वहाँ इकट्ठे हुए लोगों के लिए) पवित्र दिन बना दिया। हे भाई! (जिस मनुष्य को) गुरु के सतिगुरु के दर्शन हो गए, (यह गुरु-दर्शन उस मनुष्य के वास्ते) तीर्थ-स्नान है, (उस मनुष्य के लिए) अभीच (नक्षत्र का) पवित्र दिन है।1। मारगि पंथि चले गुर सतिगुर संगि सिखा ॥ अनदिनु भगति बणी खिनु खिनु निमख विखा ॥ हरि हरि भगति बणी प्रभ केरी सभु लोकु वेखणि आइआ ॥ जिन दरसु सतिगुर गुरू कीआ तिन आपि हरि मेलाइआ ॥ तीरथ उदमु सतिगुरू कीआ सभ लोक उधरण अरथा ॥ मारगि पंथि चले गुर सतिगुर संगि सिखा ॥२॥ पद्अर्थ: मारगि = मार्ग पर, रास्ते पर। पंथि = रास्ते पर। गुर संगि = गुरु के साथ। सिखा = अनेक सिख। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। बणी = बनी रहती थी। खिनु खिनु = हरेक छिन। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। विखा = कदम। निमख निमख = हरेक निमेष में। विखा विखा = हरेक कदम पर। केरी = की। सभु लोक = सारी लुकाई। तीरथ उदमु = तीर्थों पर जाने का उद्यम। अरथा = वासते। उधरण अरथा = उद्धार के लिए, बचाने के वास्ते, गलत रास्ते पर पड़ने से बचाने के लिए।2। अर्थ: हे भाई! अनेक सिख गुरु (अमरदास जी) के साथ उस लंबे राह में गए। हे भाई! हरेक छिन, निमख-निमख, कदम-कदम पर हर रोज परमात्मा की भक्ति (का अवसर) बना रहता था। हे भाई! (उस सारे राह में) सदा परमात्मा की भक्ति का उद्यम बना रहता था, बहुत सारी दुनिया (गुरु का) दर्शन करने आती थी। जिस (भाग्यशाली मनुष्यों) ने गुरु के दर्शन किए, परमात्मा ने स्वयं उनको (अपने चरणों में) जोड़ लिया (भाव, जो मनुष्य गुरु का दर्शन करते हैं, उनको परमात्मा अपने साथ मिला लेता है)। हे भाई! (तीर्थों पर इकट्ठी हुई) सारी लुकाई को (गलत रास्ते पर) बचाने के लिए सतिगुरु ने तीर्थों पर जाने का उद्यम किया था। सतिगुरु के साथ अनेक सिख उस लंबे रास्ते में गए (थे)। प्रथम आए कुलखेति गुर सतिगुर पुरबु होआ ॥ खबरि भई संसारि आए त्रै लोआ ॥ देखणि आए तीनि लोक सुरि नर मुनि जन सभि आइआ ॥ जिन परसिआ गुरु सतिगुरू पूरा तिन के किलविख नास गवाइआ ॥ जोगी दिग्मबर संनिआसी खटु दरसन करि गए गोसटि ढोआ ॥ प्रथम आए कुलखेति गुर सतिगुर पुरबु होआ ॥३॥ पद्अर्थ: प्रथम = पहले। कुलखेति = कुलखेत पर, कुरूक्षेत्र पर। गुर पुरब = गुरु का पवित्र दिन, गुरु के कुलखेत आने से संबंध रखने वाला पवित्र दिन। होआ = हो गया, बन गया। संसारि = संसार में। त्रै लोआ = तीनों लोक, तीन लोकों के जीव, बेअंत लोक। तीनि लोक = (धरती आकाश पाताल) तीनों लोक, बेअंत लोक। सुरि नर = दैवी स्वभाव वाले मनुष्य। मुनि जन = अनेक ऋषि स्वभाव वाले बंदे। सभि = सारे। परसिआ = (दर्शन) परसिआ, दर्शन किए। किलविख = पाप। दिगंबर = (दिग = दिशा। अंबर = वस्त्र, कपड़े। चारों ही दिशाएं जिनके पहनने वाले कपड़े हैं) नांगे। खटु = छह। दरसन = भेख। खटु दरसनु = छह भेख (जोगी, सन्यासी, जंगम, बोधी, सरेवड़े, बैरागी) छहों भेषों के साधु। गोसटि = चर्चा, विचार। ढोआ = भेटा।3। अर्थ: हे भाई! गुरु (अमरदास) जी पहले कुरूक्षेत्र पर पहुँचे। (वहाँ के लोगों के लिए वह दिन) गुरु सतिगुरु से संबंध रखने वाला पवित्र दिन बन गया। संसार में (भाव, दूर-दूर तक) (सतिगुरु जी के कुरूक्षेत्र आने की) ख़बर हो गई, बेअंत लोग (दर्शनों के लिए) आ गए।? हे भाई! (गुरु अमरदास जी के) दर्शन करने के लिए बहुत लोग आ पहुँचे। दैवी-स्वभाव वाले मनुष्य, ऋषि-स्वभाव वाले मनुष्य बहुत सारे आ के एकत्र हुए। हे भाई! जिस (भाग्यशाली मनुष्यों) ने पूरे गुरु सतिगुरु के दर्शन किए, उनके (पिछले सारे) पाप नाश हो गए। हे भाई! जोगी, नांगे, सन्यासी (सारे ही) छह भेषों के साधु (दर्शन करने आए)। कई किस्म के परस्पर शुभ-विचार (वह साधु लोग अपनी ओर से गुरु के दर पर) भेटा पेश कर के गए। हे भाई! गुरु (अमरदास) जी पहले कुरूक्षेत्र पहुँचे। (वहाँ के लोगों के लिए वह दिन) गुरु सतिगुरु के साथ संबंध रखने वाला पवित्र दिन बन गया।3। दुतीआ जमुन गए गुरि हरि हरि जपनु कीआ ॥ जागाती मिले दे भेट गुर पिछै लंघाइ दीआ ॥ सभ छुटी सतिगुरू पिछै जिनि हरि हरि नामु धिआइआ ॥ गुर बचनि मारगि जो पंथि चाले तिन जमु जागाती नेड़ि न आइआ ॥ सभ गुरू गुरू जगतु बोलै गुर कै नाइ लइऐ सभि छुटकि गइआ ॥ दुतीआ जमुन गए गुरि हरि हरि जपनु कीआ ॥४॥ पद्अर्थ: दुतीआ = दूसरी जगह, फिर। जमुन = यमुना (नदी) पर। गुरि = गुरु (अमरदास जी) ने। जागाती = मसूली, सरकारी मसूल उगराहने वाले। दे = देकर। गुर पिछै = गुरु के अनुसार चलने वालों को। सभ = सारी लोकाई। छुटी = (मसूल देने से) बच गई। जिनि = जिस (जिस) ने। गुर बचनि = गुरु के हुक्म पर। गुर मारगि = गुरु के बताए रास्ते पर। गुर पंथि = गुरु के राह पर। जो चाले = जो (मनुष्य) चले। तिन नेड़ि = उनके नजदीक। जमु जागाती = मसूलीया जमराज। सभ जगतु = सारी दुनिया, सारी लोकाई। नाइ लइऐ = अगर नाम लिया जाए। सभि = सारे जीव। छुटकि गइआ = (जम जागाती की धौंस से) बच गए।4। अर्थ: हे भाई! फिर (गुरु अमरदास जी) यमुना नदी पर पहुँचे। सतिगुरु जी ने (वहाँ भी) परमात्मा का नाम ही जपा और जपाया। (यात्रियों से) सरकारी मसूल उगराहने वाले भी भेटा रख के (सतिगुरु जी को) मिले। अपने आप को गुरु का सिख कहलवाने वाले सबको (उन मसूलियों ने बिना मसूल लिए) पार लंघा दिया। गुरु के पीछे चलने वाली सारी लोकाई मसूल भरने से बच गई। (इसी तरह) हे भाई! जिस-जिस ने परमात्मा का नाम स्मरण किया, जो मनुष्य गुरु के वचनों पर चलते हैं, गुरु के बताए हुए रास्ते पर चलते हैं, जमराज (रूपी) मसूलिया उनके नजदीक नहीं फटकता। हे भाई! (जो) लोकाई गुरु का आसरा लेती है, (जमराज मसूलिया उसके नज़दीक नहीं आता)। हे भाई! अगर गुरु का नाम लिया जाए (यदि गुरु की शरण पड़ के हरि-नाम जपा जाए) तो (नाम लेने वाले) सारे (जम-जागाती की धौंस से) बच जाते हैं। हे भाई! फिर (गुरु अमरदास जी) यमुना नदी पर पहुँचे। सतिगुरु जी ने (वहाँ भी) परमात्मा का नाम जपा और जपाया।4। त्रितीआ आए सुरसरी तह कउतकु चलतु भइआ ॥ सभ मोही देखि दरसनु गुर संत किनै आढु न दामु लइआ ॥ आढु दामु किछु पइआ न बोलक जागातीआ मोहण मुंदणि पई ॥ भाई हम करह किआ किसु पासि मांगह सभ भागि सतिगुर पिछै पई ॥ जागातीआ उपाव सिआणप करि वीचारु डिठा भंनि बोलका सभि उठि गइआ ॥ त्रितीआ आए सुरसरी तह कउतकु चलतु भइआ ॥५॥ पद्अर्थ: त्रितीआ = (दो जगहों पर हो के) तीसरी जगह। सुरसरी = गंगा। तह = वहाँ (गंगा पर)। कउतकु = तमाशा। चलतु = अजब खेल। सभ = सारी लोकाई। मोही = मस्त हो गई। देखि = देख के। दरसनु गुर संत = गुरु संत के दर्शन। किनै = किसी (भी मसूलीए) ने। आढु दामु = आधी कौड़ी। बोलक = (मसूलिया की) गोलकों में। मुंदणि = मुँह बंद हो जाना। मोहण मुंदणि = इस तरह मोहे गए कि मुँह से बोलने योग्य ना रहे। हम किआ करह = हम क्या करें? मांगह = हम माँगें। सभ = सारी दुनिया। भागि = भाग के। सतिगुर पिछै पई = गुरु की शरण जा पड़ी है। करि वीचारु = विचार के। उपाव = कई तरह के उपाय, कई तरीके (सोचे)। सभि = सारे (जागाती)। उठि = उठ के।5। नोट: ‘उपाव’ है ‘उपाउ’ का बहुवचन। अर्थ: हे भाई! (दो तीर्थों से होकर सतिगुरु अमरदास जी) तीसरी जगह गंगा पहुँचे। वहाँ एक अजीब तमाशा हुआ। संत-गुरु (अमरदास जी) के दर्शन करके सारी दुनिया मस्त हो गई। किसी (भी मसूलिए) ने (किसी भी यात्री से) आधी कौड़ी (मसूल भी) वसूल ना किया। हे भाई! (मसूलियों की) गोलकों में आधी कौड़ी महसूल ना पड़ा। मसूलिए यूँ हैरान से हो के बोलने के योग्य ना रहे, (कहने लगे) - हे भाई! हम (अब) क्या करें? हम किससे (मसूल) माँगें? ये सारी दुनिया ही भाग के गुरु की शरण जा पड़ी है (और, जो अपने आप को गुरु का सिख बता रहे हैं, उनसे हम महसूल ले नहीं सकते)। हे भाई! मसूलियों ने कई उपाय सोचे, कई तरह से विचार किया, (आखिर उन्होंने) विचार करके देख लिया (कि महसूल उगराहने में हमारी पेश नहीं जा सकती), अपनी गोलकें बँद करके वे सारे उठ के चले गए। हे भाई! (दो तीर्थों से होकर सतिगुरु अमरदास जी) तीसरी जगह गंगा पहुँचे। वहाँ एक अजीब तमाशा हुआ।5। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |