श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1130 गिआन अंजनु सतिगुर ते होइ ॥ राम नामु रवि रहिआ तिहु लोइ ॥३॥ पद्अर्थ: गिआन अंजनु = आत्मिक जीवन की सूझ का सुरमा। ते = से। रवि रहिआ = व्यापक। तिहु लोइ = तीनों ही लोकों में।3। अर्थ: आत्मिक जीवन की सूझ देने वाला सुरमा जिस मनुष्य को गुरु से मिल गया, उसको सारे जगत में परमात्मा का नाम ही व्यापक दिखाई देता है।3। कलिजुग महि हरि जीउ एकु होर रुति न काई ॥ नानक गुरमुखि हिरदै राम नामु लेहु जमाई ॥४॥१०॥ पद्अर्थ: हिरदै = हृदय में। लेहु जमाई = बीज लो।4। अर्थ: (शास्त्रों के अनुसार भी) कलियुग में सिर्फ हरि-नाम जपने की ही ऋतु है, किसी और कर्मकांड के करने का मौसम नहीं। (इसलिए) हे नानक! (कह: हे भाई!) गुरु की शरण पड़ कर अपने दिल में परमात्मा के नाम का बीज बो लो।4।10। नोट: किसी कर्मकांडी को समझा रहे हैं जो स्मरण से टूट के सिर्फ कर्मकांड को ही जीवन का सही रास्ता समझ रहा है। भैरउ महला ३ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ दुबिधा मनमुख रोगि विआपे त्रिसना जलहि अधिकाई ॥ मरि मरि जमहि ठउर न पावहि बिरथा जनमु गवाई ॥१॥ पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। दुबिधा रोगि = मेर तेर के आत्मिक रोग में। विआपे = फसे हुए। जलहि = जलते हैं। अधिकाई = बहुत। मरि = मर के। ठउर = जनम मरण के चक्कर से ठहराव। गवाई = गवा के।1। अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य भेदभाव के आत्मिक रोग में जकड़े हुए हैं, माया के लालच की आग में बहुत जलते हैं (इस तरह ही अपना कीमती) जनम व्यर्थ गवा के पैदा होने-मरने के चक्करों में पड़े रहते हैं, इस चक्कर में से उनको मुक्ति नहीं मिली।1। मेरे प्रीतम करि किरपा देहु बुझाई ॥ हउमै रोगी जगतु उपाइआ बिनु सबदै रोगु न जाई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: प्रीतम = हे प्रीतम! बुझाई = आत्मिक जीवन की सूझ। उपाइआ = बना दिया है। न जाई = दूर नहीं होता।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे प्रीतम प्रभु! (मेरे पर) मेहर कर, (मुझे आत्मिक जीवन की) सूझ बख्श। हे प्रभु! अहंकार ने सारे जगत को (आत्मिक तौर पर) रोगी बना रखा है। यह रोग गुरु के शब्द के बिना दूर नहीं हो सकता।1। रहाउ। सिम्रिति सासत्र पड़हि मुनि केते बिनु सबदै सुरति न पाई ॥ त्रै गुण सभे रोगि विआपे ममता सुरति गवाई ॥२॥ पद्अर्थ: मुनि = ऋषि, मौनधारी साधु। केते = कितने ही, अनेक। सुरति = आत्मिक जीवन की सूझ। न पाई = नहीं मिलती। त्रै गुण सभे = सारे त्रै गुणी जीव। ममता = अपनत्व (ने)। सुरति गवाई = (उनकी) होश भुला रखी है।2। अर्थ: हे भाई! अनेक मुनि जन स्मृतियाँ पढ़ते हैं शास्त्र भी पढ़ते हैं, पर गुरु के शब्द के बिना आत्मिक जीवन की सूझ किसी को प्राप्त नहीं होती। सारे ही त्रै-गुणी जीव अहंकार के रोग में फंसे पड़े हैं, ममता ने उनकी होश भुला रखी है।2। इकि आपे काढि लए प्रभि आपे गुर सेवा प्रभि लाए ॥ हरि का नामु निधानो पाइआ सुखु वसिआ मनि आए ॥३॥ पद्अर्थ: इकि = कई। प्रभि आपे = प्रभु ने स्वयं ही। निधाना = खजाना। मनि = मन में। आए = आ के।3। नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन। अर्थ: पर, हे भाई! कई ऐसे (भाग्यशाली) हैं जिन्हें प्रभु ने स्वयं ही (ममता में से) बचा रखा है, प्रभु ने उनको गुरु की सेवा में लगा रखा है। उन्होंने परमात्मा का नाम-खजाना पा लिया है, (इस वास्ते उनके) मन में आत्मिक आनंद आ बसा है।3। चउथी पदवी गुरमुखि वरतहि तिन निज घरि वासा पाइआ ॥ पूरै सतिगुरि किरपा कीनी विचहु आपु गवाइआ ॥४॥ पद्अर्थ: चउथी पदवी = तीन गुणों के असर से ऊपर के आत्मिक मण्डल में। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य। निज घरि = अपने (असल) घर में, प्रभु के चरणों में। सतिगुरि = सतिगुरु ने। विचहु = अपने अंदर से। आपु = स्वै भाव।4। अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य तीनों गुणों के प्रभाव से ऊपर के आत्मिक मण्डल में रह के जगत से कार-व्यवहार बनाए रखते हैं। वह सदा प्रभु-चरणों में टिके रहते हैं। पूरे गुरु ने उन पर मेहर की हुई है, (इस वास्ते उन्होंने अपने) अंदर से स्वै भाव दूर कर लिया है।4। एकसु की सिरि कार एक जिनि ब्रहमा बिसनु रुद्रु उपाइआ ॥ नानक निहचलु साचा एको ना ओहु मरै न जाइआ ॥५॥१॥११॥ पद्अर्थ: सिरि = सिर पर। एकसु की = एक परमात्मा की ही। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। निहचलु = अटल। साचा = सदा कायम रहने वाला। न जाइआ = नहीं पैदा होता है।5। अर्थ: (पर, हे भाई! जीवों के भी क्या वश?) जिस परमात्मा ने ब्रहमा विष्णू शिव (जैसे बड़े-बड़े देवता) पैदा किए, उसका ही हुक्म हरेक जीव के ऊपर चल रहा है। हे नानक! सदा कायम रहने वाला सदा अटल रहने वाला एक परमात्मा ही है, वह ना कभी मरता है ना पैदा होता है।5।1।11। भैरउ महला ३ ॥ मनमुखि दुबिधा सदा है रोगी रोगी सगल संसारा ॥ गुरमुखि बूझहि रोगु गवावहि गुर सबदी वीचारा ॥१॥ पद्अर्थ: मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला। दुबिधा रोगी = मेरे तेर के रोग में फसा हुआ। सगल = सारा। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। बूझहि = (सही जीवन जुगति को) समझ लेते हैं। गुर सबदी = गुरु के शब्द से।1। अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य सदा मेर-तेर के रोग में फंसा रहता है, (मन का मुरीद) सारा जगत ही इस रोग का शिकार हुआ रहता है। पर, गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य (सही जीवन-जुगति को) समझ लेते हैं, गुरु के शब्द की इनायत से विचार करके वह (यह) रोग (अपने अंदर से) दूर कर लेते हैं।1। हरि जीउ सतसंगति मेलाइ ॥ नानक तिस नो देइ वडिआई जो राम नामि चितु लाइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: हरि जीउ = हे प्रभु जी! नानक = हे नानक! देइ = देता है। नामि = नाम में। लाइ = जोड़ता है।1। रहाउ। नोट: ‘तिस नो’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे प्रभु जी! (मुझे) साधु-संगत का मेल मिला। हे नानक! (कह: हे भाई!) जो मनुष्य (साधु-संगत में मिल के) परमात्मा के नाम में (अपना) चिक्त जोड़ता है (परमात्मा) उसको (लोक-परलोक की) इज्जत बख्शता है।1। रहाउ। ममता कालि सभि रोगि विआपे तिन जम की है सिरि कारा ॥ गुरमुखि प्राणी जमु नेड़ि न आवै जिन हरि राखिआ उरि धारा ॥२॥ पद्अर्थ: कालि = मौत में, आत्मिक मौत में। सभि = सारे जीव। रोगि = (दुविधा के) रोग में। विआपे = ग्रसे हुए। सिरि = सिर पर। कारा = हकूमत, दब दबा। जिन = जिन्होंने। उरि = हृदय में।2। अर्थ: हे भाई! ममता में फसे हुए सारे जीव आत्मिक मौत में फसें रहते हैं, उनके सिर पर (जैसे) जमराज का हुक्म चल रहा है। पर गुरु के सन्मुख रहने वाले जिस मनुष्यों ने परमात्मा (की याद) को अपने हृदय में बसा रखा है, जमराज उनके नजदीक नहीं फटकता।2। जिन हरि का नामु न गुरमुखि जाता से जग महि काहे आइआ ॥ गुर की सेवा कदे न कीनी बिरथा जनमु गवाइआ ॥३॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु से। जाता = जाना, गहरी सांझ डाली। काहे = किस लिए? व्यर्थ ही। कीनी = की। बिरथा = व्यर्थ।3। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा के नाम के साथ सांझ नहीं डाली, उनका जगत में आना व्यर्थ चला जाता है। जिन्होंने कभी भी गुरु की सेवा नहीं की, उन्होंने जीवन बेकार ही गवा लिया।3। नानक से पूरे वडभागी सतिगुर सेवा लाए ॥ जो इछहि सोई फलु पावहि गुरबाणी सुखु पाए ॥४॥२॥१२॥ पद्अर्थ: से = वह मनुष्य (बहुवचन)। इछहि = चाहते हैं, अभिलाषा रखते हैं, माँगते हैं (बहुवचन)। पाए = प्राप्त करता है (एकवचन)।4। अर्थ: हे नानक! वह मनुष्य (गुणों के) समूचे (बर्तन) हैं, भाग्यशाली हैं, जिनको (परमात्मा ने) गुरु की सेवा में जोड़ दिया है, वह मनुष्य (परमात्मा से) जो कुछ माँगते हैं वही प्राप्त कर लेते हैं। हे भाई! जो भी मनुष्य गुरु की वाणी का आसरा लेता है, वह आत्मिक आनंद पाता है।4।2।12। भैरउ महला ३ ॥ दुख विचि जमै दुखि मरै दुख विचि कार कमाइ ॥ गरभ जोनी विचि कदे न निकलै बिसटा माहि समाइ ॥१॥ पद्अर्थ: जंमै = पैदा होता है (एकवचन)। दुखि = दुख ममें। कमाइ = कमाता है, करता है। गरभ जोनी विचि = जनम मरण के चक्कर में (सदा पड़ा रहता है)। बिसटा = (विकारों की) गंदगी। समाइ = लीन रहता है।1। अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य दुख में पैदा होता है दुख में मारता है दुख में ही (सारी उम्र) कार्र-व्यवहार करता रहता है। वह सदा जनम-मरन के चक्करों में पड़ा रहता है, (जब तक वह मन का मुरीद है तब तक) कभी भी वह (इस चक्कर में से) निकल नहीं सकता (क्योंकि वह) सदा विकारों की गंदगी में जुड़ा रहता है।1। ध्रिगु ध्रिगु मनमुखि जनमु गवाइआ ॥ पूरे गुर की सेव न कीनी हरि का नामु न भाइआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: ध्रिगु = धिक्कारयोग्य। मनमुखि = मनमुख ने, अपने मन के पीछे चलने वाले ने। न भाइआ = प्यारा ना लगा।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य अपना जीवन गवा लेता है, उसको (लोक-परलोक में) धिक्कारें ही पड़ती हैं (उसने सारी उम्र) ना पूरे गुरु का आसरा लिया और ना ही परमात्मा का नाम उसको प्यारा लगा।1। रहाउ। गुर का सबदु सभि रोग गवाए जिस नो हरि जीउ लाए ॥ नामे नामि मिलै वडिआई जिस नो मंनि वसाए ॥२॥ पद्अर्थ: सभि = सारे। लाए = (लगन) लगाता है। नामे नामि = हर वक्त हरि नाम में। मंनि = मन में।2। नोट: ‘जिस नो’ में से संबंधक ‘नो’ के कारण ‘जिसु’ की ‘ु’ की मात्रा गायब हो गई है। अर्थ: हे भाई! गुरु का शब्द सारे रोग दूर कर देता है, (पर गुरु-शब्द में वही जुड़ता है) जिसको परमात्मा (शब्द की लगन) लगाता है। हे भाई! जिस मनुष्य को (शब्द की लगन लगा के उसके) मन में (अपना नाम) बसाता है, सदा हरि-नाम में टिके रहने के कारण उसको (लोक-परलोक की) इज्जत मिलती है।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |