श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1140 जिसु ऊपरि नदरि करे करतारु ॥ तिसु जन के सभि काज सवारि ॥ तिस का राखा एको सोइ ॥ जन नानक अपड़ि न साकै कोइ ॥४॥४॥१७॥ पद्अर्थ: सभि = सारे। सवारि = सवारे, सवारता है।4। नोट: ‘तिस का’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे भाई! कर्तार जिस मनुष्य पर मिहर की निगाह करता है, उस सेवक के वह सारे काम सवारता है। उस मनुष्य का रखवाला वह परमात्मा स्वयं ही बना रहता है। हे दास नानक! (जगत का कोई जीव) उसकी बराबरी नहीं कर सकता।4।4।17। भैरउ महला ५ ॥ तउ कड़ीऐ जे होवै बाहरि ॥ तउ कड़ीऐ जे विसरै नरहरि ॥ तउ कड़ीऐ जे दूजा भाए ॥ किआ कड़ीऐ जां रहिआ समाए ॥१॥ पद्अर्थ: तउ = तब, तब ही। कड़ीऐ = कुढ़ना, खिझना, चिन्ता करनी है। विसरै = भूल जाता है। नरहरि = परमात्मा। भाए = अच्छा लगता है। किआ कड़ीऐ = चिन्ता फिक्र करने की आवश्यक्ता नहीं पड़ती। जां = जब।1। अर्थ: हे भाई! अगर (जीव को यह ख्याल बना रहे कि परमात्मा मुझसे अलग) कहीं दूर है, तब (हर बात पर) चिन्ता होती है। तब भी चिन्ता करते रहते हैं जब परमात्मा (हमारे मन से) भूल जाए। जब (परमात्मा के बिना) कोई और पदार्थ (परमात्मा से ज्यादा) प्यारा लगने लग जाता है, तब (भी बंदा) झुरता रहता है। पर जब (यह यकीन बना रहे कि परमात्मा) हरेक जगह व्यापक है, तब चिन्ता-फिक्र समाप्त हो जाता है।1। माइआ मोहि कड़े कड़ि पचिआ ॥ बिनु नावै भ्रमि भ्रमि भ्रमि खपिआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मोहि = मोह में (फस के)। कड़े कड़ि = खिझ खिझ के। पचिआ = जल मरता है। भ्रमि = भटक के। खपिआ = दुखी होता है।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! माया के मोह में फसा हुआ मनुष्य खिझ खिझ के आत्मिक मौत मरता रहता है। परमात्मा के नाम के बिना (माया की खातिर) भटक के भटक के भटक के दुखी होता रहता है।1। रहाउ। तउ कड़ीऐ जे दूजा करता ॥ तउ कड़ीऐ जे अनिआइ को मरता ॥ तउ कड़ीऐ जे किछु जाणै नाही ॥ किआ कड़ीऐ जां भरपूरि समाही ॥२॥ पद्अर्थ: अनिआइ = अन्याय, न्याय के विपरीत, परमात्मा के हुक्म में बाहर। को = कोई जीव। भरपूरि = हर जगह, नाको नाक। समाही = (हे प्रभु!) तू व्यापक है।2। अर्थ: हे प्रभु! अगर (ये ख्याल टिका रहे कि परमात्मा के बिना) कोई और कुछ कर सकने वाला है, तब चिन्ता-फिक्र में फसे रहते हैं। तब भी झुरते हैं जब ये ख्याल बना रहे कि कोई प्राणी परमात्मा के हुक्म से बाहर मर सकता है। अगर यह यकीन टिक जाए कि परमात्मा हमारी आवश्यक्ताएं जानता नहीं है, तब भी झुरते रहते हैं। पर, हे प्रभु! तू तो हर जगह मौजूद है, फिर हम चिन्ता-फिक्र क्यों करें?।2। तउ कड़ीऐ जे किछु होइ धिङाणै ॥ तउ कड़ीऐ जे भूलि रंञाणै ॥ गुरि कहिआ जो होइ सभु प्रभ ते ॥ तब काड़ा छोडि अचिंत हम सोते ॥३॥ पद्अर्थ: धिङाणै = बदो बदी, परमात्मा से बेबस। भूलि = भूल के, भुलेखे से। रंञाणै = रंज में रखता है, दुखी करता है। गुरि = गुरु ने। प्रभ ते = प्रभु से, प्रभु के हुक्म से। काड़ा = चिन्ता, खिझा। छोडि = छोड़ के। अचिंत = बेफिक्र। सोते = सोते हैं? रहते हैं।3। अर्थ: हे भाई! कुछ भी परमात्मा के हुक्म के बाहर नहीं होता, किसी को भी वह भुलेखे से दुखी नहीं करता, फिर चिन्ता-फिक्र क्यों किया जाऐ? हे भाई! गुरु ने यह बताया है कि जो कुछ होता है सब प्रभु के हुक्म से ही होता है। इस लिए हम तो चिन्ता-फिक्र छोड़ के (उसकी रज़ा में) बेफिक्र टिके हुए हैं।3। प्रभ तूहै ठाकुरु सभु को तेरा ॥ जिउ भावै तिउ करहि निबेरा ॥ दुतीआ नासति इकु रहिआ समाइ ॥ राखहु पैज नानक सरणाइ ॥४॥५॥१८॥ पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! ठाकुरु = मालिक। सभु को = हरेक जीव। करहि = तू करता है। निबेरा = फैसला। दुतीआ = दूसरा, तेरे बिना कोई और। नासति = न अस्ति, नहीं है। पैज = सत्कार, इज्जत।4। अर्थ: हे प्रभु! तू सब जीवों का मालिक है, हरेक जीव तेरा (पैदा किया हुआ) है। जैसे तेरी रज़ा होती है, तू (जीवों की किस्मत का) फैसला करता है। हे प्रभु! तेरे बिना (तेरे बराबर का) और कोई नहीं है, तू ही हर जगह व्यापक है। हे नानक! (प्रभु के ही दर पर अरदास किया कर कि, हे प्रभु!) मैं तेरी शरण आया हूँ, मेरी इज्जत रख।4।5।18। भैरउ महला ५ ॥ बिनु बाजे कैसो निरतिकारी ॥ बिनु कंठै कैसे गावनहारी ॥ जील बिना कैसे बजै रबाब ॥ नाम बिना बिरथे सभि काज ॥१॥ पद्अर्थ: कैसे = कैसा? फबता नहीं। निरतकारी = नाच। कंठ = गला। जील = तंदी। सभि = सारे।1। अर्थ: हे भाई! (नृत्य के साथ) साज़ों के बिना नृत्य नहीं फबता। गले के बिना कोई गवईया गा नहीं सकता। तंदी के बिना रबाब नहीं बज सकती। (इसी तरह) परमात्मा का नाम स्मरण के बिना (दुनिया वाले और) सारे काम व्यर्थ चले जाते हैं।1। नाम बिना कहहु को तरिआ ॥ बिनु सतिगुर कैसे पारि परिआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: कहहु = बताओ। को = कौन? कैसे = कैसे?।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! बताओ, परमात्मा का नाम स्मरण के बिना कौन संसार समुंदर से पार लांघ सकता है? गुरु की शरण पड़े बिना कैसे कोई पार लांघ सकता है?।1। रहाउ। बिनु जिहवा कहा को बकता ॥ बिनु स्रवना कहा को सुनता ॥ बिनु नेत्रा कहा को पेखै ॥ नाम बिना नरु कही न लेखै ॥२॥ पद्अर्थ: जिहवा = जीभ। कहा = कहाँ? को = कोई। बकता = बोलने योग्य। स्रवन = श्रवण, कान। पेखै = देख सकता है। कही न लेखै = किसी भी लेखे में नहीं, कहीं भी इज्जत नहीं पा सकता।2। अर्थ: हे भाई! जीभ के बिना कोई बोलने योग्य नहीं हो सकता, कान के बिना कोई सुन नहीं सकता। आँखों के बिना कोई देख नहीं सकता। (इसी तरह) परमात्मा के नाम स्मरण के बिना मनुष्य की कोई बात नहीं पूछता।2। बिनु बिदिआ कहा कोई पंडित ॥ बिनु अमरै कैसे राज मंडित ॥ बिनु बूझे कहा मनु ठहराना ॥ नाम बिना सभु जगु बउराना ॥३॥ पद्अर्थ: अमर = हुक्म। राज मंडित = राज की सजावट। ठहराना = टिक सकता है। बउराना = झल्ला।3। अर्थ: हे भाई! विद्या प्राप्ति के बगैर कोई पंडित नहीं बन सकता। (राजाओं के) हुक्म के बिना राज की सजावटें किसी काम की नहीं। (आत्मिक जीवन की) सूझ के बिना मनुष्य का मन कहीं टिक नहीं सकता। हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना सारा जगत पागल हुआ फिरता है।3। बिनु बैराग कहा बैरागी ॥ बिनु हउ तिआगि कहा कोऊ तिआगी ॥ बिनु बसि पंच कहा मन चूरे ॥ नाम बिना सद सद ही झूरे ॥४॥ पद्अर्थ: बैरागु = उपरामता, निर्मोहता। हउ = अहंकार। बसि = वश में। पंच = कामादिक पाँचों। चूरे = मारा जा सके। सद = सदा।4। अर्थ: हे भाई! अगर वैरागी के अंदर माया के प्रति निर्मोह नहीं, तो वह वैरागी कैसा? अहंकार को त्यागे बिना कोई त्याग नहीं कहलवा सकता। कामादिक पाँचों को वश में किए बिना मन मारा नहीं जा सकता। हे भाई! परमात्मा का नाम स्मरण के बिना मनुष्य सदा ही सदा ही चिन्ता-फिक्र में पड़ा रहता है।4। बिनु गुर दीखिआ कैसे गिआनु ॥ बिनु पेखे कहु कैसो धिआनु ॥ बिनु भै कथनी सरब बिकार ॥ कहु नानक दर का बीचार ॥५॥६॥१९॥ पद्अर्थ: दीखिआ = उपदेश। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। बिनु पेखै = देखे बिना। कहु = बताओ। कैसो = कैसा? बिन भै = डर अदब के बिना। कथनी सरब = सारी कहनी। विकार = विकारों का मूल। नानक = हे नानक!।5। अर्थ: हे भाई! गुरु के उपदेश के बिना आत्मिक जीवन की सूझ नहीं पड़ सकती। हे भाई! वह समाधि कैसी, अगर अपने ईष्ट के दर्शन नहीं होते? हे भाई! परमात्मा का डर-अदब हृदय में बसाए बिना मनुष्य का सारा चोंच-ज्ञान विकारों का मूल है। हे नानक! कह: हे भाई! परमात्मा के दर पर पहुँचाने वाली यही विचार है।5।6।19। भैरउ महला ५ ॥ हउमै रोगु मानुख कउ दीना ॥ काम रोगि मैगलु बसि लीना ॥ द्रिसटि रोगि पचि मुए पतंगा ॥ नाद रोगि खपि गए कुरंगा ॥१॥ पद्अर्थ: कउ = को। रोगि = रोग ने। मैगलु = हाथी। बसि = वश में। रोगि = रोग में। पचि मुए = जल मरे। द्रिसटि रोगि = देखने के रोग में। नाद = (घंडे हेड़े की) आवाज़ (हिरनों को पकड़ने के लिए मढ़े हुए घड़े की) आवाज। कुरंगा = हिरन।1। अर्थ: हे भाई! (परमात्मा ने) मनुष्य को अहंकार का रोग दे रखा है, काम-वासना के रोग ने हाथी को अपने वश में किया हुआ है। (दीए की ज्योति को) देखने के रोग के कारण पतंगे (दीए की ज्योति पर) जल मरते हैं। (घंडे हेड़े की) आवाज़ (सुनने) के रोग के कारण हिरन दुखी होते हैं।1। जो जो दीसै सो सो रोगी ॥ रोग रहित मेरा सतिगुरु जोगी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जोगी = (प्रभु में) जुड़ा हुआ।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! जो जो जीव (जगत में) दिखाई दे रहा है, हरेक किसी ना किसी रोग में फंसा हुआ है। (असल) जोगी मेरा सतिगुरु (सब) रोगों से रहित है।1। रहाउ। जिहवा रोगि मीनु ग्रसिआनो ॥ बासन रोगि भवरु बिनसानो ॥ हेत रोग का सगल संसारा ॥ त्रिबिधि रोग महि बधे बिकारा ॥२॥ पद्अर्थ: मीनु = मीन, मछली (पुलिंग)। ग्रसिआनो = पकड़ा हुआ। बासन = वासना, सुगंधि। हेत = मोह। त्रिबिधि रोग महि = त्रिगुणी माया के मोह में। बधे = बंधे हुए। बिकारा = विकार, एैब।2। अर्थ: हे भाई! जीभ के रोग के कारण मछली पकड़ी जाती है, सुगंधि के रोग के कारण (फूल की सुगंधि लेने के रस के कारण) भँवरा (फूल की पंखुड़ियों में बंद हो के) नाश हो जाता है। हे भाई! सारा जगत मोह के रोग का शिकार हुआ पड़ा है, त्रैगुणी माया के मोह के रोग में बँधे हुए जीव अनेक विकार करते हैं।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |