श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 1132

मेरा प्रभु है गुण का दाता अवगण सबदि जलाए ॥ जिन मनि वसिआ से जन सोहे हिरदै नामु वसाए ॥३॥

पद्अर्थ: सबदि = गुरु के शब्द में (जोड़ के)। जलाए = जलाता है। मनि = मन में। से = (बहुवचन) वह। सोहे = सुंदर जीवन वाले बन गए। वसाए = बसा के।3।

अर्थ: हे भाई! मेरा परमात्मा गुरु बख्शने वाला है, वह (जीव को गुरु के) शब्द में (जोड़ के उसके सारे) अवगुण जला देता है। हे भाई! जिनके मन में परमात्मा का नाम आ बसता है, वह हृदय में नाम को बसा के सुंदर जीवन वाले बन जाते हैं।3।

घरु दरु महलु सतिगुरू दिखाइआ रंग सिउ रलीआ माणै ॥ जो किछु कहै सु भला करि मानै नानक नामु वखाणै ॥४॥६॥१६॥

पद्अर्थ: घरु = (प्रभु का) घर। दरु = (प्रभु का) दरवाजा। महलु = (प्रभु का) ठिकाना। रंग सिउ = आत्मिक आनंद से। करि = कर के, समझ के। नानक = हे नानक! वखाणै = (सदा) उचारता है।4।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु परमात्मा का घर परमात्मा का दर परमात्मा का महल दिखा देता है, वह मनुष्य प्रेम से प्रभु-चरणों के मिलाप का आनंद लेता है। हे नानक! गुरु उस मनुष्य को जो उपदेश देता है, वह मनुष्य उसको भला जान के मान लेता है और परमात्मा का नाम स्मरण करता रहता है।4।6।16।

भैरउ महला ३ ॥ मनसा मनहि समाइ लै गुर सबदी वीचार ॥ गुर पूरे ते सोझी पवै फिरि मरै न वारो वार ॥१॥

पद्अर्थ: मनसा = मन का फुरना (मनीषा)। मनहि = मन में ही। समाइ लै = लीन कर दे। गुर सबदी = गुरु के शब्द से। वीचार = (परमात्मा के गुणों की) विचार। ते = से। पवै = पड़ती है। वारो वार = बार बार।1।

अर्थ: हे भाई! गुरु के शब्द से (परमात्मा के गुणों को) मन में बसा के मन के (मायावी) फुरनों को (अंदर) मन में ही लीन कर दे। हे भाई! जिस मनुष्य को पूरे गुरु से यह समझ हासिल हो जाती है, वह बार-बार जनम-मरण के चक्कर में नहीं पड़ता।1।

मन मेरे राम नामु आधारु ॥ गुर परसादि परम पदु पाइआ सभ इछ पुजावणहारु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मन = हे मन! आधारु = आसरा। परसादि = कृपा से। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। पुजावणुहारु = पूरी कर सकने वाला है।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा के नाम को (अपना) आसरा बना। (जो मनुष्य हरि-नाम को अपना आसरा बनाता है) वह गुरु की कृपा से सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लेता है। हे मन! परमात्मा हरेक इच्छा पूरी करने वाला है।1। रहाउ।

सभ महि एको रवि रहिआ गुर बिनु बूझ न पाइ ॥ गुरमुखि प्रगटु होआ मेरा हरि प्रभु अनदिनु हरि गुण गाइ ॥२॥

पद्अर्थ: एको = एक परमात्मा ही। रवि रहिआ = व्यापक है। बूझ = समझ। गुरमुखि = गुरु से। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। गाइ = गाता है।2।

अर्थ: हे भाई! सब जीवों में एक परमात्मा ही व्यापक है, पर गुरु के बिना यह समझ नहीं आती। जिस मनुष्य के अंदर गुरु के द्वारा परमात्मा प्रकट हो जाता है, वह हर वक्त परमात्मा के गुण गाता रहता है।2।

सुखदाता हरि एकु है होर थै सुखु न पाहि ॥ सतिगुरु जिनी न सेविआ दाता से अंति गए पछुताहि ॥३॥

पद्अर्थ: होरथै = किसी और जगह से। न पाहि = पा नहीं सकते (बहुवचन)। पछुताहि = पछताते हैं (बहुवचन)।3।

अर्थ: हे भाई! सुख देने वाला सिर्फ परमात्मा ही है (जो मनुष्य परमात्मा का आसरा नहीं लेते) वे और-और जगह सुख प्राप्त नहीं कर सकते। हे भाई! गुरु (परमात्मा के नाम की दाति) देने वाला है, जिन्होंने गुरु की शरण नहीं ली, वे आखिर यहाँ से जाने के वक्त हाथ मलते हैं।3।

सतिगुरु सेवि सदा सुखु पाइआ फिरि दुखु न लागै धाइ ॥ नानक हरि भगति परापति होई जोती जोति समाइ ॥४॥७॥१७॥

पद्अर्थ: धाइ = दौड़ के, हल्ला कर के। परापति होई = भाग्यों अनुसार मिल गई। जोति = जिंद। जोती = परमात्मा की ज्योति में। समाइ = लीन हो जाती है (एकवचन)।4।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरु का आसरा लिया, उसने सदा आनंद पाया। कोई भी दुख हमला करके उससे नहीं चिपक सकता। हे नानक! जिस मनुष्य को सौभाग्य से परमात्मा की भक्ति प्राप्त हो गई, उसकी जीवात्मा परमात्मा की ज्योति में लीन हो जाती है।4।1।17।

भैरउ महला ३ ॥ बाझु गुरू जगतु बउराना भूला चोटा खाई ॥ मरि मरि जमै सदा दुखु पाए दर की खबरि न पाई ॥१॥

पद्अर्थ: बउराना = कमला, झल्ला। भूला = गलत रास्ते पर पड़ा हुआ। खाई = खाता है। मरि मरि जंमै = बार बार मर के पैदा होता है, जनम मरन के चक्कर में पड़ा रहता है। दर की = परमात्मा के दर की। खबरि = सूझ।1।

अर्थ: हे मन! गुरु की शरण के बिना जगत (विकारों में) झल्ला हुआ फिरता है, गलत रास्ते पर पड़ के (विकारों की) चोटें खाता रहता है, बार-बार जनम मरण के चक्करों में पड़ता है, सदा दुख सहता है, परमात्मा के दर की उसको कोई समझ नहीं पड़ती।1।

मेरे मन सदा रहहु सतिगुर की सरणा ॥ हिरदै हरि नामु मीठा सद लागा गुर सबदे भवजलु तरणा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मन = हे मन! हिरदै = हृदय में। सद = सदा। सबदे = शब्द से। भवजलु = संसार समुंदर।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! सदा गुरु की शरण पड़ा रह। (जो मनुष्य गुरु की शरण में टिका रहता है, उसको अपने) हृदय में परमात्मा का नाम सदा प्यारा लगता है। गुरु के शब्द से वह संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है।1। रहाउ।

भेख करै बहुतु चितु डोलै अंतरि कामु क्रोधु अहंकारु ॥ अंतरि तिसा भूख अति बहुती भउकत फिरै दर बारु ॥२॥

पद्अर्थ: डोलै = डोलता है। अंतरि = (उसके) अंदर। तिसा = तृष्णा। फिरै = फिरता है। दर बारु = (हरेक के घर के) दर का दरवाजा (खड़काता है)।2।

अर्थ: हे मन! (जो मनुष्य गुरु की शरण से विछुड़ के) कई (धार्मिक) भेस बनाता है, उसका मन (विकारों में ही) डोलता रहता है, उसके अंदर काम (का जोर) है, क्रोध (प्रबल) है, अहंकार (प्रभावशाली) है, उसके अंदर माया की बड़ी तृष्णा है, माया की बड़ी भूख है, वह (कुत्ते की तरह रोटी की खातिर) भौंकता फिरता है, (हरेक घर के) दर का दरवाजा (खड़काता फिरता है।2।

गुर कै सबदि मरहि फिरि जीवहि तिन कउ मुकति दुआरि ॥ अंतरि सांति सदा सुखु होवै हरि राखिआ उर धारि ॥३॥

पद्अर्थ: सबदि = शब्द से। मरहि = मरते हैं, दुनियां की ख्वाहिशों से मरते हैं। जीवहि = आत्मिक जीवन हासिल कर लेते हैं। मुकति = विकारों से मुक्ति। दुआरि = प्रभु के दर पर (पहुँच)। उर = हृदय। धारि = धारण करके।3।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के शब्द से (विकारों की तरफ से) मरते हैं, वे फिर आत्मिक जीवन हासिल कर लेते हैं, उनको विकारों से निजात मिल जाती है, परमात्मा के दर पर (उनकी पहुँच हो जाती है)। उनके अंदर शांति बनी रहती है उनके अंदर सदा आनंद बना रहता है, (क्योंकि उन्होंने) परमात्मा (के नाम) को अपने हृदय में टिका के रखा हुआ होता है।3।

जिउ तिसु भावै तिवै चलावै करणा किछू न जाई ॥ नानक गुरमुखि सबदु सम्हाले राम नामि वडिआई ॥४॥८॥१८॥

पद्अर्थ: तिसु = उस (परमात्मा) को। भावै = अच्छा लगता है। चलावै = जीवन-राह पर चलाता है। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के। समाले = हृदय में बसाता है। नामि = नाम से।4।

अर्थ: पर, हे भाई! (जीवों के कुछ भी वश नहीं) जैसे परमात्मा को अच्छा लगता है, उसी तरह ही जीवों को जीवन-राह पर चलाता है, हम जीवों का उसके सामने कोई जोर नहीं चल सकता। हे नानक! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर गुरु का शब्द हृदय में बसाता है, परमात्मा के नाम में जुड़ने के कारण उसको (लोक-परलोक की) इज्ज़त मिल जाती है।4।8।18।

भैरउ महला ३ ॥ हउमै माइआ मोहि खुआइआ दुखु खटे दुख खाइ ॥ अंतरि लोभ हलकु दुखु भारी बिनु बिबेक भरमाइ ॥१॥

पद्अर्थ: मोहि = मोह में (फस के)। खुआइआ = (जीवन-राह से) विछुड़ गया। खाइ = खाता है, सहता है। अंतरि = अंदर। बिबेक = (अच्छे बुरे काम की) परख करने की सामर्थ्य। भरमाइआ = भटकता फिरता है।1।

अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य अहंकार के कारण माया के मोह के कारण जीवन-राह से विछुड़ा रहता है जिस कारण वह दुख ही सहेड़ता है दुख ही सहता है। उसके अंदर लोभ (टिका रहता है जैसे कुत्ते को) हलक (हो जाता) है (कुक्ता खुद भी दुखी होता है और लोगों को भी दुखी करता है। इसी तरह लोभी को) बहुत दुख बना रहता है।

अच्छे-बुरे काम की परख ना कर सकने के कारण वह (माया की खातिर) भटकता फिरता है।1।

मनमुखि ध्रिगु जीवणु सैसारि ॥ राम नामु सुपनै नही चेतिआ हरि सिउ कदे न लागै पिआरु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य का। ध्रिगु = धिक्कारयोग्य। सैसारि = संसार में। सुपनै = सपने में भी, कभी ही। सिउ = साथ।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य का जगत में जीवन (-ढंग) ऐसा ही रहता है कि उसको धिक्कारें ही पड़ती हैं। वह परमात्मा का नाम कभी भी याद नहीं करता, परमात्मा के साथ उसका कभी भी प्यार नहीं बनता।1। रहाउ।

पसूआ करम करै नही बूझै कूड़ु कमावै कूड़ो होइ ॥ सतिगुरु मिलै त उलटी होवै खोजि लहै जनु कोइ ॥२॥

पद्अर्थ: पसूआ करम = पशुओं वाले कर्म। करै = करता है (एकवचन)। कूड़ो = झूठ ही। त = तब। एलटी होवै = माया के मोह से तवज्जो पलटती है। जनु कोइ = कोई विरला मनुष्य। लहै = पा लेता है।2।

अर्थ: हे भाई! मन का मुरीद मनुष्य पशुओं वाले काम करता है, उसको समझ नहीं आती (कि यह जीव राह गलत है)। नाशवान माया की खातिर दौड़-भाग करता-करता उसी का रूप हुआ रहता है। पर अगर उसको गुरु मिल जाए, तो उसकी तवज्जो माया की ओर से पलट जाती है (फिर वह) खोज कर के परमात्मा का मिलाप प्राप्त कर लेता है (पर ऐसा होता) कोई विरला ही है।2।

हरि हरि नामु रिदै सद वसिआ पाइआ गुणी निधानु ॥ गुर परसादी पूरा पाइआ चूका मन अभिमानु ॥३॥

पद्अर्थ: रिदै = हृदय में। सद = सदा। निधानु = खजाना। परसादी = कृपा से। पूरा = अमोध परमात्मा। मन अभिमानु = मन का अहंकार। चूका = समाप्त हो गया।3।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम सदा बसा रहता है, वह मनुष्य गुणों के खजाने परमात्मा को मिल जाता है। गुरु की कृपा से उसको पूरन प्रभु मिल जाता है, उसके मन का अहंकार दूर हो जाता है।3।

आपे करता करे कराए आपे मारगि पाए ॥ आपे गुरमुखि दे वडिआई नानक नामि समाए ॥४॥९॥१९॥

पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। मारगि = रास्ते पर। गुरमुखि = गुरु से। दे = देता है। नामि = नाम में।4।

अर्थ: (पर, हे भाई! मनुष्य के भी क्या वश?) परमात्मा स्वयं ही सब कुछ करता है, स्वयं ही (जीवों से) करवाता है, स्वयं ही (जीवों को) सही जीवन-राह पर डालता है, स्वयं ही गुरु के द्वारा इज्जत बख्शता है। हे नानक! (जिस पर परमात्मा मेहर करता है), वह हरि-नाम में लीन रहता है।4।9।19।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh