श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मधुसूदनु जपीऐ उर धारि ॥ देही नगरि तसकर पंच धातू गुर सबदी हरि काढे मारि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मधू सूदनु = (मधू दैत्य को मारने वाला) परमात्मा। उर = हृदय। धारि = टिका के, बसा के। देही = शरीर। नगरि = नगर में। तसकर = (बहुवचन) और। धातू = धावन वाले, भटकना में डालने वाले। सबदी = शब्द से। काढे मारि = मार के निकाल दिए।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! (दैत्यों का विनाश करने वाले) परमात्मा का नाम हृदय में बसा के जपना चाहिए। (जो मनुष्य नाम जपता है) वह गुरु के शब्द की इनायत से (अपने) शरीर नगर में (बस रहे) भटकना में डालने वाले (कामादिक) पाँचों चोरों को मार के बाहर निकाल देता है।1। रहाउ।

जिन का हरि सेती मनु मानिआ तिन कारज हरि आपि सवारि ॥ तिन चूकी मुहताजी लोकन की हरि अंगीकारु कीआ करतारि ॥२॥

पद्अर्थ: सेती = साथ। मानिआ = मान गया। कारज = (बहुवचन) सारे काम। सवारि = सवारे, सवारता है। चूकी = समाप्त हो गई। मुहताजी = गरज़। अंगीकारु = सहायता। करतारि = कर्तार ने।2।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों का मन परमात्मा (की याद) में जुड़ जाता है उनके सारे काम परमात्मा आप सँवारता है। कर्तार ने सदा उनकी सहायता की होती है (इसलिए) उनके अंदर से लोगों की अधीनता समाप्त हो चुकी होती है।2।

मता मसूरति तां किछु कीजै जे किछु होवै हरि बाहरि ॥ जो किछु करे सोई भल होसी हरि धिआवहु अनदिनु नामु मुरारि ॥३॥

पद्अर्थ: मता = अपने मन की सलाह। मसूरति = मश्वरा। कीजै = किया जा सकता है। हरि बाहिर = परमात्मा से बाहर का। भल = भला। होसी = होगा। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त।3।

अर्थ: हे भाई! अपने मन की सलाह अपने मन का मश्वरा तब ही कोई किया जा सकता है अगर परमात्मा से बाहर कोई भी काम हो सकता हो। हे भाई! जो कुछ परमात्मा करता है वह हमारे भले के वास्ते ही होता है। (इस वास्ते, हे भाई!) हर वक्त परमात्मा का नाम स्मरण करते रहा करो।3।

हरि जो किछु करे सु आपे आपे ओहु पूछि न किसै करे बीचारि ॥ नानक सो प्रभु सदा धिआईऐ जिनि मेलिआ सतिगुरु किरपा धारि ॥४॥१॥५॥

पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। पूछि = पूछ के। बीचारि = विचार कर के। जिनि = जिस (प्रभु) ने। धारि = धार के।4।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा जो कुछ करता है स्वयं ही करता है खुद ही करता है, वह किसी से पूछ के नहीं करता, किसी के साथ विचार करके नहीं करता। हे नानक! उस परमात्मा का नाम सदा स्मरणा चाहिए जिस ने मेहर कर के (हमें) गुरु से मिलाया है।4।1।5।

भैरउ महला ४ ॥ ते साधू हरि मेलहु सुआमी जिन जपिआ गति होइ हमारी ॥ तिन का दरसु देखि मनु बिगसै खिनु खिनु तिन कउ हउ बलिहारी ॥१॥

पद्अर्थ: ते = वह (बहुवचन)। हरि = हे हरि! सुआमी = हे स्वामी! जिन जपिआ = जिस को याद करने से। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। तिन = उन्हें। देखि = देख के। बिगसै = खिल उठता है। तिन कउ = (बहुवचन) उन पर। हउ = मैं। बलिहारी = कुर्बान।1।

नोट: ‘जिन’ है ‘जिनि’ का बहुवचन।

नोट: ‘तिन’ है तिनि का बहुवचन (‘तिनि’ है एकवचन)।

अर्थ: हे हरि! हे स्वामी! मुझे उन गुरमुखों से मिलाप करा दे, जिनको याद करने से मेरी ऊँची आत्मिक अवस्था बन जाए, उनका दर्शन करके मेरा मन खिला रहे। हे हरि! मैं एक-एक छिन उनसे सदके जाता हूँ।1।

हरि हिरदै जपि नामु मुरारी ॥ क्रिपा क्रिपा करि जगत पित सुआमी हम दासनि दास कीजै पनिहारी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: हिरदै = हृदय में। जपि = मैं जपूँ। मुरारी नामु = (मुर+अरि। अरि = वैरी) परमात्मा का नाम। जगत पित = हे जगत के पिता! सुआमी = हे स्वामी! दासनि दास कीजै = दासों का दास बना ले। पनिहारी = पानी ढोने वाला सेवक।1। रहाउ।

अर्थ: हे हरि! हे जगत के पिता! हे स्वामी! (मेरे पर मेहर कर) मैं (सदा) तेरा नाम जपता रहूँ। (मेरे पर) मेहर कर, मेहर कर, मुझे अपने दासों का दास बना ले, मुझे अपने दासों का पानी ढोने वाला सेवक बना ले।1। रहाउ।

तिन मति ऊतम तिन पति ऊतम जिन हिरदै वसिआ बनवारी ॥ तिन की सेवा लाइ हरि सुआमी तिन सिमरत गति होइ हमारी ॥२॥

पद्अर्थ: पति = इज्जत। जिन हिरदै = जिस के हृदय में। बनवारी = (सारी बनस्पति है माला जिसकी) परमात्मा। हरि सुआमी = हे हरि! हे स्वामी! लाइ = जोड़े रख। तिन सिमरत = उनको याद करने से।2।

अर्थ: हे भाई! जिस (गुरमुखों) के दिल में परमात्मा का नाम (सदा) बसता है, उनकी मति श्रेष्ठ होती है, उनको (लोक-परलोक में) उत्तम आदर मिलता है। हे हरि! हे स्वामी! मुझे उन (गुरमुखों की) सेवा में लगाए रख, उनको याद करने से मुझे उच्च आत्मिक अवस्था मिल सकती है।2।

जिन ऐसा सतिगुरु साधु न पाइआ ते हरि दरगह काढे मारी ॥ ते नर निंदक सोभ न पावहि तिन नक काटे सिरजनहारी ॥३॥

पद्अर्थ: जिन = जिस (मनुष्यों) ने। ते = वह लोग। काढे मारी = मार के निकाले जाते हैं। सोभ = शोभा। सिरजनहारी = विधाता ने।3।

अर्थ: हे भाई! (जिस गुरु की शरण पड़ने से ऊँची आत्मिक अवस्था मिल जाती है) जिस मनुष्यों को ऐसा साधु गुरु नहीं मिला, वह मनुष्य परमात्मा की हजूरी में से धक्के मार के बाहर निकाल दिए जाते हैं। वह निंदक मनुष्य (कहीं भी) शोभा नहीं पाते। विधाता ने (स्वयं) उनका नाक-कान काट दिया हुआ है।3।

हरि आपि बुलावै आपे बोलै हरि आपि निरंजनु निरंकारु निराहारी ॥ हरि जिसु तू मेलहि सो तुधु मिलसी जन नानक किआ एहि जंत विचारी ॥४॥२॥६॥

पद्अर्थ: निरंजनु = निर+अंजनु, माया के मोह की कालिख से रहित (अंजन = कालख)। निरंकारु = आकार रहित; जिसका कोई खास स्वरूप बताया नहीं जा सकता। निराहारी = निर+आहारी (आहर = खुराक) जिसको किसी खुराक की आवश्यक्ता नहीं पड़ती। हरि = हे हरि! तुधु = तुझे। एहि = यह, वे। विचारी = बेचारे, निमाणे।4।

नोट: ‘इहि’ है ‘इह/यह’ का बहुवचन।

अर्थ: (पर जीवों के भी क्या वश?) जो परमात्मा माया के प्रभाव से परे रहता है, जिस परमात्मा का कोई खास स्वरूप नहीं बताया जा सकता, जिस परमात्मा को (जीवों की तरह) किसी खुराक की आवश्यक्ता नहीं, वह परमात्मा स्वयं ही (सब जीवों को) बोलने की प्रेरणा देता है, वह परमात्मा स्वयं ही (सब जीवों में बैठा) बोलता है।

हे नानक! (कह:) हे हरि! जिस मनुष्य को तू (अपने साथ) मिलाता है, वही तुझे मिल सकता है। इन निमाणे जीवों के वश में कुछ नहीं है।4।2।6।

भैरउ महला ४ ॥ सतसंगति साई हरि तेरी जितु हरि कीरति हरि सुनणे ॥ जिन हरि नामु सुणिआ मनु भीना तिन हम स्रेवह नित चरणे ॥१॥

पद्अर्थ: साई = वही (स्त्रीलिंग)। जितु = जिस में। कीरति = महिमा। सुनणे = सुनी जाए। भीना = भीग गया। तिन चरणे = उनके चरण। हम स्रेवह = हम सेवहि, हम सेवा करें।1।

अर्थ: हे हरि! (वही एकत्रता) तेरी साधु-संगत (कहलवा सकती) है, जिसमें, हे हरि! तेरी महिमा (तेरी स्तुति) सुनी जाती है। हे भाई! (साधु-संगत में रह के) जिस मनुष्यों ने परमात्मा का नाम सुना है (साधु-संगत में टिक के) जिनका मन (हरि-नाम-अमृत में) भीग गया है, मैं उनके चरणों की सेवा करनी (अपना) सौभाग्य समझता हूँ।1।

जगजीवनु हरि धिआइ तरणे ॥ अनेक असंख नाम हरि तेरे न जाही जिहवा इतु गनणे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जग जीवनु = जगत का आसरा प्रभु। धिआइ = स्मरण करके। तरणे = (संसार समुंदर से) पार लांघते हैं। असंख = अनगिनत (संख्या = गिनती)। हरि = हे हरि! जिहवा = जीभ। इतु = इससे। जिहवा इतु = इस जीभ से।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! जगत के जीवन प्रभु को हरि को स्मरण करके संसार-समुंदर से पार लांघा जाता है। हे हरि! (तेरी स्तुति से बने हुए) तेरे नाम अनेक हैं अनगिनत हैं, इस जीभ से गिने नहीं जा सकते।1। रहाउ।

गुरसिख हरि बोलहु हरि गावहु ले गुरमति हरि जपणे ॥ जो उपदेसु सुणे गुर केरा सो जनु पावै हरि सुख घणे ॥२॥

पद्अर्थ: गुरसिख = हे गुरु के सिखो! ले = ले कर। केरा = का। घणो = बहुत।2।

अर्थ: हे गुरु के सिखो! गुरु की शिक्षा ले के परमात्मा का नाम उचारा करो, परमात्मा की महिमा गाया करो, हरि का नाम जपा करो। हे गुरसिखो! जो मनुष्य गुरु का उपदेश (श्रद्धा से) सुनता है, वही हरि के दर से बहुत सुख प्राप्त करता है।2।

धंनु सु वंसु धंनु सु पिता धंनु सु माता जिनि जन जणे ॥ जिन सासि गिरासि धिआइआ मेरा हरि हरि से साची दरगह हरि जन बणे ॥३॥

पद्अर्थ: धंनु = शोभा वाला। वंसु = कुल, खानदान। जिनि = जिस ने। जन = भक्त। जणे = पैदा हुए, जनम दिया। जिन = जिन्होंने। सासि = (हरेक) सांस के साथ। गिरासि = (हरेक) ग्रास के साथ। से = वह (बहुवचन)। साची = सदा कायम रहने वाली। बणे = शोभा वाले हुए।3।

नोट: ‘जिन’ है ‘जिनि’ का बहुवचन।

अर्थ: हे भाई! भाग्यशाली है वह कुल, धन्य है वह पिता धन्य है वह माँ जिसने भक्त-जनों को जन्म दिया। हे भाई! जिस मनुष्यों ने अपने हरेक सांस के साथ हरेक ग्रास के साथ परमात्मा का नाम स्मरण किया है, वह सदा कायम रहने वाले परमात्मा की दरगाह में शोभा वाले बन जाते हैं।3।

हरि हरि अगम नाम हरि तेरे विचि भगता हरि धरणे ॥ नानक जनि पाइआ मति गुरमति जपि हरि हरि पारि पवणे ॥४॥३॥७॥

पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। धरणे = रखे हुए हैं। जनि = जन ने, (जिस) सेवक ने। पारि पवणे = पार लांघ जाते हैं।4।

अर्थ: हे हरि! (तेरे बेअंत गुणों के कारण) तेरे बेअंत ही नाम हैं, तूने अपने वह नाम अपने भगतों के हृदय में टिकाए हुए हैं। हे नानक! जिस-जिस सेवक ने गुरु की मति पर चल के परमात्मा का नाम प्राप्त किया है, वह सदा नाम जप के संसार-समुंदर से पार लांघ जाते हैं।4।3।7।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh