श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1137 खटु सासत्र मूरखै सुनाइआ ॥ जैसे दह दिस पवनु झुलाइआ ॥३॥ पद्अर्थ: खटु = छह। मूरखै = मूर्ख को। दह दिस = दसों तरफ। दिस = दिशा। पवनु = हवा।3। अर्थ: हे भाई! अगर किसी अनपढ़ मूर्ख को छह शास्त्र सुनाए जाएं (वह अनपढ़ बेचारा क्या समझे उन शास्त्रों को? उसके जानिब तो यूं है) जैसे उसके (चारों तरफ) दसों दिशाओं में (सिर्फ) हवा ही चल रही है (यही हाल है साकत का)।3। बिनु कण खलहानु जैसे गाहन पाइआ ॥ तिउ साकत ते को न बरासाइआ ॥४॥ पद्अर्थ: कण = अन्न के दाने। खलहानु = खलिहान, अन्न गाहने की जगह। गाहन पाइआ = गाहा जाए। ते = से। को = कोई भी मनुष्य। बरासाइआ = लाभ उठा सकता।4। अर्थ: हे भाई! जैसे अन्न के दानों के बिना कोई खलिहान गाहा जाए (तो उसमें से दानों का बोहल नहीं बनेगा), वैसे ही परमात्मा के चरणों से टूटे हुए मनुष्य से कोई मनुष्य आत्मिक जीवन की खुराक प्राप्त नहीं कर सकता।4। तित ही लागा जितु को लाइआ ॥ कहु नानक प्रभि बणत बणाइआ ॥५॥५॥ पद्अर्थ: तित ही = उस (काम) में ही। जितु = जिस (काम) में। को = कोई मनुष्य। नानक = हे नानक! प्रभि = प्रभु ने। बणत = मर्यादा।5। नोट: ‘तित ही’ में से क्रिया विशेषण ‘ही’ के कारण शब्द ‘तितु’ की ‘ु’ की मात्रा हट गई है। अर्थ: पर, हे भाई! (साकत के भी क्या वश?) हर कोई उस (काम) में ही लगता है जिसमें (परमात्मा द्वारा) वह लगाया जाता है। हे नानक! कह: (कोई साकत है और कोई संत है; यह) खेल प्रभु ने स्वयं ही बनाई हुई है।5।5। भैरउ महला ५ ॥ जीउ प्राण जिनि रचिओ सरीर ॥ जिनहि उपाए तिस कउ पीर ॥१॥ पद्अर्थ: जीउ = जिंद। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। रचिओ = बनाया है। जिनहि = जिन्होंने ही। पीर = पीड़ा, दर्द, स्नेह।1। नोट: ‘जिनहि’ में से ‘जिनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है। नोट: ‘तिस कउ’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कउ’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे भाई! जिस (परमात्मा) ने जिंद-प्राण (दे के जीवों के) शरीर रचे हैं, हे भाई! जिस परमात्मा ने जीव पैदा किए हैं, उसको ही (जीवों का) दर्द है।1। गुरु गोबिंदु जीअ कै काम ॥ हलति पलति जा की सद छाम ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जीअ कै काम = जिंद के काम, जिंद के वास्ते लाभदायक। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक में। जा की = जिस (परमात्मा) की। सद = सदा। छाम = छाया, शाम, आसरा।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! जिस (गुरु) का जिस (गोबिंद) का इस लोक में और परलोक में सदा (मनुष्य को) आसरा है, वह गुरु (ही) वह गोबिंद (ही) जिंद की सहायता करने वाला है।1। रहाउ। प्रभु आराधन निरमल रीति ॥ साधसंगि बिनसी बिपरीति ॥२॥ पद्अर्थ: रीति = जीव मर्यादा, जीवन जुगति। निरमल = पवित्र। संगि = संगति में। बिनसी = नाश हो जाती है। बिपरीति = (स्मरण से) उलटी जीवन जुगति।2। अर्थ: हे भाई! उस परमात्मा का स्मरणा ही पवित्र जीवन-जुगति है (ये जीवन-जुगति साधु-संगत में प्राप्त होती है)। हे भाई! साधु-संगत में रहके (स्मरण से) उल्टी जीवन-जुगति नाश हो जाती है (भाव, स्मरण ना करने की बुरी वादी खत्म हो जाती है)।2। मीत हीत धनु नह पारणा ॥ धंनि धंनि मेरे नाराइणा ॥३॥ पद्अर्थ: हीत = हितु, स्नेही। पारणा = परना, आसरा। धंनि = सलाहने योग्य। नाराइणा = हें नारायण! हे परमात्मा!।3। अर्थ: हे भाई! मित्र, हितैषी, धन- यह (मनुष्य की जिंद का) सहारा नहीं हैं। हे मेरे परमात्मा! (तू ही हम जीवों का आसरा है) तू ही सलाहनेयोग्य है, तू ही सराहनीय है।3। नानकु बोलै अम्रित बाणी ॥ एक बिना दूजा नही जाणी ॥४॥६॥ पद्अर्थ: नानकु बोलै = नानक बोलता है। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाली। जाणी = जाणि।4। अर्थ: हे भाई! नानक आत्मिक जीवन देने वाला (यह) वचन कहता है कि एक परमात्मा के बिना किसी और को (जिंदगी का सहारा) ना समझना।4।6। भैरउ महला ५ ॥ आगै दयु पाछै नाराइण ॥ मधि भागि हरि प्रेम रसाइण ॥१॥ पद्अर्थ: आगै = आगे आने वाले समय में। पाछै = पीछे बीत चुके समय में। दयु = (दय्, to love, feel pity) तरस करने वाला प्रभु। मधि भागि = बीच के हिस्से में, अब ही। रसाइण = सारे रसों का घर, सारे सुख देने वाला।1। अर्थ: हे भाई! आगे आने वाले समय में परमात्मा ही (हम जीवों पर) तरस करने वाला है, बीत चुके समय में भी परमात्मा ही (हमारा रखवाला था)। अब भी सारे सुखों का दाता प्रभु ही (हमारे साथ) प्यार करने वाला है।1। प्रभू हमारै सासत्र सउण ॥ सूख सहज आनंद ग्रिह भउण ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: हमारै = हमारे लिए। सउण = शगन, अच्छा महूरत। सासत्र सउण = शगन बताने वाला शास्त्र। भउण = भवन, घर।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! प्रभु का नाम ही हमारे लिए अच्छा महूरत बताने वाला शास्त्र है (जिसके हृदय में प्रभु का नाम बसता है, उस) हृदय-घर में सदा आत्मिक अडोलता के सुख हैं आनंद हैं।1। रहाउ। रसना नामु करन सुणि जीवे ॥ प्रभु सिमरि सिमरि अमर थिरु थीवे ॥२॥ पद्अर्थ: रसना = जीभ (से)। करन = कानों से। सुणि = सुन के। जीवे = आत्मिक जीवन हासिल कर गए। सिमरि सिमरि = सदा स्मरण करके। अमर = अ+मर, आत्मिक मौत से बचे हुए। थिरु = (विकारों से) अडोल चिक्त। थीवे = हो गए।2। अर्थ: हे भाई! जीभ से नाम (जप के), कानों से (नाम) सुन के (अनेक ही जीव) आत्मिक जीवन प्राप्त कर गए। परमात्मा का नाम सदा स्मरण करके (अनेक जीव) आत्मिक मौत से बच गए, (विकारों के मुकाबले पर) अडोल-चिक्त बने रहे।2। जनम जनम के दूख निवारे ॥ अनहद सबद वजे दरबारे ॥३॥ पद्अर्थ: निवारे = दूर कर लिए। अनहद = (अनाहत् = अन+आहत) बिना बजाए, एक रस। सबद = (पाँचों किस्मों के साजों के) आवाज़। दरबारे = दरबार में, हृदय में।3। अर्थ: हे भाई! (जिन्होंने परमात्मा के नाम को जीवन का आसरा बनाया, उन्होंने अपने) अनेक ही जन्मों के दुख-पाप दूर कर लिए, उनके हृदय-दरबार में यूँ एक-रस आनंद बन गया जैसे पाँचों ही किस्मों के साज़ बजने से संगीतक रस बनता है।3। करि किरपा प्रभि लीए मिलाए ॥ नानक प्रभ सरणागति आए ॥४॥७॥ पद्अर्थ: करि = कर के। प्रभि = प्रभु ने। नानक = हे नानक!।4। अर्थ: हे नानक! (जो मनुष्य शगन आदि के भ्रम छोड़ के सीधे) परमात्मा की शरण आ पड़े, परमात्मा ने कृपा करके उनको अपने चरणों में जोड़ लिया।4।7। भैरउ महला ५ ॥ कोटि मनोरथ आवहि हाथ ॥ जम मारग कै संगी पांथ ॥१॥ पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। मनोरथ = मन के रथ, मन की माँगें। आवहि हाथ = हाथों में आ जाते हैं, मिल जाते हैं। पांथ = पंध में साथ देने वाला (पंथ = रास्ता, पंध = यात्रा)। संगी = साथी। जम मारग कै = मौत के रास्ते पर, मरने के बाद।1। अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य नाम जपता है उसके) मन की करोड़ों माँगें पूरी हो जाती हैं। मरने के बाद भी यह नाम ही उसका साथी बनता है सहायक बनता है।1। गंगा जलु गुर गोबिंद नाम ॥ जो सिमरै तिस की गति होवै पीवत बहुड़ि न जोनि भ्रमाम ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: गोबिंद नाम = परमात्मा का नाम। जो = जो मनुष्य। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था, मुक्ति। बहुड़ि = फिर। भ्रमाम = भटकना।1। रहाउ। नोट: ‘तिस की’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे भाई! गुरु गोबिंद का नाम (ही असल) गंगा-जल है। जो मनुष्य (गोबिंद का नाम) स्मरण करता है, उसकी उच्च आत्मिक अवस्था बन जाती है, जो (इस नाम गंगा-जल को) पीता है दोबारा जूनियों में नहीं भटकता।1। रहाउ। पूजा जाप ताप इसनान ॥ सिमरत नाम भए निहकाम ॥२॥ पद्अर्थ: निहकाम = वासना रहित।2। अर्थ: हे भाई! हरि-नाम ही (देव-) पूजा है, नाम ही जप-तप है, नाम ही तीर्थ-स्नान है। नाम स्मरण करने से (स्मरण करने वाले) दुनियावी वासनाओं से रहत हो जाते हैं।2। राज माल सादन दरबार ॥ सिमरत नाम पूरन आचार ॥३॥ पद्अर्थ: सादन = (सदन) घर। पूरन आचार = स्वच्छ आचरण।3। अर्थ: हे भाई! राज, माल, महल-माढ़ियां, दरबार लगाने (जो सुख इनमें हैं, नाम-स्मरण वालों को वह सुख नाम-स्मरण से प्राप्त होते हैं)। हे भाई! हरि-नाम स्मरण करते हुए मनुष्य का आचरण स्वच्छ बन जाता है।3। नानक दास इहु कीआ बीचारु ॥ बिनु हरि नाम मिथिआ सभ छारु ॥४॥८॥ पद्अर्थ: दास = दासों ने। मिथिआ = नाशवान। छारु = राख (के तूल्य)।4। अर्थ: हे नानक! प्रभु के सेवकों ने यह निष्चय किया होता है कि परमात्मा के नाम के बिना और सारी (माया) नाशवान है राख (के तुल्य) है।4।8। भैरउ महला ५ ॥ लेपु न लागो तिल का मूलि ॥ दुसटु ब्राहमणु मूआ होइ कै सूल ॥१॥ पद्अर्थ: लेपु = बुरा असर। तिल का = तिल जितना भी, रक्ती भर भी। न मूलि = बिल्कुल नहीं। दुसटु = पापी, बुरा चंदरा।1। अर्थ: हे भाई! (परमात्मा की मेहर से अपने सेवक पर हुई है, बालक (गुरु) हरि गोबिंद पर दुष्ट की बुरी करतूत का) बिल्कुल भी बुरा असर नहीं हो सका (पर गुरु के प्रताप से वह) दुष्ट ब्राहमण (पेट में) शूल उठने के कारण मर गया है।1। हरि जन राखे पारब्रहमि आपि ॥ पापी मूआ गुर परतापि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: हरि जन = परमात्मा के भक्त, परमात्मा के सेवक। पारब्रहमि = परमात्मा ने। गुर परतापि = गुरु के प्रताप से।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने अपने सेवकों की रक्षा (सदा ही) स्वयं की है। (देखो, विश्वासघाती ब्राहमण) दुष्ट गुरु के प्रताप से (स्वयं ही) मर गया है।1। रहाउ। अपणा खसमु जनि आपि धिआइआ ॥ इआणा पापी ओहु आपि पचाइआ ॥२॥ पद्अर्थ: जनि = जन ने, सेवक ने। इआणा = मूर्ख। पचाइआ = जलाया, नाश किया।2। अर्थ: हे भाई! (परमात्मा ने अपने सेवकों की स्वयं रक्षा की है, क्योंकि) सेवक ने अपने मालिक-प्रभु को सदा अपने हृदय में बसाया है। वह बेसमझ दुष्ट (इस ईश्वरीय भेद को समझ ना सका, और परमात्मा ने) स्वयं ही उसको मार डाला।2। प्रभ मात पिता अपणे दास का रखवाला ॥ निंदक का माथा ईहां ऊहा काला ॥३॥ पद्अर्थ: ईहां ऊहा = इस लोक में और परलोक में। माथा काला = मुँह काला।3। अर्थ: हे भाई! माता-पिता (की तरह) प्रभु अपने सेवक का सदा स्वयं ही रखवाला बनता है (तभी प्रभु के सेवक के) दुखदाई का मुँह लोक-परलोक दोनों जहानों में काला होता है।3। जन नानक की परमेसरि सुणी अरदासि ॥ मलेछु पापी पचिआ भइआ निरासु ॥४॥९॥ पद्अर्थ: परमेसरि = परमेश्वर ने। मलेछु = बुरी नीयत वाला। पचिआ = मारा। निरासु = जिसकी आशा पूरी नहीं हो सकी।4। अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) अपने सेवक की परमेश्वर ने (अरदास) सुनी है (देखो, परमेश्वर के सेवक पर वार करने वाला) दुष्ट पापी (खुद ही) मर गया, और बेमुराद ही रहा।4।9। भैरउ महला ५ ॥ खूबु खूबु खूबु खूबु खूबु तेरो नामु ॥ झूठु झूठु झूठु झूठु दुनी गुमानु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: खूबु = सुंदर, अच्छा, मीठा। झूठु = जल्दी खत्म हो जाना। दुनी = दुनिया का। गुमानु = माण, घमण्ड।1। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु! तेरा नाम सोहाना है, तेरा नाम मीठा है, तेरा नाम अच्छा है। (पर हे भाई!) दुनिया का मान झूठ है, जल्दी खत्म हो जाने वाला है, दुनिया के माण का क्या भरोसा?।1। रहाउ। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |