श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1131 सतिगुरु भेटै ता फलु पाए सचु करणी सुख सारु ॥ से जन निरमल जो हरि लागे हरि नामे धरहि पिआरु ॥३॥ पद्अर्थ: भेटै = मिल जाता है। सचु = सदा स्थिर हरि-नाम (का स्मरण)। करणी = (करणीय) करने योग्य काम, कर्तव्य। सुख सारु = सुखों का तत्व, सबसे श्रेष्ठ सुख। नामे = नाम में ही। धरहि = धरते हैं (बहुवचन)।3। अर्थ: हे भाई! सदा-स्थिर हरि-नाम का जपना ही (असल) कर्तव्य है, (नाम-स्मरण ही) सबसे श्रेष्ठ सुख है, पर यह (हरि-नाम-स्मरण) फल मनुष्य को तभी मिलता है जब इसको गुरु मिलता है। हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा की याद में जुड़ते हैं, परमात्मा के नाम में प्यार डालते हैं, वे मनुष्य पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं।3। तिन की रेणु मिलै तां मसतकि लाई जिन सतिगुरु पूरा धिआइआ ॥ नानक तिन की रेणु पूरै भागि पाईऐ जिनी राम नामि चितु लाइआ ॥४॥३॥१३॥ पद्अर्थ: रेणु = चरण धूल। मसतकि = माथे पर। लाई = मैं लगाऊँ। पूरै भागि = पूरी किस्मत से। पाईऐ = मिलती है।4। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य पूरे गुरु को हृदय में बसाते हैं, अगर मुझे उनकी चरण-धूल मिल जाए, तो वह धूल मैं अपने माथे पर लगा लूँ। हे नानक! जो मनुष्य सदा अपना चिक्त परमात्मा के नाम में जोड़े रखते हैं, उनके चरणों की धूल बड़ी किस्मत से मिलती है।4।3।13। भैरउ महला ३ ॥ सबदु बीचारे सो जनु साचा जिन कै हिरदै साचा सोई ॥ साची भगति करहि दिनु राती तां तनि दूखु न होई ॥१॥ पद्अर्थ: बीचारे = मन में बसाता है। साचा = ठहरे हुए जीवन वाला (माया के हमलों से) अडोल चिक्त। कै हिरदै = के हृदय में। साचा = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। साची भगति = सदा स्थिर प्रभु की भक्ति। करहि = करते हैं (बहुवचन)। तनि = शरीर में। न होई = पैदा नहीं होता।1। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के शब्द को (अपने) मन में बसाता है, वह मनुष्य (माया के हमलों से) अडोल-चिक्त हो जाता है। हे भाई! जिस मनुष्यों के हृदय में सदा कायम रहने वाला परमात्मा बस जाता है, जो मनुष्य दिन-रात सदा-स्थिर प्रभु की भक्ति करते हैं, उनके शरीर में कोई (विकार-) दुख नहीं पैदा होता।1। भगतु भगतु कहै सभु कोई ॥ बिनु सतिगुर सेवे भगति न पाईऐ पूरै भागि मिलै प्रभु सोई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: कहै = कहता है। (एकवचन)। सभु कोई = हरेक मनुष्य। मिलै = मिलता है।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़े बिना परमात्मा की भक्ति नहीं हो सकती। हे भाई! पूरी किस्मत से ही (किसी मनुष्य को) वह परमात्मा मिलता है, (जिस मनुष्य को मिल जाता है, उसके बारे में) हर कोई कहता है कि ये भक्त है भक्त है।1। रहाउ। मनमुख मूलु गवावहि लाभु मागहि लाहा लाभु किदू होई ॥ जमकालु सदा है सिर ऊपरि दूजै भाइ पति खोई ॥२॥ पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। मूलु = राशि, पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत। लाभु = नफा, लाभ। मागहि = माँगते हैं (बहुवचन)। किदू = कैसे? जमकालु = आत्मिक मौत। दूजै भाइ = माया के प्यार में। पति = इज्जत। खोई = गवा ली।2। अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (अपनी) संपत्ति (ही) गवा लेते हैं, पर माँगते हैं (आत्मिक) लाभ। (बताओ, उनको) कैसे कमाई हो सकती है? लाभ कहाँ से मिले? आत्मिक मौत सदा उनके सर पर सवार रहती है। माया के प्यार में (फंस के उन्होंने लोक-परलोक की) इज्जत गवा ली होती है।2। बहले भेख भवहि दिनु राती हउमै रोगु न जाई ॥ पड़ि पड़ि लूझहि बादु वखाणहि मिलि माइआ सुरति गवाई ॥३॥ पद्अर्थ: बहले = कई, अनेक। भवहि = भ्रमण करते हैं (तीर्थ आदि पर)। न जाई = दूर नहीं होता। पढ़ि = पढ़ के। लूझहि = झगड़ते हैं, बहसें करते हैं, शास्त्रार्थ करते हैं। बादु = झगड़ा, बहस, चर्चा। वखाणहि = उचारते हैं, बोलते हैं। मिलि = मिल के। सुरति = आत्मिक जीवन की ओर का होश।3। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य कई (धार्मिक) भेस करके दिन-रात (जगह-जगह) भ्रमण करते फिरते हैं (उनको अपने इस त्याग का अहंकार हो जाता है, उनका यह) अहंकार का रोग दूर नहीं होता। (और, जो पंडित आदि लोग वेद-शास्त्र आदि) पढ़-पढ़ के (फिर अपने आप में) मिल के बहस करते हैं चर्चा करते हैं उन्होंने भी माया के मोह के कारण (आत्मिक जीवन से अपनी) होश गवा ली होती है।3। सतिगुरु सेवहि परम गति पावहि नामि मिलै वडिआई ॥ नानक नामु जिना मनि वसिआ दरि साचै पति पाई ॥४॥४॥१४॥ पद्अर्थ: सेवहि = शरण पड़ते हैं। परम गति = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। नामि = नाम में (जुड़े रहने के कारण)। वडिआई = (लोक परलोक की) इज्जत। मनि = मन में। दरि = दर पर। दरि साचै = सदा स्थिर प्रभु के दर पर। पति = इज्जत।4। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ते हैं, वे सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लेते हैं, (परमात्मा के) नाम में जुड़े रहने के कारण उनको (लोक-परलोक की) इज्जत मिल जाती है। हे नानक! जिस मनुष्यों के मन में परमात्मा का नाम आ बसा, उन्होंने सदा-स्थिर प्रभु के दर पर आदर कमा लिया।4।4।14। भैरउ महला ३ ॥ मनमुख आसा नही उतरै दूजै भाइ खुआए ॥ उदरु नै साणु न भरीऐ कबहू त्रिसना अगनि पचाए ॥१॥ पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। आसा = (और ज्यादा माया जोड़ने की) चाहत। उतरै = खत्म होती। दूजै भाइ = माया के प्यार में। खुआए = (सही जीवन-राह से) टूटे हुए हैं। उदरु = पेट। नै = नय, नदी। साणु = की तरह। पचाए = (उनको) जलाती है।1। अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्यों के अंदर से (और ज्यादा माया जोड़ने की) लालसा दूर नहीं होती। माया के प्यार में वे सही जीवन-राह से टूटे रहते हैं। नदी की तरह उनका पेट (माया से) कभी नहीं भरता। तृष्णा की आग उन्हें जलाती रहती है।1। सदा अनंदु राम रसि राते ॥ हिरदै नामु दुबिधा मनि भागी हरि हरि अम्रितु पी त्रिपताते ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: रसि = स्वाद में। राते = रंगे हुए, रति हुए, मस्त। हिरदै = दिल में। दुबिधा = मेर तेर। मनि = मन में। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। पी = पी के। त्रिपताते = तृप्त हो जाते हैं, अघा जाते हैं।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के नाम-रस में भीगे रहते हैं, उनके अंदर सदा आनंद बना रहता है। (माया के मोह के कारण मनुष्य के) मन में मेर-तेर टिकी रहती है, पर जिस मनुष्यों के हृदय में परमात्मा का नाम आ बसता है, उनकी मेर-तेर दूर हो जाती है। परमात्मा का आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस पी के वह (माया की तरफ से सदा) तृप्त रहते हैं।1। रहाउ। आपे पारब्रहमु स्रिसटि जिनि साजी सिरि सिरि धंधै लाए ॥ माइआ मोहु कीआ जिनि आपे आपे दूजै लाए ॥२॥ पद्अर्थ: जिनि = जिस ने। साजी = पैदा की, रची। सिरि सिरि = हरेक के सिर पर, हरेक के किए अनुसार। धंधै = धंधे में। आपे = आप ही। दूजै = माया (के मोह) में।2। नोट: ‘तिस नो’ में से संबंधक ‘नो’ के कारण ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा हट गई है। अर्थ: पर, हे भाई! (जीवों के भी क्या वश?) जिस (परमात्मा) ने जगत रचा है वह परमात्मा स्वयं ही सब जीवों को पिछली की कमाई अनुसार माया की दौड़-भाग में लगाए रखता है। जिस प्रभु ने माया का मोह बनाया है, वह स्वयं ही (जीवों को) माया के मोह में जोड़े रखता है।2। तिस नो किहु कहीऐ जे दूजा होवै सभि तुधै माहि समाए ॥ गुरमुखि गिआनु ततु बीचारा जोती जोति मिलाए ॥३॥ पद्अर्थ: किहु = कुछ। सभि = सारे जीव। माहि = में। गुरमुखि = गुरु से। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। बीचारा = मन में बसाया। जोती = प्रभु की ज्योति में।3। अर्थ: हे भाई! (माया के मोह के बारे में) उस परमात्मा को कुछ तभी कहा जा सकता है अगर वह हमसे बाहर का हो (बेगाना हो)। हे प्रभु! सारे जीव तेरे में ही लीन हैं (जैसे दरिया की लहरें दरिया में)। हे भाई! जिस मनुष्य ने आत्मिक जीवन की असल सूझ को विचारा है, उसकी जिंद प्रभु की ज्योति में जुड़ी रहती है।3। सो प्रभु साचा सद ही साचा साचा सभु आकारा ॥ नानक सतिगुरि सोझी पाई सचि नामि निसतारा ॥४॥५॥१५॥ पद्अर्थ: साचा = सदा कायम रहने वाला। सद = सदा। साचा = अस्तित्व वाला। आकारा = जगत। सतिगुरि = गुरु ने। सचि नामि = सदा स्थिर नाम में (जोड़ के)। निसतारा = संसार समुंदर से पार लंघा दिया।4। अर्थ: हे भाई! वह परमात्मा सदा कायम रहने वाला है, सदा ही अस्तित्व वाला है। यह सारा जगत भी सदा अस्तित्व वाला है (क्योंकि इसमें परमात्मा ही सब जगह व्यापक है)। हे नानक! जिस मनुष्य को गुरु ने (आत्मिक जीवन की) समझ बख्शी है, उसको उसने परमात्मा के नाम में जोड़ के (संसार-समुंदर से) पार लंघा दिया है।4।5।15। भैरउ महला ३ ॥ कलि महि प्रेत जिन्ही रामु न पछाता सतजुगि परम हंस बीचारी ॥ दुआपुरि त्रेतै माणस वरतहि विरलै हउमै मारी ॥१॥ पद्अर्थ: कलि = कलजुग। प्रेत = भूत प्रेत, वह रूहें जिनकी गति नहीं हुई। पछाता = सांझ डाली। सतजुगि = सतजुग में। परम हंस = सबसे ऊँचे हंस, सबसे अच्छे जीवन वाले, महापुरख। बीचारी = विचारवान, जिन्होंने नाम को मन में बसाया है। दुआपरि = द्वापर में। त्रेतै = त्रेते में। माणस = मनुष्य (बहुवचन)। वरतहि = वर्तण व्यवहार करते हैं। विरलै = किसी एक आध ने, किसी विरले ने।1। अर्थ: हे भाई! कलियुग में प्रेत (सिर्फ वही) हैं, जिन्होंने परमात्मा को (अपने दिल में बसता) नहीं पहचाना। सतियुग में सबसे उच्च जीवन वाले वही हैं, जो आत्मिक जीवन की सूझ वाले हो गए (सारे लोग सतियुग में भी परमहंस नहीं)। द्वापर में त्रेते में भी (सतियुग और कलियुग जैसे ही) मनुष्य बसते हैं। (तब भी) किसी विरले ने ही (अपने अंदर से) अहंकार को दूर किया।1। कलि महि राम नामि वडिआई ॥ जुगि जुगि गुरमुखि एको जाता विणु नावै मुकति न पाई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जुगि = जुग में। जुगि जुगि = हरेक युग में। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य ने। जाता = जाना, गहरी सांझ बना ली। मुकति = विकारों से खलासी। न पाई = (किसी मनुष्य ने भी) हासिल नहीं की।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! (युग चाहे कोई भी हो) हरेक युग में गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य ने (ही) परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाली है। (किसी भी युग में) परमात्मा के नाम के बिना किसी ने भी विकारों से मुक्ति प्राप्त नहीं की। (इस तरह) कलियुग में भी परमात्मा के नाम में जुड़ के ही (लोक-परलोक का) आदर मिलता है।1। रहाउ। हिरदै नामु लखै जनु साचा गुरमुखि मंनि वसाई ॥ आपि तरे सगले कुल तारे जिनी राम नामि लिव लाई ॥२॥ पद्अर्थ: हिरदै = हृदय में। लखै = देख लेता है। जनु = (जो) मनुष्य। साचा = सदा स्थिर। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के। मंनि = मन में। तरे = (संसार समुंदर से) पार लांघ जाता है। सगले कुल = सारी कुलें। नामि = नाम में। लिव = लगन।2। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य सदा-स्थिर हरि-नाम (अपने अंदर बसता) समझ लेता है, जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर (हरि-नाम को अपने) मन में बसा लेता है, (वह मनुष्य संसार-समुंदर से) पार लांघ जाता है। हे भाई! जिस भी मनुष्यों ने परमात्मा के नाम में लगन बनाई, वह स्वयं संसार-समुंदर से पार लांघ गए, उन्होंने अपनी सारी कुले भी पार लंघा लीं।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |