श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 1133

भैरउ महला ३ ॥ मेरी पटीआ लिखहु हरि गोविंद गोपाला ॥ दूजै भाइ फाथे जम जाला ॥ सतिगुरु करे मेरी प्रतिपाला ॥ हरि सुखदाता मेरै नाला ॥१॥

पद्अर्थ: दूजै भाइ = (प्रभु को छोड़ कर) और के प्यार में (रहने वाले)। जम जाला = जमका जाल, आत्मिक मौत का जाल। प्रतिपाला = रक्षा।1।

अर्थ: हे भाई! (प्रहलाद अपने पढ़ाने वालों को रोज कहता है:) मेरी तख्ती पर हरि का नाम लिख दो, गोबिंद का नाम लिख दो, गोपाल का नाम लिख दो। जो मनुष्य सिर्फ माया के प्यार में रहते हैं, वे आत्मिक मौत के जाल में फसे रहते हैं। मेरा गुरु मेरी रक्षा कर रहा है। सारे सुख देने वाला परमात्मा (हर वक्त) मेरे अंग-संग बसता है।1।

गुर उपदेसि प्रहिलादु हरि उचरै ॥ सासना ते बालकु गमु न करै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: उपदेसि = उपदेश से। उचरै = उचारता है, जपता है। सासना = ताड़ना, दण्ड, शारीरिक कष्ट। ते = से। गमु = ग़म। गमु न करै = घबराता नहीं, डरता नही।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! (अपने) गुरु की शिक्षा पर चल के प्रहलाद परमात्मा का नाम जपता है। बालक (प्रहलाद) किसी भी शारीरिक कष्ट से डरता नहीं।1। रहाउ।

माता उपदेसै प्रहिलाद पिआरे ॥ पुत्र राम नामु छोडहु जीउ लेहु उबारे ॥ प्रहिलादु कहै सुनहु मेरी माइ ॥ राम नामु न छोडा गुरि दीआ बुझाइ ॥२॥

पद्अर्थ: उपदेसै = समझाती है। प्रहिलाद = हे प्रहलाद! पुत्र = हे पुत्र! जीउ = जिंद। लेहु उबारे = बचा ले। माइ = हे माँ! न छोडा = ना छोड़ू, मैं नहीं छोड़ता। गुरि = गुरु ने। दीआ बुझाइ = समझा दिया है।2।

अर्थ: हे भाई! (प्रहलाद को उसकी) माँ समझाती है: हे प्यारे प्रहलाद! हे (मेरे) पुत्र! परमात्मा का नाम छोड़ दे, अपनी जान बचा ले। (आगे से) प्रहलाद कहता है: हे मेरी माँ! सुन, मैं परमात्मा का नाम नहीं छोड़ूगा (यह नाम जपना मुझे मेरे) गुरु ने समझाया है।2।

संडा मरका सभि जाइ पुकारे ॥ प्रहिलादु आपि विगड़िआ सभि चाटड़े विगाड़े ॥ दुसट सभा महि मंत्रु पकाइआ ॥ प्रहलाद का राखा होइ रघुराइआ ॥३॥

पद्अर्थ: संडा मरका = संड और अमरक। सभि = सारे। जाइ = जा के। चाटड़े = पढ़ने वाले लड़के। महि = में। मंत्रु पकाइआ = सलाह पक्की की। रघुराइआ = परमात्मा।3।

अर्थ: हे भाई! संड अमरक व और सभी ने जा के (हर्नाक्षस के पास) पुकार की- प्रहलाद खुद ही बिगड़ा हुआ है, (उसने) बाकी के सारे बच्चे भी बिगाड़ दिए हैं। हे भाई! (ये सुन के) उन दुष्टों ने सलाह पक्की की (कि प्रहलाद को खत्म कर दिया जाए। पर) प्रहलाद का रक्षक स्वयं परमात्मा बन गया।3।

हाथि खड़गु करि धाइआ अति अहंकारि ॥ हरि तेरा कहा तुझु लए उबारि ॥ खिन महि भैआन रूपु निकसिआ थम्ह उपाड़ि ॥ हरणाखसु नखी बिदारिआ प्रहलादु लीआ उबारि ॥४॥

पद्अर्थ: हाथि = हाथ में। खड़गु = तलवार। करि = कर के, ले के। अति अहंकारि = बड़े ही अहंकार से। कहा = कहाँ? लए उबारि = उबार लिए, (जो तुझे) बचा ले। भैआन = भयानक। उपाड़ि = फाड़ के। नखी = नाखूनों से। बिदारिआ = चीर दिया।4।

अर्थ: हे भाई! (हर्णाक्षस व हर्णाकश्यप) हाथ में तलवार पकड़ के बड़े अहंकार से (प्रहलाद पर) टूट पड़ा (और कहने लगा- बता) कहाँ है तेरा हरि, जो (तुझे) बचा ले? (ये कहने की देर थी कि एक दम) एक पल में ही (परमात्मा) भयानक रूप (धारण करके) खंभा फाड़ के निकल आया। (उसने नरसिंघ रूप में) हर्णाकश्यप को (अपने नाखूनों से) चीर डाला और प्रहलाद को बचा लिया।4।

संत जना के हरि जीउ कारज सवारे ॥ प्रहलाद जन के इकीह कुल उधारे ॥ गुर कै सबदि हउमै बिखु मारे ॥ नानक राम नामि संत निसतारे ॥५॥१०॥२०॥

पद्अर्थ: कारज = सारे काम। उधारे = बचा लिए। कै सबदि = के शब्द से। बिखु = जहर, आत्मिक मौत लाने वाला जहर। नामि = नाम में (जोड़ के)। निसतारे = पार लंघाता है।5।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा सदा अपने भक्तों के सारे काम सँवारता है (देख! उसने) प्रहलाद की 21 कुलों का (भी) उद्धार कर दिया। हे नानक! परमात्मा अपने संतों को गुरु शब्द में जोड़ के (उनके अंदर से) आत्मिक मौत लाने वाले अहंकार को समाप्त कर देता है, और, हरि-नाम में जोड़ के उनको संसार-समुंदर से पार लंघा देता है।5।10।20।

भैरउ महला ३ ॥ आपे दैत लाइ दिते संत जना कउ आपे राखा सोई ॥ जो तेरी सदा सरणाई तिन मनि दुखु न होई ॥१॥

पद्अर्थ: दैत = दैत्य, दुर्जन। आपे = आप ही (परमात्मा ने)। तिन महि = उनके मन में।1।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा स्वयं ही (अपने) संत जनों को (दुख देने के लिए उन पर) दैत्य चिपका देता है, पर वह स्वयं ही (संत जनों का) रखवाला बनता है। हे प्रभु! जो मनुष्य तेरी शरण में सदा टिके रहते हैं (दुष्ट भले ही कितने ही कष्ट उनकों दें) उनके मन को कोई तकलीफ़ नहीं होती।1।

जुगि जुगि भगता की रखदा आइआ ॥ दैत पुत्रु प्रहलादु गाइत्री तरपणु किछू न जाणै सबदे मेलि मिलाइआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जुग जुग = हरेक युग में। दैत पुत्रु = दैत्य (हर्णाकश्यप) का पुत्र। तरपणु = पित्रों नमिक्त पानी अर्पण करना (ये हर रोज किए जाने पाँचों यज्ञों में से एक है। हरेक हिन्दू इसका करना आवश्यक समझता है)। गाइत्री = एक बहुत ही पवित्र पंक्ति (जिसका पाठ हरेक बाहमण सवेरे शाम करता है। इसके बार-बार पाठ करने से बड़े-बड़े पाप भी नाश हो जाते हैं: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमही धियो यो न: प्रचोदयात्॥ R.V. 3.2.10l)। सबदे = गुरु के शब्द में। मेलि = जोड़ के। मिलाइआ = अपने साथ मिला लिया।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! हरेक युग में (परमात्मा अपने) भगतों की (इज्जत) रखता आया है। (देखो) हर्णाक्षस का पुत्र प्रहलाद गायत्री (मंत्र का पाठ करना; पित्रों की प्रसन्नता के लिए) पूजा-अर्चना (करनी) ये सब कुछ भी नहीं था जानता। (परमात्मा ने उसको गुरु के) शब्द में जोड़ के (अपने चरणों में) मिला लिया।1। रहाउ।

अनदिनु भगति करहि दिन राती दुबिधा सबदे खोई ॥ सदा निरमल है जो सचि राते सचु वसिआ मनि सोई ॥२॥

पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। करहि = करते हैं (बहुवचन)। दुबिधा = मेर तेर, भेद भाव। खोई = समाप्त कर ली। निरमल = पवित्र। सचि = सदा स्थिर हरि नाम में। राते = रंगे हुए, मस्त, रति हुए। सचु = सदा कायम रहने वाला प्रभु। मनि = (उनके) मन में।2।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य दिन-रात हर वक्त परमात्मा की भक्ति करते हैं, उन्होंने गुरु के शब्द से (अपने अंदर से) मेर-तेर समाप्त कर ली होती है। हे भाई! जो मनुष्य सदा-स्थिर हरि-नाम में रति रहते हैं, जिनके मन में वह सदा-स्थिर प्रभु ही बसा रहता है उनका जीवन सदा पवित्र टिका रहता है।2।

मूरख दुबिधा पड़्हहि मूलु न पछाणहि बिरथा जनमु गवाइआ ॥ संत जना की निंदा करहि दुसटु दैतु चिड़ाइआ ॥३॥

पद्अर्थ: पढ़हि = पढ़ते हैं (बहुवचन)। दुबिधा पढ़हि = भेदभाव पैदा करने वाली विद्या पढ़ते हैं। मूलु = जगत को पैदा करने वाला। बिरथा = व्यर्थ। दुसटु दैतु = दुष्ट (हर्णाक्षस) दैत्य को। चिढ़ाइआ = चिढ़ाया? (प्रहलाद के विरोध में) गुस्सा दिलाया।3।

अर्थ: हे भाई! मूर्ख लोग मेर-तेर (पैदा करने वाली विद्या ही नित्य) पढ़ते हैं, रचनहार कर्तार के साथ सांझ नहीं डालते, संतजनों की निंदा (भी) करते हैं (इस तरह अपना) जीवन व्यर्थ गवा लेते हैं। (इस तरह के मूर्ख संड अमरक आदि ने ही) दुष्ट दैत्य (हर्णाक्षस) को (प्रहलाद के विरुद्ध) भड़काया था।3।

प्रहलादु दुबिधा न पड़ै हरि नामु न छोडै डरै न किसै दा डराइआ ॥ संत जना का हरि जीउ राखा दैतै कालु नेड़ा आइआ ॥४॥

पद्अर्थ: पढ़ै = पढ़ता है (एकवचन)। कालु = मौत। दैतै = दैत्य का।4।

अर्थ: पर, हे भाई! प्रहलाद मेर-तेर (पैदा करने वाली विद्या) नहीं पढ़ता, वह परमात्मा का नाम नहीं छोड़ता, वह किसी का डराया डरता नहीं। हे भाई! परमात्मा अपने संतजनों का रखवाला स्वयं है। (प्रहलाद से पंगा ले के मूर्ख हणाक्षस) दैत्य का काल (बल्कि) नजदीक आ पहुँचा।4।

आपणी पैज आपे राखै भगतां देइ वडिआई ॥ नानक हरणाखसु नखी बिदारिआ अंधै दर की खबरि न पाई ॥५॥११॥२१॥

पद्अर्थ: पैज = सत्कार, इज्जत। देइ = देता है। नखी = नाखूनों से। बिदारिआ = चीर दिया। अंधै = (अहंकार में) अंधे हो चुके ने। दर = परमात्मा का दर। खबरि = सूझ।5।

अर्थ: हे भाई! (भगतों की इज्जत और परमात्मा की इज्जत सांझी है। भगतों के सम्मान को अपना सम्मान जान के) परमात्मा (भगतों की मदद करके) अपना सम्मान स्वयं बचाता है, (अपने) भगतों को (सदा) बड़ाई बख्शता है। (तभी तो) हे नानक! (परमात्मा ने नरसिंघ रूप धार के) हर्णाक्षस को (अपने) नाखूनों से चीर दिया। (ताकत के नशे में) अंधे हो चुके (हर्णाक्षस) ने परमात्मा के दर का भेद ना समझा।5।11।21।8।21।29।

शबदों का वेरवा:
भैरव महला १-----– 8
भैरव महला ३----– 21
जोड़------------------29

रागु भैरउ महला ४ चउपदे घरु १    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

हरि जन संत करि किरपा पगि लाइणु ॥ गुर सबदी हरि भजु सुरति समाइणु ॥१॥

पद्अर्थ: करि = कर के। पगि = पैरों में, चरणों में। लाइणु = लगाने वाला है। गुर सबदी = गुरु के शब्द से। भजु = जपा कर। समाइणु = जाग (नाम की)।1।

अर्थ: हे मेरे मन! (परमात्मा स्वयं) कृपा करके (जिस मनुष्य को अपने) संत जनों के चरणों में लगाता है (वह मनुष्य हरि का नाम जपता है)। हे मन! (तू भी गुरु की शरण पड़, और) गुरु के शब्द से परमात्मा का नाम जप, अपनी तवज्जो में हरि-नाम की जाग लगा।1।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh