श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रागु केदारा बाणी कबीर जीउ की    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

उसतति निंदा दोऊ बिबरजित तजहु मानु अभिमाना ॥ लोहा कंचनु सम करि जानहि ते मूरति भगवाना ॥१॥

पद्अर्थ: बिबरजित = मना, वर्जित। उसतति = स्तुति, बड़ाई, खुशामद। अभिमाना = अहंकार। कंचनु = सोना। सम = बराबर। ते = वे लोग।1।

अर्थ: हे भाई! किसी मनुष्य की खुशामद करनी अथवा किसी के ऐब फरोलने- ये दोनों ही काम बुरे हैं। (यह ख्याल भी) छोड़ दो (कि कोई तुम्हारा) आदर (करता है अथवा कोई) अकड़ (दिखाता है)। जो मनुष्य लोहे और सोने को एक समान जानते हैं, वे भगवान का रूप हैं। (सोना-आदर। लोहा-निरादरी)।1।

तेरा जनु एकु आधु कोई ॥ कामु क्रोधु लोभु मोहु बिबरजित हरि पदु चीन्है सोई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: एकु आधु = कोई विरला। हरि पदु = ईश्वरीय मिलाप की अवस्था। चीनै = पहचानता है।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु! कोई विरला मनुष्य ही तेरा हो के रहता है। (जो तेरा बनता है) उसको काम, क्रोध, लोभ, मोह (आदि विकार) बुरे लगते हैं। (जो मनुष्य इन्हें त्यागता है) वही मनुष्य प्रभु-मिलापवाली अवस्था से सांझ पाता है।1। रहाउ।

रज गुण तम गुण सत गुण कहीऐ इह तेरी सभ माइआ ॥ चउथे पद कउ जो नरु चीन्है तिन्ह ही परम पदु पाइआ ॥२॥

पद्अर्थ: रजु गुण = माया के वह गुण जो मोह अहंकार आदि के मूल हैं। तम गुण = वह गुण जिसके कारण आत्मिक जीवन की सांसे दब जाएं। (तम = सांसों का दब जाना, दम घुटना)। सत गुण = माया के गुणों में पहला गुण जिसका नतीजा शांति, दया, दान, क्षमा, प्रसन्नता आदि है। इस अवस्था में मनुष्य शांति, दया आदि पर जोर देता है, और इनके कारण साथ ही उसको जीवन उल्लास आता है।2।

अर्थ: कोई जीव रजो गुण में है, कोई तमो गुण में हैं, कोई सतो गुण में हैं। पर (जीवों के भी क्या वश?) ये सब कुछ, हे प्रभु! तेरी माया ही कही जा सकती है। जो मनुष्य (इनसे ऊपर) चौथी अवस्था (प्रभु मिलाप) के साथ जान-पहचान करता है, उसी को ही उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त होती है।2।

तीरथ बरत नेम सुचि संजम सदा रहै निहकामा ॥ त्रिसना अरु माइआ भ्रमु चूका चितवत आतम रामा ॥३॥

पद्अर्थ: निहकामा = कामना रहित। सुचि = पवित्रता, शारीरिक स्वच्छता। संजम = इन्द्रियों पर काबू करने के यत्न। चितवत = स्मरण करते हुए।3।

अर्थ: जो मनुष्य सदा सर्व-व्यापक प्रभु को स्मरण करता है, उसके अंदर से माया की तृष्णा और भटकना दूर हो जाती है, इसलिए वह सदा तीर्थ-व्रत-सुचि-संजम आदि नियमों से निष्काम रहता है, (भाव, इन कर्मों के करने की उसको चाहत नहीं रहती)।3।

जिह मंदरि दीपकु परगासिआ अंधकारु तह नासा ॥ निरभउ पूरि रहे भ्रमु भागा कहि कबीर जन दासा ॥४॥१॥

पद्अर्थ: मंदरि = मन्दिर में, घर में। दीपकु = दीया। परगासिआ = जग उठा। तह = वहाँ। पूरि रहे = प्रकट हुए।4।

अर्थ: प्रभु का जन, प्रभु का दास कबीर कहता है: जिस घर में दीपक जल जाए, वहाँ अंधेरा दूर हो जाता है, वैसे ही जिस हृदय में निर्भय प्रकट हो जाए उसकी भटकना मिट जाती है।4।1।

शब्द का भाव: संत का कर्तव्य- विकारों से मनुष्य परहेज़ करता है; ना किसी की निंदा, ना किसी की खुशामद, तीर्थ व्रत आदि से बेपरवाह; कोई भटकना नहीं रह जाती।

किनही बनजिआ कांसी तांबा किनही लउग सुपारी ॥ संतहु बनजिआ नामु गोबिद का ऐसी खेप हमारी ॥१॥

पद्अर्थ: बनजिआ = व्यापर किया, वणज किया। संतहु = संतों ने। खेप = सौदा।1।

अर्थ: कई लोग कांसे, तांबे आदि का व्यापार करते हैं, कई लौंग सुपारी आदि का व्यापार करते हैं। प्रभु के संतों ने परमात्मा के नाम का व्यापार किया है; मैंने भी यही सौदा लादा है।1।

हरि के नाम के बिआपारी ॥ हीरा हाथि चड़िआ निरमोलकु छूटि गई संसारी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बिआपारी = व्यापारी। हाथि चढ़िया = मिल गया। संसारी = संसार में ग्रसे रहने वाली तवज्जो/ध्यान।1। रहाउ।

अर्थ: जो मनुष्य प्रभु के नाम का वणज करते हैं, उनको प्रभु का नाम-रूपी अमोलक हीरा मिल जाता है। और, उनकी वह रुचि समाप्त हो जाती है, जो सदा संसार में ही जोड़े रखती है।1। रहाउ।

साचे लाए तउ सच लागे साचे के बिउहारी ॥ साची बसतु के भार चलाए पहुचे जाइ भंडारी ॥२॥

पद्अर्थ: बिउहारी = व्यापारी। चलाए = लाद लिए। भंडारी = (ईश्वरीय) खजाने में।2।

अर्थ: सच्चे नाम का व्यापार करने वाले बँदे तब ही सच्चे नाम में लगते हैं, जब प्रभु स्वयं उनको इस वणज में लगाता है। वह मनुष्य सदा-स्थिर रहने वाली नाम-वस्तु के लदे हुए चलते हैं, और प्रभु की हजूरी में जा पहुँचते हैं।2।

आपहि रतन जवाहर मानिक आपै है पासारी ॥ आपै दह दिस आप चलावै निहचलु है बिआपारी ॥३॥

पद्अर्थ: आपहि = प्रभु स्वयं ही। पासारी = पंसारी, सौदा बेचने वाला। दहदिस = दसों दिशाओं में। निहचलु = सदा स्थिर रहने वाला।3।

अर्थ: प्रभु स्वयं ही रत्न है, स्वयं ही हीरा है, स्वयं ही मोती है, वह स्वयं ही इस की हाट को चला रहा है; वह स्वयं ही सदा-स्थिर रहने वाला सौदागर है, वह स्वयं ही जीव-बन्जारों को (जगत में) दसों दिशाओं में चला रहा है।3।

मनु करि बैलु सुरति करि पैडा गिआन गोनि भरि डारी ॥ कहतु कबीरु सुनहु रे संतहु निबही खेप हमारी ॥४॥२॥

पद्अर्थ: सुरति = (प्रभु चरणों में जुड़ी हुई) तवज्जो/ध्यान। गोनि = थैली। भरि डारी = भर ली। निबही = ठिकाने तक पहुँच गई है।4।

अर्थ: कबीर कहता है: हे संत जनों! सुनो, मेरा वणजा हुआ नाम-सौदा बड़ा लाभदायक रहा है। मैंने अपने मन को बैल बना के, (प्रभु के चरणों में जुड़ी अपनी) तवज्जो से जीवन-पथ पर चल के (गुरु के बताए हुए) ज्ञान की थैली भर ली है।4।2।

शब्द का भाव: संत का कर्तव्य- संसार की ओर सदा दौड़ती तवज्जो प्रभु में टिक जाती है। जैसे दुनियादार मायावी वाणज्य-व्यापार के लिए तन से मन से दौड़-भाग करता है, वैसे ही प्रभु चरणों में जुड़ा हुआ व्यक्ति प्रभु-प्रीति को ही अपने जीवन का निशाना समझता है।

री कलवारि गवारि मूढ मति उलटो पवनु फिरावउ ॥ मनु मतवार मेर सर भाठी अम्रित धार चुआवउ ॥१॥

पद्अर्थ: री कलवारि = हे कलालण! री गवारि = हे गवाँरन! मूढ = मूर्ख। पवनु = चंचल (मन), (“संतहु मन पवनै सुखु बनिआ....” सोरठि कबीर)। उलटो पवनु = उल्टा हुआ चंचल (मन), बिगड़ा हुआ चंचल मन। फिरावउं = मैं फिरा रहा हूँ, मैं मोड़ रहा हूँ, मैं बिगड़ी के कारण मना कर रहा हूँ। मतवार = मतवाला, मस्त। मेर = 1. सबसे ऊँचा पर्वत जिसमें सोना और हीरे आदि मिलते माने जाते हैं: समेरु पर्वत। 2. माला का सबसे ऊपरवाला मणका; 3. शरीर का सबसे ऊँचा शिरोमणि हिस्सा, दिमाग़, दसवाँ द्वार। सर = बराबर, जैसा। भाठी = भट्ठी, जिसमें अर्क शराब आदि निकाली जाती है। अम्रित धार = (नाम) अमृत की धाराएं। चुआवउ = मैं चुआ रहा हूँ, टपका रहा हूँ, निकाल रहा हूँ।1।

नोट: ‘री’ ‘स्त्रीलिंग’ है, इसके मुकाबले में शब्द ‘रे’ पुलिंग है। ‘रे लोई! ’ में शब्द ‘लोई’ पुलिंग ही हो सकता है। सो, राग आसा के शब्द “करवतु भला...” में शब्द ‘लोई’ कबीर जी की पत्नी के लिए नहीं है।

अर्थ: हे (माया का) नशा बाँटने वाली! हे गँवारन! हे मेरी मूर्ख बुद्धि! मैं तो (नाम-अमृत की मौज में) अपने टेढ़े चलते चंचल मन को (माया की ओर से) मना कर रहा हूँ। (प्रभु-चरणों में जुड़ी) तवज्जो की भट्ठी बना के मैं ज्यों-ज्यों धारा चुआता हूँ, त्यों-त्यों मेरा मन (उसमें) मस्त होता जा रहा है।1।

बोलहु भईआ राम की दुहाई ॥ पीवहु संत सदा मति दुरलभ सहजे पिआस बुझाई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: भईआ = हे भाई! हे सज्जन! दुहाई = और बातें छोड़ के एक ही बात को बार बार कहते जाने को दोहाई डालना कहा जाता है। राम की दुहाई = और ख्याल छोड़ के परमात्मा के नाम का ही बार बार उच्चारण। बोलहु राम की दुहाई = बार बार प्रभु के नाम का जाप जपो। संत = हे संत जनो! पीवहु = (प्रभु के नाम का जाप रूपी अमृत) पीयो। दुरलभ = दुर्लभ, जो बहुत मुश्किल से मिले। सदा मति दुरलभ = (हे संतजनो! राम की दोहाई रूपी अमृत पीने से) तुम्हारी मति सदा के लिए ऐसी बन जाएगी जो मुश्किल से मिलती है। सहजे = सहज अवस्था में (पहुँचा के)। पिआस बुझाई = (यह अमृत माया की) प्यास बुझा देता है।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! बार-बार प्रभु के नाम का जाप जपो; हे संतजनो! (प्रभु के नाम का जाप-रस अमृत) पीयो। इस नाम-रस अमृत (के पीने) से तुम्हारी मति हमेशा के लिए ऐसी बन जाएगी जो मुश्किल से बना करती है, (यह अमृत) सहज अवस्था में (पहुँचा के, माया की) प्यास बुझा देता है।1। रहाउ।

भै बिचि भाउ भाइ कोऊ बूझहि हरि रसु पावै भाई ॥ जेते घट अम्रितु सभ ही महि भावै तिसहि पीआई ॥२॥

पद्अर्थ: भै बिचि = प्रभु के अदब में (रहने से)। भाउ = (प्रभु से) प्यार। भाइ = (उस) प्यार द्वारा। कोऊ = कोई विरले विरले। हरि रसु = हरि नाम अमृत का स्वाद। भाई = हे भाई! घर = शरीर, जीव। भावै = (जो उस प्रभु को) अच्छा लगता है। तिसहि = उसको ही।2।

अर्थ: हे भाई! जो जो मनुष्य हरि-नाम अमृत का स्वाद चखता है, प्रभु के डर में रहके उसके अंदर प्रभु का प्रेम पैदा होता है। उस प्रेम की इनायत से वह विरले (भाग्यशाली) लोग यह बात समझ लेते हैं कि जितने भी जीव हैं, उन सब के अंदर ये नाम-अमृत मौजूद है। पर, जो जीव उस प्रभु को अच्छा लगता है उसी को ही वह अमृत पिलाता है।2।

नगरी एकै नउ दरवाजे धावतु बरजि रहाई ॥ त्रिकुटी छूटै दसवा दरु खूल्है ता मनु खीवा भाई ॥३॥

पद्अर्थ: नगरी एकै = इस अपने शरीर रूप नगर में ही। धावत = भटकते मन को। त्रिकुटी = त्योड़ी, खिझ। दसवा दरु = दसवां दरवाजा, दिमाग़। खूलै = खुल जाता है, (प्रभु के चरणों से) संबंध जोड़ लेता है। खीवा = मस्त। भाई = हे सज्जन!।3।

अर्थ: हे भाई! (‘राम की दुहाई’ की इनायत से) जो मनुष्य इस नौ-दरवाजों वाले शरीर के अंदर ही भटकते मन को माया की ओर से रोक के रखता है, उसकी त्रिकुटी (खिझ) समाप्त हो जाती है (भाव, माया के कारण पैदा हुई खिझ खत्म हो जाती है), उसकी तवज्जो प्रभु-चरणों में जुड़ जाती है और (उस मिलाप में उसका) मन मगन रहता है।3।

अभै पद पूरि ताप तह नासे कहि कबीर बीचारी ॥ उबट चलंते इहु मदु पाइआ जैसे खोंद खुमारी ॥४॥३॥

पद्अर्थ: अभै पद = निर्भयता वाली अवस्था, मन की वह हालत जहाँ दुनिया का कोई डर नहीं सताता। तह = वहाँ, उस अवस्था में। कहि = कहे, कहता है। बीचारी = विचार के, सोच समझ के। उबट = (संस्कृत: उद्वत् = an elevation, hill, प्राक्रित रूप है ‘उबट’) मुश्किल घाटी, औखी घाटी, कठिन चढ़ाई की ओर। मदु = नशा। खुमारी = मस्ती, नशा। खोंद = (क्षौद्) दाख का रस, अंगूरी शराब। खोंद खुमारी = अंगूरी शराब का नशा।4।

अर्थ: अब कबीर यह बात बड़े विश्वास के साथ कहता है: (‘राम की दुहाई’ की इनायत से) मन में वह हालत पैदा हो जाती है जहाँ इसको (दुनियावी) डर नहीं सताते, मन के सारे कष्ट नाश हो जाते हैं। (पर यह नाम-अमृत हासिल करने वाला रास्ता, मुश्किल और पहाड़ी है, औखी घाटी है) इस कठिन चढ़ाई के राह पर चढ़ते हुए यह नशा प्राप्त होता है (और यह नशा इस प्रकार है) जैसे अंगूरी शराब का नशा होता है।4।3।

नोट: शब्द का मुख्य भाव ‘रहाउ’ की तुक में हुआ करता है। सारे शब्द में ‘राम की दुहाई’ का विकास है। नाम-जपने की इनायत से जो तब्दीली जीवन में पैदा होती है, उसका वर्णन शब्द के चारों बँदों (छंदों) में किया गया है। शब्द त्रिकुटी, पवन आदि से जल्दबाजी में यह नतीजा निकालना ठीक नहीं है कि कबीर जी किसी योगाभ्यास व प्राणायाम की हामी भरते हैं।

शब्द का भाव: स्मरण का नतीजा- माया की तृष्णा समाप्त हो जाती है, मन नाम-अमृत की धारा में मस्त रहता है, माया के मोह के कारण उपजी खिझ दूर हो जाती है।

काम क्रोध त्रिसना के लीने गति नही एकै जानी ॥ फूटी आखै कछू न सूझै बूडि मूए बिनु पानी ॥१॥

पद्अर्थ: लीने = ग्रसे हुए। एकै गति = एक प्रभु (के मेल) की अवस्था। फूटी आखै = आँख फूट जाने के कारण, अंधा हो जाने के कारण। बूडि मूए = डूब कर मर गए।1।

अर्थ: (हे अंजान!) काम, क्रोध, तृष्णा आदि में ग्रसे रह के तू यह नहीं समझा कि प्रभु के साथ मेल कैसे हो सकेगा। माया में तू अंधा हो रहा है, (माया के बिना) कुछ और तुझे सूझता ही नहीं। तू पानी के बिना ही (सूखे में ही) डूब मरा।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh